रविवार, 16 अक्टूबर 2011

हमे हमारा हक दो...

मेहनत करके भी कोई गरीब कैसे रह सकता है दोस्त?
तुम्हारी तरक्की से ये मेरा सवाल है।
तुमने हमारे पसीने से अपनी तरक्की के रास्ते खोले।
हमारे सपनों को ठगकर तुम हमारा पसीना निचोड़ते रहे।
हमारी मेहनत के घंटो से तुमने अपनी तरक्की की कीमत बढ़ाई।
अब तो हमारे सपने भी खुद की तरक्की के इंतजार बिखरने लगे हैं।
अब हमे उस तरक्की से हमारा हिस्सा चाहिए।
वो तरक्की जिसे तुम अपनी जागीर समझते हो।
क्योंकि उस तरक्की में हमारे मेहनत के घंटे हैं,
पसीने की खुशबू है।
(वॉल स्ट्रीट पर जमा लोंगों की लड़ाई के समर्थन में)

बुधवार, 10 नवंबर 2010

हमारी नजरें उनका चश्मा यानी ओबामा

दुकान पर चल रहे न्यूज चैनल को देखकर बहस इस बात पर नहीं थी कि ओबामा क्या लाए हैं और क्या लेकर जाएंगे। बहस इस बात पर थी कि उनकी महंगी कार में क्या क्या सहूलियतें होंगी। वो प्लेन कैसा होगा जिससे वो सात समंदर का सफर तय करके भारत पहुंचे हैं। ये अमेरिका को दूर से देखने वाले भारत का यथार्थ है। वो यथार्थ जो भारत और अमेरिका की हैसियत के फासले को भी जाहिर करता है। हम उभरते भारत हैं ये जुमला अब घिसा पिटा हो चुका है लेकिन इस बार ओबामा ने भारत को चुपके से ये भी बता दिया कि आप विश्वशाक्ति है। वैसे कहने में क्या जाता है। जरुरत पढ़ने पर गधे को भी बाप बनाया जा सकता है। कुछ उसी तर्ज पर गरीबी और बेरोजगारी के जूझ रहे भारत को विश्व शक्ति कहने में क्या जाता है। ओबामा अब तक भारत आने वाले अमेरिकियों में शायद सबसे लाचार राष्ट्रपति माने जा सकते हैं। ओबामा के पास भले लुभावने शब्दों का खजाना हो लेकिन सच तो ये है कि उनके अमेरिका की खुशियों का खजाना खाली हो रहा है। यही कड़वा सच ओबामा को भारत खींच लाया। ओबामा यहां से जितनी नौकरियां बटोर कर गए उसका आंकड़ा उन्होने बेरोजगारी से जूझते अमेरिकियों तक पहुंचा दिया। लेकिन उनके आने से भारत को कितनी नौकरियां हासिल हुईं उसका आंकड़ा हमारे किसी काबिल नेता के पास नहीं था। हम बस इंतजार करते रहे कि ओबामा के मुंह से ऐसा कुछ निकले जो पाकिस्तान का मुंह कसैला कर दे। ओबामा ने भी बयानों की ऐसी जलेबी बनाई जिसे भारत और पाकिस्तान दोनो अपने तरीके से सीधा कर सकें। ओबामा अपनी यात्रा से वो सब हासिल करने में कामयाब रहे जिसकी उनको दरकार थी। लेकिन हम ओबामा से कश्मीर, पाकिस्तान और यूएन पर सुंदर कविता सुनकर खुशी मनाते रहे। दरअसल दोष ना तो ओबामा का है और ना ही उनकी नीयत का। दोष हमारे अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के तकाजे का है। हम भूल जाते हैं अंग्रेजी में हाथ तंग होने के बाजवूद चीन, अमेरिका के बाद सबसे बड़ी ताकत बन चुका है। आज चीन की हैसियत अमेरिका की आंख में आंख डालकर बात करने की है। पर हमारा दायरा पाकिस्तान और दो चार डील से शुरु होता है और वहीं आकर सिमट जाता है। भारत, अमेरिका जैसे देशो के लिए ऐसा बाजार है जहां हर तरह की अनाप शनाप चीजें खरीद लेने की भूख बढ़ रही है। ओबामा की नजर भारत की इसी भूख पर थी। वो भारत को बाजार खोलने की नसीहत देकर गए। लेकिन भारत की हिम्मत उनसे ये पलटकर पूछने की नहीं हुई कि जिस अर्थव्यवस्था ने उनके मुल्क को दिवालिएपन की कगार पर खड़ा कर दिया उसी अर्थव्यवस्था पर चलने की उम्मीद वो भारत से कैसे कर सकते हैं। जय हिंद और नमस्ते बोलना ओबामा की वैसी ही पॉपुलर पॉलिटिक्स का हिस्सा था जैसा बिहार में लालू और दूसरे नेता भोजपुरी बोलकर करते हैं। फिलहाल ओबामा के लिए वक्त इंडोनेशिया पहुंचकर इमोशनल होने का है और हमारे लिए वक्त भ्रष्टाचार के मामलों में इस्तीफा देने और लेने का खेल देखने का है।

