शनिवार, 8 अगस्त 2009

मीडिया की दलाली और प्रभात जी का पैगाम

प्रभात रंजन
क्योंकि ये अच्छी तरह जानते हैं कि इन्होने क्या गुनाह किया है।सैकड़ो-हजारों बार सुने हुए से अल्फाज...मीडिया और मीडिया के नाम पर थोथे,बेकार से शब्द...बाजार उपभोक्तावाद न्यूज रूम की मजबूरियां...हाय री सिर होने की दुश्वारियां...हाय री दुश्वारियों में फंसे दोस्तों की फरमाबर्दारियां...यहीं वो जगह है जहां कत्ल हुए थे तुम...ज्यादा पुरानी बात नहीं...और तब तुम्हारे गर्म उबलते खुन ने जमीन से कुछ वादे किए थे...लेकिन जंगल की हरियाली में तुम्हारी आत्मा ऐयाश हो गई...तुम देखते रहे...ताश की गड्डी मे से निकल कर एक जोकर सिंहासन पर जा बैठा...हैरान परेशान राजा मंत्री - यहां तक कि रानी भी...और तुम हुक्म बजा लाने के सामां हो गए...हैरत की बात नहीं दोस्त...भूख हर तहजीब को खा जाती है...खासकर के वो तहजीब जो तुमने किसी और से उधार ली हो...और जिस पर जमा ली हो तुमने अपनी दुकान...खैर जाने दो दोस्त...ठीक इसी नुक्ते पर कोई भी पालतू होने को मजबूर होता है... मैं जानता हूं मेरे भाई कि तुम्हारी आत्मा का भी एक चोर दरवाजा है जो संडास के पीछे खुलता है...लेकिन मैं क्या करूं...मैं आज भी व्याकरण की नाक पर रूमाल रखके...निष्ठा का तुक विष्ठा से नहीं मिला सकता...शायद इसीलिए जहां हूं, मेरी जगह वही हैं...मैं मानता हू कि मैने भी गलत किया...इस बंद कमरे को जहाजी बेडो का बंदरगाह समझके...इस अकाल बेला में...लेकिन क्या सचमुच तुम्हारी आत्मा का कोई भी अंश जीवित नहीं...हालाकि जीवित हो तुम...बावजूद इसके कि सब कुछ मर सा गया है...लिया बहुत कुछ दिया कुछ भी नहीं...फिर भी तुम जीवित हो...लेकिन मेरे दोस्त...जीने के पीछे अगर तर्क नहीं है...तो रंडियों की दलाली करने...और रामनामी बेच के जीने में...कोई फर्क नहीं है...दुख तो यही है कि तुम्हे तर्क की जरूरत नहीं...बावजूद इसके कि तुम्हारी पूरी जिन्दगी एक घटिया फिल्म के इंटरवल तक पहूंच चुकी है...तुम बडे मजे से अपने बच्चे के साथ पॉपकार्न चबा रहे हो...और संतुष्ट हो...जब कि तुम्हारे एक इंकार की जरूरत है...जबकि तुम्हारे एक विरोध से नए रास्ते निकल सकते हैं...कुछ और हो या ना हो...रथ पर खडे एक शिखंडी की मौत हो सकती है...यकीन करो दोस्त उसका हिजडापन पूरी पीढी के लिए एक बडी चुनौती है...लेकिन इन सबसे संज्ञान...तुम बह्मराक्षस बने हुए हो...क्योंकि तुम्हे लगता है...सूरज तुम्हें शीश झुकाने को निकलता है...और चांद तुम्हारी संध्या आरती के लिए...तुम खबरों में झूठी सार्थकता तलाशने का दंभ भरते हो...एक चोट खाये स्वाभिमान को चाटते...अपनी काबिलियत का स्वांग भरते हो...ठीक उस वक्त जब एक हिजडा अपनी नामरदी का डंका पीट रहा होता है...तुम चुप रहते हो...सच तो ये है कि तुम भी अपराधियों के संयुक्त दल के हिस्से हो... सच तो ये है कि...खैर आवाज देने से भी कुछ फायदा नहीं...उसने हर दरवाजा खटखटाया है...जिसकी भी पूंछ उठाई...उसे मादा पाया है...ये हमारे दौर की खूबसूरती है...तुम्हे सबकुछ बर्दाश्त है...क्योंकि तुम्हारी जरूरत अदद बीबी बच्चे और मकान है...इसके बाद जो कुछ भी है...बकवास है...फिर ये विधवा विलाप क्यों...कल जब पचासों सिर कलम कर दिए गए, और तुम तमाशा देखते रहे...हाथ कट गए और तुम सिर बने,बाल नोचते रहे...जब कुछ बेहद ईमानदार लोग तबाह हो गए...किस अदा से तुम जहांपनाह हो गए...सवाल तीखे हैं...मगर बेखबर से तुम...ड्रामेटिक अंदाज में मीडिया की मौजूदा मजबूरियों पर बहस करना चाहते हो...सेमिनार के बहाने...अपने बचे रहने की दलील देना चाहते हो...लेकिन तुम नही जानते दोस्त...बेमतलब शब्दों के सहारे ये मोर्चा हम हार जायेंगे...तुम नहीं जानते दोस्त, हिजडापन एक संक्रामक बिमारी है...जो हमले के लिए हमारे ठीक पीछे खडी है...और खबरों पर होने वाली किसी भी बहस से ज्यादा जरूरी है...इंसानी हक में खडा होना...(जो हमारे पेशे की टैग लाईन भी है)...दोस्त मेरे, पेट से अलग ,पीठ में एक रीढ की हड्डी होती है...तुम्हे याद दिला दूं...जो जीने की सबसे अनिवार्य शर्त होती है।

