शुक्रवार, 12 जून 2009

एक कविता दोस्ती के नाम


कुछ सुनने का मन ना हो...
तो कुछ कहने की फुरसत निकाल लेनी चाहिए...
कभी सुना या कहा पूरा नहीं होता...
कभी समझा हुआ सच नहीं होता...
कभी सच समझना मुश्किल होता है...
तो कभी समझा हुआ मुश्किल लगता है
गिले शिकवे की लड़ाई
जिंदगी से बड़ी नहीं होती
शिकायतें अक्सर पराई होती हैं
खुद से नहीं होतीं
दुनिया बड़ी है
उसके दस्तूर बड़े हैं
लोग बडे हैं
उलझने बड़ी हैं
लेकिन दोस्त जिंदगी बहुत छोटी है

सोमवार, 8 जून 2009

ये उदास वो उदास


रात उदास, दिन उदास

मन उदास,सब उदास

ये उदास, वो उदास

मैं उदास, तू उदास

सच उदास,हिम्मत उदास

हवा उदास,मौसम उदास

क्या कहें, क्या क्या उदास

( हबीब साहब की मौत की उदासी, जिंदगी की उदासी सी लगती है, शब्दों से कम हो जाए तो लिखा सार्थक समझिए)




शुक्रवार, 5 जून 2009

उफ् दिल्ली की गर्मी


येगर्मी का असर था. या फिर गरममिजाजी का. बिग बी नाराज हो गए. गुस्से का गुबार उतरा ब्लॉग पर. निशाना था उत्तर भारत . और बहाना थी गर्मी. जो लिखा वो भी बिग की एक्टिंग की तरह लाजवाब था. कहना मुश्किल था कि. बिग बी नसीहत दे रहे हैं. या फिर फटकार रहे हैं. हाल में बिग बी दिल्ली आए. इससे पहले भी आते रहे हैं. लेकिन इस बार का सफर बिग बी के जेहन में रच-बस गया. दिल्ली में उनका खैरमकदम गर्मी और गरममिजाजी दोनो ने किया. असर कुछ यूं हुआ. कि बिग बी भी उत्तर और दक्षिण के खांचें में बंटे दिखे. चलिए पहले आपको बताते हैं कि क्या फरमाया बिग बी ने अपने ब्लॉग पर दिल्ली से लौटने के बाद.
भविष्य के लिए यहां (दिल्ली)बड़ी तादात में फ्लाईओवर और अंडरग्राउंड मेट्रो के निर्माण का काम चल रहा है...आसानी से देखा जा सकता है कि संतुलित मुंबईकर के मुकाबले गरममिजाज उत्तर भारतीय बेहद जल्दी अपना आपा खो देते हैं....जब आप 40 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान में गाड़ी चला रहे हों...जय महाराष्ट्र !

कहना मुश्किल है कि बिग बी किससे नाराज है. फ्लाईओवर और मेट्रो निर्माण के चलते सड़क पर होनेवाली परेशानी से, दिल्ली की गर्मी से, या फिर यहां की गरममिजाजी से. शब्दों की तुकबंदी बिग बी को विरासत में मिली है. और बिग बी ने यहां भी इस तुकबंदी का बखूबी इस्तेमाल किया है. लेकिन उत्तर भारत की गरममिजाजी पर बिग बी की ये शिकायत. यूपी की मिट्टी से जुड़े किसी शख्स की नहीं लगती. ये गुस्सा काफी हद तक महाराष्ट्र की उस आवाज से मिलता जुलता है.जो उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र से निकालने की बात करती है.

मंगलवार, 2 जून 2009

लौट आया महाबली खली


आखिर खली गया कहां. कल तक कैमरों को अपने आगे पीछे घुमाने वाला पहलवान आखिर कहां गुम हो गया. वो इस वक्त है कहां. लेकिन हम आपको बताएंगे कहां है खली. क्या कर रहा है खली. क्यों खामोश है खली. जी हां हर राज से आज उठेगा पर्दा. फिर लौटेगा खली. फिर लड़ेगा खली. दुश्मनों को चटाएगा धूल. क्योंकि इस बार उसे मिला है नया गुरुमंत्र. ना हारने का गुरुमंत्र. अब खली हारेगा नहीं बल्कि हराएगा. तो तैयार हो जाइए. उसे फिर से देखने के लिए. लौट रहा है महाबली खली. जी हां वो फिर दिलाएगा टीआरपी. वो करेगा हमारा बेड़ा पार. वो अगर नहीं करेगा तो हम कराएंगे. वो नहीं लड़ेगा तो हम लड़ाएंगे. वो हार भी गया तो भी गुणगान करके उसे महाबली साबित करेंगे. वो खाएगा तो खबर बनाएंगे. वो नहाएगा तो भी बताएंगे. उसकी हर हरकत पर नजर रखेंगे ( झूठ बोल रहा हूं नजर तो पहले भी नहीं ऱखी थी बस अंदाजा मारते थे और दर्शक मौज लेकर देखते थे) तो लौट रहा है खली तैयार हो जाइये टीआरपी के चक्कर में पत्रकारों के जाल में फंसने के लिए...
(लेखक इलेक्ट्रानिक पत्रकार हैं... चुनाव खत्म होने के बाद काम नहीं है... टीआरपी के कीड़े ने अभी अभी काटा है...ये स्क्रिप्ट इसी छटपटाहट का नतीजा है....भगवान बचाए)

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

ये झूठ है...


