मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

ये झूठ है...


हां मैने मान लिया की मेरा सच हार गया है...तुम्हारे झूठ ने मेरे सच के चिथड़े चिथड़े कर दिए हैं...मैं गलत था ये भी कबूल करता हूं...मैं खुद को कैसे कोसूं...नहीं जानता...लेकिन इतना जरुर कह सकता हूं कि तुम्हारी झूठी और दिखावटी दुनिया मुझे बेचारा कहती होगी...मेरी बेचारगी पर हंसती होगी...हंसे भी क्यों ना... अभी तक मैं सच और झूठ के फरेबी पैमाने पर दुनिया को तोलने की गुस्ताखी करता रहा... मेरे सामने लोगों ने झूठ की झूठी कसमें खाईं...सपनें दिखाकर झूठ का खंजर कई बार मेरी पीठ पर भोंका गया...लेकिन मैंने सच से अपना भरोसा नहीं उठने दिया...हर बार सच के जीतने की उम्मीद लिए झूठ को सहता रहा...लेकिन अब हार गया हूं...तुम्हारी झूठ की दुनिया ने मुझे हरा दिया है...तु्म्हारी झूठ की दुनिया को लोग सलाम करते हैं...लेकिन मेरा सच तो अभी तक अंधेरी गलियों में भटक रहा है...और लगता तो यही है कि भटकता रहेगा...लेकिन माफ करना दोस्त तुम्हारे झूठ को सलाम भी नहीं कर सकता... और अपने सच को यूं ही भटकने के लिए भी नहीं छोड़ सकता... झूठ की फरेबी दुनिया में सच के लिए कोई तो जगह होगी... कहीं तो मेरा सच झूठ से पार पाएगा... वैसे दोस्त जिंदगी से पार मौत का एक सच तुम्हारे झूठ के इंतजार में बैठा है.. वो मेरे सच की तरह कमजोर नही है...क्योंकि वो नियति है...जिंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई है...

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

मैने देखी है ज़िंदा लाश

कितना अजीब है,
नियति से हार जाना.
कितना अजीब है,
आदर्श को मुश्किल,
या नामुमकिन मान लेना.
मैं भी गुनहगारों की
कतार में हूं.
मुझे भी लगता है
कि बस वाले से बेकार है,
पहुंचने की जगह का
सही किराया पूछना.
मैं नहीं जानता
कौन है वो नेता
जो पिछली बार आया था,
वोट की भीख मांगने मेरे घर.
मैने जानने की कोशिश नहीं की
कि बलात्कार के कितने आरोप थे,
उसके ऊपर.
मैने कभी नहीं पूछा
की मेरे वोट से जीतने के बाद,
विकास के नाम पर
कितना कमीशन खाया उसने.
मैने कभी जानने की कोशिश नहीं कि
क्यों बढ़ रहा है,
अपराध का ग्राफ मेरे इलाके में.
बताते हैं कि चलने लगी हैं
तमाम लाशें सड़कों पर.
हर लाश खुद को
आम आदमी बताती है.
सवाल नहीं करती,
बस सहती जाती है...
.....................
सुबोध 06 मार्च

