गुरुवार, 3 जुलाई 2008

परमाणु समझौते का नफ़ा-नुकसान

(ये लेख बीबीसी से साभार लिया गया है...परमाणु करार की जटिलता इस लेख से कुछ हद तक सुलझती है...अगर इस मसले पर सरकार गिरती है तो आने वाले समय में ये चुनावी मुद्दा बनेगा... और तब इस मसले में दिलचस्पी ना लेने वालों को भी इसकी बारीकियों को समझना ही पड़ेगा..इस लेख के लिए हम आप बीबीसी की इस लिंक http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/08/070818_nuclear_vivechana.shtml पर भी सीधे जा सकते है...)
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भारत और अमरीका के बीच दो साल तक कई दौर की बातचीत, गहन-चर्चा और विचार-विमर्श के बाद असैन्य परमाणु सहयोग समझौता हो गया है. परमाणु सहयोग समझौते पर दोनों ही देशों में विरोध की आवाज़ें उठ रहीं हैं. सवाल यह है कि यह समझौता भारत के लिए क्या मायने रखता है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में कहा था कि चाहे कुछ भी हो, अमरीका के साथ हुआ समझौता रद्द नहीं होगा. प्रधानमंत्री का यह बयान अब उनके लिए एक राजनीतिक मुसीबत बन गया है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(यूपीए) सरकार पर संकट के बादल गहराने लगे हैं. वामपंथी दलों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि यूपीए से उनके रिश्ते टूटने की कगार पर हैं. यूपीए से संबंधों पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नेता प्रकाश कारत कहते हैं कि खटास तो आई है लेकिन अभी तलाक़ का वक़्त नहीं आया है. वहीं विपक्षी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) और संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन(यूएनपीए) या तीसरे मोर्चे को प्रधानमंत्री जयचंद की तरह नज़र आ रहें हैं जो अपने स्वार्थ के लिए देश हित को ताक पर रख रहें हैं.
फ़ायदा-घाटा
इस समय यह समझना होगा कि भविष्य में इस समझौते से देश को क्या नफ़ा-नुकसान होगा. सबसे पहला सवाल यह उठ रहा है कि क्या समझौते को मानकर भारत ने परमाणु परीक्षण करने का अपना विशेषाधिकार गंवा दिया है क्योंकि परीक्षण करते ही समझौता रद्द हो जाएगा. विज्ञान पत्रिका 'साइंस' के पत्रकार पल्लव बागला कहते हैं, “इस समझौते को दो लोगों के बीच हो रही शादी की तरह समझना चाहिए. अब शादी होने पर तलाक़ का भी डर होता है. आप तलाक़ के डर से शादी ही न करें ऐसा ठीक नहीं है. अगर आप आगे ही नहीं बढ़ना चाहते तो फिर तो आप बढ़ ही नहीं सकते और 1970-80 के दशक की पुरानी तकनीक में ही फँसे रह जाएँगे.” इस 123 समझौते में परीक्षण पर उठ रहे सवालों पर सरकार का कहना है कि फ़िलहाल हमें परीक्षण की ज़रूरत नहीं है और परीक्षण के समय हम उस स्थिति से भी निपट लेंगे. पोखरण में हुए परमाणु परीक्षण से जुड़े वैज्ञानिक के संथानम कहते हैं, “भविष्य में हम दोबारा परमाणु परीक्षण कर तो सकते हैं लेकिन उसके परिणाम और प्रभावों को भी देखना होगा. जैसे मई,1998 में लोग कहते थे कि इसके परिणाम और प्रतिबंध इतने भारी होगें कि हम मुसीबत में फँस जाएँगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था मज़बूत थी. समझौते को लेकर अगर विचारधारा के स्तर पर बात करेंगे तो हम इसी तरह विवाद करते रहेंगे.” के संथानम तो इस मुद्दे पर संतुष्ट दिखते हैं लेकिन दूसरे वैज्ञानिक इस करार से संतुष्ट नहीं हैं.
