
मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
शुक्रवार, 7 मई 2010
यहां अंग्रेज पैदा होते हैं

गुरुवार, 6 मई 2010
निरुपमा...तुम खबर नहीं बन सकती !

( अमित यादव आईएमएमसी के उसी बैच के छात्र हैं जिस बैच में निरुपमा थीं। निरुपमा और प्रियभांशु की दोस्ती और प्रेम का रास्ता अमित ने काफी करीब से देखा। जब प्रियभांशु और निरुपमा पर लिखी खबर का वाइसओवर करने का वक्त आया तो अमित का गला रुंध गया। दोस्त और उसके प्रेम का देखते देखते यूं खबर बन जाना किस कदर कचोटता है। ये अमित ने हमारे साथ साझा किया)
मंगलवार, 4 मई 2010
फ्लैश के उस पार

कैमरे का फ्लैश चमकने से पहले,
रेडी वन टू थ्री कहते ही
कितनों के चेहरे पर आई होगी
जबरदस्ती की मुस्कुराहट ।
कैमरे ने बड़े सलीके से खींच लिए होंगे
होठों के वो बनावटी एक्सप्रेशन।
कैमरों में बड़ी चालाकी से छिप गई होगी
जिंदगी से जूझने की जद्दोजहद,
मां की बीमारी की परेशानी,
और रोज रोज बनते बिगड़ते रिश्तों की कहानी।
तस्वीरों के ऐसे आधे अधूरे सच
फोटो की शक्ल में किसी के फेसबुक
तो किसी के ब्लॉग पर नत्थी हैं।
आधी अधूरी तस्वीरों की तमाम दस्तकें
फ्रैण्डस् रिक्वेस्ट की शक्ल में सामने हैं
एक भ्रम और है जो उसे एक्सेप्ट कर रहा है।
(04 april 2010)
रेडी वन टू थ्री कहते ही
कितनों के चेहरे पर आई होगी
जबरदस्ती की मुस्कुराहट ।
कैमरे ने बड़े सलीके से खींच लिए होंगे
होठों के वो बनावटी एक्सप्रेशन।
कैमरों में बड़ी चालाकी से छिप गई होगी
जिंदगी से जूझने की जद्दोजहद,
मां की बीमारी की परेशानी,
और रोज रोज बनते बिगड़ते रिश्तों की कहानी।
तस्वीरों के ऐसे आधे अधूरे सच
फोटो की शक्ल में किसी के फेसबुक
तो किसी के ब्लॉग पर नत्थी हैं।
आधी अधूरी तस्वीरों की तमाम दस्तकें
फ्रैण्डस् रिक्वेस्ट की शक्ल में सामने हैं
एक भ्रम और है जो उसे एक्सेप्ट कर रहा है।
(04 april 2010)
जिंदगी को कैसे देखें...

(कुछ बातें दिल को छू जाती हैं...१७ दिसम्बर २००८ को दैनिक भास्कर में छपे सम्पादकीय में विचारक स्टीफन आर कवी का इंटरव्यू छपा था...उन्होने कुछ ऐसी बातें कही... जिसने मुझे काफी प्रभावित किया...उनके इंटरव्यू के कुछ अंश यहां कोड कर रहा हूं...)
सवाल...जिंदगी को कैसे देखें...
स्टीफन...शरीर के बारे में सोचिए कि आपको दिल का दौरा पड़ चुका है...अब उसी हिसाब से खानपान और जीवनचर्या तय करें...दिमाग के बारे में सोचिए कि आपकी आधी पेशेवर जिंदगी सिर्फ दो साल है...इसलिए इसी हिसाब से तैयारी करें...दिल के बारे में ये मानिए कि आपकी हर बात दूसरे तक पहुंचती है...लोग आपकी बात छिपकर सुन सकते हैं...और उसी इसी हिसाब से बोलें...जहां तक भावना का सवाल है...ये सोचिए कि आपका ऊपरवाले के साथ हर तीन महिने में सीधा साक्षात्कार होता है...इसी हिसाब से जीवन की दिशा तय करें...
शनिवार, 1 मई 2010
बस इतनी सी पहचान
ख्वाहिश नहीं कि इतिहास की तारीखो की तरह जबरन याद रखा जाऊं। न्यूटन के फार्मूले की तरह किसी पहचान से बंधने का इरादा भी नहीं है। पैसे को पहाड़े की तरह जोड़ने की ना अक्ल है और ना शौक। इतना बड़ा नहीं हुआ कि खुद की पहचान को शब्दों में बांट सकूं। फिलहाल अपने पेशे में खुद को तलाश रहा हूं। दिल का घर लखनऊ में है और खुद का पता अभी किराए पर है।
शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010
सानिया की स्कर्ट जैसी छोटी सोच

