शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

तहलका पर वो दो कविताएं


कम से कम मुझे इतना तो यकीन है कि मैं कोई कवि नहीं हूं... और ना ही शब्दों की तुकबंदी करने की काबलियत ही है मुझमें... लेकिन पिछले तीन या चार महिने से तहलका की साइट पर दो कविताओं का एहसास अटका पडा है... कविताएं अब तक भले पुरानी सी हो गई हों...लेकिन कमेंट की ताजगी ने उन्हें बासी होने से बचाए रखा है...कविताओं पर काफी प्रतिक्रियाएं भी आ चुकी हैं...पढ़कर खुशी होती है...लिखे शब्द जब बोलते हैं तो अच्छा लगता है...पिछले दिनों पढ़ने लिखने का सिलसिला थोड़ा कम हुआ है (सच कहूं तो काफी कम हो गया है थोड़ा कम कह कर खुद को तसल्ली देने की बेवजह कोशिश करता रहता हूं)...कविताएं भावनाओं का बहाव होती हैं...उन्हें रोक पाना खुद के बस में भी नहीं होता..कविताओं में शब्द तर्कों से कहीं आगे जाकर खुद नए तर्क गढ़ देते हैं...फिलहाल जब कभी खुद को तसल्ली देने का मन करता है तो तहलका पर अटकी पड़ी कविता पढ़ लेता हूं...अच्छा लगता है लेकिन यकीन मानिए फिर भी खुद को कवि मानाने की गुस्ताखी नहीं करता...

सोमवार, 19 जनवरी 2009

मेरा कबूलनामा दिल से 8



खूबसूरत दुनिया के ख्याल
खूबसूरत ख्यालों से कहीं बेहतर होती हैं
खूबसूरत कोशिशें
मैं अक्सर खूबसूरत ख्यालों में जीता हूं
उसी के आंचल में सपने पालता हूं
भूल जाता हूं कि
खूबसूरत कोशिशों के बगैर
खूबसूरत ख्यालों का कोई मतलब नहीं
मुझे ये भी पता है कि
ख्यालों की वो खूबसूरत दुनिया
हर आंखों में बसती है
लेकिन उस तक पहुंचने का रास्ता
बहुत पथरीला है
शायद कहा भी इसीलिए गया है कि
सपने वो नहीं होते
जो बंद आंखों से देखे जाते हैं
सपने वो होते हैं
जो आपको सोने नहीं देते

( मेरी उम्र अभी तीस होने में काफी वक्त है...लेकिन जिन सपनों में मैं जीता हूं...वो थोड़े बड़े और थोड़े हट कर हैं..पैसे का लोभ अभी तक नहीं था...लेकिन अब थोड़ा थोड़ा होने लगा है...बाजार से चिढ़ थी...अब बाजार में ही रह रहा हूं..या कहूं रहने की आदत डाल रहा हूं...दो वक्त की रोटी के लिए जो नौकरी कर रहा हूं उसका कभी सपना देखा करता था...लेकिन अब ये सपना काफी डरावना हो गया है...मुझे लगता है कि सपनों और हकीकत के बीच फासला हमेशा से रहा है...जो इस फासले की खाई को पाट लेते हैं...उन्हें सपनों की दुनिया हासिल हो जाती है...और बाकी सपने पालने की गुस्ताखी करते रह जाते हैं...मैं भी दूसरी श्रेणी में आता हूं...सपने अभी भी जिंदा है इस बात का सूकून है...लेकिन इस बात का मलाल भी ज्यादा है कि कोशिशों को लेकर मैं कभी ईमानदार नहीं रहा..सच कहूं तो मैं व्यक्तिगत स्तर पर काफी लापरवाह पर्सनालिटी हूं...सुस्त कामचोर..काम को टालने वाला...लेकिन ये भी सच है...चमक्तार की उम्मीद नहीं करता...इसलिए ज्यादा मुगालते में नहीं जीता.. शायद इसलिए खुद को झकझोरने के लिए ये कविता लिख डाली...उम्मीद करता हूं कि जब अगली कविता लिखूं तो बातें खूबसूरत कोशिशों की हों...और जिक्र खूबसूरत कोशिशों के पथरीले रास्तों का हो.. ताकि मेरा सर कम से कम अपनी नजरों में ना झुके...)

