उन जिंदगियों पर रिसर्च होनी चाहिए जिन्होने सिविल सर्विस को अपना मकसद बनाया और नाकाम रहे। शोध इस बात पर भी होनी चाहिए कि जिन्होने यूपीएससी में टॉप किया उन्होने देश को क्या कुछ नायाब दे दिया। एक बार फिर अखबार यूपीएससी में सफल छात्रों के इंटरव्यू से पटे पड़े हैं। इंटरव्यू में घिसे पिटे सवालों के घिसे पिटे जवाब हैं। वही ईमानदारी की कोरी बाते हैं, सिस्टम को दुरस्त कर देने का पुराना जुमला है। मुझे लगता है कि सिविल सर्विस के इक्जाम को सिस्टम की सबसे बड़ी विडम्बना घोषित कर देना चाहिए। क्योकि यही एक ऐसा इंतहान है जो ऐसे सरकारी मुलाजिम पैदा करता है जो अंग्रेजियत की ट्रेनिंग लेते हैं और तैनाती के बाद सिस्टम का कोढ़ बन जाते हैं। एक दो अपवादों को छो़ड़ दें तो मुझे कोई ऐसा नाम याद नहीं आता जिसे प्रशासनिक कुशलता के चलते भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग उठी हो। हां...जी. के. गोस्वामी जैसे तमाम भ्रष्ट नामों की भरमार आपको जरुर मिल जाएगी। सिस्टम की सड़न... सिविल सेवा के इंतहान में आपको पैटर्न से लेकर मकसद तक मिल जाएगी। साल में करीब एक हजार अफसर पैदा करने वाली ये व्यवस्था करीब तीन से चार लाख ऐसे हताश निराश लोग भी पैदा करती है जो या तो इंतहान में बुरी तरह नाकाम होते हैं या फिर कुछ नंबरों से चूक जाते हैं। इन टूटे सपनों का कितना बड़ा खामियाजा देश को उठाना पड़ता है इसका कोई रिकार्ड सरकारी दस्तावेजों में दर्ज नहीं है। अंग्रेजों की मानसिकता में जीने और भोग विलास में लिप्त रहने वाले अफसरों की फौज की बड़ी वजह उनकी घिसी पिटी ट्रेनिंग है। सिविल सेवा के इंतहान में झंडे गाड़ने वालों को घुड़सवारी से लेकर टेबल मैनर तो सिखा दिए जाते हैं लेकिन गांव से लेकर कस्बों के हालत कैसे सुधारे जाएं इस पर बात नहीं होती। क्यों ना सिविल सेवा के इंतहानों में देश की दिक्कतों को दूर करने के फार्मूलों पर बात हो। क्यों ना उनसे नरेगा जैसी तमाम सरकारी योजनाओं को हर आदमी तक पहुंचाने के तौर तरीकों पर सवाल किए जाएं। ट्रेनिंग में नए अफसरों को गांव देहात और दुर्मग जगहों पर भेजा जाए और कालाहांडी पर उनसे प्रोजेक्ट तैयार कराए जाएं। अगर ऐसा हुआ तो शायद देश में ऐसे तमाम अफसर होंगे तो अपने रुतबे के लिए नहीं बल्कि सिस्टम सुधारने के लिए याद किए जाएंगे...
4 टिप्पणियां:
क्यो भाई इतनी शिकायत इसी से क्यो है...आप ये क्यो भूल रहे है..कि इन्हें इतनी तो तैयारी करनी होती है..ना कि ये कुछ पड़ लिख कर मैनर सीख कर आएं सोचिए जरा उन भ्रष्ठ नेताओं को बारे में हमारे समाज के सबसे बड़े कोड़ बने हुए है..इनके आगे तो वो तभी बहुत अच्छे है...
