रविवार, 5 अगस्त 2007

तन्हाई

एक सर्द रात में
यादों के दुशाले को ओढ़ के
खामोश से तन्हा चांद को देखने निकला
फिज़ा की खुन्की चांद की तन्हाई को और
बढ़ा चुकी थी
सर्द हवाओं से खिलाफत करने मैं भी
अपनी तन्हाई का साथी तलाशने निकला
हर सिम्त एक खामोशी
जो मुझे लौट जाने को कहने लगी और बावस्ता किसी ने मेरा हाथ थाम लिया
और इशारा करने लगा फलक के सिम्त देखने को
जो नज़र गयी
तो दिल और बेचैन हो गया
दुनिया की रातों का साथी चांद
भी तो तन्हा था मेरी तरह
बेशक हम दोनो की वज़ह जुदा थी
मगर हासिल एक ही था
और हम दोनो के हाथों को थामे हुई थी
तन्हा रात
( जावेद अज़ीज, छह जनवरी २००७)