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

मेरा कबूलनामा...दिल से ७


भगवान से दो बातें
मैं आपको तुम कह सकता हूं ना...लगता तो है कि तुम इसकी इजाजत दे देगो..क्योंकि दुनिया तुम्हें दयालु मानती है...बताते हैं कि तुम दुनिया के कष्ट हरते हो..उनका कल्याण करते हो...लोग तो ये भी बताते है कि तुम कभी कभी उनसे मिलने भी आते हो...कई बाबाओं पर तुम्हारी इतनी कृपा है कि वो तुम्हारे बारे में ऐसे बताते हैं कि लगता है कि उनका उठना बैठना तुम्हारे साथ होता है ...खैर मेरी तुमसे एक कम्प्लेन है...ओहो तुम्हें अंग्रेजी नहीं आती..ऐसा मैं नहीं कहता तुम्हारे वो भक्त बताते हैं जो अक्सर तुम्हारे जैसे किसी गॉड का गिरजाघर तोड़ते हैं ..वो तो ये भी दावा करते हैं कि तु्म्हे अरबी और उर्दू भी समझ में नहीं आती...बस तुम संस्कृत के कठिन श्लोक समझ पाते हो... वो बताते हैं कि तुम्हारा कुछ लोग अपमान करते हैं...उनसे बदला लेना है ...वो तो ये भी कहते हैं कि तुम्हारे कई मंदिर तोड़ डाले गए..पता नहीं तुम उस वक्त खामोश क्यों रह गए...अगर समय रहते तुमने कुछ चमत्कार दिखाया होता तो आज तुम्हारे ये भक्त मस्जिद औऱ चर्च को हाथ भी नहीं लगाते ...फिलहाल ये तो सोशल टाइप की बातें हो गईं....चलो कुछ कुछ पर्सनल हो जाए..पता है ये सारी बातें क्यों कर रहा हूं तुमसे...दरअसल पिछले कुछ दिनों से परेशान हूं...और तुम जानते हो जब परेशानी होती है तो तुम अक्सर याद आ ही जाते हो...यू नो सुख में तु्म्हे याद करने की फुसरत नहीं निकाल पाता...सॉरी..लेकिन आज नेट पर बैठा था तो सोचा तुमसे बात कर ली जाए..पूछना ये था कि...लेकिन प्रॉमिस करो कि बुरा नहीं मानोगे...मुझे पता है तुम किसी बात का बुरा नहीं मानते...मुझे भले इस बात पर शक हो लेकिन लोग ऐसा कहते हैं... तुम बड़े दयालु हो...मुझे पता नहीं क्यों डाउट होता है...फिर कह रहा हूं बुरा ना मानना...लेकिन ठंड में जब कुछ लोगों को सड़क पर ठिठुरते देखता हूं...और कुछ लोग पिज्जा चाटते नजर आते हैं तो पता नहीं क्यों लगता है कि तुम कुछ पर बेवजह मेहरबान हो...और कुछ बेकसूरों को बेवजह सता रहे हो...फिर समझ में आता है कि जो कर्म करता है तुम उसी की मदद करते हो...लेकिन फिर मुझे वो लोग भी दिखते हैं जो ईमानदारी और सच्चाई का बोझ उठाने के बाद भी परेशान हैं...सर पर गारा ढोते लोग भी तो शायद मेहनत करते हैं...वो तुम्हे पता नहीं क्यों नजर नहीं आते...मुझे बार बार गोर्की नाम का वो नास्तिक याद आता है जो अपनी नानी के भगवान से डरता था..पता है क्यों क्योंकि उसकी नानी तुमसे डरा करती थीं...अब ये तो तु्म्हारी सरासर ब्लैकमेलिंग हो गई ना.. वैसे तुमने भी खुद को गजब का सेफ कर रखा है...अगर कोई तकलीफ में होता है तो कहता है कि तुम उसकी परीक्षा ले रहे हो..और उसकी खुशी के लड़्डू भी मस्त हो कर खाते हो...क्या बात है.. बस यही सब बातें तुमसे करनी थीं..सोचा कि मंदिर में जाकर ये बातें कहूंगा...लेकिन वहां तुमने पुजारी को पहरेदारी पर बैठा रखा है...मस्जिद और गिरजाघर का हाल भी यही है...इसलिए नेट पर तुमसे बातें कर रहा हूं...खैर शिकायतें तो बहुत हैं लेकिन फिर कभी..अभी नोएडा सेक्टर १९ में एक साध्वी आईं हैं..वो तुम्हारे बारे में बड़ी तल्लीनता से बता रही हैं...तुम्हारी कोई राजदार लगती हैं...नाम तो पता होगा साध्वी रितम्बरा..