रविवार, 2 अगस्त 2009

पुलिस और चोर में चोर कौन

(सवाल फेसबुक पर उठा और सवाल पर सवाल खड़े होते चले गए। सवाल कई थे पहला क्या बच्चों में आज भी पुलिस में जाने का कोई क्रेज बचा है और अगर नहीं तो क्यों। दरअसल ब्रिटिश मानसिकता में जीती आई पुलिस आजादी के साठ सालों में लाठी भांजने की मानसिकता से उबर नहीं पाई। मैं तो ये भी कहूंगा की उबारने की कोशिश ही नहीं की गई। ये बहस की शुरुआत है अच्छा होगा की बहस पुलिस सुधार की कोशिशों के पड़ताल को लेकर आगे बढ़े। )

अतुल राय
तो क्या आज के बच्चे चोर सिपाही के खेल में चोर बनना पसंद करते हैं ? शायद नहीं, मेरा मतलब है मैं तो बिल्कुल नहीं। आज भी बच्चे उसी जोश के साथ सिपाही बनने में रुचि रखते हैं। मेरे ख्याल से आज की पुलिस, उसके कामकाज और व्यवहार पहले से ज्यादा अच्छे और स्वीकार्य हैं। आज शायद हमें उनकी इतनी गलतियां इसलिए भी दिखाई दे रही हैं क्योंकि अब वो हमारे सामने मीडिया के माध्यम से आ रही हैं। जबकि होता तो पहले भी ऐसा ही था/ रहा होगा । आज की पुलिस पहले से ज्यादा जबाबदेह है और पहले से ज्यादा जनता के दबाव में है । हमें इस बात पर रोने के बजाय, कि पुलिस का कितना पतन हो गया है, खुश होना चाहिए कि उनकी हर ज्यादती और जुल्म से हम परिचित हो जा रहे हैं और कोर्ट तक उनको घसीटकर ले जा पा रहे हैं। आज छोटी से छोटी घटना पर पुलिसवालों को तुरंत लाइन हाजिर कर दिया जा रहा है। बड़ी वारदातों में तो निलंबन और बर्खास्तगी जैसी सजा मिल जा रही है । जांच कराई जा रही है और ज्यादातर मामलों में गलती मिलने पर सजा भी हो रही है। एसे बहुत से मामले हमलोगों को मालूम हैं। आजादी के बाद से लेकर अबतक, शुरुआत के 45 साल और बाद के 27 साल की अगर तुलना की जाए, तो बाद के 27 साल में ज्यादा (बल्कि बहुत ज्यादा) पुलिसवालों को सजा मिली है ( इस बारे में मेरे पास फिलहाल तो कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है लेकिन मेरा ख्याल है कि सच्चाई कुछ ऐसी है )। मैं आज भी अगर चोर सिपाही का खेल खेलूं, तो सिपाही बनने का उतना ही फक्र होगा...जितना बचपन में था।
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सुबोध
सवाल था कि पुलिस को लेकर बचपन से अब तक हमारी सोच कितनी बदली है। दरअसल ये सवाल इसलिए उठाया गया क्योंकि मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन्होने पुलिस की ज्यादती सही है उसकी गालियां खाईं है और कई दिनों तक पैसे के लिए पुलिस वालों ने उन्हें परेशान किया है। 'मित्र पुलिस' से लेकर 'क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूं' तक कि तख्तियां थानों पर लटकाई गईं, लेकिन थाने के अंदर पुलिस का रवैया नहीं बदला। हां ये सही है कि पुलिस एक संस्था है और उसके वजूद पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। लेकिन ये भी सच है कि आम आदमी से पुलिस की दूरी हमेशा से बनी रही। आम आदमी आज भी पुलिस के चक्कर में पड़ना नहीं चाहता। क्या ये सही नहीं है कि बच्चों ने चोर सिपाही का खेल खेलना बंद कर दिया है, बच्चे भी जानने लगे हैं कि चोरी तो गलत है ही और पुलिस बनकर गालियों को अपनी बोली में शुमार करना और भी गलत है। दरअसल सवाल कई हैं देहरादून में पिछले दिनों जिस तरीके का फर्जी एनकाउंटर हुआ आप उसे कैसे जायज ठहराएंगे, किसी निर्दोष को मारने के एवज में पुलिस वालों को वो सजा क्यों नहीं मिलती जो किसी दूसरे गुनहगार को मिलती है। लेकिन हर किसी का नजरिया अलग होता है, अतुल भाई का नजरिया भी अलग है। उनकी बातों में दम है। लेकिन सवाल पुलिस के चरित्र को लेकर है और उसे लेकर ज्यादातर लोग क्या सोचते हैं आपको मालूम है।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