समझौता
कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि 123 समझौते में मुद्दा परमाणु परीक्षण करने के अपने अधिकार को किसी दूसरे देश के हाथों में सौंपने का है. सामरिक मामलों के जानकार भरत कर्नाड इस समझौते का विरोध कर रहे हैं. भरत कर्नाड कहते हैं, “मनमोहन सिंह अपने ही एजेंडे पर चल रहे हैं. वो चाहते हैं कि किसी भी तरीके से परमाणु सहयोग को बढ़ावा मिले. प्रधानमंत्री दूर की नहीं सोच रहे हैं. वो अपनी इस बात की रट लगाए हैं कि हमें निकट भविष्य में परमाणु परीक्षण की ज़रूरत नहीं है और जब तक ज़रूरत नहीं है तब तक परमाणु सहयोग जारी रहे.” भरत कहते हैं, “ परमाणु हथियार विकसित करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें परीक्षण करना ही पड़ेगा. जिन हथियारों के 1998 में परीक्षण हुए थे, उन सबके डिज़ाइन परीक्षण में कामयाब नहीं हुए थे. जैसे थर्मल न्यूक्लियर डिवाइस (जिसे हाईड्रोजन बम भी कहते हैं) की डिज़ाइन परीक्षण में ठीक से सफल नहीं हुई थी. मामला यही है कि आप परीक्षण कब करेंगे. ऐसा तो नहीं है कि अब परीक्षण करना ही नहीं हैं.” इससे साफ होता है कि इस समझौते का असर भारत के सामरिक कार्यक्रमों पर पड़ेगा. हालाँकि इस समझौते के समर्थक कहते हैं कि समझौते में इस बात पर ध्यान दिया गया है कि कहीं ऐसा न हो कि परमाणु परीक्षण होने की दशा में फौरन सभी परमाणु संयंत्र बंद हो जाएँ. परीक्षण से पहले एक साल का नोटिस दिया जाएगा और अमरीका इस बात की जाँच करेगा कि ऐसी कौन सी परस्थितियाँ हैं जिनमें भारत को परमाणु परीक्षण करना पड़ रहा है और यह निर्णय सही है या नहीं?
यहाँ एक बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या अब अमरीका यह तय करेगा कि भारत के परमाणु परीक्षण करने का फ़ैसला सही था या नहीं?
तकनीकी
वामदलों या भाजपा को इस सवाल पर कहना है अमरीका को यह अधिकार नहीं दिया जा सकता. कुछ जानेमाने वैज्ञानिक भी इसे अमरीका के चंगुल में फँसना बता रहे हैं.
लेकिन परमाणु समझौते के लागू होने पर कुछ फ़ायदे एकदम से नज़र आने लगेंगे. ये ऐसे फ़ायदे हैं जो वैज्ञानिकों और उच्च तकनीक क्षेत्र में काम करने वालों के लिए अहम होंगे. इस बारे में पल्लव बागला का कहना है, “भारत पर 1974 के बाद से तकनीकी प्रतिबंध लगे हुए थे और देश का वैज्ञानिक ढांचा उन्नत तकनीकी से पूरी तरह अछूता रह गया था. भारत पर अंतरिक्ष और कंप्यूटर जैसे उच्च तकनीकी वाले क्षेत्रों में प्रतिबंध लगा हुआ था. वो कहते हैं, "दूसरी बात यह है कि परमाणु अप्रसार संधि(एनपीटी) पर हस्ताक्षर न करने के बावजूद भारत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बैठने के लिए एक सीट तो मिल ही रही है. शुरू में आपको बैठने के लिए कुर्सी की जगह स्टूल ही मिल रहा है. लेकिन आपको वहाँ बैठने की जगह तो दी ही जा रही है. यह अपने आप में एक बहुत बड़ा फ़ायदा है." लेकिन भरत कर्नाड का मानना है कि हमें परमाणु समझौते से यह आशा बिल्कुल नहीं करनी चाहिए कि इससे भारत कोई विश्वशक्ति बन जाएगा और शायद प्रधानमंत्री यथार्थ नहीं देख पा रहे हैं. भरत कर्नाड कहते हैं, “प्रधानमंत्री और उनकी नीति के समर्थक जो मीडिया में भारी संख्या में मौजूद हैं उन सबका मानना है कि अगर हम अमरीका के नज़दीक हो जाए तो अमरीका हमें एक बड़ी शक्ति बनने में मदद करेगा. एक बड़ा मुल्क़ दूसरे मुल्क़ को अपने अधीन बनाने की ही कोशिश करता है."
