गुरुवार, 16 जुलाई 2009

पत्थर की माया


मायावती समय का पहिया घुमाना चाहती हैं। वो दलितों के अंदर वही दंभ देखना चाहती हैं जिससे कुछ जातियां लंबे समय से ग्रसित रही हैं। लेकिन ये उपचार नहीं बल्कि मर्ज को बनाए रखने का तरीका है। मायावती राजनीति में चली तो आईं, लेकिन राजनीति को उन्होने हमेशा शतरंज की तरह खेला, उनके लिए उन्हें छोड़कर सब मोहरें हैं, जब कोई मोहरा अपनी चाल चलने की कोशिश करता है तो मायावती उसका खेल से बाहर कर देती हैं। दरअसल राजनीति के अक्स में देखें तो मायावती की राजनीति में खोट ज्यादा है समझदारी कम । मायावती दलितों के उत्थान की बात करती हैं (चाहती हैं या नहीं ये वो जानें ) लेकिन जब राहुल गांधी किसी दलित के यहां रात बीताते हैं तो वो उसे नौटंकी बताती हैं, यही नहीं दलितों को इस बात से बरगलाना भी नहीं भूलतीं की राहुल दिल्ली लौटकर साबुन से अपने हाथ साफ करते हैं। अगर मायावती को लगता है कि सिर्फ वो ही दलितों और पिछड़ों की हिमायती हैं तो उन्होने कभी किसी दलित के यहां रुकने या उसके सुखदुख में शरीक होने की कोशिश क्यों नहीं की। मायावती जानती हैं कि उनकी राजनीति तभी तक है जब तक समाज में जाति की लकीर कायम है इसलिए मायावती जाति के भरते जख्मों को बार बार कुदेरती हैं, वो बार बार दलितों और पिछड़ों को समाज से मिलीं पुरानी तकलीफें याद कराती हैं। मायावती भले दूसरों पर जातिवादी होने का आरोप जड़ें लेकिन सच तो ये है कि वो खुद जाति का भेद खत्म करना नहीं चाहतीं। रीता जोशी बहुगुणा के भाषण पर उत्तेजित होना स्वाभाविक है, लेकिन इस सवाल से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि मायावती के राज में दलित महिलाओं पर लगातार अत्याचार बढ़े हैं। लेकिन मायावती की सोच से ऐसे असल मुद्दे सिरे से गायब हैं। फिलहाल वो अभी अपनी मूर्तियां लगाने में व्यस्त हैं। मायावती की आस्था भले पूजा पाठ में ना हो, लेकिन वो अब खुद की पूजा करवाना चाहती हैं, वो एक ऐसी देवी बनाना चाहती हैं जिसकी मूर्ति के अपमान पर समाज में आग लग जाए, वो खुद को आस्था की ऐसी मूरत के रुप में स्थापित करने की जल्दबाजी में है जिनके अपमान की हिमाकत करने वाला दलित विरोधी करार दे दिया जाए । मायावती भले अपने बुत पर इतराती फिरें लेकिन उन्हें ये मालूम होना चाहिए कि सद्दाम के बुत तक जमींदोज़ किए जा चुके हैं । मायावती को जैसा मौका मिला है, राजनीति ऐसे मौके बहुत कम लोगों को देती है खासकर समाज के उस पिछड़े को जिसे विरासत में तिरस्कार के सिवा कुछ ना मिला हो। मायावती अगर इतिहास बनाना चाहती हैं तो वो देश के पिछडे़ सूबे में हजारों स्कूल खुलवा सकती हैं, हाथी के बुत लगाने की जगह वन्य जीवों को बचाने की तमाम बंद होती परियोजनाओं को जिंदा कर सकती हैं। यूपी के तमाम बीमार जिला अस्पतालों को नई जिंदगी दे सकती हैं। अगर वो ऐसा कर पाईं तो यकीन मानिए आने वाला वक्त खुद उनकी मूर्तियां लगाएगा और अगर मायावती ने अभी भी अपना दंभ नहीं छोड़ा तो वही दलित एक दिन जगह जगह से उनके बुत उखाड़ने पर आमादा दिखाई देगा।

4 टिप्‍पणियां:

Javed Aziz ने कहा…

Subodh Bhai,
Aap ke shabdoo me koi gussa nahi, mayawati ke sach chupa hai.....

बेनामी ने कहा…

सुबोध जी
सच ही कहा आपने मायावती बस माया बरसाने का प्रलोभन भर ही देती रहती है.... आखिर करे भी क्या.. बूत बनवाने और पार्को के निर्माण से फुरसत मिले.. तो वो कुछ करे भी....अब करोड़ो आखिर खर्च कर रही है... तो उसका ब्योरा भी तो कुछ तैयार करना होगा कि नहीं....चलिए ये माया कि माया तो माया ही जाने....

javed ने कहा…

Subodh Bahi,
Aap ne aa'summanit rajneeti ko, sammanit bhasha me prastut kiya hai.
Asha kerte hai ki is lekh ko Mayawati ke virodh me nahi, unki nitiyu ke virodh me liya jayega.

Javed Aziz

Siddharth Rai ने कहा…

दरसल दलित समाज के उत्थान को लेकर अन्य समाज कभी स्पषट ही नहीं रहा , इसीलिये कभी मायावती के जातिवाद को सोशल इनजीनयरिग बताता रहा तो कभी अतिवाद को दलित उत्थान का तरीका, उनकी ये ही गलती मायावती को कुछ भी कहने करने और करवाने की ताकत दे गयी।