फरमानों का हाईटाइड


तालिबानी कहें या तुकलकी...शब्द कम पड़ जाएंगे। पानी पी पी कर कोसेगें तो थक जाएंगे। गोत्र के चक्कर में उलझे तो यकीन मानिये सर घूम जाएगा लेकिन समझना मुमकिन नहीं हो पाएगा। फिर भी सवाल यही है कि आखिर गोत्र के नाम पर किसी का कत्ल कैसे किया जा सकता है। मसला वोट बैंक का है सो पंचायतों के इन फरमानों पर हरियाणा सरकार भी खामोश है। सवाल उठता है की खापों को किसी की हत्या का आदेश देने से लेकर किसी को गांव छोड़ने के आदेश सुनाने का अधिकार किसने दिया। क्या उस परम्परा ने जो अभी भी आदिम युग की है या फिर उस जिद ने जो अभी भी एक घटिया परम्परा को बचाए रखने पर तूली है। दरअसल हरियाणा में खापों की ये परम्परा हर्षवर्धन के वक्त की बताई जाती है। उस वक्त समाज गुटों और कबीलों में बंटा हुआ था और समाज खुद में एक तंत्र की तरह काम करता था। विवाद से लेकर तमाम मसले समाज के अंदर के प्रभावशाली लोग निपटाते थे। वक्त के साथ प्रभावशाली लोगों का गुट खाप के नाम से पुकारा जाने लगा। अब इन खापों का काम गोत्र और गांव के महत्वपूर्ण फैसले निपटाने का हो गया है। कई मसलों पर तमाम खापें मिलकर सामूहिक पंचायत बुलातीं हैं और और फैसला करतीं हैं। इतिहास में खापों ने कई ऐसे फैसले भी लिए हैं जो अभी भी याद किए जाते हैं। इन खापों ने अलाउद्दीन खिलजी, औरंगजेब से लेकर तैमूरलंग के गलत फैसलों तक का विरोध किया है। लेकिन आज के खाप ये भूल गए कि अब पानी काफी बह चुका है। अब सरकारें हैं, कानून है और बहुत से कायदे हैं जिनका काम फैसले लेना या सजा सुनाना है। समझना ये भी जरुरी है जब देश की तमाम रियासते खत्म हो गईं तो खापों की पुरानी दुकानदारी कैसे कायम रह सकती है। अब ये जाट समुदाय को तय करना होगा कि खापों की पुरानी सोच को आगे बढाएं या फिर खापों को आधुनिक सोच की ओर ले जाएं।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