सोमवार, 27 सितंबर 2010

यूनिवर्सिटी में झकमारी १

हम सब उनकी नजरों में वक्त बर्बाद कर रहे थे। पढ़ाना उनका काम था और लापरवाही से पढ़ना हमारा। रोज की तरह क्लास किसी छात्र की बखिया उधेड़ने के साथ शुरु होती थी। किसकी शामत कब आ जाए और कौन किस तरह जलील कर दिया जाए कुछ तय नहीं था। कुर्सी पर बैठना उन्हें गंवारा नहीं था। एक बिगड़ैल छात्र नेता की तरह वो हमेशा मेज पर बैठते। गरममिजाजी और अंग्रेजो के वक्त अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने का अहंकार हमेशा उनके चेहरे पर चिपका रहता। स्टाफरुम में मजामा लगाए रखना उनका शौक भी था और टाइमपास भी। आलोचना उनका प्रिय सब्जेक्ट था और उनकी आलोचना की जद में फैकल्टी से लेकर एचओडी तक सब आते थे। उनके मुताबिक हर इंसान पैदाइशी बेवकूफ था। अंग्रेजी बोलने वाले उन्हें बिल्कुल नापसंद थे। उनका मानना था कि अंग्रेजी बोलना और वो भी सही बोलना सिर्फ और सिर्फ उनका कॉपीराइट है जो अंग्रेज उन्हें देकर गए हैं। उनकी नजरों में अंग्रेजों की छोड़ी गई अंग्रेजी के असली उत्तराधिकारी वही थे। बालों की सफेदी से उनकी उम्र का पता लगाना बिल्कुल आसान था लेकिन इस सफेदी से बेपरवाह वो हमेशा चुस्त दुरुस्त दिखने की कोशिश में रहते। पुराने स्कूटर को वो हवाई जहाज की तरह उड़ाते। ये उनकी शख्सियत का वो पहलू था जो उन्हें डिपार्टमेंट में हंसी का पात्र बनाता था। डिपार्टमेंट की विडंबनाओं में ये अकेली विडंबना नहीं थी। हिंदी डिपार्टमेंट से किसी मनहूस घड़ी में एक बिजली पत्रकारिता विभाग पर गिरी थी और एचओडी नाम की कुर्सी पर जा बैठी थी। खुद के उच्चारण की तमाम दिक्कतों के बावजूद विभाग की जिम्मेदारियां उठाने वाले हमारे एचओडी साहब हमारी भाषा दुरुस्त करने की जिम्मेदारी तन और मन से तो नहीं हां धन से जरुर उठा रहे थे। खुद की नजरों में वो पत्रकारिता के उद्धार के लिए पैदा किए गए थे। उनके बालों का कालापन हमारे लिए रहस्य था। बालों को वो गोंद से चिपकाते थे या फिर तेल से कह पाना कठिन था। चेहरे पर जबरदस्ती का रौब दिखाकर छात्रों से दूरी बनाए रखना उन्हें पसंद था। खुद को रहस्यवाद की चादर में समेट कर अपने विवेक पर पड़े पर्दे पर पर्दा डालने का काम वो काफी वक्त से बखूबी कर रहे थे। हमें क्या और क्यों पढ़ाया जा रहा था ये ना तो हमारे आदरणीय अध्यापकों को पता था और ना ही ज्यादातर छात्र इस गूढ़ रहस्य को जानने में रुचि ही रखते थे। लगभग सभी फीस देकर यूनिवर्सिटी के किसी भी क्लास में बैठने के अधिकार को इज्वाय कर रहे थे। सबकी अपनी अपनी उपस्थिति की एक्सक्लूसिव वजहें थीं। कुछ पत्रकारिता को नेतागिरी का क्रैश कोर्स मानकर यहां आए थे तो कुछ पत्रकारिता नाम की आभा में अंधे होकर यहां पहुंचे थे। कुल मिलाकर हम पत्रकारिता के सुरेन्द्र मोहन काल ( हिंदी के भक्ति काल,आधुनिक काल की तरह पत्रकारिता का ये काल जिसमें आजकल हम कीबोर्ड चटका रहे हैं) में कदम रखने के लिए कमर कस रहे थे।(जारी)