चिंता वाकई बड़ी है, लेकिन जिस तरह से की जा रही है उस हिसाब से तो इंसान का जीना ही दुभर हो जाएगा। केवल यूपीएससी ही क्यों, देश की कोई एक परीक्षा बता दीजिए जिसमें लोग असफल नहीं होते। यह तो होता ही है कि सफल लोगों की तुलना में असफल ज्यादा होते हैं। जिंदगी के हर मुकाम में असफल लोगों की तादात सफल लोगों से बहुत ज्यादा है। अब आप ही बताइए कि सरकार किस किस का रिसर्च करे। खैर हम सभी आजाद हैं और हमारी जिस अभिव्यक्ति से किसी को कोई नुकसान न हो, इतना तो हक है ही हमें। शायद इसीलिए आपने सरकार को नसीहत दी है, लेकिन मैं कुछ सुझाव देने की हिमाकत कर रहा हूं...गौर फरमाइएगा.......... मेरा मानना है कि क्या हो रहा है इस पर मगजमारी करने से ज्यादा बेहतर है कि क्या बेहतर हो सकता है इस पर विचार किया जाए। देश में नरेगा (माफ कीजिएगा मनरेगा)का मकसद कुछ ही दिन सही पर रोजगार की गारंटी देना है। अगर ऐसा ही यूपीएससी समेत सभी परीक्षाओं में हो तो हालात कुछ सुधर सकते हैं...और हर किसी को उसकी काबिलियत के हिसाब से काम भी मिल सकता है। अब क्रिकेट को ही देखिए देश में स्कूल कॉलेज की टीम से लेकर स्टेट टीम तक लाखों लोग उस अंतिम ग्यारह में जगह बनाने की कोशिश करते हैं, जो देश के लिए खेलती है। अफसोस की कामयाब सिर्फ ग्यारह को ही मिलती है। लेकिन आईपीएल ने एक नई दिशा दी है और इंडियन टीम की ग्यारह में शामिल होने वाले अगर उसमें शामिल नहीं हो पाते, तो उनके पास शोहरत और पैसा कमाने के लिए आईपीएल का दरवाजा खुला है। अगर कुछ ऐसा ही यूपीएससी में भी हो तो असफल लोगों पर रिसर्च करने की ज्यादा जरूरत महसूस नहीं होगी। मेरे पास एक फार्मूला है...
1. यूपीएससी के लिए परीक्षा देने वाले लोगों में से कोई भी अगर लगातार दो प्री इक्जाम पास कर ले तो उसे अगली बार से सीधे लिखित परीक्षा देने की इजाजात हो।
2. जो भी परीक्षार्थी लगातार दो बार इंटरव्यू दे उसे अगली बार से लिखित परीक्षा देने की बजाय सीधे इंटरव्यू के लिए बुलाया जाए।
3. जो भी दो बार से अधिक इंटरव्यू देने का बाद अपने सभी मौके गवां दे, उसे सांत्वना नौकरी दे दी जाए। अगर उस लेबल की नौकरी देना मुश्किल हो तो उसके थोड़ी कमतर ही सही नौकरी तो दो ही देनी चाहिए।
क्योंकि एक दो नंबर से रुकने का मतलब सिर्फ इतना है कि हम उस साल परीक्षा देने वाले लोगों से थोड़ा पीछे हैं...लेकिन इसका ये भी मतलब है कि देश के कई लोगों खासकर यूपीएससी लेबल के नीचे की नौकरी कर रहे लोगों से बेहतर भी हैं।
मेरा मानना है कि ये तकनीक सिर्फ यूपीएससी के लिए ही नहीं बल्कि हर लेबल पर इस्तेमाल होनी चाहिए, और ऐसे लोगों को उनकी योग्यता से थोड़ी नीचे ही सही नौकरी दे देनी चाहिए। इससे परीक्षा में बैठे लोगों को तो तसल्ली मिलेगी ही, सरकार को भी परीक्षा में अनावश्यक बोझ से थोड़ी राहत मिलेगी।
अंत में कुछ बातें और...
1. देश के बहुत से प्रशासनिक अधिकारियों ने अपनी योग्यता से देश को गर्वान्वित किया है, मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर कैसे हैं इसका मुल्यांकन राजनीतिक होगा, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर बेहद सफल रहे हैं औऱ मिसाल कायम की है।
2.इंटरव्यू में सफल लोग घिसे पिटे जवाब सिर्फ इसलिए देते हैं क्योंकि सवाल ही घिसे पिटे पूछे जाते हैं।
3. घुड़सवारी और टेबल मैनर के साथ ही घास छीलना भी सिखाया जाता है।
4. कालाहांडी ही क्यों, अगर आप प्रोजेक्ट देखेंगे तो पता चलेगा, बुन्देलखंड से लेकर दंतेबाड़ा तक के प्रोजक्ट दिए जाते हैं। आप कभी आईपीएस की ट्रेनिंग देख लीजिएगा, रोंगटे खड़े हो जाएंगे।
उम्मीद है.............आपके साथ ही सरकार भी थोड़ा बेहतर सोचेगी।
सुधार नेताओं में होना है जो इन्हें अपना कार्य करने नहीं देते.
भारत की सारी परीक्षाओं में यह कुशलता पूर्वक जाँचा जाता है कि जिसे चुना जा रहा है वह अंग्रेज मानसिकता वाला है या नहीं। ।(अरे वो अंग्रेजी का टेस्ट !) फिर इनसे कुछ मौलिक काम कर गुजरने की आशा कैसे की जा सकती है? मैं आपसे सहमत हूँ कि यह सेवा ९५% नालायकों और किताब चाटने वालों से भरी पड़ी है जिन्होने जन्मते से ही किताब चाटना शुरू किया और पूरे जीवन में कोई रचनात्मक योगदान नहीं दिया। ये रट कर उगलने में माहिर तोते हैं। इनसे क्रान्ति की उम्मीद मत कीजिये।
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