ओसामा बिन लादेन को सब जानते हैं तालिबान की सोच सबको पता है। लेकिन क्या मुसलमानों की पहचान लादेन और तालिबान पर आकर खत्म हो जाती है। क्यों नहीं लादेन के सामने मुसलमानों का कोई उदारवादी चेहरा उभर पाता है। क्यों तालिबान को हम ठेस मुसलमान की असल परिभाषा मान बैठते हैं। दरअसल माए नेम इज ख़ान इन सवालों के पार जाती है। फिल्म बताती है कि पूरी दुनिया अच्छे और बुरे इंसानों के खांचों में बंटी है और ये सबक फिल्म के साथ आखिरी तक जाता है। मज़हब और इंसानियत को जीते हुए फिल्म का नायक रिज़वान खान सबके दिलों को छू लेता है। ९/११ की पृष्ठभूमि में अब तक बनी शायद ये सबसे शानदार फिल्म है। फिल्म पर्दे से बाहर ऐसे तमाम सवाल छोड़ती है जिसके जवाब मुसलमानों को भी देने हैं। मसलन आज तक रिज़वान खान के किरदार सरीखे लाखों करोड़ों उदारवादी मुसलमान अपने मज़हब की पहचान क्यों नहीं बन पाए हैं। ज़ेहाद और इस्लाम के नाम पर हमेशा उन्मादी नामों का जिक्र बार बार क्यों होता है। क्यों लादेन और दूसरे कट्टरपंथी इस्लाम के पैरोकार की तरह स्थापित होते जा रहे हैं। मुसलमानों को समझना होगा कि मज़हब की रहनुमाई का ढिंढोरा पीटने वाले इन्हीं नामों की वजह से मुसलमानों की मुश्किलें बढ़ी हैं। तमाम मुल्कों में उन्हें शक की निगाह से देखा जा रहा है और उन पर तमाम तरह की पाबंदियां लगाई जा रही हैं। जरुरत लाखों करोड़ो उदारवादी मुसलमानों के सामने आने की है, जो मुसलमानों के बारे में गलतफहमी रखने वालों की आंखों में आंखे डालकर कह सकें कि आई एम मुस्लिम एंड आई एम नॉट टेररिस्ट। शायद आतंक का इससे ज्यादा मुंहतोड़ जवाब कुछ नहीं होगा। अगर ऐसा हुआ तो यकीन जानिए की नफरत की बुनियाद पर अपने दिन काट रही शिवसेना जैसी फिरकापरस्त सोच की ताबूत पर ये सबसे मजबूत कील होगी...
3 टिप्पणियां:
अच्छी सोच है.. आपने सही कहा कि अगर ऐसा हुआ तो वो वाकई हमारी सारी मुश्किलों पर विराम लगा देगा.. इतना तो है.. कि विराम लगे न लगे कुछ बददिमाग लोगो को तो समझ आ ही जाएगा कि मुसलमान हिन्दू कुछ नहीं होता है,,होता है तो अच्छा या बुरा और वो कोई भी किसी भी जाति का हो सकता है..मनदीप जी ने सही कहा कि सच कड़वा होता है..लेकिन सच वो जिसको आंच न हो ...हमे लगता है...कि उन्हें अभी थोड़ा और सोचने की जरूरत है...
V.good post,
सुबोध जी, अच्छा लिखा है, नहीं कह सकता... क्यंकि आप तो 'अक्सर' ही अच्छा लिखते हैं...लेकिन फिर वही, सारा लेख अच्छा लिखते लिखते आप अंत में भटक जाते हैं...अब आप ही बताइए अंत में शिवसेना का जिक्र करना क्यों जरुरी था...अब महेश भट्टीय सोच से बाहर निकलिए... और सेक्स से सेंसेक्स तक के जिक्र में, भारत की हिंदुवादी उदारवादी पार्टियों का नाम लेना बंद करिए...
क्योंकि आपको तो पता ही है...कि सरकार और सुरक्षा एजेंसियों का बस चले तो, भारत की हॉकी में हार को भी आईएसआई की साजिश बता देंगे...
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