वो कहते हैं, "अमरीका साफ-साफ कह रहा है और अमरीकी कार्यपालिका और उनके हाइड एक्ट में भी कहा गया कि भारत को परमाणु परीक्षण करने की स्थिति में तकनीकी भी नहीं मिलेगी. हम जो ईंधन आधारित उच्च तकनीकी हस्तांतरण की बात कर रहे हैं वो कुछ भी नहीं मिलने वाला.” भरत कर्नाड यहाँ तक कहते हैं, “मुझे तो ऐसा लग रहा है कि मनमोहन सिंह और जॉर्ज डब्ल्यू बुश के बीच व्यक्तिगत संबंध इतने अच्छे हैं कि मनमोहन सिंह बाकी सब कुछ भूल बैठे हैं और वो राष्ट्रीय हितों को छोड़कर व्यक्तिगत हित देख रहे हैं.”इस पूरी बहस में किसी का ध्यान इस ओर नहीं है कि यह असैन्य परमाणु ऊर्जा समझौता है और भारत की ऊर्जा ज़रूरतें कितनी हद तक पूरी करेगा. ज़्यादातर लोग यह मानते हैं कि यह समझौता भारत की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने के लिहाज़ से काफ़ी नहीं है और कभी भी पूरे देश में कुल बिजली उत्पादन में परमाणु बिजली का हिस्सा पाँच से 10 फ़ीसदी से अधिक नहीं होगा. के संथानम का मानना है कि इस समझौते से भारत की यूरेनियम की ज़रूरत कुछ हद तक पूरी होगी.
बाज़ार
यूरेनियम मूँगफली की तरह खुले बाज़ार में तो खरीदा नहीं जा सकता इसलिए बिना परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए इस समझौते से ही भारत यूरेनियम बाज़ार से खरीद सकेगा. जानकार इस ओर भी इशारा कर रहे हैं कि इस परमाणु संधि के साथ व्यापार हित न जुड़ें हो, ऐसा हो ही नहीं सकता. अंग्रेज़ी अख़बार 'बिज़नेस स्टैंडर्ड' के शांतनु गुहा रे कहते हैं कि व्यापार जगत की इस समझौते पर विशेष नज़र है.
वो कहते हैं, “अगर परमाणु समझौता हो जाता है तो हमारे देश में परमाणु संयंत्र लगाने के लिए काफ़ी विदेशी तकनीकी की ज़रूरत होगी. ऐसी तकनीकों को विकसित करने के मामले में बाकी दुनिया के मुक़ाबले अमरीकी कंपनियाँ काफ़ी आगे हैं. अमरीका यह उम्मीद कर रहा है कि वह अगले बीस वर्षों में भारतीय बाज़ार से कम से कम 150 बिलियन डॉलर का व्यवसाय करे.” लेकिन के संथानम का मानना है कि अमरीकी उद्योग के फ़ायदे के लिए ही समझौते पर ज़ोर दिया जा रहा हो, ऐसा नहीं है. उनके अनुसार फ़िलहाल अमरीकी उद्योग यह फ़ायदा उठाने की स्थिति में नहीं है. के संथानम कहते हैं, “अगर भारत में परमाणु संयंत्र स्थापित होंगे तो मुख्य रूप से फ़ायदा रूस और उसके बाद फ्रांस को होगा. मुझे नहीं लगता कि अमरीका को इससे फ़ायदा होगा क्योंकि पिछले 30-35 वर्षों से अमरीकी परमाणु बाज़ार सुस्त है. उसने कोई भी परमाणु रिएक्टर नहीं बनाया है. जबकि फ्रांस और रूस ने इस क्षेत्र में प्रगति की है. हमें समझौते का विश्वासपूर्वक स्वागत करना चाहिए.”फ़िलहाल इस समझौते पर राजनीति हावी हो गई है. वामपंथी दल जो पहले भारत के परमाणु परीक्षणों के ख़िलाफ़ बोलते रहे हैं अब इस अधिकार के छीने जाने के डर से चिंतित हैं. भाजपा जिसने इस समझौते की नींव रखी, आज उसकी क़ब्र खोदना चाहती है. उसे इस मुद्दे पर यूपीए सरकार गिरती हुई और मध्यावधि चुनाव नज़र आते हैं. लेकिन भारत की आम जनता के लिए यह अभी भी कोई मुद्दा नहीं है. परमाणु मुद्दे पर विचारधारा और व्यावहारिकता के बीच झूल रहे प्रतिपक्ष का विरोध महज औपचारिकता है या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के परिपक्वता की निशानी?

