
मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
बुधवार, 10 नवंबर 2010
हमारी नजरें उनका चश्मा यानी ओबामा

सोमवार, 27 सितंबर 2010
यूनिवर्सिटी में झकमारी १

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
कयामत के दिन कयामत की रात
बेसिर पैर की बातें। कयामत का दिन कयामत की रातें। ये टीवी के तथाकथित पत्रकारों का नया फार्मूला है। अपनी कमजोर याद्दाश्त को दर्शकों को थोपने की होड़ लगी है। रोज रोज दिल्ली को डूबोते डूबोते टीवी पत्रकारिता को हमने कितना डूबो दिया है इसका एहसास ना किसी को है ना कोई करना चाहता है। सब टीआरपी की सुसाइड रेस में भाग रहे हैं। कोई ये याद करना नहीं चाहता कि खबरें विश्वास के पैमाने पर कसी जाती हैं ना ही टीआरपी के ढोंग के पैमाने पर। ढोंग करके मदारी भी सड़क पर भीड़ जुटा लेता है। क्या कभी ये जानने की कोशिश की गई कि जो आज नंबर वन है लोग उनकी बात पर कितना भरोसा करते हैं। अपनी बातों पर लोगों का भरोसा हासिल करना मुश्किल काम है और इस मुश्किल रास्ते पर चलना कोई नहीं चाहता। सब शार्टकट की तलाश में हैं। अब न्यूज सबसे बड़ी क़ॉमिक ट्रैजडी बन चुके हैं। श्रीलाल शुक्ला के शब्दों में कहें तो कुछ टीवी चैनलों को देखकर यकीन हो जाता है कि उनका जन्म केवल और केवल खबरों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। देखते जाइए ये बलात्कार कब तक चलता है। क्योंकि टीआरपी के फूहड़ आंकड़े से पीछा छुड़ाने की कोशिश कहीं नहीं दिख रही है। और ना तो स्थिति बेहतर करने के लिए कोई शोध ही हो रहा है।
बुधवार, 9 जून 2010
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे

बंद करो अब शोर लगती हैं तुम्हारी ये खबरें
जान चुका हूं तुम्हारे पुते चेहरों पर झल्लाहट का सारा सच
मुझे मालूम है तुम्हारी नेताओं से सांठगांठ की हकीकत
मुझे ये भी पता है कि एक हारी लड़ाई लड़ रहे हो तुम सब
खुद खरोच रहे हो अपने वजूद को अपने नाखूनों से
पैसों की तहों में दब चुकी है तुम्हारी सोच और तुम्हारा प्रोफेशन
मुझे पता है तुम खुद को सुनाने के लिए चीखते हो
मुझे ये भी पता है कि तुम खुद को बचाने के लिए चीखते हो
लेकिन दोस्त तुम्हारी ये चीख
अब दिमाग में हलचल पैदा नहीं करती
सिर्फ और सिर्फ झल्लाहट पैदा करती है
और थोड़ी बहुत तरस पैदा करती है तुम्हारे लिए
तुम्हारे पेशे के लिए
शुक्रवार, 4 जून 2010
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे

मंगलवार, 11 मई 2010
पत्रकारिता के गुनहगारों को फांसी दो !

