शुक्रवार, 7 मई 2010

यहां अंग्रेज पैदा होते हैं

उन जिंदगियों पर रिसर्च होनी चाहिए जिन्होने सिविल सर्विस को अपना मकसद बनाया और नाकाम रहे। शोध इस बात पर भी होनी चाहिए कि जिन्होने यूपीएससी में टॉप किया उन्होने देश को क्या कुछ नायाब दे दिया। एक बार फिर अखबार यूपीएससी में सफल छात्रों के इंटरव्यू से पटे पड़े हैं। इंटरव्यू में घिसे पिटे सवालों के घिसे पिटे जवाब हैं। वही ईमानदारी की कोरी बाते हैं, सिस्टम को दुरस्त कर देने का पुराना जुमला है। मुझे लगता है कि सिविल सर्विस के इक्जाम को सिस्टम की सबसे बड़ी विडम्बना घोषित कर देना चाहिए। क्योकि यही एक ऐसा इंतहान है जो ऐसे सरकारी मुलाजिम पैदा करता है जो अंग्रेजियत की ट्रेनिंग लेते हैं और तैनाती के बाद सिस्टम का कोढ़ बन जाते हैं। एक दो अपवादों को छो़ड़ दें तो मुझे कोई ऐसा नाम याद नहीं आता जिसे प्रशासनिक कुशलता के चलते भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग उठी हो। हां...जी. के. गोस्वामी जैसे तमाम भ्रष्ट नामों की भरमार आपको जरुर मिल जाएगी। सिस्टम की सड़न... सिविल सेवा के इंतहान में आपको पैटर्न से लेकर मकसद तक मिल जाएगी। साल में करीब एक हजार अफसर पैदा करने वाली ये व्यवस्था करीब तीन से चार लाख ऐसे हताश निराश लोग भी पैदा करती है जो या तो इंतहान में बुरी तरह नाकाम होते हैं या फिर कुछ नंबरों से चूक जाते हैं। इन टूटे सपनों का कितना बड़ा खामियाजा देश को उठाना पड़ता है इसका कोई रिकार्ड सरकारी दस्तावेजों में दर्ज नहीं है। अंग्रेजों की मानसिकता में जीने और भोग विलास में लिप्त रहने वाले अफसरों की फौज की बड़ी वजह उनकी घिसी पिटी ट्रेनिंग है। सिविल सेवा के इंतहान में झंडे गाड़ने वालों को घुड़सवारी से लेकर टेबल मैनर तो सिखा दिए जाते हैं लेकिन गांव से लेकर कस्बों के हालत कैसे सुधारे जाएं इस पर बात नहीं होती। क्यों ना सिविल सेवा के इंतहानों में देश की दिक्कतों को दूर करने के फार्मूलों पर बात हो। क्यों ना उनसे नरेगा जैसी तमाम सरकारी योजनाओं को हर आदमी तक पहुंचाने के तौर तरीकों पर सवाल किए जाएं। ट्रेनिंग में नए अफसरों को गांव देहात और दुर्मग जगहों पर भेजा जाए और कालाहांडी पर उनसे प्रोजेक्ट तैयार कराए जाएं। अगर ऐसा हुआ तो शायद देश में ऐसे तमाम अफसर होंगे तो अपने रुतबे के लिए नहीं बल्कि सिस्टम सुधारने के लिए याद किए जाएंगे...

गुरुवार, 6 मई 2010

निरुपमा...तुम खबर नहीं बन सकती !