सोमवार, 12 जनवरी 2009

मेरा कबूलनामा...दिल से ५


पिछले कबूलनामे में थोड़ा जज्बाती हो गया...कबूलनामे की चौथी कड़ी में जो लिखा उसका ये मतलब कतई नहीं था कि मैं निराश हूं...लेकिन जब आप व्यक्तिगत होते हैं...तो थोड़ा भावुक हो जाना लाजमी है...मैं जानता हूं कि निराशा आपको आधा मार देती है...और मुश्किलों से जूझते हुए आप काफी कुछ सीखते हैं...मैं थोड़ा भावुक हूं..लोगों की तकलीफें मुझे परेशान करती हैं...उनका दर्द मुझे झकझोर देता है...लोगों की मदद करना चाहता हूं....और शायद यही भ्रम पाल कर ही पत्रकारिता में आया...सोचा कि लोगों के सवाल उठाउंगा...भ्रष्ट अधिकारियों को कटघरे में खड़ा करूंगा... लेकिन अफसोस है कि जिस मीडिया में काम कर रहा हूं...वहां खबर का काला कारोबार चल रहा है...हम खबर को प्रोडक्ट बनाने पर तूले हैं...खबर की आत्मा रोज गिरवी रखी जा रही है...ये सारी बातें कचोटती हैं...लेकिन रोटी के दो निवाले के मोह में नौकरी भी नहीं छोड़ सकता...फिलहाल अपने आसपास कुछ मौलिक नहीं है...कट कॉपी पेस्ट की परम्परा इस वक्त चैनलों में खूब फल फूल रही है...मुझे पता है कि सफर लंबा है...मेरे भी कुछ सपने देखे हैं...फिलहाल तो सपनों को पालना सीख रहा हूं...सच कहूं तो मैं निराश नहीं हूं...हताश भी नहीं हूं...और परेशान भी नहीं हूं...लेकिन जब राह के कांटे चुभते हैं तो टीस तो होती है...