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

कयामत के दिन कयामत की रात

बेसिर पैर की बातें। कयामत का दिन कयामत की रातें। ये टीवी के तथाकथित पत्रकारों का नया फार्मूला है। अपनी कमजोर याद्दाश्त को दर्शकों को थोपने की होड़ लगी है। रोज रोज दिल्ली को डूबोते डूबोते टीवी पत्रकारिता को हमने कितना डूबो दिया है इसका एहसास ना किसी को है ना कोई करना चाहता है। सब टीआरपी की सुसाइड रेस में भाग रहे हैं। कोई ये याद करना नहीं चाहता कि खबरें विश्वास के पैमाने पर कसी जाती हैं ना ही टीआरपी के ढोंग के पैमाने पर। ढोंग करके मदारी भी सड़क पर भीड़ जुटा लेता है। क्या कभी ये जानने की कोशिश की गई कि जो आज नंबर वन है लोग उनकी बात पर कितना भरोसा करते हैं। अपनी बातों पर लोगों का भरोसा हासिल करना मुश्किल काम है और इस मुश्किल रास्ते पर चलना कोई नहीं चाहता। सब शार्टकट की तलाश में हैं। अब न्यूज सबसे बड़ी क़ॉमिक ट्रैजडी बन चुके हैं। श्रीलाल शुक्ला के शब्दों में कहें तो कुछ टीवी चैनलों को देखकर यकीन हो जाता है कि उनका जन्म केवल और केवल खबरों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। देखते जाइए ये बलात्कार कब तक चलता है। क्योंकि टीआरपी के फूहड़ आंकड़े से पीछा छुड़ाने की कोशिश कहीं नहीं दिख रही है। और ना तो स्थिति बेहतर करने के लिए कोई शोध ही हो रहा है।

बुधवार, 9 जून 2010

कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे


बंद करो अब शोर लगती हैं तुम्हारी ये खबरें
जान चुका हूं तुम्हारे पुते चेहरों पर झल्लाहट का सारा सच
मुझे मालूम है तुम्हारी नेताओं से सांठगांठ की हकीकत
मुझे ये भी पता है कि एक हारी लड़ाई लड़ रहे हो तुम सब
खुद खरोच रहे हो अपने वजूद को अपने नाखूनों से
पैसों की तहों में दब चुकी है तुम्हारी सोच और तुम्हारा प्रोफेशन
मुझे पता है तुम खुद को सुनाने के लिए चीखते हो
मुझे ये भी पता है कि तुम खुद को बचाने के लिए चीखते हो
लेकिन दोस्त तुम्हारी ये चीख
अब दिमाग में हलचल पैदा नहीं करती
सिर्फ और सिर्फ झल्लाहट पैदा करती है
और थोड़ी बहुत तरस पैदा करती है तुम्हारे लिए
तुम्हारे पेशे के लिए

