गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

खबरों का कूड़ा और उसकी दुकान

हम टीवी पर बोलते नहीं चिल्लाते हैं या कहें झूठे डर क्रिएट करते हैं। मसलन धरती फलाना साल में खत्म होने वाली है। मौत का कुंआ...मौत की कार...मौत की बस वगैरह वगैरह...। मौत से सबको डर लगता है लेकिन जब टीवी वाले मौत की बात करते हैं तो हंसी आती है। कुछ लोग मजे लेते हैं, कुछ चैनल बदल देते हैं। समझना मुश्किल होता है मौत किसकी आने वाली है लोगों की या फिर खुद न्यूज चैनल वालों की। जाहिर है सारा खेल अतिरेक परोसने की होड़ का है। सवाल उठता है टीवी वाले खासकर हिंदी न्यूज चैनल वाले इतना चिल्लाते क्यों हैं। क्यों हर छोटी से छोटी बात को मौत के साथ जोड़कर मसालेदार बनाया जा रहा है। पूरा खेल अपना अपना घटिया माल बेचने का है। आपका माल कूड़ा होगा तो आप चिल्ला चिल्लाकर और झूठ बोलकर ही उसे बेच पाएंगे। उसी तरह जिस तरह मछली बाजार में उसी की मछली ज्यादा बिकती है जो खूब हो हल्ला मचाता है। उसके उलट क्वालिटी के समान के पास लोग खुद चलकर पहुंचते हैं। उत्तम गुणवत्ता को चीखने चिल्लाने की जरुरत नहीं होती और ना ही लोग उसके दाम कम करवाने के लिए जोर जबरदस्ती करते हैं। न्यूज कटेंट की कहानी यही है। कुछ न्यूज चैनल वाले नाग नागिन दिखाकर भले अपनी टीआरपी पर खुश हो लें लेकिन लोगों की नजरों में उनकी ब्रांड वैल्यू सिवाय कूड़े के कुछ नहीं है। यकीन ना आए तो चौराहे पर जाकर अपनी न्यूज की विश्वसनीयता के बारे में लोगों से पूछ लीजिए। किसी पढ़े लिखे से नागिन के डांस पर रिएक्शन लेंगें तो दौड़ा लेगा और धरती के खत्म होने के सवाल पर छठी का बच्चा भी माइक पर बोलने से शरमा जाएगा। तय करना होगा कि प्यासा कुएं के पास जाएगा या हम कुएं के लिए प्यासे को खोजते फिरेंगे। सवाल बड़ा है हम कब तक घटिया माल बेचने के लिए इसी तरह चीखते चिल्लाते रहेंगे। वो वक्त आखिर कब आएगा जब बेहतरीन माल खरीदने के लिए लोगों की कतार हमारी दुकान (न्यूज चैनल) पर होगी। सूचना प्रसारण मंत्री ने टीआरपी सिस्टम में कुछ बदलाव लाने की बात कही है। इससे कुछ उम्मीद तो जागी ही है।

बुधवार, 31 मार्च 2010

यूपी को बिहार से खतरा !

