रविवार, 21 फ़रवरी 2010

वो गुमनाम खत पार्ट २

साइकिलों का भी क्लास बंटने लगा। हीरो रेंजर साइकिलों का नया संस्करण था। पुराने मॉडल की साइकिलें छात्र के गंवारुपन की पहचान बनने लगीं। इसी बीच हीरो पुक ने आकर साइकिलों को दहला दिया। लड़के एक लीटर में ७० किलोमीटर का सफर मोपेट से तय करने लगे। लड़के लड़कियों के बीच हीरो पुक का नया मॉडल नए जमाने का नया फैशन हो गया। कपड़े भी बदले बैगी स्वेटर बैगी पैंट और ढीले ढाले कपड़े फैशन में आ गए। लड़कों की जेब में कंघियां रहने लगीं। फैशन का बुखार हमें भी चढ़ा। साइकिलें निक्सन मार्केट (अब वहां पार्क है) जाने की जिद करने लगीं। हम बदले लेकिन कॉलेज और हमारी पढ़ाई का मिजाज़ नहीं बदला। फिजिक्स और कैमेट्री की मोटी किताबें अब हमें पहले से ज्यादा परेशान करने लगीं। बायो की किताब में बने मेढ़क और खरगोश के फोटो खौफनाक लगने लगे। हम पढ़ तो रहे थे लेकिन क्या और क्यों हम खुद नहीं जानते थे। कंपटीशन नाम का वायरस कई छात्रों में घुस चुका था। लेकिन हम इस वायरस से बेखबर थे। पहली बार पीएमटी नाम सुना। पूरा नाम सुनने और याद करने में वक्त लग गया। लेकिन इन सबके बीच हमारी साइकिलों की पिक्चर हॉल जाने की हसरत बनी रही। बसंत, मेफेयर, साहू, लीला, गुलाब ये सब उन सिनेमाघरों के नाम थे जहां हमारी साइकिलें जाने को मचलती थीं। बसंत, मेफेयर, साहू, लीला ये सारे हॉल हजरतगंज में पड़ते थे। हॉल में घुसते वक्त किसी के देख लिए जाने का डर भी होता था। लेकिन इस डर के सामने फिल्म देखने का रोमांच भारी पड़ता। अक्सर हॉल में किसी परिचित से मुलाकात होती तो आंखों ही आंखों में एक दूसरे की चुगली ना करने का आश्वासन हम ले लिया करते थे। शाहरुख का ग्राफ चढ़ रहा था, मिथुन अपनी उम्र से जूझ रहे थे, अक्की खन्ना खतरों से खेल रहे थे, और रवीना टंडन, करिश्मा कपूर, आयशा जुल्का, जूही चावला जैसी एक्ट्रस अपने करियर की चढ़ान पर थीं। आमिर फिल्म में अपना अपना अंदाज दिखा रहे थे। बांबे आकर जा चुकी थी। हम आपके है कौन के साथ साथ दिल वाले दुल्हनियां ले जा रहे थे, पर्दे पर टाइटेनिक डूबकर पैसे कमा रही थी, दलाल और रावणराज जैसी घटिया फिल्में भी भीड़ बटोर लेती थीं। हमारी साइकिलों को भी अच्छी बुरी फिल्मों की पहचान थी।