मंगलवार, 17 जून 2008

Yaqin jano...

Waqt-e-vasl1 main na khamosh baitho tum
Ki, Dil machalne lagta hai,
Koi farmaish2 karo, koi shikwa3 hi kaho
Ki khud pe tumhara ikhtiyar4 lagta hai.
Na bandho zulfon ko bandishon5 me,
Inke udhne per hi inka rang nikrta hai
Har baat ka jawab sir jhuka ke deti ho,
Han sach hai,
Tumko kya gharz6 hai, kiska dam nikalta hai
Sach kahun! Mujhe taab7 nahi hai, nazar milane ki,
Ki hausla to rakhta hu,
magar dil be-ekhtiyar8 sa lagta hai…
Kya sochte ho chupaloge khud ko iss chilman9 se?
Ki Aftab, abr10 hone per bhi asar rahta hai…………
Kahe jate ho ki jana hai - Aur uthte bhi nahi
Aur hum jumbish11 kerte hain
To kehte ho ki bura sa lagta hai…
Dil ko manana itna aasan to nahi hai magar
Yaqin jano!
Ki phir milne ke ahad12 se ye bhi samabhalne lagta hai….
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1. Waqt-e-vasl=meeting time, 2. farmaish=Wish, 3. Shilwa=complain, 4. ikhtiyar=Control, 5. bandishon=Limitation, 6. gharz=Want, 7. taab=Power, 8. be-ekhtiyar=out of control, 9. chilman=Curtain, 10. abr=Cloud, 11. jumbish=movement, ahad=promises

(Javed aziz....00447918901248) london U.K.