यूपी को लंबे अर्से से ये सहूलियत हासिल है कि वो बिहार की बदहाली में खुद की बदहाली छुपा सके। अब बिहार बदल रहा है या कहें वहां बदलाव की छटपटाहट दिखने लगी है। वहीं अभी यूपी से ऐसी कोई खबर नहीं है। सिवाए इसके की मायावती हजार हजार रुपए की नोटों की माला पहन रही हैं। लखनऊ पत्थर की मूरत में बदल रहा है। विकीपीडिया पर यूपी के बारे में तमाम आंकड़े पढ़कर कुछ खुशफहमी हो सकती है। जैसे कि यूपी देश में महाराष्ट्र के बाद दूसरी बड़ी आर्थिक ताकत है। खेती का हाल भी खुशनुमा दिखता है। यहां 70 फीसदी लोग खेती करते हैं और 46 फीसदी कमाई यूपी इसी खेती से करता है। छोटे उद्योगों के मामले में भी यूपी का दबदबा कायम है। लेकिन इन आंकड़ों के उलट हकीकत कुछ और है। जैसे पिछले दस सालों में यूपी का आर्थिक विकास देश में सबसे कम यानी मजह 4 फीसदी के आसपास रहा है। बिजली की आवाजाही ने उद्योगों पर बुरा असर डाला है। स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बद से बदतर हुआ है। यूपी में केवल 29 प्रतिशत लोगों के पास पक्के घर हैं। 67 फीसदी लोग के यहां शौचालय नहीं है। केवल 9 फीसदी लोगों को यूपी में साफ पानी मयस्सर है। आबादी बढ़ाने के मामले में यूपी का योगदान 10 प्रमुख राज्यों में सबसे ज्यादा है। मौत की दर के मामले में भी यूपी सबसे बदतर हैं। गांव देहात के अस्पतालों में इलाज से ज्यादा भ्रष्टाचार है। पलायन बिहार की तरह यूपी की भी तकदीर का हिस्सा है। पश्चिमी यूपी को छोड़ दें (दिल्ली और हरियाणा की वजह से) तो बाकी यूपी पलायन के मामले में बिहार के आसपास नजर आता है। कानपुर में अब मैनचेस्टर वाली बात नहीं है। बुंदेलखंड यूपी का कालाहांडी बन चुका है। गन्ना किसान सरकार के फैसलों की मार झेल रहे हैं। लेकिन उद्योगों की चिंता से ज्यादा मायावती को मूर्तियों की चिंता है। बिहार तो लालू की छवि से काफी कुछ उबर चुका है लेकिन यूपी के माया और मुलायम की छवि से निकलने की कोई सूरत दूर दूर तक नजर नहीं आती। मायावती और मुलायम यूपी की राजनीति की विडंबना बन चुके हैं। दोनो दलों के एजेंडे का वास्ता विकास से कम जुमलों की राजनीति से ज्यादा है। दलितों को बहन जी के कार्यकाल से कितनी तरक्की हासिल हुई उसका किसी ताजा और पारदर्शी आंकड़ों में आना अभी है। यूपी अभी तक बिहार की बदहाली में अपनी फटीचरी छुपाता रहा है। अब ये भी सहुलियत छिनती दिख रही है।

मंगलवार, 30 मार्च 2010

गरियाना तो सबको आता है पर...


बड़बड़ाते झुंझलाते और काफी हद तक गरियाते लोगों से घिरा हूं। समझना मुश्किल है क्या बोलूं क्या कहूं। बस हां में हां मिलाकर काम चला लेता हूं। ना सहमति ना असहमति। सबकी अपनी शिकायते हैं सबकी अपनी कहानियां हैं। दरअसल दिक्कतें कई हैं। सब अपनी नजरों में सिकंदर हैं। सबके अपने पूर्वाग्रह हैं। लेकिन मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि कोई कैसे तय कर सकता है कि वो इस सदी का सबसे बड़ा राइटर है। कोई कैसे इस गुमान में जी लेता है कि वो बोलेगा और कई सदियों का कहा हमेशा के लिए मिट जाएगा। या फिर वो लिखेगा और पुराना लिखा सबकुछ मिटा देगा। क्यों लोग आसपास की दुनिया को देखना नहीं चाहते अपनी कमीज पर लगे दागों को धोने की कोशिश करना नहीं चाहते। शिकायतें यहीं से शुरु होती हैं। काबिलियत बोले जाने की मोहताज नहीं होती। उसका खुद का चेहरा होता है। ठीक वैसे जैसे ए आर रहमान की काबलियत धुनों में सुनी जा सकती है। सचिन का एक्सीलेंस उनके शॉट्स में बखूबी छलक आता है। दरअसल सीखने के लिए बहुत कुछ है और करने को बहुत स्पेस है। जरुरत है अपने दिमाग में स्पेस बनाने की। समाचार माध्यमों के साथ जो हो रहा है वो दिमाग में उस स्पेस की कमी का नतीजा है। जो दिमाग में विचारों का स्पेस बना लेते हैं वो इस भेड़चाल में भी दिल्ली का लापतागंज खोज लेते हैं। कैमरे आंख की तरह इस्तेमाल हों और माइक किसी की आवाज की तरह तो यकीन जानिए न्यूज में बहुत कुछ कहने सुनने के लिए होगा। वरना कॉमेडी सर्कस और रियलटी की उधारी से न्यूज चैनलों की दुकानें सजती रहेंगी।

