रविवार, 7 अक्तूबर 2007

एक नॉन सेन्स कविता

बहादुर,
बचपन से रहा
लेकिन घर की चौखट के भीतर..
बातों ही बातों में
क्रांति का बिगुल
कई बार फूंका..
लेकिन बिगुल की आवाज़
दोस्तों के कानों में चुटकुले बन कर
कहीं खो गई..
समाज बदलने भी कई बार निकला
लेकिन खुद के घर का
समाजशास्त्र बिगड़ गया
पत्रकार बना
तो एक दिन आर्थिक तंगी के चलते
खुद खबर बन गया..
राजनीति में करियर बनाने की सोची
तो मेरा शून्य क्रिमिनल रिकार्ड
आड़े आ गया
फिलहाल
भगवा ड्रेस में
अधर्म में धर्म की तलाश का दौर जारी है
बहादुर
बचपन से रहा
बस उसके एक सफल प्रयोग की तैयारी है

3 टिप्‍पणियां:

Reetesh Gupta ने कहा…

बहुत सुंदर ...बधाई

अनुनाद सिंह ने कहा…

रचना अच्छी लगी; साधुवाद!

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत बढ़िया. रचना कुछ भी हो nonsense तो हर्गिज़ नहीं है. पढ़ कर अच्छा लगा. बधाई.

मीत