सानिया की शादी के बाद उनके खेल का मुल्क क्या होगा ये सवाल किसका है। आम लोगों का, नेताओं का. या फिर मीडिया का। अमिताभ सदी के महानायक हैं ये किसने तय किया। उनके फैन्स ने, खुद उन्होने, या फिर मीडिया ने। जो अमर सिंह एक चुनाव लड़ने और जीतने की हैसियत नहीं रखते उनकी प्रेस कांफ्रेंस घंटों लाइव क्यों चलती हैं। क्या अमर ऊंचे कद के नेता हैं या फिर मीडिया उन्हें बड़े नेता के तौर पर पेश करने पर तूली है। ऐसे तमाम सवाल हैं जो मीडिया की साख के सामने खड़े हैं। खबरों का मसाला तैयार करने के लिए विवादों को कैश करना मीडिया की आदत बन चुका है। अगर विवाद के साथ कोई सेलिब्रेटी जुड़ा हो तो खबरों का तड़का और भी जबरदस्त हो जाता है। मीडिया ने शायद ही सानिया के खेल को कभी इतनी तब्बज़ो दी हो जितना उनकी शोएब से शादी को हासिल हो रही है। कहानी मजेदार है सो बेची जा रही है। कहा जाता है कि टीवी सबसे मुश्किल माध्यम है दर्शक को अपने चैनल पर रोकना उससे भी मुश्किल है। इसी मुश्किल से न्यूज चैनलों की तमाम मुश्किलों की शुरुआत होती है। एक अप्रैल खबरों के लिहाज से बड़ा दिन था। एक ओर बायोमिट्रिक जनगणना की शुरुआत हुई तो दूसरी ओर राइट टू एजुकेशन का कानून लागू हुआ। रिटायर सैनिकों के पेंशन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई। लेकिन इन सभी खबरों पर सानिया की खबर भारी पड़ी। हद तो तब हो गई जब एक साइट पर अप्रैल फूल बनाने के लिए छपी सानिया की खबर को कई चैनलों ने बतौर ब्रेकिंग न्यूज तक में चला डाला। बाद में साइट ने स्पष्ट किया की वो देखना चाहते थे कि दूसरी साइट वाले और न्यूज चैनल्स किस तरह से खबरों की चोरी करते हैं। कईंयों की चोरी पकड़ी गई। इस हड़बड़ी ने कई बातें साफ कर दीं...पहली ये कि चैनल के मालिकान टीआरपी का बहाना बनाकर अपने गिरेवान में झांकना नहीं चाहते। दूसरा ये कि न्यूज को मनोरंजक बनाने के लिए खबर की जान ले लेने से भी अब टीवी संपादकों को कोई परहेज नहीं है। ये बात पूरी तरह सच है कि खबरों को लेकर दर्शकों का जायका बिगड़ा है लेकिन उतना बड़ा सच ये भी है कि उसे बिगाड़ने का काम खुद न्यूज चैनल ने किया है। बेसुरी और बेअक्ल राखी सांवत अगर खुद को सेलिब्रेटी समझती हैं तो सिर्फ और सिर्फ टीवी वालों की वजह से। अमर बार बार भद्दी शायरियां सुनाकर खुश होते हैं तो उसके पीछे भी टीवी चैनलों की सोच जिम्मेदार है। अमिताभ चैनलों को बुरी तरह तताड़ लगाकर चलते बनते हैं और कल तक चुप रहने वाली जया बच्चन चैनल वालों को आमंत्रित करके उनकी बेइज्जती करतीं हैं तो सिर्फ और सिर्फ टीवी संपादकों की छिछली सोच की वजह से। हमने दर्शकों को इन्हीं जायकों का आदी बनाया है और इस बदमिजाजी को परोसने के बाद पत्रकार की हैसियत से इज्जत की उम्मीद रखना ठीक नहीं है।
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010
खबरों का कूड़ा और उसकी दुकान

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