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

वो गुमनाम खत पार्ट २

साइकिलों का भी क्लास बंटने लगा। हीरो रेंजर साइकिलों का नया संस्करण था। पुराने मॉडल की साइकिलें छात्र के गंवारुपन की पहचान बनने लगीं। इसी बीच हीरो पुक ने आकर साइकिलों को दहला दिया। लड़के एक लीटर में ७० किलोमीटर का सफर मोपेट से तय करने लगे। लड़के लड़कियों के बीच हीरो पुक का नया मॉडल नए जमाने का नया फैशन हो गया। कपड़े भी बदले बैगी स्वेटर बैगी पैंट और ढीले ढाले कपड़े फैशन में आ गए। लड़कों की जेब में कंघियां रहने लगीं। फैशन का बुखार हमें भी चढ़ा। साइकिलें निक्सन मार्केट (अब वहां पार्क है) जाने की जिद करने लगीं। हम बदले लेकिन कॉलेज और हमारी पढ़ाई का मिजाज़ नहीं बदला। फिजिक्स और कैमेट्री की मोटी किताबें अब हमें पहले से ज्यादा परेशान करने लगीं। बायो की किताब में बने मेढ़क और खरगोश के फोटो खौफनाक लगने लगे। हम पढ़ तो रहे थे लेकिन क्या और क्यों हम खुद नहीं जानते थे। कंपटीशन नाम का वायरस कई छात्रों में घुस चुका था। लेकिन हम इस वायरस से बेखबर थे। पहली बार पीएमटी नाम सुना। पूरा नाम सुनने और याद करने में वक्त लग गया। लेकिन इन सबके बीच हमारी साइकिलों की पिक्चर हॉल जाने की हसरत बनी रही। बसंत, मेफेयर, साहू, लीला, गुलाब ये सब उन सिनेमाघरों के नाम थे जहां हमारी साइकिलें जाने को मचलती थीं। बसंत, मेफेयर, साहू, लीला ये सारे हॉल हजरतगंज में पड़ते थे। हॉल में घुसते वक्त किसी के देख लिए जाने का डर भी होता था। लेकिन इस डर के सामने फिल्म देखने का रोमांच भारी पड़ता। अक्सर हॉल में किसी परिचित से मुलाकात होती तो आंखों ही आंखों में एक दूसरे की चुगली ना करने का आश्वासन हम ले लिया करते थे। शाहरुख का ग्राफ चढ़ रहा था, मिथुन अपनी उम्र से जूझ रहे थे, अक्की खन्ना खतरों से खेल रहे थे, और रवीना टंडन, करिश्मा कपूर, आयशा जुल्का, जूही चावला जैसी एक्ट्रस अपने करियर की चढ़ान पर थीं। आमिर फिल्म में अपना अपना अंदाज दिखा रहे थे। बांबे आकर जा चुकी थी। हम आपके है कौन के साथ साथ दिल वाले दुल्हनियां ले जा रहे थे, पर्दे पर टाइटेनिक डूबकर पैसे कमा रही थी, दलाल और रावणराज जैसी घटिया फिल्में भी भीड़ बटोर लेती थीं। हमारी साइकिलों को भी अच्छी बुरी फिल्मों की पहचान थी।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

आई एम नॉट टेररिस्ट !

ओसामा बिन लादेन को सब जानते हैं तालिबान की सोच सबको पता है। लेकिन क्या मुसलमानों की पहचान लादेन और तालिबान पर आकर खत्म हो जाती है। क्यों नहीं लादेन के सामने मुसलमानों का कोई उदारवादी चेहरा उभर पाता है। क्यों तालिबान को हम ठेस मुसलमान की असल परिभाषा मान बैठते हैं। दरअसल माए नेम इज ख़ान इन सवालों के पार जाती है। फिल्म बताती है कि पूरी दुनिया अच्छे और बुरे इंसानों के खांचों में बंटी है और ये सबक फिल्म के साथ आखिरी तक जाता है। मज़हब और इंसानियत को जीते हुए फिल्म का नायक रिज़वान खान सबके दिलों को छू लेता है। ९/११ की पृष्ठभूमि में अब तक बनी शायद ये सबसे शानदार फिल्म है। फिल्म पर्दे से बाहर ऐसे तमाम सवाल छोड़ती है जिसके जवाब मुसलमानों को भी देने हैं। मसलन आज तक रिज़वान खान के किरदार सरीखे लाखों करोड़ों उदारवादी मुसलमान अपने मज़हब की पहचान क्यों नहीं बन पाए हैं। ज़ेहाद और इस्लाम के नाम पर हमेशा उन्मादी नामों का जिक्र बार बार क्यों होता है। क्यों लादेन और दूसरे कट्टरपंथी इस्लाम के पैरोकार की तरह स्थापित होते जा रहे हैं। मुसलमानों को समझना होगा कि मज़हब की रहनुमाई का ढिंढोरा पीटने वाले इन्हीं नामों की वजह से मुसलमानों की मुश्किलें बढ़ी हैं। तमाम मुल्कों में उन्हें शक की निगाह से देखा जा रहा है और उन पर तमाम तरह की पाबंदियां लगाई जा रही हैं। जरुरत लाखों करोड़ो उदारवादी मुसलमानों के सामने आने की है, जो मुसलमानों के बारे में गलतफहमी रखने वालों की आंखों में आंखे डालकर कह सकें कि आई एम मुस्लिम एंड आई एम नॉट टेररिस्ट। शायद आतंक का इससे ज्यादा मुंहतोड़ जवाब कुछ नहीं होगा। अगर ऐसा हुआ तो यकीन जानिए की नफरत की बुनियाद पर अपने दिन काट रही शिवसेना जैसी फिरकापरस्त सोच की ताबूत पर ये सबसे मजबूत कील होगी...

