शनिवार, 1 मई 2010

बस इतनी सी पहचान

ख्वाहिश नहीं कि इतिहास की तारीखो की तरह जबरन याद रखा जाऊं। न्यूटन के फार्मूले की तरह किसी पहचान से बंधने का इरादा भी नहीं है। पैसे को पहाड़े की तरह जोड़ने की ना अक्ल है और ना शौक। इतना बड़ा नहीं हुआ कि खुद की पहचान को शब्दों में बांट सकूं। फिलहाल अपने पेशे में खुद को तलाश रहा हूं। दिल का घर लखनऊ में है और खुद का पता अभी किराए पर है।

4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

चलिए, शुभकामनाएँ

बेनामी ने कहा…

kya kub pahchan hai hai apki...milne ka man kar gaya...bahut khub apna tarof karaya hai apne...dunia valo se..

दिलीप ने कहा…

bahut khoob...yahi haal yahan hai...dil lucknow me aur main kiraaye pe...

Javed Aziz ने कहा…

khub likha hi dost