जो सोचता हूं,वो कर नहीं पा रहा
जो कर रहा हूं,उसे समझ नहीं पा रहा
जो समझ पा रहा हूं
वो कोई तसल्ली देने वाली चीज़ हर्गिज नहीं..
(पत्रकारिता के बारे में...दीपक)
मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
रविवार, 30 दिसंबर 2007
का होई इ साल नया

दरअसल पिछले कुछ सालों के...अनुभवों को शब्द दें...तो लगता यही है कि...बदलता कुछ नहीं है...बस हर घटना के साथ...हर वक्त नई नियति और नया भरोसा जुड़ता रहता है...और फिर से...हर समस्या...या हर खुशी...नयी सी लगने लगती है...बात अगर किसानों की करें तो...बुंदेलखण्ड की ज़मीनों जैसी ना जाने कितनी ज़मीनें...उनकी मौत की नियति से साल भर सींची जाती रहीं...वहीं आतंकवाद के खात्मे के जुमले के साथ लोग मरते रहे...और बार बार दहशतगर्दी को खत्म करने की बातें...नए तरीके से हवा में तारी होती रहीं...अब मन नहीं करता कि नए साल के आने का जश्न मनाया जाए...क्योंकि हर साल जाते जाते कुछ ग़म यूं ही छोड़ जाता है...राजनीति पहले से ज्यादा निराश करती है...और उसमें ऐसा कुछ नहीं बचा...जिससे उम्मीदें बांधी जा सके....न्यायपालिका की तेजी में...पुलिस को बेरहमी से पिटते कानपुर के वकील याद आते हैं....वहीं पुलिसिया लाठी निर्दोष की पीठ पर हर बार पहले ज्यादा गहरे ज़ख्म छोड़ती है...जबकि मनोरंजन के फूहड़पन में साल के हिट गानो के लिए एसएमएस मांगने वाले...मीडिया की आवाज अब चिल्लाहट के सिवा कुछ नही रह गई है...ऐसे में क्या उम्मीद की जाए और किस पर भरोसा किया जाए...हर साल उम्मीदों की खुशियां मनाते शुरु होता है...और बीतते बीतते हर तंत्र को और ज्यादा कमज़ोर करके चला जाता है...आखिर क्यों याद करें बीते दो हजार सात को...क्या इसलिए कि इस साल दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र में एक लेखिका को अपनी लिखी चंद लाईने उपन्यास से हटानीं पड़ीं...या फिर हज़ारों लोगों के खून से सने हाथ एक बार फिर मुख्यमंत्री की गद्दी तक पहुंच गए....या फिर इसलिए कि मज़दूरों और किसानों कि हिमायत करने वाले लाल झंडे का रंग...इस साल नंदीग्राम के खून से और ज्यादा सुर्ख हो गया....या इसलिए कि भूख से हुई मौतों पर चालाकी से पर्दा डालने में आलाधिकारियों ने इस साल कोई कसर नहीं छोड़ी...और शायद तभी चाय की दुकान पर बैठे उस बुजुर्ग किसान के अल्फाज़ याद आते हैं कि भईया का होई इ साल नया...हो सकता है कि ये उस किसान की निराशा हो ...लेकिन इस नाउम्मीदगी के बीच निकली तकलीफ...हम सबकी है...
मंगलवार, 25 दिसंबर 2007
सत्तर के दशक का कार्टून
बेलबॉटम, चौड़ी कॉलर वाली कमीज़ और सत्तर के दशक का चश्मा...ये सब पहने एक भाई साहब बस स्टैड पर चर्चा का विषय रोज बनते..यहां बस पकड़ने वालों को रोज सत्तर के दशक के इस कार्टून का इंतज़ार रहता..लोग खूब तफ्री लेते..तरह तरह से भाई साहब को छेड़ने की कोशिश होती..औरतें जब इस परिहास को देख कर मुस्कुरातीं तो मज़ाक बनाने वाले लोगों का साहस अचानक बड़ा हो जाता...हाथों में एक पुराना अख़बार लिए कुछ दिन पहले सुबह वो भाई साहब फिर दिखे..फुरसतिया लोगों ने अपना टाइम पास करने के लिए फिर से उन्हें छेड़ना शुरु कर दिया..हमेशा खामोश रह कर अपनी भावभंगिमा से गुस्से का इजहार करने वाले भाई साहब की आंखों में इस बार आंसू थे..रुमाल से आंसू पोछ अपनी रोज की बस पकड़ी और चलते बने...इसके बाद वो भाई साहब कई दिनों तक नज़र नहीं आए...अक्सर मजाक बनाने वालों के लिए उनका ना आना सुबह की रौनक गायब होने जैसा था....कुछ दिनों बाद पता चला कि भाई साहब किसी जमाने में सरकारी नौकरी में थे..पहनने खाने के शौकिन थे..एक हादसे में बेटी और पत्नी की मौत हो गई..सो मातम मनाने के बजाए अपने दुख को साझा करने की कोशिश में भाई साहब किसी ना किसी तरह लोगों को हंसाने की कोशिश करते...इसके लिए उन्हें कुछ भी करना पड़ता वो करते...और इसलिए वो अजीबो गरीब कपड़े पहनते..और जब लोग उन्हें देखकर हंसते तो उन्हे अच्छा लगता..लेकिन जब उन्हें पागल समझकर मजाक अपनी हदें पार करने लगा तो..उन्होने दुनिया से बहुत दूर जाने का फैसला कर डाला...पता चला कि उन्होने रविवार की रात फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है..