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

खामोश...खबर बेखबर है...2

वक्त इलेक्ट्रानिक मीडिया को लेकर विमर्श का है...और शायद रवीश कुमार ने इस विमर्श की शुरुआत कर दी है...उनके लहजे में टीवी की बिगड़ती भाषा को लेकर रोष दिखता है...वो दर्शकों को बताते हैं कि आप को खबरों के नाम पर बेवकूफ बनाया जा रहा है...दरअसल ये रवीश कुमार की तकलीफ नहीं... बल्कि उन लोगों की भी पीड़ा है जो टीवी पर बेहतर करना चाहते हैं.. रवीश की लड़ाई टीवी पत्रकारिता की साख को बनाए रखने की है...उनकी लडाई को भले कुछ तथाकथित पत्रकार टीआरपी को लेकर उनका फ्रस्टेशन करार दें...लेकिन ये सच है जिस साख के लिए रवीश जूझ रहे हैं...वो एक दिन या कुछ घंटों में नही बनती.. साख बनाने में वक्त लगता है...और ये काम रवीश जैसे पत्रकारों ने बखूबी किया है...इसलिए खुद के सामने पत्रकारिता को बेरहमी से कत्ल किए जाने की उनकी पीड़ा समझी जा सकती है...दरअसल दौर मंदी का चल रहा है और ऐसे में चारों ओर आर्थिक पलहुओं पर जोर शोर से बात हो रही है...पैसे के सूखेपन से न्यूज चैनल भी परेशान हैं... ऐसे में टीआरपी लाने का दबाव सभी न्यूज चैनलों पर है...लेकिन ऐसे में टीवी पत्रकारिता की साख को खारिज नहीं किया जा सकता...अगर आज आप दर्शको को जायका खराब करेंगे.. तो आगे बेहतर दिखाने की कोई जगह आपके पास नहीं होगी...वैसे भी टीवी के अस्सी फीसदी हिस्से पर मनोरंजन का बोलबाला है...और कुछ टीवी न्यूज चैनल उस पर भी अपनी नजरें गढ़ाए बैठे हैं...साफ है कि बाजार के तकाज़ों से आप खबरों की साख नहीं तोल सकते...बाजार उपभोग और उपभोक्ता की परिभाषा से चलता है...उसे अच्छे बुरे से कोई मतलब नहीं होता...ऐसे में खबरों को बाजार के सुपुर्द करना खतरनाक तो है ही...दिल पर हाथ रख कर बताइये कि क्या आप पत्रकार के तौर पर अपने लिए लोगों के नजरों में सम्मान नहीं देखना चाहते? अगर हां तो वक्त संजीदा होने का है..नहीं तो इंतजार करिए टीवी पत्रकारिता के हमेशा के लिए खत्मे का..उस वक्त वो बाजार भी आपका साथ छोड़ देगा...वही बजार जिसके हाथों में आपने अपनी साख गिरवी रख दी है...

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

खामोश...खबर बेखबर है...

पाकिस्तान को टीवी पर ललकार के लौटे एक टीवी पत्रकार से जब मैनें रवीश कुमार की स्पेशल रिपोर्ट का जिक्र किया....तो उनकी आवाज़ रुखी सी हो गई...बोले जिस दिन रवीश से मार्केट का टेन परसेंट मांगा जाएगा...तब देखेंगे उनकी पत्रकारिता...मैं भी चुप हो गया.. दरअसल उनके इस जवाब में मुझे उनकी मजबूरी से ज्यादा हिन्दी न्यूज चैनलों की लाचारी ज्यादा नजर आई...थोड़ी देर बार टीवी पर फिज़ा का तमतमाया चेहरा दिखाई देने लगा...सबकुछ लाइव चल रहा था...अचानक फिजा ने मीडिया को लगभग ज़लील करते हुए दो चार खरी खोटी बातें सुना डालीं...चूंकि सब लाइव था सो सारी बातें हवा में तैरते हुए दर्शकों तक भी जा पहुंचीं...लेकिन फिज़ा के गुस्से में मुझे पाकिस्तान को ललकारने वाले भाई साहब के सवाल का जवाब भी मिल गया..फिज़ा हम सब को हमारी बेशर्मी के लिए कमेंट के दो चार तगड़े तमाचे जड़ कर जा चुकी थी...ये फिज़ा का गुस्सा नहीं था... उन सभी लोगों का गुस्सा था जो हिन्दी मीडिया को मरते हुए देख रहे हैं...खबरों का तमाशा बनते हुए देख रहे हैं...
ये कड़वी सच्चाई है कि हम सब उस बाजार में खड़े हैं... जहां चंद लोग हमसे तमाशा बनने की फरमाइश कर रहे हैं...और हम उन्हें तमाशा दिखाकर खुश है...पैसे के लिए किसी भी हद तक जाने की मजबूरी में हमारे पैर जकड़े जा चुके हैं...इस बीच खबरों को लेकर हमारी संजीदगी पूरी तरह मर चुकी है... और हम अपने आप अपने प्रोफेशन का गला घोंट रहे हैं...दरअसल इस वक्त टीवी मीडिया को दो खांचों में बंटी नजर आती है... इसमें से एक इंडिया टीवी टाइप की पत्रकारिता है...जिसकी जमात कुछ ज्यादा बड़ी है...और ये रास्ता ज्यादा कठिन भी नहीं है...बस आपको खबरों को सनसनी में तब्दील करने की कला आनी चाहिए... दर्शको को बेवकूफ समझिए और कुछ भी दिखा दीजिए...हां फुटेज की चोरी करने की कला इस जमात में शामिल होने की महत्वपूर्ण शर्त है...जो आप आठवीं क्लास के किसी कम्प्यूटर में माहिर बच्चे से सीख सकते हैं...इतने भर से आप टीआरपी के हकदार बन जाते हैं...और आपके ऊपर पैसों की बरसात होने लगती है...
वहीं दूसरी जमात एनडीटीवी टाइप के पत्रकारों की है...उनका रास्ता मुश्किल भी है और उबाऊ भी..इसके लिए आपको खबरों की संजीदगी की एहसास होना जरुरी है...आपके ऊपर दर्शकों को कुछ बेहतर दिखाने का दबाव होता है...और इस मुश्किल काम में टीआरपी भी नहीं है...आज के हालात ऐसे पत्रकारों के लिए मुनासिब नहीं हैं और यही वजह है कि इंडिया टीवी टाइप पत्रकारों की जमात लगातार बढ़ रही है...और यकीन मानिए अगर हिन्दी दर्शकों को अभी भी अक्ल नहीं आई तो वो दिन दूर नही की पाखंडी बाबाओं और सांप बिच्छुओं से खेलने वाले सपेरों की जमात खुद को वरिष्ठ पत्रकार बताने लगेगी

