मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
शुक्रवार, 14 अगस्त 2009
क्या वाकई नेता लिखते हैं
जसवंत सिंह का पढ़ने लिखने से तारुफ्फ पुराना है। विद्वान हैं। लेकिन इन दिनों इतिहास लिखने का चस्का सवार हुआ है। इतिहास लिख नहीं गढ़ रहे हैं। अपने विचारों को इतिहास का चोला पहनाकर किताब ले आए हैं। ये नेता वेता किताब लिख कैसे लेते हैं, मेरे लिए पहेली की तरह है। पहले आडवाणी ने लिखी अब जसवंत जी किताब लेकर आ गए हैं। वैसे जसवंत जी को इतिहास का कितना इल्म है मुझे नहीं मालूम। हां कॉन्ट्रोवर्सी से उनकी मोहब्बत जगजाहिर हो रही है। वो नेहरु और जिन्ना को एक ही तराजू में तोलने में जुटे हैं। फिलहाल कॉन्ट्रोवर्सी का पूरा मसाला तैयार है, देखना होगा कि किताब कितना बिकती है। लेकिन सवाल अभी भी यही है कि इन नेताओं की किताबों को पढ़ना कौन चाहता है और ये किताबें क्या वाकई लोगों से संवाद बनाने को लिखी जाती हैं। लगता तो नहीं है। मुझे आडवाणी कि किताब में कोई दिलचस्पी नहीं है और ना ही जसवंत सिंह की किताब को पढ़ने की इच्छा है। वो क्या लिख सकते हैं क्या सोच सकते हैं और कितनी विद्वता झाड़ सकते हैं सब पता है। इतिहास लिखा नहीं जाता रचा जाता है। चाहें वो आडवाणी हों या फिर जसवंत सिंह इतिहास रचने का वक्त इन्होने खो दिया है। ऐसे में इतिहास में जाकर विवाद खड़े करने के अलावा इनके पास कोई रास्ता भी नहीं बचा है। इन नेताओं से विजन की उम्मीद है भी नहीं। जैसे जसवंत की आई वैसे कल मायावती की किताब भी आएगी। किताब वो लिखेंगी ये लिखवाएंगी ये पता नहीं लेकिन बड़े बड़े शब्दों में मायावती का नाम लिखा होगा। मायावती जाति के खांचों में बंटे समाज की कोई नहीं कहानी गढ़ेंगी। लेकिन इस बात का जवाब उनके पास भी नहीं होगा कि उनके राज में दलितों के हालात क्यों नहीं सुधरे। विडम्बना यही है जो नेता समझने के लायक नहीं है वो पढ़ने लायक कैसे होंगे। नेताओं के लिए बेहतर होगा कि वो कम से कम अपने नाम कि किताबें लिखना या लिखवाना बंद करें। मुद्दों को समझें गरीबी की वजहों को टटोलें। बेरोजगारी को दूर करने की कोशिश करें।
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