सोमवार, 16 जून 2008

माफ़ करना बाबूजी...पार्ट १

उस खिड़की से... दूर दूर तक पेड नज़र आते थे... लगता था कि पूरे शहर को पेड़ से घेर दिया गया हो... शाम को सूरज लाल होकर गुम होने तक उस खिड़की से झांकता रहता.. शाम जब रात की करवट लेती तो पूरा शहर रोशनी की चादर तान लेता.. अक्सर ऐसे वक्त उपन्यास के कुछ पन्ने खुद ब खुद पलट जाते... और निर्मल वर्मा का एकाकीपन मन के गहरे तक उतर जाता... चाय की मिठास में वक्त घुलते घुलते नींद के आगोश में जाने को बेकरार हो उठता....लेकिन इस बीच कमबख्त नीद कब छत पर टहलने चली जाती पता नहीं चलता... चांद की रोशनी में यादें बार बार बचपन के करवट हो लेतीं...और जब अपने याद आते तो मन बेचैन हो जाता... इस बेचैनी के बीच रात और चाय का एक अजीब सा रिश्ता बन गया था... रातें उसके लिए खुली किताब की तरह थी.. जिसपर वो बार बार कुछ लिखकर मिटाता रहता... दोस्तों के फोन भी अब ज्यादा नहीं आते थे... अब वो अक्सर उपन्यासों से बात करता.. कविताओं से बोलता.. और चाय के साथ गजले सुनकर रात काट देता.. सुबह से उसे एक अनजाना सा डर लगने लगा था... सुबह का मतलब था नौकरी की तलाश में दर दर की ठोकर...ऐसा करते करते चार महिने और चार दिन गुजर चुके थे...पुरानी नौकरी से कमाया पैसा अब खत्म होने को था...दिल्ली में रहना अब मुश्किल था.. कभी कभी तो सब्र जबाब दे जाता... लेकिन बीमार रिटायर पिता की चिंता उसे दिल्ली की दिक्कत के बीच रोक देती... जब तक पैसे कमाए तब तक ज्यादात्तर पैसा बाबूजी को मनीआर्डर कर दिया...लेकिन दो बार से मनीआर्डर नहीं भेजा...हां कुछ बहाने और उम्मीदें जरुर अपने बूढे बाबूजी तक पहुंचा दी.. बाबूजी भी अब अक्सर बीमार रहने लगे थे...मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद भी मां की आंखों का धुंधलापन गया नहीं था.. भला हो उस छोटकी का जिसने घर संभाल रखा था.. .कहने को वो घर पर सबसे छोटी थी... लेकिन भाई का सारा फर्ज अपने छोटे कंधे पर उठा रखा था... इस साल गांव के सरकारी स्कूल में नवें में दाखिला लिया था... पिछली बार बाबूजी के सारे पैसे छोटकी का दाखिला करने में खत्म हो गए... आगे की उम्मीद बेटे के मनीआर्डर पर टिक गई थी.. लेकिन वो बेटा....क्या बताता वो बाबूजी से...कि वो दिल्ली में आजकल नौकरी के लिए धक्के खा रहा है... क्या कहता बाबू जी से कि देखिए बाबूजी भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा ना बनकर मैने गलती की.. या फिर बाबू जी समाज बदलने निकला आपका लड़का धीरे धीरे खुद बदल रहा है... बाबू जी पुराने कम्यूनिस्ट थे... व्यवस्था के भ्रष्ट तंत्र से उन्हें चिढ़ थी..जब तक हाथ पैर चले लेनिन और मार्क्स को समझने और समझाने की कोशिश करते रहे...लेकिन बूढ़ापे के आगे उनका कम्यूनिज्म हार गया... वो सपना टूट गया...जो जोशीले भाषणों में बार बार दिखता था...गांव के बेकार लोग जिन्हें बाबू जी समाज का कोढ़ कहते थे शहर जाकर खूब पैसे जुटा लाए थे... गांव के खेतों मे शाखाएं लगनी शुरु हो गईं थीं.. रहमान और शकील चाचा से गांव के लोगों ने दूरी बना ली... बेबस आंखो से बाबू जी कम्यूनिज्म के गांव में पहुंचने का इंतजार करते रहे... जब बाबूजी का शरीर साथ देने से इंकार करने लगा तो ...अपने सपनों का बोझ उन्होने बेटे का कंधे पर रख दिया... बेटा दिल्ली में था...और एक अखबार में कम्यूनिस्ट पार्टी कवर करता था...बाबू जी इसी बात से खुश थे... लेकिन उन्हें क्या पता था कि अखबार के दफ्तरों में साम्यवाद नहीं चलता.. यहां बॉसिजिज्म का सिक्का बोलता है... जिसके लिए सब मशीन हैं... उनका बेटा भी...(आगे जारी)