आज मेरी जुबान लड़खड़ा रही है। मेरे गले से शब्द नहीं निकल रहे। मैंने कभी नहीं सोचा था कि अपने बीच से ही किसी को खबर बनते देखूंगा। कल तक जो निरुपमा मेरी एक दोस्त हुआ करती थी और दोस्त से ज्यादा मेरे करीबी दोस्त प्रियभांशु की होने वाली जीवनसंगिनी यानि हमारी भाभी, आज वो साल की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री बन चुकी है। मेरे सामने उसी निरुपमा पाठक की स्टोरी वाइस ओवर के लिए आती है। एक आम स्टोरी की तरह जब मैं इस स्टोरी को अपनी आवाज में ढालने की कोशिश करता हूं तो मेरी जुबान लड़खड़ाने लगती है। मेरे गले से शब्द नहीं निकलते। इस स्टोरी को पढ़ता-पढ़ता मैं अपने अतीत में लौट जाता हूं। मुझे याद आने लगते हैं वो दिन जब आईआईएमसी में प्रियभांशु और निरुपमा एकांत पाने के लिए हम लोगों से भागते-फिरते थे और हम जहां वो जाते उन्हें परेशान करने के लिए वही धमक जाते। हमारा एक अच्छा दोस्त होने के बावजूद प्रियभांशु के चेहरे पर गुस्से की भंगिमाएं होतीं लेकिन हमारी भाभी यानि नीरु के मुखड़े पर प्यारी सी मुस्कान। हम नीरु को ज्यादातर भाभी कहकर ही बुलाते थे हालांकि इसमें हमारी शरारत छुपी होती थी लेकिन नीरु ने कभी हमारी बातों का बुरा नहीं माना। उसने इस बात के लिए हमें कभी नहीं टोका। नीरु गाती बहुत अच्छा थी। हम अक्सर जब भी मिलते थे नीरु से गाने की फरमाइश जरुर करते और नीरु भी हमारी जिद को पूरा करती। शुरुआती दिनों में हमें इन दोनों के बीच क्या पक रहा है इस बारे में कोई इल्म नहीं था। बाद में एक दिन प्रियभांशु जी ने खुद ही नीरु और अपने सपनों की कहानी हमें बतायी। दोनों एक-दूसरे से बेइंतहा मोहब्बत करते थे। दोनों एक-दूसरे से शादी करना चाहते थे। दोनों अपने प्यार की दुनिया बसाने के सपने संजो रहे थे। मजे की बात ये कि प्रियभांशु बाबू भाभी की हर बात मानने लगे थे। आईआईएमसी के दिनों प्रियभांशु बाबू और मैं सुट्टा मारने के आदि हुआ करते थे। एक दिन जब मैंने प्रियभांशु से सुट्टा मारने की बात कही तो उसने ये कहते हुए मना कर दिया कि नीरु ने मना किया है। मतलब प्रियभांशु पूरी तरह से अपने आप को नीरु के सपनों का राजकुमार बनाना चाहता था। वो क्या चाहती है क्या पसंद करती है प्रियभांशु उसकी हर बात का ख्याल रखता। हालांकि उस वक्त हम उसे अपनी दोस्ती का वास्ता देते लेकिन तब भी वो सिगरेट को हाथ नहीं लगाता। अचानक वॉइस ओवर रुम के दरवाजे पर थपथपाने की आवाज आती है। मैं एकदम अपने अतीत से वर्तमान में लौट आता हूं। वर्तमान को सोचकर मेरी रुह कांप उठती है। मेरी आंखें भर आती हैं .टीवी स्क्रीन पर नजर पड़ती है और उस मनहूस खबर से सामना होता है कि वो हंसती, गाती, नीरु अब हमारे बीच नहीं है। समाज के ठेकेदारों ने उसे हमसे छीन लिया है।.नीरु अब हमारी यादों में दफन हो चुकी है। नीरू साल की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री बन चुकी है। वो मर्डर मिस्ट्री जिससे पर्दा उठना बाकी है। क्यों मारा गया नीरु को ? किसने मारा नीरु को?आखिर नीरु का कसूर क्या था ? क्या अपनी मर्जी से अपना जीवनसाथी चुनना इस दुनिया में गुनाह है? क्या किसी के साथ अपनी जिंदगी गुजारने का सपना देखना समाज के खिलाफ है? हमें मर्जी से खाने की आजादी है, मर्जी से पहनने की आजादी है, मर्जी से अपनी करियर चुनने की आजादी है तो फिर हमें इस बात की आजादी क्यों नहीं है कि हम किस के साथ अपनी जिंदगी बिताएं। आज ये सवाल मुझे झकझोर रहे हैं....
( अमित यादव आईएमएमसी के उसी बैच के छात्र हैं जिस बैच में निरुपमा थीं। निरुपमा और प्रियभांशु की दोस्ती और प्रेम का रास्ता अमित ने काफी करीब से देखा। जब प्रियभांशु और निरुपमा पर लिखी खबर का वाइसओवर करने का वक्त आया तो अमित का गला रुंध गया। दोस्त और उसके प्रेम का देखते देखते यूं खबर बन जाना किस कदर कचोटता है। ये अमित ने हमारे साथ साझा किया)

मंगलवार, 4 मई 2010

फ्लैश के उस पार


कैमरे का फ्लैश चमकने से पहले,
रेडी वन टू थ्री कहते ही
कितनों के चेहरे पर आई होगी
जबरदस्ती की मुस्कुराहट ।
कैमरे ने बड़े सलीके से खींच लिए होंगे
होठों के वो बनावटी एक्सप्रेशन।
कैमरों में बड़ी चालाकी से छिप गई होगी
जिंदगी से जूझने की जद्दोजहद,
मां की बीमारी की परेशानी,
और रोज रोज बनते बिगड़ते रिश्तों की कहानी।
तस्वीरों के ऐसे आधे अधूरे सच
फोटो की शक्ल में किसी के फेसबुक
तो किसी के ब्लॉग पर नत्थी हैं।
आधी अधूरी तस्वीरों की तमाम दस्तकें
फ्रैण्डस् रिक्वेस्ट की शक्ल में सामने हैं
एक भ्रम और है जो उसे एक्सेप्ट कर रहा है।
(04 april 2010)

जिंदगी को कैसे देखें...


