शुक्रवार, 6 मार्च 2009

मैने देखी है ज़िंदा लाश

कितना अजीब है,
नियति से हार जाना.
कितना अजीब है,
आदर्श को मुश्किल,
या नामुमकिन मान लेना.
मैं भी गुनहगारों की
कतार में हूं.
मुझे भी लगता है
कि बस वाले से बेकार है,
पहुंचने की जगह का
सही किराया पूछना.
मैं नहीं जानता
कौन है वो नेता
जो पिछली बार आया था,
वोट की भीख मांगने मेरे घर.
मैने जानने की कोशिश नहीं की
कि बलात्कार के कितने आरोप थे,
उसके ऊपर.
मैने कभी नहीं पूछा
की मेरे वोट से जीतने के बाद,
विकास के नाम पर
कितना कमीशन खाया उसने.
मैने कभी जानने की कोशिश नहीं कि
क्यों बढ़ रहा है,
अपराध का ग्राफ मेरे इलाके में.
बताते हैं कि चलने लगी हैं
तमाम लाशें सड़कों पर.
हर लाश खुद को
आम आदमी बताती है.
सवाल नहीं करती,
बस सहती जाती है...
.....................
सुबोध 06 मार्च

7 टिप्‍पणियां:

विवेक ने कहा…

खुद से सवाल पूछने को जो मजबूर कर दे, वही तो अच्छी कविता...बहुत अच्छे।

आशीष कुमार 'अंशु' ने कहा…

सुन्दर कविता ...

सुशील छौक्कर ने कहा…

अपने आप को खंगालती सुन्दर कविता।

प्रभात रंजन ने कहा…

जो है उससे बेहतर चाहिए...दुनिया को साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए...जो मैं हो नहीं पाता... ये अपने समय की मक्तिबोधी पीड़ा है जो..कुछ हद तक सुबोध में भी है...इस विडंबना को पाटने के प्रयास में और बेहतर कवि , और बेहतर इंसान होते जाना है...

कडुवासच ने कहा…

हर लाश खुद को
आम आदमी बताती है.
सवाल नहीं करती,
बस सहती जाती है...।
... प्रभावशाली अभिव्यक्ति!!!

बेनामी ने कहा…

sundar kavita.

satyendra ने कहा…

achhi kavita hai... andhere ujale ke jhurmut se jhakti sachai jaisi..