रविवार, 23 दिसंबर 2007
क्यों रुला रहे हो हमें
एक ही विजुअल...बार बार..एंकर की वही आवाज़...आईये हम आपको एक बार फिर से दिखाते हैं...क्या हुआ नच बलिए थ्री के फाइनल में...पहले विजुअल बिना इफेक्ट के थोड़ी देर बाद डबल विंडो में....दर्शक बोर ना हो सो ब्रेक की घोषणा हुई...इस वायदे के साथ की जब लौटेंगें तो आपको सबकुछ ठीक से दिखाएंगें...हां एक ही विजुअल बार बार देखते देखते बोरियत कुछ नए नए क्रिएटिव एड देखकर थोड़ी कम जरुर हुई...ब्रेक के बाद फिर शुरु नाटक...चलिए अब आपको दिखाते हैं कि कैसे रोयीं राखी नच बलिये के फाइनल में...दूसरा चैनल बदला तो पूरी दुनिया पर खतरे की आहट... दो चार मरे मरे से ज्योतिष विचारों में डूबे थे...लगा कि भईया अपना हो या ना हो इनका सबकुछ तबाह जरुर होने वाला है...फिर लौट कर वापस आए तो राखी अभी भी रो रही थीं...सोचा की बताओं रोने को पैसा बटोर रही है और यहां हंसने के लाले पड़े हैं...उधर दूसरे चैनल पर पूरी दुनिया को तबाह करने की मुहिम छिड़ी थी..इसी बीच पलटते पलटते तेलगु चैनल पर नजर थमी...तो एक काला सा हीरो एक साथ सौ लोगों को खुद की हड्डियां चिटका कर डरा रहा था...मैं ना डर जाऊं सो टीवी बंद कर दी...तभी बाहर से जोरदार चिल्लाने की आवाजें सुनाई पड़ीं बाहर देखा तो एक दूसरे को देख लेने की बातें चल रहीं थी...नाली को लेकर लड़ाई चल रही थी...सबकुछ नेचुरल था..क्योंकि टीवी पर नहीं था...आसपास वाले भी बड़े निष्पक्ष भाव सबकुछ देखे जा रहे थे...सभी के चेहरे पर स्वस्थ्य मनोरंजन के भाव रह रह कर उमड़ रहे थे...क्योंकि इस नाटक में ब्रेक नहीं था...विजुअल का रिपिटिशन नहीं था..सबकुछ लाइव
बकबक का मतलब
बहुत दिनों बाद लिख रहा हूं...ये दलील देने के लिए नहीं कि समय नहीं था...ये कहना सरासर झूठ होगा...ये भी नहीं कहूंगा कि व्यस्त था...ये खुद के काम के साथ नाइंसाफी होगी...ये जरुर कहूंगा कि इच्छाशक्ति की कहीं ना कहीं कमी थी...और आज जब लिखने बैठा तो लगा कि पहले प्रयश्चित कर लिया जाए....दरअसल कहने को काफी कुछ था....खुब कहा भी...लोगों से खुब बतियाया भी...लेकिन बोले शब्द बांधे नहीं जाते...वो तो हवा में घुल कर कुछ देर बाद गुम हो जाते हैं...इसलिए...लगा बोलो कम लिखो ज्यादा...शब्द ब्लॉग पर रोज रोज विस्तार लेकर कम से कम परिपक्व तो हो ही जाएंगें...दरअसल बोलने को हर किसी के पास कुछ ना कुछ है...सब बोल रहे हैं...कोई कमाने के लिए तो कोई बरगलाने के लिए...इन सबके बीच में खुद का बोलना पता नहीं चलता...खुद से शायद ही हम बोल पाते हों...क्योंकि दूसरे मौका नहीं देते...सबके पास अपने अपने लॉजिक हैं...हर कोई खुद को सही साबित करने को बोल रहा है...लेकिन सवाल ये है कि इतनी बातों में सुन कौन किसको रहा है...दरअसल जो बोल रहे हैं वो सुनाना चाहते हैं और जो सुन है वो समझना नहीं चाहते...शायद तभी बाबाओं के प्रवचन की गूंज भक्तों के कानों में तभी तक रहती है जबतक बाबा सामने बने रहते हैं...ज्यों बाबा गए उनकी बातें गईं....इतनी बकबक का मतलब था कि बोलो कम लिखो ज्यादा...कम से कम पढ़ने पर खुद से थोड़ी बातें तो हो जाएंगीं....