(कुछ बातें दिल को छू जाती हैं...१७ दिसम्बर २००८ को दैनिक भास्कर में छपे सम्पादकीय में विचारक स्टीफन आर कवी का इंटरव्यू छपा था...उन्होने कुछ ऐसी बातें कही... जिसने मुझे काफी प्रभावित किया...उनके इंटरव्यू के कुछ अंश यहां कोड कर रहा हूं...)


सवाल...जिंदगी को कैसे देखें...

स्टीफन...शरीर के बारे में सोचिए कि आपको दिल का दौरा पड़ चुका है...अब उसी हिसाब से खानपान और जीवनचर्या तय करें...दिमाग के बारे में सोचिए कि आपकी आधी पेशेवर जिंदगी सिर्फ दो साल है...इसलिए इसी हिसाब से तैयारी करें...दिल के बारे में ये मानिए कि आपकी हर बात दूसरे तक पहुंचती है...लोग आपकी बात छिपकर सुन सकते हैं...और उसी इसी हिसाब से बोलें...जहां तक भावना का सवाल है...ये सोचिए कि आपका ऊपरवाले के साथ हर तीन महिने में सीधा साक्षात्कार होता है...इसी हिसाब से जीवन की दिशा तय करें...

शनिवार, 1 मई 2010

बस इतनी सी पहचान

ख्वाहिश नहीं कि इतिहास की तारीखो की तरह जबरन याद रखा जाऊं। न्यूटन के फार्मूले की तरह किसी पहचान से बंधने का इरादा भी नहीं है। पैसे को पहाड़े की तरह जोड़ने की ना अक्ल है और ना शौक। इतना बड़ा नहीं हुआ कि खुद की पहचान को शब्दों में बांट सकूं। फिलहाल अपने पेशे में खुद को तलाश रहा हूं। दिल का घर लखनऊ में है और खुद का पता अभी किराए पर है।

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

सानिया की स्कर्ट जैसी छोटी सोच


सानिया की शादी के बाद उनके खेल का मुल्क क्या होगा ये सवाल किसका है। आम लोगों का, नेताओं का. या फिर मीडिया का। अमिताभ सदी के महानायक हैं ये किसने तय किया। उनके फैन्स ने, खुद उन्होने, या फिर मीडिया ने। जो अमर सिंह एक चुनाव लड़ने और जीतने की हैसियत नहीं रखते उनकी प्रेस कांफ्रेंस घंटों लाइव क्यों चलती हैं। क्या अमर ऊंचे कद के नेता हैं या फिर मीडिया उन्हें बड़े नेता के तौर पर पेश करने पर तूली है। ऐसे तमाम सवाल हैं जो मीडिया की साख के सामने खड़े हैं। खबरों का मसाला तैयार करने के लिए विवादों को कैश करना मीडिया की आदत बन चुका है। अगर विवाद के साथ कोई सेलिब्रेटी जुड़ा हो तो खबरों का तड़का और भी जबरदस्त हो जाता है। मीडिया ने शायद ही सानिया के खेल को कभी इतनी तब्बज़ो दी हो जितना उनकी शोएब से शादी को हासिल हो रही है। कहानी मजेदार है सो बेची जा रही है। कहा जाता है कि टीवी सबसे मुश्किल माध्यम है दर्शक को अपने चैनल पर रोकना उससे भी मुश्किल है। इसी मुश्किल से न्यूज चैनलों की तमाम मुश्किलों की शुरुआत होती है। एक अप्रैल खबरों के लिहाज से बड़ा दिन था। एक ओर बायोमिट्रिक जनगणना की शुरुआत हुई तो दूसरी ओर राइट टू एजुकेशन का कानून लागू हुआ। रिटायर सैनिकों के पेंशन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई। लेकिन इन सभी खबरों पर सानिया की खबर भारी पड़ी। हद तो तब हो गई जब एक साइट पर अप्रैल फूल बनाने के लिए छपी सानिया की खबर को कई चैनलों ने बतौर ब्रेकिंग न्यूज तक में चला डाला। बाद में साइट ने स्पष्ट किया की वो देखना चाहते थे कि दूसरी साइट वाले और न्यूज चैनल्स किस तरह से खबरों की चोरी करते हैं। कईंयों की चोरी पकड़ी गई। इस हड़बड़ी ने कई बातें साफ कर दीं...पहली ये कि चैनल के मालिकान टीआरपी का बहाना बनाकर अपने गिरेवान में झांकना नहीं चाहते। दूसरा ये कि न्यूज को मनोरंजक बनाने के लिए खबर की जान ले लेने से भी अब टीवी संपादकों को कोई परहेज नहीं है। ये बात पूरी तरह सच है कि खबरों को लेकर दर्शकों का जायका बिगड़ा है लेकिन उतना बड़ा सच ये भी है कि उसे बिगाड़ने का काम खुद न्यूज चैनल ने किया है। बेसुरी और बेअक्ल राखी सांवत अगर खुद को सेलिब्रेटी समझती हैं तो सिर्फ और सिर्फ टीवी वालों की वजह से। अमर बार बार भद्दी शायरियां सुनाकर खुश होते हैं तो उसके पीछे भी टीवी चैनलों की सोच जिम्मेदार है। अमिताभ चैनलों को बुरी तरह तताड़ लगाकर चलते बनते हैं और कल तक चुप रहने वाली जया बच्चन चैनल वालों को आमंत्रित करके उनकी बेइज्जती करतीं हैं तो सिर्फ और सिर्फ टीवी संपादकों की छिछली सोच की वजह से। हमने दर्शकों को इन्हीं जायकों का आदी बनाया है और इस बदमिजाजी को परोसने के बाद पत्रकार की हैसियत से इज्जत की उम्मीद रखना ठीक नहीं है।