भगवान इन टीवी के प्रलय से बचाओ


भगवान तू कहां है। तू कहता है कि जब जब हम पर संकट आता है तू कोई ना कोई रूप धर कर संकट से उबारने आ जाता है। भगवान एक रियल संकट घर में घुस आया है। हमारे प्राण रोज संकट में होते हैं प्रभु। ऐसा शायद ही कोई दिन होता होगा जब मौत हमारे पीछे ना पड़ती हो। सब कुछ मौत के साथ जुड़ा लगता है। मौत का खाना. मौत की दाल। भगवन आपने हमें जिंदगी दी, और ये न्यूज चैनल वाले हमारी जान के पीछे पड़ गए हैं। कई बार लगा की आज ही प्रलय आ जाएगा। लेकिन वो हमारा लक था जो हम बच गए। एक भयानक किस्म का सनसनीखेज बाबा आकर बकायदा डरा भी गया था। अपने टकलेपन के ओज से ओतप्रोत वो बार बार हमारी राशि पर आने वाले तमाम संकट के बारे में भी बहुत कुछ सुना गया। लगता तो यही है प्रभु ये टकला हमारी जान के पीछे पड़ गया है। अब जबकि सूर्य ग्रहण के तमाम प्रकोप से भी तुम बचा चुके हो, उसी तरह हमें इन टीवी वालों से बचा लो। भगवन ये टीवी वाले हमें नहीं छोड़ेंगे, देखना सूरज के ग्रहण को जबरन हमारी जिंदगी में कलह फैलाने के लिए घुसा देंगे। भगवान कुछ ऐसा करो कि टीवी पर प्रलय आना बंद हो जाए, हमारी जिंदगी में इसके सिवा कोई प्रलय नहीं है।

शनिवार, 18 जुलाई 2009

सच का सामना


टीवी चैनल पर मनोरंजन का जायका बदल रहा है। सास बहू और कॉमेडी के दौर से चैनल रियलिटी के मैदान में आ चुके हैं। अब रियल और रियल होने जा रहा है। सामना सच से है और निशाना टीआरपी है। दरअसल आश्चर्य ने हमेशा इंसान को नई खोज के लिए प्रेरित किया, और जब ये प्रेरणा आश्चर्य के रहस्योघाटन तक पहुंची तो साइंस के दायरे में आ गई, सच खोजने का यही तरीका इंसान को पहले से बड़ा इंसान बनाता रहा। लेकिन उलझनें फिर भी बनी रहीं। पाप पुण्य से लेकर सच और झूठ की दुनिया में मनुष्य का भटकाव जारी रहा। सच की खोज में लाखों साधु हो गए तो हजारों पागल हो गए, लेकिन पूरा सच किसी के हाथ नहीं लगा। आखिर मान लिया गया कि सच ही भगवान है सच ही खुदा है। बावजूद इसके सच खुलासों की मांग करता रहा। लेकिन अब सच का सामना टीवी पर हो रहा है। शो में पूछे जाने वाले सवाल निहायत व्यक्तिगत हैं। एक करोड़ के लिए बोला जाने वाला सच बेशकिमती रिश्तों पर भारी पड़ रहा है। एक करोड़ में सच बाजार में खड़ा है। और इस बाजार में निजता की कीमत तय की जा चुकी है। दरअसल जिंदगी झूठ और सच के तजुर्बों से मिलजुल कर बनती है। सच अगर चीनी है तो झूठ नमक। फिर भी यही कहूंगा कि सत्य की खोज जारी रहनी चाहिए। गांधी के सत्य के प्रयोग उनके साथ भले खत्म हो गए हों। लेकिन ये प्रयोग आम लोगों की जिंदगी में जारी रहते तो सच आज कुछ और होता।

