रविवार, 16 अक्तूबर 2011

तुम चले जाओगे तो सोचेंगे....


उस आवाज में मैं था, तुम थे, हमारी खामोशी थी, हमारी बेचैनी थी, हमारे फासले थे, हमारी नजदीकियां थी। उन सुरों को छूकर न जाने कितनी बार हमने चांद छुए थे। दर्द के सुरों से हमने न जाने कितनी खामोश रातें काटी थी।
उस आवाज से हमने अपनी मोहब्बत के कितने ताजमहल बनाए और बिगाड़े थे। तुम्हारी आवाज से हम जीते रहे जग जीता रहा। तुम नहीं हो इसका यकीन अभी भी नहीं है। क्योंकि तुम अब भी गुनगुना रहे हो हमारे भीतर कहीं
वो आवाज फुरसत सी थी। ठंडी हवा के एहसास सी थी । गालिब के खजाने को हमारे जज्बातों में बिखेरा था उस आवाज ने कई कई बार। मजाज थी, तो कभी जिगर के अल्फाजों का हुस्न थी वो आवाज। फाजली के दोहे तो कभी नवाज की नजर थी वो आवाज। गुलजार थी हमारी अपनी कैफियत सी थी वो आवाज।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

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