सोमवार, 2 जून 2008

गुलज़ार के बहाने ग़ालिब..एक


तकरीबन दो दशक पहले गुलज़ार ने मूवी हाउस के बैनर तले सीरियल मिर्ज़ा गा़लिब बनाया था...नसिरुद्ददीन शाह ने मिर्ज़ा गा़लिब का किरदार अदा किया था...और रिसर्च का काम क़ैफ़ी आज़मी और गुलज़ार ने मिलकर किया था...संगीत जगजीत सिंह का था जो आज भी गुनगुनाया जाता है..कुछ दिन पहले मिर्ज़ा ग़ालिब फिर से देखने का मौका लगा...सीरियल तो खूबसूरत है कि उसकी स्क्रिप्ट संजोकर रखने वाली है..
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( दीवाली के मौके पर चौसर खेलते हुए )
मिर्ज़ा तोफ्ता ...अरे वाह उस्ताद दीवाली पर तो आप हर साल जीतते हैं...
मिर्ज़ा गा़लिब ...जीतता तो मैं ईद पर भी हूं..मिर्जा तोफ्ता ..बस ईद पर रस्म नहीं है जुआं खेलने की
अनजान शख्स...आप भी कहां रस्मों रिवाज मानते हैं मिर्जा
मिर्ज़ा गा़लिब... ऐसा ना कहो भाई ..मैं हर रस्मों रिवाज को मानता हूं..इसीलिए एक का कायल नहीं हूं....
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( गालिब के बेटे की मौत के बाद )
मुफ्ती...सब्र करो मिर्ज़ा...उसकी मर्जी में क्या छिपा है क्या पोशिदा है कोई नहीं जानता ...उसके राज निराले हैं
मिर्ज़ा गा़लिब... क्या छुपा है मुफ्ती साहब..क्या पोशिदा है..मेरा एक बेटा हुआ था... वो मर गया.. और वो दफ्न है अपनी कब्र में.. इतनी छटंकी सी जान... मनों मिट्टी पड़ी है उस पे कि कम्बख्त करवट भी ना ले सके.. . इसमें राज की कौन सी बात है... जना था उमराव बेगम ने और मारा उसे अल्लाह ने.. और कौन है मारने वाला... उसके बगैर हक है किसी को
मुफ्ती...आप ही ने कहा था जान दी..दी हुई उसी की थी.. हक तो यूं है कि हक अदा ना हुआ... ...
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( बेटे की कब्र के पास)
मिर्ज़ा गा़लिब ..जाते हुए कहते हो कयामत को मिलेगें...क्या खूब..कमायत का है गोया कोई दिन और..
लाला ( मिर्ज़ा गा़लिब के दोस्त ).. असद कहां खो गए हो इस वक्त
मिर्ज़ा गा़लिब... सोच रहा हूं कि दरगाह तक हो आऊं.. एक चादर चढ़ानी बाकी है...एक चढ़ाई थी जब मन्नत मांगने गया था बच्चे की...एक शुक्राने की चढ़ाई थी...अब एक माज़रत की चढ़ा आऊं...माफी मांग आऊं ख्वामोखां तकलीफ दी आपको....
लाला...जी कड़वा मत करो असद
मिर्ज़ा गा़लिब ...मै नहीं करता लाला...लेकिन उस औरत का क्या करुं.. जो मरी जा रही बच्चे जनते जनते...अपनी गोद भरने के लिए...उसकी गोद तो मुर्दों से भरी जा रही है...ये पांचवा बच्चा था लाला....
लाला..चलो घर चलो...
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रविवार, 1 जून 2008

सरकारी स्कूल की दीवारें

सरकारी स्कूलों की
दीवारें अक्सर
ज्यादा उंची नहीं होती..
बड़ा आसान होता है
उन्हें यूं ही फांदा जाना..
मुझे अपने
स्कूल की दीवार कभी ज्यादा
ऊंची नहीं लगी
सरकारी तंत्र की हवा
आसानी से यहां आती जाती रही..
जाति..धर्म का एहसास
मास्टरों के दिमाग से होता हुआ
अक्सर मेरे अंदर
घुसपैठ करता रहा...
भ्रष्टाचार को
गुरु शिष्य परम्परा
के लबादे में..
कई बार सरकारी स्कूल की दीवारें
फांद कर आते देखा..
मास्टरो की डांट
अक्सर
स्कूल की दीवारें
फांद कर उनके घरों में
ट्यूशन पढ़ने के लिए
मजबूर करती रही..
आज भी जब अपने स्कूल
की ओर से गुजरता हूं
तो अपने भीतर की
एक छोटी दीवार का
एहसास हो जाता है...
( सरकारी स्कूल का वो सच जो मैने महसूस किया..ये मेरे निजी विचार हैं..सरकारी स्कूल को लेकर सहानुभूति मेरी भी है..लेकिन जो लिखा मेरा अपना अनुभव है..)

बुधवार, 28 मई 2008

वो बारह घंटे...

वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
वो चाहते हैं
अपने हिस्से की खिलखिलाहट...
वो मांगते हैं
अपने सपनों का हिस्सा...
वो देखना चाहते हैं
दोस्तों के सपनों में सपना...
रास्तों पर नंगे पांव दौड़ना चाहते है
वो घंटे अपना हिसाब मांगते हैं...
वो नहीं जानते
तिगड़म का जाल...
वो नहीं समझते
अपनें दिखते लोगों की चाल...
बस पेड़ की छांव चाहते हैं
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं...
सपनों के धुंधलके में उम्मीद चाहते हैं...
अपने शहर की तस्वीर चाहते हैं...
जवानी में फिर से बचपन चाहते हैं..
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
मां के हाथों की मार..
पिता की फटकार...
भाई का दुलार चाहते हैं
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
तपती दोपहर में बादल की छांव चाहते हैं
बरसात में भीगकर कंपकपना चाहते हैं
शैतानियां करके छुपाना चाहते हैं
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
चाय की चुस्कियो के बीच
ढेर सी काहानियां चाहते हैं
बहुत लिखकर कुछ कुछ मिटाना चाहते हैं
बच्चों की तूतलाहट के बीच मचलना चाहते हैं..
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते है.....
( दरअसल ये वो घंटे हैं जो पता नहीं कैसे कट जाते हैं...ना तो खुशी देते हैं...हां थोड़ा सा गम देते हैं...अपनों से दूर होने का एहसास देते हैं...मजबूरी के लाबादे में...मशहूरी के मुगालते में...ठहरे ठहरे से लगते हैं...वो दिन के बारह घंटे...दफ्तर की उमस के बीच...बीत जाते हैं पर होने का कभी भी एहसास नहीं देते...बस दूर से दूर लगते हैं...खुद से अनजान लगते हैं...वो बारह घंटे..कविता की शक्ल में बह जाना चाहते हैं...शब्दों में ठहर जाना चाहते .दिन के वो बारह घंटे जो बीत जाते हैं पर पता नहीं चलते )
Subodh 9313254747

सोमवार, 26 मई 2008

हिन्दी ब्लॉग की हत्या पर दो मिनट का मौन

यशवंत जी ने अपने ब्लॉग पर जिस भाषा का इस्तेमाल किया...वो भले उनकी अभिव्यक्ति का तरीका हो...लेकिन उससे हिन्दी ब्लॉग को गहरा धक्का लगा है...यशवंत जी से मै कभी नहीं मिला...ना तो अविनाश जी से मेरा कोई परिचय है...दोनो को मैने ब्लॉग के जरिए जाना..पढ़ा और जी भर के कमेंन्ट किए...लेकिन हाल में यशवंत जी ने जिन अपशब्दों के साथ अपनी भड़ास निकाली..उससे हिन्दी ब्लॉग की दुनिया को काफी नुकसान पहुंचा है...इस ब्लॉग ने साबित कर दिया कि...केवल चार पांच बढ़िया लाइने लिखने से आप महान नहीं बन जाते...गुस्से में आप कितना विवेक से काम लेते हैं... ये बहुत कुछ आपके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है.. .यशवंत जी ने साबित कर दिया की ब्लॉग जगत की सेवा की उनकी कोशिश ईमानदार तो कतई नहीं है...गुस्से में अपशब्दों का इस्तेमाल तो अनपढ़ भी करता है...लेकिन थोडा पढ़े लिखे लोग ऐसा करने लगते हैं तो अफसोस होता है...मैं यशवंत जी इतना ही कह सकता हूं कि अपने लिखे को दोबारा पढ़े...सोचें...उन्हे इस वक्त सोच समझ कर लिखने की जरुरत है... माना कि ब्लॉग उनका है...अभिव्यक्ति की आजादी पर उनका भी हक है...लेकिन सार्वजनिक मंचो से गाली गलौज और रंगभेदी टिप्पणी करना किसी को भी शोभा नहीं देता..फिलहात तो हिन्दी ब्लॉग की हत्या की उनकी इस कोशिश पर हम सब दो मिनट का मौन रख सकते हैं...