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

वो गुमनाम खत पार्ट १

कम्बख्त साइकिल को पता नहीं तमाम रास्तों की पहचान कैसे थी। स्कूल जाते वक्त रास्ता भटक जाना, गर्ल्स कॉलेज के सामने अदब से रफ्तार थाम लेना या फिर सिनेमाघर के स्टैंड पर घंटों तक आराम फरमाने की जिद के आगे मेरी ईमानदारी कई बार हारी। कभी हमारी साइकिलों ने स्टैंड के स्टैण्डर्ड का रोना नहीं रोया। जहां हमने उनकी रफ्तार पर ताला मारकर खड़ा किया चुपचाप खड़ी हो गईं। स्कूल के स्टैंड की तानाशाही ना हमें और ना हमारी साइकिलों को बर्दाश्त थीं। हम अपनी साइकिलें अक्सर उन स्टैंड के हवाले कर देते जो कुकुरमुत्तों की तरह स्कूल के आसपास उग आए थे। वक्त बेवक्त गोला मारने की बेताबी से ऐसे साइकिल स्टैंड का धंधा चोखा था। हमारा स्कूल सरकारी था और लखनऊ सिटी स्टेशन के पीछे चुपचाप कई सालों से खड़ा था। स्कूल के माहौल में सख्ती थी लेकिन उन स्टूडेंट के लिए नहीं जो स्कूल के मास्टरों को ट्यूशन के नाम पर चंदा चढ़ा आते थे। फिजिक्स कमेस्ट्री बॉयलोजी और मैथ्स गुमनाम है कोई...की तर्ज पर स्कूल में बसा करते थे। मास्टरों के लिए स्कूल क्लॉस ट्यूशन के प्रमोशन का अड्डा थे। हर टीचर पढ़ाई का डेमो देकर अपने घर का पता दे दिया करता था। कुछ इस तरह....कि पास होना है तो इस पते पर चले आओ...ट्यूशन की टाइमिंग फलाना फलाना है। साइंस के मास्टरों के लिए छात्रों का शिकार करना आसान था। लेकिन जल्दी ही आर्ट के मास्टरों ने भी ये कला सीख ली. सूर और कबीर के दोहों को समझने में भी स्टूडेंट फेल होने लगे और पास होने के लिए माथा टेकने गुरूजी के दर पर पहुंचने लगे। लैब में हमारा आना जाना अमावस में निकलने वाले चांद की तरह था। माइक्रोस्कोप से इंट्रोडक्शन नहीं हो पाया, टेस्ट ट्यूब कभी टेस्ट नहीं कर पाए और ब्यूरेट पीपेट से कभी आई लव यू नहीं बोल पाए। इसी उधेड़बुन में वक्त कब इंतहान का आ गया पता नहीं चला। सारा वक्त मास्टरों का नामकरण और उनके पुराने नाम को सहेजने में निकल गया। हमारी कोशिशों का ही नतीजा था कि स्कूल में कैमेस्ट्री के टीचर्स को सभी आदर से सुग्गा कहते थे और फिजिक्स के नेगी जी लेढ़ी जी हो गए थे। उधर साइकिलें हमारा इंतजार किसी प्रेमिका की तरह किया करतीं थीं। हम उन्हें स्कूल जैसे जेल से कहीं दूर टिका दिया करते थे। इन पलों में हमारी साइकिलें ना जाने कितने ख्वाब बुन लिया करती थीं, कितने सिनेमाघरों के पोस्टरों को मन ही मन देखकर लौट आती थीं और कभी कभी स्कूल के किसी टीचर या उनके किसी रिश्तेदार के मरने की दुआ भी ऊपरवाले से मांग लिया करती थीं। साइकिलों से हमारी बेपनाह मोहब्बत ही थी कि हम धर्मेंद्र और अमिताभ की तरह स्कूल की जेल सी ऊंची दीवारें फांदकर उन तक पहुंचने लगे। साइकिल से दिवानगी का आलम ये हो गया कि जुम्मे के दिन हर हिंदू लड़के को नमाज की तलब लगने लगी और शिवरात्रि के दिन मुस्लिम छात्र बाबा भोलेनाथ के दर्शन को बेचैन होने लगे।....जारी