शनिवार, 24 जनवरी 2009

मेरा कबूलनामा दिल से 9

मेरी अधूरी कहानी
किसी कहानी का अधूरा रह जाना...आपके अंदर के अधूरेपन की तरह है...दरअसल मेरी कहानी दो किस्तों में आकर आज भी अधूरी पड़ी है...अब मुझे समझ में आता है कि कहानी किस्तों में भले छपतीं हो...लेकिन लिखी तो कतई नहीं जाती होगी (ऐसा मैं सोचता हूं)...कहानी के अंदाजे बयां के नाम पर मुझे कुमुद नागर जी याद आते हैं...कुछ कुछ निराला सा चेहरा...सफेद होती दाढ़ी...लंबा कद...और शानदार व्यक्तित्व...मुझे काफी दिनों बाद पता चला कि वो अमृतलाल नागर के पुत्र हैं...वो अक्सर हमें कहानी के बारे में बताया करते थे...उनके जिम्मे में वो काम था जो मेरे ख्याल से नामुमकिन सा था...वो हमें स्क्रिप्ट लिखना सिखाया करते थे...कहानी कैसे कही जाती है ये भी सिखाना उनके जिम्मे में था...जितना उनके करीब गया उतना ही बड़ा पाया...वो कई विधाओं में माहिर थे...थियेटर से लेकर पेटिंग तक...उन्होने कई सालों तक रेडियो और टेलीविजन में काम भी काम किया था...उनकी आवाज उनके आखिरी वक्त तक फंसने लगी थी...जब मैं दिल्ली में था...तब पता चला उनकी मौत हो गई है...टहलने के दौरान टेम्पो की टक्कर ने उनकी जिंदगी उनसे हमेशा के लिए छिन ली...मुझे उनका चेहरा आज भी याद है....मुझे अफसोस है कि मेरे पास इस ब्लॉग पर लगाने के लिए उनका कोई फोटो नहीं है...खैर बात कहानी की हो रही थी...
मानता हूं कि मैं गुनाहगार हूं उस कहानी का जो दो किस्तों में आकर भी अधूरी पड़ी है...मैं उसे पूरा कर पाऊं...मुझे नहीं लगता...क्योंकि कहानी कहने के लिए जिंदगी को महसूस करने का वक्त चाहिए...जो अब मुझसे छिन सा गया लगता है....सोचता हूं कुछ ऐसा कहूं जो सब सुने...ऐसा बोलूं कि खुद को भी अच्छा लगे...खुद को पात्र की तरह पेश करूं और असली सी कहानी कह डालूं...लेकिन इसके लिए आपकी आप से मुलाकात भी तो जरुरी है...वो भी अब नहीं हो पाती...फिर भी आस है लिख रहा हूं...खूब पढ़ने की ख्वाहिश है...अभी उम्र भी कोई ज्यादा नहीं हुई है...औऱ थकान भी नहीं है...इसलिए लिखने की आस है...फिलहाल तो आप इसे उस अधूरी कहानी को लेकर मेरा पश्चाताप कह सकते हैं...