मेरा कबूलनामा दिल से 4

ये ऐसा जाल है जहां बुरी तरह फंस चुका हूं...लगता है कि नियति खुशियों पर कुण्डली लगा कर बैठी है...एक कदम आगे बढ़ता हूं तो चार कदम पीछे खींच दिया जाता हूं...कुछ सोचना चाहता हूं लेकिन सोचने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं...अपनों के सामने किसी गुनहगार की तरह नजरें चुराने का मन करता है...अपने आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए पेपर के कुछ कोटेशन नोट करता हूं...लेकिन वो भी दिमाग के कोने में ज्यादा देर टिककर नहीं बैठते...घर से मिलने का जी करता है...लेकिन एक घटिया सी नौकरी ( अब मानने लगा हूं क्योंकि दिल्ली में जो काम कर रहा हूं उसने कभी सूकून नहीं दिया) पांव रोक लेती है... हर महीने देर सबेर आशंकाओं के साथ आ जाने वाली सैलरी का कोई सदुपयोग हो सका हो याद नहीं आता... जिस कलम को ताकत समझ कर पत्रकारिता करने उतरा...उसकी स्याही अब सूखने लगी है... लोगों की तकलीफों को समझने की कोशिश अब ऑफिस में होने वाले उठापटक समझने में जाया कर रहा हूं...पढ़ाई में जैसा था उससे तो अंदाजा भी नहीं था की नौकरी कभी मिलेगी भी...लेकिन पहले फीचर एजेन्सी और फिर अखबार में जो कलम घिसी उससे दो पैसे का आदमी बन गया... एक कहानी की छपास ने मीडिया का कोर्स करने के दौरान ही फीचर एजेन्सी के दफ्तर पहुंचा दिया...यही मेरी पत्रकारिता की शुरुआत थी...लेकिन तीन साल बीत जाने के बाद इस वक्त खुद पत्रकारिता के आगे सवाल बनकर खड़ा हूं... खुद को पत्रकार कहने में झिझक महसूस होती है... कहने और सुनने के लिए अब ना तो कुछ मौलिक बचा है...और ना ही वो जज्बा बाकी है कि कुछ नया गढ़ सकूं...जिंदगी कविता की उन अधूरी लाइनों की तरह रह गई है...जहां ठहराव ना होते हुए भी सबकुछ ठहर सा गया है...

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

मेरा कबूलनामा ३...दिल से


बाबा और दादी
तारीख २५ दिसम्बर थी..साल १९९२ था..बाबा के गुजरने की खबर आई..मुझे याद है हम क्रिकेट खेल रहे थे (थोड़ा थोड़ा याद है) हमें किसी ने आकर बताया कि फैजाबाद चलना है...कहा तो ये गया कि बाबा की तबीयत काफी खराब है...लेकिन मुझे उसी वक्त कुछ खटका लग गया...बाबा ने हम भाईयों से कभी प्यार से दो लफ्ज नहीं बोले...लेकिन वो एक अच्छे इंसान थे...पूजा पाठ करते थे...ईमानदार थे...और सबसे बड़ी बात थी उनकी गांव नें सभी लोग इज्जत करते थे...इतने सालों बाद भी उनका चेहरा मेरे जेहन में है...लेकिन उनसे कभी उतनी आत्मीयता नहीं हो पाई...जितनी मेरी दादी से थी...दादी का नाम मनराजी देवी था...बहुत पूछने पर बहुत शरमा कर वो अपना नाम बताती थी...वो बिल्कुल पढ़ी लिखी नहीं थी...उन्हे ना तो घड़ी देखना आता था...और ना ही दुनियादारी से ही कोई मतलब था...उनके होने या ना होने का कोई फर्क कम से कम घर के लोगों के बीच कभी नहीं दिखा...लेकिन मैने उनकी आंखों में ममता देखी...बड़े पापा या चाचा के आने पर वो दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती थी...लेकिन उनकी इस ममता को कभी पुचकार नसीब नहीं हुई...बाबा और दादी के बीच कभी बात हुई हो याद नहीं आता...शायद उनको लेकर यही उपेक्षा मुझे दादी के करीब लाती थी...वो मेरी दादी थी...जिनकी गोद में सर रख देता था तो बड़ी देर तक सर सहलाती थी.. उनकी बातें समझ में नहीं आती थी फिर भी सुनता था...उनको ए बी सी डी सिखाता था...वो हंसती थी..टूटी फूटी जुबान में बतती थी कि उन्होने अंग्रेजों को देखा था....लेकिन इससे ज्यादा उन्हें कुछ नहीं पता था...शायद घर की चारदीवारी ने उन्हे उतनी सहूलियत नही दी कि वो कुछ जान पाती...घर पर लोग कहते थे कि उनमें समझ कम है...लेकिन वो मेरी दादी थी..उनके बारे में आज सोचता हूं तो आंखे भर आती हैं...आज भी अफसोस होता है कि उनके आखिरी वक्त मैं उनके साथ नहीं था...लेकिन ये जरुर कबूल करता हूं कि उन्हें दुनिया से और न्याय मिलना चाहिए था...दरअसल ये बातें मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि आपकी जिंदगी बहुत सारी चींजों से बनती है...आपकी जिंदगी के एक एक पात्र का आप पर असर होता है...बाबा और दादी मेरी जिंदगी का ऐसा ही हिस्सा हैं...लोग बचपन में मेरी दयालुता देखकर जब मुझे अपने बाबा की तरह बताते थे तो मुझे अच्छा लगता था...और जब दादी से मेरे लगाव की बात कोई करता था...तो भी मुझे अच्छा लगता था...साफ था कि कहीं ना कहीं मेरे बाबा और दादी का हिस्सा मेरे अंदर गहरे तक था...