There can be no press freedom if journalists exist condition of corruption, poverty or fear
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट का पन्ना इसी सच के साथ खुलता है। फेडरेशन की चिंता अरब और मिडिल ईस्ट में पत्रकारिता पर पड़ी बेड़ियों से होते हुए रुस तिब्बत श्रीलंका और नेपाल तक जाती है। एशिया पैसिफिक में पत्रकारिता के जोखिम पर ये साइट खुलकर बात करती है। भारत के पत्रकारों पर कट्टरपंथियों और तमाम दबे छिपे दबावों का जिक्र भी एक पन्ने पर है। बहरहाल भारत के पत्रकारों की खुद ऐसी कोई साइट नहीं है। जो साइट हैं भी वो केवल यूनियन के चुनावों और गोष्ठियों के सहारे पत्रकारिता की चिंता के नाटक तक सीमित हैं। कहीं कोई ईमानदार कोशिश नहीं दिखती। प्रेस काउंसिल और तमाम तरह के गिल्ड की क्या हैसियत है वो किसी से छिपी नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया टीआरपी से अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है तो अखबारों को पेड न्यूज के कीड़े ने काट रखा है। चैनलों की दुकानदारी में उनके मालिक मुनाफे और सत्ता के गलियारों में अपनी पैठ बनाने का रास्ता तलाश रहे हैं। इस उलझन में नए पत्रकारों के लिए ना तो स्पेस ही बची है और ना ही उनका भविष्य बाकी है। पत्रकारिता के तथाकथित पुरोधा फिलहाल अपनी जेबें भरने में जुटे हैं। इस चिंता से बेखबर कि देश में पत्रकारिता का शून्य आगे चलकर कैसे भरा जाएगा। एक डाक्टर के बनने में आठ से दस साल का वक्त लगता है। इंजीनियरिंग के लिए भी चार से पांच साल की कठिन पढ़ाई होती है। तो फिर पत्रकारिता के लिए क्रैश कोर्स क्यों। ये भारत की पत्रकारिता का वो जोखिम है जो पत्रकारों पर हमलों और कैमरे तोड़े जाने की घटना से बड़ा है। सोचने की जरुरत है कि आम लोगों की आवाज उठाने वाले पत्रकार अभी तक ऐसा दबाव समूह क्यों नहीं बना पाए जिससे सत्ता प्रतिष्ठान की रुह कांपती हो। जिससे बेलगाम चैनल मालिक घबराते हों। जो दबाव निरुपमा के मसले पर बनाया जा रहा है वो चैनल से बेतरतीब ढंग से बाहर कर दिए गए पत्रकारों के लिए क्यों नहीं बनाया जा सकता। इंसाफ तो सबके साथ होना चाहिए।
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट का पन्ना इसी सच के साथ खुलता है। फेडरेशन की चिंता अरब और मिडिल ईस्ट में पत्रकारिता पर पड़ी बेड़ियों से होते हुए रुस तिब्बत श्रीलंका और नेपाल तक जाती है। एशिया पैसिफिक में पत्रकारिता के जोखिम पर ये साइट खुलकर बात करती है। भारत के पत्रकारों पर कट्टरपंथियों और तमाम दबे छिपे दबावों का जिक्र भी एक पन्ने पर है। बहरहाल भारत के पत्रकारों की खुद ऐसी कोई साइट नहीं है। जो साइट हैं भी वो केवल यूनियन के चुनावों और गोष्ठियों के सहारे पत्रकारिता की चिंता के नाटक तक सीमित हैं। कहीं कोई ईमानदार कोशिश नहीं दिखती। प्रेस काउंसिल और तमाम तरह के गिल्ड की क्या हैसियत है वो किसी से छिपी नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया टीआरपी से अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है तो अखबारों को पेड न्यूज के कीड़े ने काट रखा है। चैनलों की दुकानदारी में उनके मालिक मुनाफे और सत्ता के गलियारों में अपनी पैठ बनाने का रास्ता तलाश रहे हैं। इस उलझन में नए पत्रकारों के लिए ना तो स्पेस ही बची है और ना ही उनका भविष्य बाकी है। पत्रकारिता के तथाकथित पुरोधा फिलहाल अपनी जेबें भरने में जुटे हैं। इस चिंता से बेखबर कि देश में पत्रकारिता का शून्य आगे चलकर कैसे भरा जाएगा। एक डाक्टर के बनने में आठ से दस साल का वक्त लगता है। इंजीनियरिंग के लिए भी चार से पांच साल की कठिन पढ़ाई होती है। तो फिर पत्रकारिता के लिए क्रैश कोर्स क्यों। ये भारत की पत्रकारिता का वो जोखिम है जो पत्रकारों पर हमलों और कैमरे तोड़े जाने की घटना से बड़ा है। सोचने की जरुरत है कि आम लोगों की आवाज उठाने वाले पत्रकार अभी तक ऐसा दबाव समूह क्यों नहीं बना पाए जिससे सत्ता प्रतिष्ठान की रुह कांपती हो। जिससे बेलगाम चैनल मालिक घबराते हों। जो दबाव निरुपमा के मसले पर बनाया जा रहा है वो चैनल से बेतरतीब ढंग से बाहर कर दिए गए पत्रकारों के लिए क्यों नहीं बनाया जा सकता। इंसाफ तो सबके साथ होना चाहिए।