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

दिल्ली से तू तू मैं मैं

दिल्ली वाले जश्न मनाने में उस्ताद हैं..मौका दीजिए फिर देखिए नाचेंगे दारू पीएंगे...हुड़दंग मचाएगें पंजाबी और हरियाणवी में चीखेंगे चिल्लाएंगे...३१ की शाम को जश्न में डूबी दिल्ली के जाम में फंसा तो होश ठिकाने आ गए...कनाट प्लेस पर जाम...इंडिया गेट पर ट्रैफिक बंद...बड़ी मुश्किल से घर पहुंचने का रास्ता मिला...हुड़दंग देखकर लगा की एक से सब बदल जाएगा...दिल्ली की सड़कों पर जाम नहीं लगेगा...शीला पानी का रेट कर देंगी..मनचले लड़कियों पर फब्तियां कसना बंद कर देंगे...दारु पीकर गाली देने की परम्परा खत्म हो जाएगी...लेकिन कुछ नहीं हुआ १ से ७ की सुबह एक जैसी थी...दिल्ली में मुझे आए फरवरी में दो साल हो जाएंगे...दो सालों में दिल्ली में केवल दो काम होते देख रहा हूं...मेट्रो का विस्तार और कॉमनवेल्थ की तैयारी...बाकी कुछ अपनी गति से चल रहा है ट्रैफिक से लेकर लो फ्लोर बस तक...शीला को भी अब दिल्ली की भीड़ से एतराज होने लगा है...और होना भी चाहिए...उनका मन तो राजठाकरे की तरह बिहारियों और यूपी के लोगों को दिल्ली से भगाने का करता है...लेकिन मजबूरी है...बस सलाह देकर रह जाती हैं...शीला जी अंग्रेजी बोलती हैं...मीठा बोलती हैं...इसलिए कोई ज्यादा परवाह नहीं करता है...मीडिया सर पर सवार है...सो शीला जी के कुछ कहने का मतलब है खबर...फिलहाल दिल्ली की दुर्दशा के बीच लखनऊ बहुत याद आता है...शराब का कल्चर अभी परदे में है...आपको टेम्पो और रिक्शे वाले पाउच (कच्ची दारू) पीते दिख जाएंगे...दुबली पतली सड़कें और हल्के फुल्के जाम में फंसे बाबू लोग...ज्यादातर लोग अपने बच्चों को डॉक्टर इंजीनियर बनाने का सपना पाले जिंदगी काट रहे हैं...मायावती का एजेंडा शीला जी से बिल्कुल अलहदा है...मायावती ठोस काम में यकीन करती हैं जैसे पत्थर के हाथी पत्थर के पार्क वगैरह वगैरह...ठीक ठाक सड़क पर सड़क बनवाना विकास की निशानी है...सड़क में सारा विकास समाया हुआ है...चौराहों पर अब और ज्यादा मूर्तियों की गुंजाइश नहीं बची है...कई महापुरुष वेटिंग में जिनके लिए पार्क बनाने की सूरत तलाशी जा रही है...लखनऊ विकास प्राधिकरण के लोग जगह तलाशने में जुटे हैं...सारा एजुकेशन सिस्टम कोचिंग तक सिमट कर रह गया है...यूनिवर्सिटी से रिसर्च की कम हंगामे की खबर ना आए तो लगता है कि यूनिवर्सिटी खुली ही नहीं...टेम्पो वाले अट्ठन्नी के लिए ना लड़ें तो समझिए आपका सफर बेकार है...हर साल तमाम सपनों में मेट्रो का सपना भी लखनऊ वाले पिछले चार पांच साल से देख रहे हैं...उसी में हम सब खुश हैं... वहां अभी भी दिल्ली की तरह भागदौ़ड़ नहीं है...छोटी सी दुनिया है...दिल्ली की सर्दी और जाम के बीच लखनऊ याद आ रहा था...वैसे भी दिल्ली को कोसने में बड़ा मजा आता है...शीला जी सुन लें तो शहर से भाग जाने का फरमान जारी कर दें...वैसे भी हम जैसों पर पहले ही भड़की हुई हैं...