सबा तुम तकलीफ में हो...
जिंदगी और मौत के सारे फर्क
मिट चुके हैं
तुम्हारे लिए.......
तुम्हारी जमीन पर
फूलों ने भी महकना
छोड़ दिया है....
अपने घर में
कैद कर दिए गए हैं
तुम्हारे लोग...
बचपन अपनी मासूमियत
भूल चुका है...
बच्चों ने एक अर्से से
शरारते नहीं की..
सभी की उम्र
मौत के अंदेशों से थम चुकीं है..
रोज अपनों को विदा करते करते
तुम्हारी आंखों ने रोना छोड़ दिया है
सबा...
तुम्हारी इस हालत के गुनहगार
हम सब हैं...
हमारी सरकारें गूंगी हो चुकी हैं
विकास की अधकचरी तस्वीर से
हमारी आंखे बंद की जा चुकी हैं...
हमारे भविष्य की
बाजार में बोली लगाकर..
हमें चुप रहने की
हिदायद दे गई है...
सबा हम गाजा नहीं जानते
नहीं जानते कि क्या हो रहा है वहां
हम सिर्फ हिलेरी और ओबामा की
खबरें पढ़ते हैं
सबा
हमारी समझ कुंद कर दी गई है..
इसीलिए तुम्हारी हालत के लिए
हम सब जिम्मेदार हैं...
( मोहल्ला का शुक्रिया..सबा का ब्लॉग पढ़ा...उसके बाद जो मन में आया लिखकर मन का बोझ हल्का करने की कोशिश की )
मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
रविवार, 9 मार्च 2008
ये म्याऊं नहीं करतीं
म्याऊं एफएम के बारे में रवीश के ब्लॉग पर पढ़ा था...दिल्ली में आने के बाद म्याऊं रेडियो से पाला भी पड़ा....बस में धक्के खाते...अचानक रेडियो म्याऊं ट्यून हो गया...महिलाएं म्याऊं म्याऊं करके बातिया रही थीं...हंसी हंसी के बीच महिलाओं का आत्मविश्नवास देखते ही बन रहा था...बोल्ड एंड इंटेलिजेन्ट....लगा की महिलाओं की यही बोल्डनेस रही तो एक दिन भौं भौं रेडियो पुरुषों का आत्मविश्वास पैदा करता सुनाई देगा...दरअसल ये महिलाओं की वो म्याऊं है...जो अमूमन दिल्ली के एअरकंडिशन घरों में बैठ कर दर्ज कराई जा रही है...ऐसी महिलाएं शायद अपने कारों के शीशों से बाहर देखना नहीं चाहतीं....दिल्ली जिन हाथों से खूबसूरत हो रही उनमें कई हाथ यूपी.. बिहार एमपी से आई महिला मजदूरों के हैं...ये महिलाएं रेडियो म्याऊं नहीं सुनती...वो केवल रेत में खेलते अपने बच्चों की तोतली जुबान को पहचानती हैं....ये महिलाएं फिट रहने या सुंदर दिखने के नुस्खे आपस में शेयर नहीं करतीं...इन्हें पुरुषों को सोफेस्टिकेटड तरीके से कोसना भी नहीं आता...ये गरियाती हैं...जमकर....आप इसे भले उनका गवांरुपन समझे...लेकिन ये उनका सहज गुस्सा है...अपने हक का गुस्सा...पुरुषों के साथ काम करके दो वक्त की रोटी खाने खिलाने के हेकड़ी का नतीजा...शायद तभी ये महिलाएं म्याऊं नहीं करती बल्कि दहाड़ती हैं...
