कम्बख्त साइकिल को पता नहीं तमाम रास्तों की पहचान कैसे थी। स्कूल जाते वक्त रास्ता भटक जाना, गर्ल्स कॉलेज के सामने अदब से रफ्तार थाम लेना या फिर सिनेमाघर के स्टैंड पर घंटों तक आराम फरमाने की जिद के आगे मेरी ईमानदारी कई बार हारी। कभी हमारी साइकिलों ने स्टैंड के स्टैण्डर्ड का रोना नहीं रोया। जहां हमने उनकी रफ्तार पर ताला मारकर खड़ा किया चुपचाप खड़ी हो गईं। स्कूल के स्टैंड की तानाशाही ना हमें और ना हमारी साइकिलों को बर्दाश्त थीं। हम अपनी साइकिलें अक्सर उन स्टैंड के हवाले कर देते जो कुकुरमुत्तों की तरह स्कूल के आसपास उग आए थे। वक्त बेवक्त गोला मारने की बेताबी से ऐसे साइकिल स्टैंड का धंधा चोखा था। हमारा स्कूल सरकारी था और लखनऊ सिटी स्टेशन के पीछे चुपचाप कई सालों से खड़ा था। स्कूल के माहौल में सख्ती थी लेकिन उन स्टूडेंट के लिए नहीं जो स्कूल के मास्टरों को ट्यूशन के नाम पर चंदा चढ़ा आते थे। फिजिक्स कमेस्ट्री बॉयलोजी और मैथ्स गुमनाम है कोई...की तर्ज पर स्कूल में बसा करते थे। मास्टरों के लिए स्कूल क्लॉस ट्यूशन के प्रमोशन का अड्डा थे। हर टीचर पढ़ाई का डेमो देकर अपने घर का पता दे दिया करता था। कुछ इस तरह....कि पास होना है तो इस पते पर चले आओ...ट्यूशन की टाइमिंग फलाना फलाना है। साइंस के मास्टरों के लिए छात्रों का शिकार करना आसान था। लेकिन जल्दी ही आर्ट के मास्टरों ने भी ये कला सीख ली. सूर और कबीर के दोहों को समझने में भी स्टूडेंट फेल होने लगे और पास होने के लिए माथा टेकने गुरूजी के दर पर पहुंचने लगे। लैब में हमारा आना जाना अमावस में निकलने वाले चांद की तरह था। माइक्रोस्कोप से इंट्रोडक्शन नहीं हो पाया, टेस्ट ट्यूब कभी टेस्ट नहीं कर पाए और ब्यूरेट पीपेट से कभी आई लव यू नहीं बोल पाए। इसी उधेड़बुन में वक्त कब इंतहान का आ गया पता नहीं चला। सारा वक्त मास्टरों का नामकरण और उनके पुराने नाम को सहेजने में निकल गया। हमारी कोशिशों का ही नतीजा था कि स्कूल में कैमेस्ट्री के टीचर्स को सभी आदर से सुग्गा कहते थे और फिजिक्स के नेगी जी लेढ़ी जी हो गए थे। उधर साइकिलें हमारा इंतजार किसी प्रेमिका की तरह किया करतीं थीं। हम उन्हें स्कूल जैसे जेल से कहीं दूर टिका दिया करते थे। इन पलों में हमारी साइकिलें ना जाने कितने ख्वाब बुन लिया करती थीं, कितने सिनेमाघरों के पोस्टरों को मन ही मन देखकर लौट आती थीं और कभी कभी स्कूल के किसी टीचर या उनके किसी रिश्तेदार के मरने की दुआ भी ऊपरवाले से मांग लिया करती थीं। साइकिलों से हमारी बेपनाह मोहब्बत ही थी कि हम धर्मेंद्र और अमिताभ की तरह स्कूल की जेल सी ऊंची दीवारें फांदकर उन तक पहुंचने लगे। साइकिल से दिवानगी का आलम ये हो गया कि जुम्मे के दिन हर हिंदू लड़के को नमाज की तलब लगने लगी और शिवरात्रि के दिन मुस्लिम छात्र बाबा भोलेनाथ के दर्शन को बेचैन होने लगे।....जारी
4 टिप्पणियां:
क्या खूब याद दिलाया आपने..बचपन की यादें ताजा करा दी..हॉ शरारतें तो बहुत की हमने भी लेकिन स्कूल ने हमारे हमें ज्यादा छूट नहीं दी..बहुत बांध के रखा..हमारा स्कूल एकदम तिहाड़ जेल समझिये ..कोई एक बार आ गया तो बस उसकी छुट्टी ..अब आप दोस्त शरारत सब भूल जाइए...
vo kuch din kitne sundar the.
Bhai aapne to sare purane war'q palat diye.....
aap ke iss experience ke hum barabar ke hissedar hai.....
Bhai Jubilee college,City Station aur Gulaab Cinema :) ki yaad dila di aapne.
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