शुक्रवार, 4 जून 2010

कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे

तेज आवाज में बात करना सीख नहीं पाया और धीमी आवाज़ अब कोई सुनना नहीं चाहता। खामोशी से अपना काम करना सुस्त होने की निशानी है। चीखने से गले में खराश पैदा हो जाती है। बोलने से ज्यादा वक्त सोचने में बीतता है। सड़क पर चलते किसी शख्स को उसकी गलती के बावजूद भला बुरा कहने में हिचक अभी कायम है। आखिरी बार किसी को अपशब्द कब बोले थे ये भी याद नहीं। इन तमाम बीमारियों ने दिल्ली की आवोहवा में सांस लेना दुभर कर दिया है। बंद कमरे में सांस घुट रही है और खिड़की खोलने पर जहरीली हवा का खौफ है। लोगों की आवाज़ का शोर बढ़ा है। खुशियों को बाजार से डिस्काउंट में खरीद लाने की होड़ बढ़ी है। बेमतलब की बातें बढ़ी हैं फिजूल के किस्से बढ़े हैं। अब तो मजाज़ की तरह सारे के सारे चांद तारे नोच लेने का जी करता है गैर की बस्ती से दूर किसी सन्नाटे में खुद से बातें करने का जी करता है। जगमगाती जागती जिंदगियों से दूर फिराक की तरह ये कह देने का मन करता है की कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं। फिलहाल तो शोर में अपनी आवाज सुनने की कोशिश कर रहा हूं। भीड़ में खुद को तलाश लेने की जुगत कर रहा हूं। पता है कि उधार की खुशियों से जिंदगी नहीं कटती।

मंगलवार, 11 मई 2010

पत्रकारिता के गुनहगारों को फांसी दो !


There can be no press freedom if journalists exist condition of corruption, poverty or fear
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट का पन्ना इसी सच के साथ खुलता है। फेडरेशन की चिंता अरब और मिडिल ईस्ट में पत्रकारिता पर पड़ी बेड़ियों से होते हुए रुस तिब्बत श्रीलंका और नेपाल तक जाती है। एशिया पैसिफिक में पत्रकारिता के जोखिम पर ये साइट खुलकर बात करती है। भारत के पत्रकारों पर कट्टरपंथियों और तमाम दबे छिपे दबावों का जिक्र भी एक पन्ने पर है। बहरहाल भारत के पत्रकारों की खुद ऐसी कोई साइट नहीं है। जो साइट हैं भी वो केवल यूनियन के चुनावों और गोष्ठियों के सहारे पत्रकारिता की चिंता के नाटक तक सीमित हैं। कहीं कोई ईमानदार कोशिश नहीं दिखती। प्रेस काउंसिल और तमाम तरह के गिल्ड की क्या हैसियत है वो किसी से छिपी नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया टीआरपी से अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है तो अखबारों को पेड न्यूज के कीड़े ने काट रखा है। चैनलों की दुकानदारी में उनके मालिक मुनाफे और सत्ता के गलियारों में अपनी पैठ बनाने का रास्ता तलाश रहे हैं। इस उलझन में नए पत्रकारों के लिए ना तो स्पेस ही बची है और ना ही उनका भविष्य बाकी है। पत्रकारिता के तथाकथित पुरोधा फिलहाल अपनी जेबें भरने में जुटे हैं। इस चिंता से बेखबर कि देश में पत्रकारिता का शून्य आगे चलकर कैसे भरा जाएगा। एक डाक्टर के बनने में आठ से दस साल का वक्त लगता है। इंजीनियरिंग के लिए भी चार से पांच साल की कठिन पढ़ाई होती है। तो फिर पत्रकारिता के लिए क्रैश कोर्स क्यों। ये भारत की पत्रकारिता का वो जोखिम है जो पत्रकारों पर हमलों और कैमरे तोड़े जाने की घटना से बड़ा है। सोचने की जरुरत है कि आम लोगों की आवाज उठाने वाले पत्रकार अभी तक ऐसा दबाव समूह क्यों नहीं बना पाए जिससे सत्ता प्रतिष्ठान की रुह कांपती हो। जिससे बेलगाम चैनल मालिक घबराते हों। जो दबाव निरुपमा के मसले पर बनाया जा रहा है वो चैनल से बेतरतीब ढंग से बाहर कर दिए गए पत्रकारों के लिए क्यों नहीं बनाया जा सकता। इंसाफ तो सबके साथ होना चाहिए।