बुधवार, 5 मार्च 2008
गिरेवान में झांकने का वक्त
अभी हाल में एक अखबार के सम्पादकीय पेज पर..इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में मशहूर पत्रकार नाइजल रीस के विचार छपे थे...नाइजल ने टीवी पत्रकारिता की धज्जियां उड़ाते हुए कहा था कि...दुनिया का सबसे आसान काम है टेलीविजन पत्रकार होना...उन्होने आगे कहा था कि...इस पत्रकारिता में आपको कुछ नहीं करना होता...सब पहले से तय होता है...आप बस खाली जगह भरते हो...अखबार ने नाइजल के हवाले से आगे लिखा था कि...टेलीविजन पत्रकार के पास बस चार सवाल होते हैं और वो उन्हें उसी क्रम में दोहराता है...मसलन घटना का विवरण क्या है...लोग क्या महसूस कर रहे हैं..अधिकारियों का क्या कहना है...और ये घटना इसी समय क्यों हुई...नाइजल ने ये बातें भले इलेकट्रानिक मीडिया के व्यवहारिक पक्ष को ध्यान में रख कर कही हों....लेकिन खबरिया चैनलों की कुछ इसी तरह की खिल्ली आपको चाय की दुकानों से लेकर पान की गुमटियों तक सुनने को मिल जाएगी...मैं खुद पिछले तीन साल से इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम कर रहा हूं..इस बीच मैने वो खुशी कभी महसूस नहीं की जिसकी उम्मीद लेकर इस क्षेत्र में मैं आया था...ज्यादात्तर न्यूज चैनल के दफ्तरों की कहानी एक सी है...अपनी गणित बैठाने और दूसरों को कोसने की बैद्धिकत्ता का नासूर...इलेक्ट्रानिक मीडिया को हर स्तर पर खोखला कर रहा है...जो बेहतर कर भी रहे हैं...उनके रोमांस के फर्जी किस्सों की ब्रेकिंग न्यूज उड़ाकर...उनकी छवि बिगाड़ने की कोशिश करने वाले पत्रकारों की तदात कम नहीं है....ऐसे में नाइजल बिल्कुल ठीक नज़र आते हैं...मैने तो अभी तक टीवी पत्रकारो को खबरों पर संजीदा होने से ज्यादा...( जिनसे मेरा पाला पड़ा है )..मंहगे मोबाइल पर भोकाल टाइट करने की लाचार कोशिश करते ही देखा है...डेस्क पर खुद पत्रकारों ( मैं कई लोगों के आगे पत्रकार लगाना नहीं चाहता लेकिन और कोई शब्द भी नहीं है मेरे पास उनके लिए ) में कम्यूनिकेशन गैप ने माहौल को बिगाड़ा है...अपनी नजरों में हर शख्स यहां सिकन्दर से कम नहीं...अजीब सी आत्ममुग्धता में जीने की...दिखावटी शैली ने...उनके अंदर के पत्रकार की संभावना का भी गला घोंट दिया है...अगर बाजारु भाषा में कहे तो पत्रकारिता एक प्रोफेशन बन चुकी है...कम से कम वो मिशन तो नहीं रही ...जहां आंखे खुली रखकर गलत और सही को पहचानने की सीख दी जाती थी...
सोमवार, 3 मार्च 2008
ये गालियां कुछ कहती हैं...
बात बात पर दूसरों की मां बहन को याद करना दिल्ली की खास खूबी है..इस नायाब खूबी से दिल्ली का तारुफ कब और कैसे हुआ...रिसर्च का बेहतरीन टॉपिक है....ऐसा नहीं की इस खासियत पर केवल दिल्ली का कॉपीराइट हो.....लखनऊ जैसे शहरों में भी बात बात पर मां बहन एक करने की अदा बड़ी नज़ाकत और नफासत के साथ...टेम्पों स्टैण्ड से लेकर रेलवे स्टेशन तक बिखरी मिल जाएगी.....ये गालियां कहां से आईं...और किसके आशीर्वाद से हवा में स्थाई हो गई ...उल्लेख किसी किताब में नहीं मिलता....मुगलकाल से लेकर आज तक गालियों के शिल्प में बदलावों पर चर्चा ना होना चौंकाता है...देश की राजधानी में गालियां जिंदगी का स्थाई भाव हैं..बसें इन्हीं उच्चारणों के साथ ज्यादा माइलेज दे रही हैं...और तो और यहां गालियां जीवित और बेजान भावनाओं से कहीं ऊपर उठी दिखती हैं....गालियों ने तो अब अपना चरित्र परलौकिक भी करना शुरु कर दिया है..ऐसे में गालियों की बुनावट और उसके शिल्प पर सेमिनारों में चर्चा करनी ही चाहिए....इन सेमिनारों के टॉपिक हो सकते हैं....आधुनिक युग में गालियों के बदलते आयाम...गालियां और उसके समाजिक सरोकार...आदि आदि....फिलहाल तो ये गालियां अपनी सामाजिक भूमिकाएं निभाने में बीज़ी हैं....इन्हीं गालियों ने बडी़ से बडी़ सिर फुट्टवल की घटनाओं को महज अपनी तीन चार शब्दों की बुनावट से रोका है...इन्हीं गालियों ने उम्र की सीमाएं तहस नहस कर नई दुनिया गड़ी है...जहां इनके हवा में तारी होते ही बुजुर्ग और छोरे का फर्क खत्म हो जाता है...तो इन गालियों पर चर्चा जारी रहेगी..यहां ले लेते हैं एक बडा़ सा ब्रेक...मुझे दीजिए इजाज़त नमस्कार...
रविवार, 30 दिसंबर 2007
पत्रकारिता
जो सोचता हूं,वो कर नहीं पा रहा
जो कर रहा हूं,उसे समझ नहीं पा रहा
जो समझ पा रहा हूं
वो कोई तसल्ली देने वाली चीज़ हर्गिज नहीं..
(पत्रकारिता के बारे में...दीपक)
जो कर रहा हूं,उसे समझ नहीं पा रहा
जो समझ पा रहा हूं
वो कोई तसल्ली देने वाली चीज़ हर्गिज नहीं..