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

पत्थर की माया


मायावती समय का पहिया घुमाना चाहती हैं। वो दलितों के अंदर वही दंभ देखना चाहती हैं जिससे कुछ जातियां लंबे समय से ग्रसित रही हैं। लेकिन ये उपचार नहीं बल्कि मर्ज को बनाए रखने का तरीका है। मायावती राजनीति में चली तो आईं, लेकिन राजनीति को उन्होने हमेशा शतरंज की तरह खेला, उनके लिए उन्हें छोड़कर सब मोहरें हैं, जब कोई मोहरा अपनी चाल चलने की कोशिश करता है तो मायावती उसका खेल से बाहर कर देती हैं। दरअसल राजनीति के अक्स में देखें तो मायावती की राजनीति में खोट ज्यादा है समझदारी कम । मायावती दलितों के उत्थान की बात करती हैं (चाहती हैं या नहीं ये वो जानें ) लेकिन जब राहुल गांधी किसी दलित के यहां रात बीताते हैं तो वो उसे नौटंकी बताती हैं, यही नहीं दलितों को इस बात से बरगलाना भी नहीं भूलतीं की राहुल दिल्ली लौटकर साबुन से अपने हाथ साफ करते हैं। अगर मायावती को लगता है कि सिर्फ वो ही दलितों और पिछड़ों की हिमायती हैं तो उन्होने कभी किसी दलित के यहां रुकने या उसके सुखदुख में शरीक होने की कोशिश क्यों नहीं की। मायावती जानती हैं कि उनकी राजनीति तभी तक है जब तक समाज में जाति की लकीर कायम है इसलिए मायावती जाति के भरते जख्मों को बार बार कुदेरती हैं, वो बार बार दलितों और पिछड़ों को समाज से मिलीं पुरानी तकलीफें याद कराती हैं। मायावती भले दूसरों पर जातिवादी होने का आरोप जड़ें लेकिन सच तो ये है कि वो खुद जाति का भेद खत्म करना नहीं चाहतीं। रीता जोशी बहुगुणा के भाषण पर उत्तेजित होना स्वाभाविक है, लेकिन इस सवाल से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि मायावती के राज में दलित महिलाओं पर लगातार अत्याचार बढ़े हैं। लेकिन मायावती की सोच से ऐसे असल मुद्दे सिरे से गायब हैं। फिलहाल वो अभी अपनी मूर्तियां लगाने में व्यस्त हैं। मायावती की आस्था भले पूजा पाठ में ना हो, लेकिन वो अब खुद की पूजा करवाना चाहती हैं, वो एक ऐसी देवी बनाना चाहती हैं जिसकी मूर्ति के अपमान पर समाज में आग लग जाए, वो खुद को आस्था की ऐसी मूरत के रुप में स्थापित करने की जल्दबाजी में है जिनके अपमान की हिमाकत करने वाला दलित विरोधी करार दे दिया जाए । मायावती भले अपने बुत पर इतराती फिरें लेकिन उन्हें ये मालूम होना चाहिए कि सद्दाम के बुत तक जमींदोज़ किए जा चुके हैं । मायावती को जैसा मौका मिला है, राजनीति ऐसे मौके बहुत कम लोगों को देती है खासकर समाज के उस पिछड़े को जिसे विरासत में तिरस्कार के सिवा कुछ ना मिला हो। मायावती अगर इतिहास बनाना चाहती हैं तो वो देश के पिछडे़ सूबे में हजारों स्कूल खुलवा सकती हैं, हाथी के बुत लगाने की जगह वन्य जीवों को बचाने की तमाम बंद होती परियोजनाओं को जिंदा कर सकती हैं। यूपी के तमाम बीमार जिला अस्पतालों को नई जिंदगी दे सकती हैं। अगर वो ऐसा कर पाईं तो यकीन मानिए आने वाला वक्त खुद उनकी मूर्तियां लगाएगा और अगर मायावती ने अभी भी अपना दंभ नहीं छोड़ा तो वही दलित एक दिन जगह जगह से उनके बुत उखाड़ने पर आमादा दिखाई देगा।

बुधवार, 15 जुलाई 2009

पिंक स्लिप

कितनी बार टूटा होगा वो
कितनी बार संभाला होगा उसने खुद को
कितनी बार तसल्ली दी होगी
उसने अपने आप को
फिर भी बीमार मां का ख्याल
अपने घर के छप्पर से टपकने वाले पानी की दिक्कत
अपने बाबू जी के गर्व के ढह जाने का मलाल
उसे बार बार तोड़ता होगा
उसे जवाब देना होगा अपने उस गांव को भी
जिसने अभी तक खूब नखरे सहे उसके
क्या कहेगा वो उन दोस्तों से
जिनकी दोस्ती को बीच मझधार में छोड़कर
वो आ गया था देश के सबसे बड़े शहर
लेकिन कम्बख्त वो शहर
परायेपन का एहसास ढूंसता रहा उसके भीतर
हर पहचान के साथ
मकान मालिक की पहचान नत्थी करनी पड़ी उसे
नौकरी के चंद पैसों से सबकुछ खरीद पाने के गुमान के साथ
सूकुन ना खरीद पाने का मलाल सालता रहा उसे
फिर भी तनख्वाह के पैसों को हर महीने गांव भेजते हुए वो
गांव से दूरी का मलाल कम कर लेता
लेकिन अब उस नौकरी की तसल्ली भी जाती रही
पिंक स्लिप लगा दी गई उसके माथे पर
नौकरी जाने के बाद
अब शहर भी मांगने लगा है उससे रहने का हिसाब
पैसे देते वक्त मकानमालिक के चेहरे पर रहने वाली मुस्कान भी
अब बनिए के तकादे सी हो गई है
मंहगाई के बीच रहने की जद्दोजहद करता वो
टूट रहा है या कहिए टूट चुका है
( बेहद तकलीफ में लिखी गई कविता..)