शनिवार, 13 अक्टूबर 2007
सबकुछ बहा ले गई जो मौत
फिर शराब के जुबानी एक मौत की कहानी सुनने को मिली..सुबह दोस्त को फोन किया..तो पता चला की चाचा जी नहीं रहे..उनकी लाश उनके घर में पड़ी मिली..देखने वालों ने ये ही बताया कि ज्यादा शराब पीने की वजह से उनकी मौत हुई..इस मौत की खबर के साथ ही..ज़ेहन मे उनकी इकलौती बेटी का ख्याल आ गया..जिसे चाची दिल की किसी परेशानी के चलते..एक तरह से अनाथ छोड़कर दुनिया से हमेशा हमेशा के लिए पहले ही जा चुकी थीं..मेरा चाची जी के घर आना जाना कई बार हुआ..इस बीच जब भी चाचा मिले या तो शराब के नशे में मिले या फिर शराब ना मिल पाने के गम में..अपने पति की शराब की लत छुड़ाने के लिए.. डाक्टर से लेकर तांत्रिक तक.. सारे करम कर चुकी..चाची जी चाचा की आदत के आगे हार मान चुकी थीं..नवें दर्जे में पढ़ने वाली बेटी की जिंदगी और उसके भविष्य की चिंता अक्सर चाची जी के चेहरे पर शिकन बन छलक आया करती थी..जो करना था खुद करना था..छोटे से घर को संवारने से लेकर..बेटी को ज्यादा से ज्यादा पढ़ाने लिखाने तक..सबकुछ..चाचा जी की तनख्वाह..ऑफिस वाले उनके हाथों में ना देकर किसी तरह चाची तक पहुंचा दिया करते थे..ऐसे में घर तो संवर जाता था लेकिन अक्सर शराब के लिए पैसे मांगने पर चाचा और चाची में नोंकझोंक होती रहती थी..लेकिन बेटी की पढ़ाई और घर की जिम्मेदारियों के चलते चाची जी, चाचा की गालियां और कभी कभी मार चुपचाप सहन कर लिया करती थीं..पर एक दिन चाची भी नियति से हार गईं..दिल में जोर का दर्द हुआ..और अचानक उनकी आंखे हमेशा हमेशा के लिए बंद हो गईं..उनके जाने के बाद चाचा बेलगाम हो गए..शराब और भी ज्यादा होती गई..पास पड़ोस के लोग बताते हैं कि शराब के चलते मौत कई बार चाचा जी के करीब से होकर गुजरी..और आखिरकार मौत चाचा को उनके घर से दबोचकर अपने साथ ले गई..वो भी नशे की हालत में..देखते देखते..एक घर जहां मुझे चाची जी की वजह से एक उम्मीद दिखा करती थी..पहले अनाथ हुआ और आज चाचा जी के जाने के बाद हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो गया..उनकी बेटी..चाची जी के जाने के बाद से ही..अपने नेकदिल रिश्तेदारों के यहां रह रही है..मैने उसे इस बीच जब भी देखा चुपचाप देखा..ना कोई शिकायत ना कोई ज़िद..मां के जाने के बाद से ही किसी अपने के दुनिया में ना रहने के एहसास..चाचा जी के जाने के बाद..शायद उसके दिल में कहीं गहरे से उतर चुका है
रविवार, 7 अक्टूबर 2007
एक नॉन सेन्स कविता
बहादुर,
बचपन से रहा
लेकिन घर की चौखट के भीतर..
बातों ही बातों में
क्रांति का बिगुल
कई बार फूंका..
लेकिन बिगुल की आवाज़
दोस्तों के कानों में चुटकुले बन कर
कहीं खो गई..
समाज बदलने भी कई बार निकला
लेकिन खुद के घर का
समाजशास्त्र बिगड़ गया
पत्रकार बना
तो एक दिन आर्थिक तंगी के चलते
खुद खबर बन गया..
राजनीति में करियर बनाने की सोची
तो मेरा शून्य क्रिमिनल रिकार्ड
आड़े आ गया
फिलहाल
भगवा ड्रेस में
अधर्म में धर्म की तलाश का दौर जारी है
बहादुर
बचपन से रहा
बस उसके एक सफल प्रयोग की तैयारी है
बचपन से रहा
लेकिन घर की चौखट के भीतर..
बातों ही बातों में
क्रांति का बिगुल
कई बार फूंका..
लेकिन बिगुल की आवाज़
दोस्तों के कानों में चुटकुले बन कर
कहीं खो गई..
समाज बदलने भी कई बार निकला
लेकिन खुद के घर का
समाजशास्त्र बिगड़ गया
पत्रकार बना
तो एक दिन आर्थिक तंगी के चलते
खुद खबर बन गया..
राजनीति में करियर बनाने की सोची
तो मेरा शून्य क्रिमिनल रिकार्ड
आड़े आ गया
फिलहाल
भगवा ड्रेस में
अधर्म में धर्म की तलाश का दौर जारी है
बहादुर
बचपन से रहा
बस उसके एक सफल प्रयोग की तैयारी है
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