सोमवार, 10 मई 2010
यूपीएससी इंतहान और कुछ सुलगते सवाल

अधिकारी तबका अंग्रेजियत से उबर नहीं पाया हैं। शायद इसलिए कि हुक्म चलाना हमारी आदत है। यूपीएससी के इंतहान में पास उम्मीदवारों के इंटरव्यू से जो टीस उठी उससे उठे तमाम सवालों को ब्ल़ॉग पर साझा करने की कोशिश की। जिस तरह हर मसले के कई पहलू होते हैं इस मसले को देखने के भी कई नजरिए हैं और हर नजरिया दूसरे नजरिए के बिना पूरा नहीं है। अतुल भाई पिछले आर्टिकिल से पूरी तरह असहमत दिखे। लंबा चौड़ा लेख लिख मारा।
चिंता वाकई बड़ी है, लेकिन जिस तरह से की जा रही है उस हिसाब से तो इंसान का जीना ही दुभर हो जाएगा। केवल यूपीएससी ही क्यों, देश की कोई एक परीक्षा बता दीजिए जिसमें लोग असफल नहीं होते। यह तो होता ही है कि सफल लोगों की तुलना में असफल ज्यादा होते हैं। जिंदगी के हर मुकाम में असफल लोगों की तादात सफल लोगों से बहुत ज्यादा है। अब आप ही बताइए कि सरकार किस किस का रिसर्च करे। खैर हम सभी आजाद हैं और हमारी जिस अभिव्यक्ति से किसी को कोई नुकसान न हो, इतना तो हक है ही हमें। शायद इसीलिए आपने सरकार को नसीहत दी है, लेकिन मैं कुछ सुझाव देने की हिमाकत कर रहा हूं...गौर फरमाइएगा...मेरा मानना है कि क्या हो रहा है इस पर मगजमारी करने से ज्यादा बेहतर है कि क्या बेहतर हो सकता है इस पर विचार किया जाए। देश में नरेगा (माफ कीजिएगा मनरेगा)का मकसद कुछ ही दिन सही पर रोजगार की गारंटी देना है। अगर ऐसा ही यूपीएससी समेत सभी परीक्षाओं में हो तो हालात कुछ सुधर सकते हैं...और हर किसी को उसकी काबिलियत के हिसाब से काम भी मिल सकता है। अब क्रिकेट को ही देखिए देश में स्कूल कॉलेज की टीम से लेकर स्टेट टीम तक लाखों लोग उस अंतिम ग्यारह में जगह बनाने की कोशिश करते हैं, जो देश के लिए खेलती है। अफसोस की कामयाब सिर्फ ग्यारह को ही मिलती है। लेकिन आईपीएल ने एक नई दिशा दी है और इंडियन टीम की ग्यारह में शामिल होने वाले अगर उसमें शामिल नहीं हो पाते, तो उनके पास शोहरत और पैसा कमाने के लिए आईपीएल का दरवाजा खुला है। अगर कुछ ऐसा ही यूपीएससी में भी हो तो असफल लोगों पर रिसर्च करने की ज्यादा जरूरत महसूस नहीं होगी। मेरे पास एक फार्मूला है...
1. यूपीएससी के लिए परीक्षा देने वाले लोगों में से कोई भी अगर लगातार दो प्री इक्जाम पास कर ले तो उसे अगली बार से सीधे लिखित परीक्षा देने की इजाजात हो।
2. जो भी परीक्षार्थी लगातार दो बार इंटरव्यू दे उसे अगली बार से लिखित परीक्षा देने की बजाय सीधे इंटरव्यू के लिए बुलाया जाए।
3. जो भी दो बार से अधिक इंटरव्यू देने का बाद अपने सभी मौके गवां दे, उसे सांत्वना नौकरी दे दी जाए। अगर उस लेबल की नौकरी देना मुश्किल हो तो उसके थोड़ी कमतर ही सही नौकरी तो दो ही देनी चाहिए। क्योंकि एक दो नंबर से रुकने का मतलब सिर्फ इतना है कि हम उस साल परीक्षा देने वाले लोगों से थोड़ा पीछे हैं...लेकिन इसका ये भी मतलब है कि देश के कई लोगों खासकर यूपीएससी लेबल के नीचे की नौकरी कर रहे लोगों से बेहतर भी हैं।मेरा मानना है कि ये तकनीक सिर्फ यूपीएससी के लिए ही नहीं बल्कि हर लेबल पर इस्तेमाल होनी चाहिए, और ऐसे लोगों को उनकी योग्यता से थोड़ी नीचे ही सही नौकरी दे देनी चाहिए। इससे परीक्षा में बैठे लोगों को तो तसल्ली मिलेगी ही, सरकार को भी परीक्षा में अनावश्यक बोझ से थोड़ी राहत मिलेगी।अंत में कुछ बातें और...