मेरा कबूलनामा...दिल से 2

साम्प्रदायिकता और मै
जिंदगी की कहानी कहना काफी मुश्किल है.. .कभी कभी चीजें काफी उलझी सी दिखती है...कभी लगता है जिंदगी किसी खुली किताब की तरह है...इस बार उसी जिंदगी के पन्नों को पलटने की कोशिश कर रहा हूं...शायद किसी पन्ने से अपने लिए कुछ तलाश सकूं...याद करता हूं तो बचपन में ऐसा कुछ याद नहीं आता जो रोमांच से भर दे.. हां जमकर क्रिकेट जरुर खेली...हालांकि ना तो बैटिंग ही अच्छी थी और ना ही बॉलिंग...बॉलिग का एक्शन तो देखकर लोग मुझ पर हंसते भी थे...लेकिन जब तक क्रिकेट खेलने की उम्र थी खेली..अघोषित तौर पर कैप्टन भी रहा....लेकिन कब खेल जिंदगी में पीछे छूट गया...पता नहीं चला...दूसरा जो काम मुझे याद आता है वो है अखबार चाटना...उम्र कोई बहुत ज्यादा नहीं होगी...छठी क्लास से अखबार पढ़ने का चस्का लग गया था...हां बस पन्ने बदलते रहे...पहले खेल पेज फिर मनोरंजन की खबरें और फिर शहर को जानने के लिए पेज नंबर ३...
बात १९९० की है... इस दौरान अयोध्या में भी काफी कुछ चल रहा था...कारसेवक अयोध्या पहुंच रहे थे...कहा जा रहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़ कर वहां भव्य राममंदिर बनना चाहिए...जय श्री राम का नारा हर जुबान पर था...हर दीवारें नारों से पटी थीं...मुझे वो नारे अभी भी याद हैं काफी दिनों तक पुरानी दीवारों पर वो नारे टिके भी रहे... बच्चा बच्चा राम का जन्मभूमि के काम का...रामलला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे...हजारों की संख्या में कारसेवकों का अयोध्या पहुंचने का सिलसिला चल रहा था...अयोध्या छावनी में तब्दील कर दी गई थी....अयोध्या में पसरे खौफ का असर लखनऊ तक दिखा करता था.. अगर मैं गलत नहीं हूं तो उस वक्त अशोक प्रियदर्शनी लखनऊ के डीएम हुआ करते थे...हमारे स्कूल कालेज लगातार बंद चल रहे थे...सरकार मुलायम सिंह यादव की थी...वही मुलायम जिनका पहली बार नाम सुनकर हमें बड़ी हंसी आई थी.. तब शायद समाजवादी जनता पार्टी की सरकार थी...फिलहाल ३१ अकटूबर को अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाई गई...सैकड़ों कारसेवक मारे गए...एक नवम्बर के अखबार कारसेवको के खून से रंगे थे...सभी की हेडलाइन एक से बढ़कर एक थी...एक अखबार ने हेडिंग लगाई थी कि कारसेवको के खून से लाल हुई सरयू...अब पता नहीं की कोई नदी कितने लोगों के मारे जाने से लाल हो सकती है....लेकिन ये तो तय था कि अयोध्या में जो कुछ हुआ है उससे लोग आहत हैं....