(पत्रकारिता के बारे में...दीपक)
का होई इ साल नया

दरअसल पिछले कुछ सालों के...अनुभवों को शब्द दें...तो लगता यही है कि...बदलता कुछ नहीं है...बस हर घटना के साथ...हर वक्त नई नियति और नया भरोसा जुड़ता रहता है...और फिर से...हर समस्या...या हर खुशी...नयी सी लगने लगती है...बात अगर किसानों की करें तो...बुंदेलखण्ड की ज़मीनों जैसी ना जाने कितनी ज़मीनें...उनकी मौत की नियति से साल भर सींची जाती रहीं...वहीं आतंकवाद के खात्मे के जुमले के साथ लोग मरते रहे...और बार बार दहशतगर्दी को खत्म करने की बातें...नए तरीके से हवा में तारी होती रहीं...अब मन नहीं करता कि नए साल के आने का जश्न मनाया जाए...क्योंकि हर साल जाते जाते कुछ ग़म यूं ही छोड़ जाता है...राजनीति पहले से ज्यादा निराश करती है...और उसमें ऐसा कुछ नहीं बचा...जिससे उम्मीदें बांधी जा सके....न्यायपालिका की तेजी में...पुलिस को बेरहमी से पिटते कानपुर के वकील याद आते हैं....वहीं पुलिसिया लाठी निर्दोष की पीठ पर हर बार पहले ज्यादा गहरे ज़ख्म छोड़ती है...जबकि मनोरंजन के फूहड़पन में साल के हिट गानो के लिए एसएमएस मांगने वाले...मीडिया की आवाज अब चिल्लाहट के सिवा कुछ नही रह गई है...ऐसे में क्या उम्मीद की जाए और किस पर भरोसा किया जाए...हर साल उम्मीदों की खुशियां मनाते शुरु होता है...और बीतते बीतते हर तंत्र को और ज्यादा कमज़ोर करके चला जाता है...आखिर क्यों याद करें बीते दो हजार सात को...क्या इसलिए कि इस साल दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र में एक लेखिका को अपनी लिखी चंद लाईने उपन्यास से हटानीं पड़ीं...या फिर हज़ारों लोगों के खून से सने हाथ एक बार फिर मुख्यमंत्री की गद्दी तक पहुंच गए....या फिर इसलिए कि मज़दूरों और किसानों कि हिमायत करने वाले लाल झंडे का रंग...इस साल नंदीग्राम के खून से और ज्यादा सुर्ख हो गया....या इसलिए कि भूख से हुई मौतों पर चालाकी से पर्दा डालने में आलाधिकारियों ने इस साल कोई कसर नहीं छोड़ी...और शायद तभी चाय की दुकान पर बैठे उस बुजुर्ग किसान के अल्फाज़ याद आते हैं कि भईया का होई इ साल नया...हो सकता है कि ये उस किसान की निराशा हो ...लेकिन इस नाउम्मीदगी के बीच निकली तकलीफ...हम सबकी है...
मंगलवार, 25 दिसंबर 2007
सत्तर के दशक का कार्टून
बेलबॉटम, चौड़ी कॉलर वाली कमीज़ और सत्तर के दशक का चश्मा...ये सब पहने एक भाई साहब बस स्टैड पर चर्चा का विषय रोज बनते..यहां बस पकड़ने वालों को रोज सत्तर के दशक के इस कार्टून का इंतज़ार रहता..लोग खूब तफ्री लेते..तरह तरह से भाई साहब को छेड़ने की कोशिश होती..औरतें जब इस परिहास को देख कर मुस्कुरातीं तो मज़ाक बनाने वाले लोगों का साहस अचानक बड़ा हो जाता...हाथों में एक पुराना अख़बार लिए कुछ दिन पहले सुबह वो भाई साहब फिर दिखे..फुरसतिया लोगों ने अपना टाइम पास करने के लिए फिर से उन्हें छेड़ना शुरु कर दिया..हमेशा खामोश रह कर अपनी भावभंगिमा से गुस्से का इजहार करने वाले भाई साहब की आंखों में इस बार आंसू थे..रुमाल से आंसू पोछ अपनी रोज की बस पकड़ी और चलते बने...इसके बाद वो भाई साहब कई दिनों तक नज़र नहीं आए...अक्सर मजाक बनाने वालों के लिए उनका ना आना सुबह की रौनक गायब होने जैसा था....कुछ दिनों बाद पता चला कि भाई साहब किसी जमाने में सरकारी नौकरी में थे..पहनने खाने के शौकिन थे..एक हादसे में बेटी और पत्नी की मौत हो गई..सो मातम मनाने के बजाए अपने दुख को साझा करने की कोशिश में भाई साहब किसी ना किसी तरह लोगों को हंसाने की कोशिश करते...इसके लिए उन्हें कुछ भी करना पड़ता वो करते...और इसलिए वो अजीबो गरीब कपड़े पहनते..और जब लोग उन्हें देखकर हंसते तो उन्हे अच्छा लगता..लेकिन जब उन्हें पागल समझकर मजाक अपनी हदें पार करने लगा तो..उन्होने दुनिया से बहुत दूर जाने का फैसला कर डाला...पता चला कि उन्होने रविवार की रात फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है..
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