1. देश के बहुत से प्रशासनिक अधिकारियों ने अपनी योग्यता से देश को गर्वान्वित किया है, मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर कैसे हैं इसका मुल्यांकन राजनीतिक होगा, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर बेहद सफल रहे हैं औऱ मिसाल कायम की है।
2.इंटरव्यू में सफल लोग घिसे पिटे जवाब सिर्फ इसलिए देते हैं क्योंकि सवाल ही घिसे पिटे पूछे जाते हैं।
3. घुड़सवारी और टेबल मैनर के साथ ही घास छीलना भी सिखाया जाता है।
4. कालाहांडी ही क्यों, अगर आप प्रोजेक्ट देखेंगे तो पता चलेगा, बुन्देलखंड से लेकर दंतेबाड़ा तक के प्रोजक्ट दिए जाते हैं। आप कभी आईपीएस की ट्रेनिंग देख लीजिएगा, रोंगटे खड़े हो जाएंगे। उम्मीद है...आपके साथ ही सरकार भी थोड़ा बेहतर सोचेगी।
1. यूपीएससी के लिए परीक्षा देने वाले लोगों में से कोई भी अगर लगातार दो प्री इक्जाम पास कर ले तो उसे अगली बार से सीधे लिखित परीक्षा देने की इजाजात हो।
2. जो भी परीक्षार्थी लगातार दो बार इंटरव्यू दे उसे अगली बार से लिखित परीक्षा देने की बजाय सीधे इंटरव्यू के लिए बुलाया जाए।
3. जो भी दो बार से अधिक इंटरव्यू देने का बाद अपने सभी मौके गवां दे, उसे सांत्वना नौकरी दे दी जाए। अगर उस लेबल की नौकरी देना मुश्किल हो तो उसके थोड़ी कमतर ही सही नौकरी तो दो ही देनी चाहिए। क्योंकि एक दो नंबर से रुकने का मतलब सिर्फ इतना है कि हम उस साल परीक्षा देने वाले लोगों से थोड़ा पीछे हैं...लेकिन इसका ये भी मतलब है कि देश के कई लोगों खासकर यूपीएससी लेबल के नीचे की नौकरी कर रहे लोगों से बेहतर भी हैं।मेरा मानना है कि ये तकनीक सिर्फ यूपीएससी के लिए ही नहीं बल्कि हर लेबल पर इस्तेमाल होनी चाहिए, और ऐसे लोगों को उनकी योग्यता से थोड़ी नीचे ही सही नौकरी दे देनी चाहिए। इससे परीक्षा में बैठे लोगों को तो तसल्ली मिलेगी ही, सरकार को भी परीक्षा में अनावश्यक बोझ से थोड़ी राहत मिलेगी।अंत में कुछ बातें और...
1. देश के बहुत से प्रशासनिक अधिकारियों ने अपनी योग्यता से देश को गर्वान्वित किया है, मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर कैसे हैं इसका मुल्यांकन राजनीतिक होगा, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर बेहद सफल रहे हैं औऱ मिसाल कायम की है।
2.इंटरव्यू में सफल लोग घिसे पिटे जवाब सिर्फ इसलिए देते हैं क्योंकि सवाल ही घिसे पिटे पूछे जाते हैं।
3. घुड़सवारी और टेबल मैनर के साथ ही घास छीलना भी सिखाया जाता है।
4. कालाहांडी ही क्यों, अगर आप प्रोजेक्ट देखेंगे तो पता चलेगा, बुन्देलखंड से लेकर दंतेबाड़ा तक के प्रोजक्ट दिए जाते हैं। आप कभी आईपीएस की ट्रेनिंग देख लीजिएगा, रोंगटे खड़े हो जाएंगे। उम्मीद है...आपके साथ ही सरकार भी थोड़ा बेहतर सोचेगी।
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