खासकर हिन्दू....लेकिन इसी गोलीकांड ने मुलायम सिंह यादव को मुसलमानों के बीच हीरो बना दिया था...मुसलमानों को लगा कि इस देश में कोई तो ऐसा नेता है जो मस्जिद बचाने के लिए अपना सबकुछ झोंक सकता है...खुद मुलायम ये ऐलान कर चुके थे कि मस्जिद के पास कोई परिन्दा भी पर नहीं मार सकता है...ऐसा हुआ भी....कारसेवक मस्जिद तक नहीं पहुंच पाए...लेकिन इस पूरी घटना ने देश को साम्प्रदायिक खांचे में बांट दिया...आज उस माहौल को याद करता हूं तो लगता है कि वो समय अगर मुलायम को राजनीतिक पहचान दिलाने के लिहाज से अहम था...तो बीजेपी को भी एक मॉस सपोर्ट उसी वक्त मिला...और देश खतरनाक तौर पर साम्प्रदायिक खांचे मे बंट गया...मैं भी बंटा...कुछ कुछ बीजेपी की तर्ज पर... मैं भी उस भीड़ में शुमार था जो मुसलमानों को कोसते हैं...
इसके घटना के बाद दो बड़े चेंज हुए...मुलायम सिंह यादव सत्ता से बेदखल हो गए...और बाद में हुए चुनाव में बीजेपी बड़े बहुमत के साथ यूपी समेत पांच राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब हुई...यूपी मे कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने.. मेरे ख्याल से ये बीजेपी का सबसे बेहतरीन दौर था...लेकिन एक और घटना इस बीच में हुई राजीव गांधी की मौत...कहते हैं इस मौत की सहानुभूति में कांग्रेस केन्द्र में आने में कामयाब रही...और नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने...इसके बाद काफी दिनो तक फिजा में सम्प्रदायिकता घुली रही...तब तक जब तक ६ दिसम्बर १९९२ को बाबरी मस्जिद गिरा नहीं दी गई...मुझे वो दिन आज भी याद है....अयोध्या में मस्जिद पूरी तरह गिर चुकी थी...लेकिन शाम को दूरदर्शन के समाचार में हेडलाइन थी कि बाबरी मस्जिद के गुंबदों को काफी नुकसान ..अगले दिन अखबारों में बाबरी मस्जिद के गिरने की जो खबर छपी...उसके बाद तो पूरे देश में दंगे शुरु हो गई...उसी साल मेरे बाबा बीमार पड़े थे...१९९२ की बात है... उन्हें कैंसर हो गया था...पीजीआई में काफी दिनों तक सिकाई हुई...जिस दिन मस्जिद गिराई जा रही थी उसी दिन बाबा को लेकर मम्मी पापा अयोध्या गए थे...सामने जायसवाल अंकल की गाड़ी किराए पर ली गई थी...उसके कुछ दिनों बाद २५ दिसम्बर को बाबा चल बसे...अयोध्या में मचे हंगामे की वजह से हमारे स्कूल बंद थे...मुझे फैजाबाद में बिताए कोहरे भरे दिन आज भी याद हैं....एक तरह से कहूं तो वो कोहरा मेरे अंदर तक साम्प्रदायिक सोच के तौर पर काफी दिनों तक रहा...