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

खबरों का कूड़ा और उसकी दुकान

हम टीवी पर बोलते नहीं चिल्लाते हैं या कहें झूठे डर क्रिएट करते हैं। मसलन धरती फलाना साल में खत्म होने वाली है। मौत का कुंआ...मौत की कार...मौत की बस वगैरह वगैरह...। मौत से सबको डर लगता है लेकिन जब टीवी वाले मौत की बात करते हैं तो हंसी आती है। कुछ लोग मजे लेते हैं, कुछ चैनल बदल देते हैं। समझना मुश्किल होता है मौत किसकी आने वाली है लोगों की या फिर खुद न्यूज चैनल वालों की। जाहिर है सारा खेल अतिरेक परोसने की होड़ का है। सवाल उठता है टीवी वाले खासकर हिंदी न्यूज चैनल वाले इतना चिल्लाते क्यों हैं। क्यों हर छोटी से छोटी बात को मौत के साथ जोड़कर मसालेदार बनाया जा रहा है। पूरा खेल अपना अपना घटिया माल बेचने का है। आपका माल कूड़ा होगा तो आप चिल्ला चिल्लाकर और झूठ बोलकर ही उसे बेच पाएंगे। उसी तरह जिस तरह मछली बाजार में उसी की मछली ज्यादा बिकती है जो खूब हो हल्ला मचाता है। उसके उलट क्वालिटी के समान के पास लोग खुद चलकर पहुंचते हैं। उत्तम गुणवत्ता को चीखने चिल्लाने की जरुरत नहीं होती और ना ही लोग उसके दाम कम करवाने के लिए जोर जबरदस्ती करते हैं। न्यूज कटेंट की कहानी यही है। कुछ न्यूज चैनल वाले नाग नागिन दिखाकर भले अपनी टीआरपी पर खुश हो लें लेकिन लोगों की नजरों में उनकी ब्रांड वैल्यू सिवाय कूड़े के कुछ नहीं है। यकीन ना आए तो चौराहे पर जाकर अपनी न्यूज की विश्वसनीयता के बारे में लोगों से पूछ लीजिए। किसी पढ़े लिखे से नागिन के डांस पर रिएक्शन लेंगें तो दौड़ा लेगा और धरती के खत्म होने के सवाल पर छठी का बच्चा भी माइक पर बोलने से शरमा जाएगा। तय करना होगा कि प्यासा कुएं के पास जाएगा या हम कुएं के लिए प्यासे को खोजते फिरेंगे। सवाल बड़ा है हम कब तक घटिया माल बेचने के लिए इसी तरह चीखते चिल्लाते रहेंगे। वो वक्त आखिर कब आएगा जब बेहतरीन माल खरीदने के लिए लोगों की कतार हमारी दुकान (न्यूज चैनल) पर होगी। सूचना प्रसारण मंत्री ने टीआरपी सिस्टम में कुछ बदलाव लाने की बात कही है। इससे कुछ उम्मीद तो जागी ही है।