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

लखनऊ के ख्यालों में नोएडा

पहले शहर नदियो के आसपास बसा करते थे...जो स्वाभाविक था औऱ जरुरी भी..नदियां इंसान के तमाम मकसद हल कर दिया करती थीं...लेकिन अब शहर बाजार के आसपास बसते हैं...या कहें बसाए जाते हैं...नोएडा के बारे में मेरी सोच कुछ कुछ ऐसी ही है...हालांकि यमुना इस शहर को छूकर गुजरती है...लेकिन उसकी हालत देखकर आपका मन भी उसे नदी मानने से इंकार कर देगा..शायद यहां कोई मानता भी नहीं है...ऐसे में अपने लखनऊ से दूर होने के एहसास के बीच शहर के मायने समझ में आते हैं...हमारे शहर ने हमें अदब की तालीम दी..नवाबों की गंगा जमुनी तहजीब की विरासत है हमारे पास.. मजाज़ लखनवी..अमृतलाल नागर से लेकर श्रीलाल शुक्ल तक का लंबा साहित्यिक सफर तय किया है हमारे शहर ने...आप तहजीब और तमीज के नाम पर इस शहर से कुछ भी मांग सकते हैं..आपको शायद ही मायूस होना पड़े..( अगर होना पड़े तो ये मानिएगा कि वो लखनवी अंदाज तो नहीं है) हमें हमारे शहर ने पाला है..लेकिन नोएडा (उसमे दिल्ली के कई हिस्से भी शामिल हैं.) में आकर अपने शहर से बिछुड़ने का दर्द सालता है...यहां सबकुछ होकर भी काफी कुछ नहीं हैं...इस शहर के पास ना तो इतिहास है...और ना ही इतिहास बनाने की कूबत...( हां आपराधिक इतिहास यहां जरुर रोज बन रहे है निठारी से लेकर आरुषि मर्डर केस तक )..जो शहर प्यास का मोल लगाने लगे उससे ज्यादा बिकाऊ शहर कोई नहीं हो सकता...आप यहां जितने प्यासे हैं उतने बड़े ग्राहक हैं...यकीन मानिए पैसे से ना तो इंसानियत खरीदी जा सकती है...और ना ही खूबसूरत एहसास...यहां जन्मे बच्चों को ना तो रोटी के मायने ही पता हैं...और ना ही धूप में पसीने बहाने वाले किसान की तकलीफ का उन्हें एहसास है...यहां बचपन से बाजार की तालीम मिलती है...समझाया जाता है कि पैसे से पैसे कैसे बनाए जाए...या फिर अथाह संपत्ति को कैसे लुटाया जाए..अब समझ में आता है कि साहित्य से जुड़े लोगों का जमावड़ा होते हुए भी इस शहर में साहित्य की ( खासकर हिन्दी..अंग्रेजी साहित्य पढ़ना तो स्टेटस सिंबल है ) कोई दुकान क्यों नहीं है...यहां रह रहे साहित्यकार हमारे लखनऊ तक में कहीं ज्यादा पापुलर हैं...लेकिन नोएडा और दिल्ली के कुछ इलाकों में उन्हें कोई नहीं जानता...और ज्यादा कड़े अल्फाजों में कहूं तो कोई जानना भी नहीं चाहता...ये सिर्फ मेरी भड़ास हो सकती है...हो सकता है कई लोगो को मेरी ये तकलीफ बेवजह लगे...लेकिन जब एक वक्त की दवाई खाने के लिए पानी मांगने के बजाए १५ रुपए की पानी की बोतल खरीदनी पड़ती है...तो एहसास की कड़वाहट कुछ ज्यादा तीखी हो जाती है...बस गु्स्सा आती है पानी की कीमत पर बाजारू जिंदगी जीने वाले इस नोएडा शहर पर...

तहलका पर वो दो कविताएं


कम से कम मुझे इतना तो यकीन है कि मैं कोई कवि नहीं हूं... और ना ही शब्दों की तुकबंदी करने की काबलियत ही है मुझमें... लेकिन पिछले तीन या चार महिने से तहलका की साइट पर दो कविताओं का एहसास अटका पडा है... कविताएं अब तक भले पुरानी सी हो गई हों...लेकिन कमेंट की ताजगी ने उन्हें बासी होने से बचाए रखा है...कविताओं पर काफी प्रतिक्रियाएं भी आ चुकी हैं...पढ़कर खुशी होती है...लिखे शब्द जब बोलते हैं तो अच्छा लगता है...पिछले दिनों पढ़ने लिखने का सिलसिला थोड़ा कम हुआ है (सच कहूं तो काफी कम हो गया है थोड़ा कम कह कर खुद को तसल्ली देने की बेवजह कोशिश करता रहता हूं)...कविताएं भावनाओं का बहाव होती हैं...उन्हें रोक पाना खुद के बस में भी नहीं होता..कविताओं में शब्द तर्कों से कहीं आगे जाकर खुद नए तर्क गढ़ देते हैं...फिलहाल जब कभी खुद को तसल्ली देने का मन करता है तो तहलका पर अटकी पड़ी कविता पढ़ लेता हूं...अच्छा लगता है लेकिन यकीन मानिए फिर भी खुद को कवि मानाने की गुस्ताखी नहीं करता...