हां मैने मान लिया की मेरा सच हार गया है...तुम्हारे झूठ ने मेरे सच के चिथड़े चिथड़े कर दिए हैं...मैं गलत था ये भी कबूल करता हूं...मैं खुद को कैसे कोसूं...नहीं जानता...लेकिन इतना जरुर कह सकता हूं कि तुम्हारी झूठी और दिखावटी दुनिया मुझे बेचारा कहती होगी...मेरी बेचारगी पर हंसती होगी...हंसे भी क्यों ना... अभी तक मैं सच और झूठ के फरेबी पैमाने पर दुनिया को तोलने की गुस्ताखी करता रहा... मेरे सामने लोगों ने झूठ की झूठी कसमें खाईं...सपनें दिखाकर झूठ का खंजर कई बार मेरी पीठ पर भोंका गया...लेकिन मैंने सच से अपना भरोसा नहीं उठने दिया...हर बार सच के जीतने की उम्मीद लिए झूठ को सहता रहा...लेकिन अब हार गया हूं...तुम्हारी झूठ की दुनिया ने मुझे हरा दिया है...तु्म्हारी झूठ की दुनिया को लोग सलाम करते हैं...लेकिन मेरा सच तो अभी तक अंधेरी गलियों में भटक रहा है...और लगता तो यही है कि भटकता रहेगा...लेकिन माफ करना दोस्त तुम्हारे झूठ को सलाम भी नहीं कर सकता... और अपने सच को यूं ही भटकने के लिए भी नहीं छोड़ सकता... झूठ की फरेबी दुनिया में सच के लिए कोई तो जगह होगी... कहीं तो मेरा सच झूठ से पार पाएगा... वैसे दोस्त जिंदगी से पार मौत का एक सच तुम्हारे झूठ के इंतजार में बैठा है.. वो मेरे सच की तरह कमजोर नही है...क्योंकि वो नियति है...जिंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई है...

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

मैने देखी है ज़िंदा लाश

कितना अजीब है,
नियति से हार जाना.
कितना अजीब है,
आदर्श को मुश्किल,
या नामुमकिन मान लेना.
मैं भी गुनहगारों की
कतार में हूं.
मुझे भी लगता है
कि बस वाले से बेकार है,
पहुंचने की जगह का
सही किराया पूछना.
मैं नहीं जानता
कौन है वो नेता
जो पिछली बार आया था,
वोट की भीख मांगने मेरे घर.
मैने जानने की कोशिश नहीं की
कि बलात्कार के कितने आरोप थे,
उसके ऊपर.
मैने कभी नहीं पूछा
की मेरे वोट से जीतने के बाद,
विकास के नाम पर
कितना कमीशन खाया उसने.
मैने कभी जानने की कोशिश नहीं कि
क्यों बढ़ रहा है,
अपराध का ग्राफ मेरे इलाके में.
बताते हैं कि चलने लगी हैं
तमाम लाशें सड़कों पर.
हर लाश खुद को
आम आदमी बताती है.
सवाल नहीं करती,
बस सहती जाती है...
.....................
सुबोध 06 मार्च

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

खामोश...खबर बेखबर है...2

वक्त इलेक्ट्रानिक मीडिया को लेकर विमर्श का है...और शायद रवीश कुमार ने इस विमर्श की शुरुआत कर दी है...उनके लहजे में टीवी की बिगड़ती भाषा को लेकर रोष दिखता है...वो दर्शकों को बताते हैं कि आप को खबरों के नाम पर बेवकूफ बनाया जा रहा है...दरअसल ये रवीश कुमार की तकलीफ नहीं... बल्कि उन लोगों की भी पीड़ा है जो टीवी पर बेहतर करना चाहते हैं.. रवीश की लड़ाई टीवी पत्रकारिता की साख को बनाए रखने की है...उनकी लडाई को भले कुछ तथाकथित पत्रकार टीआरपी को लेकर उनका फ्रस्टेशन करार दें...लेकिन ये सच है जिस साख के लिए रवीश जूझ रहे हैं...वो एक दिन या कुछ घंटों में नही बनती.. साख बनाने में वक्त लगता है...और ये काम रवीश जैसे पत्रकारों ने बखूबी किया है...इसलिए खुद के सामने पत्रकारिता को बेरहमी से कत्ल किए जाने की उनकी पीड़ा समझी जा सकती है...दरअसल दौर मंदी का चल रहा है और ऐसे में चारों ओर आर्थिक पलहुओं पर जोर शोर से बात हो रही है...पैसे के सूखेपन से न्यूज चैनल भी परेशान हैं... ऐसे में टीआरपी लाने का दबाव सभी न्यूज चैनलों पर है...लेकिन ऐसे में टीवी पत्रकारिता की साख को खारिज नहीं किया जा सकता...अगर आज आप दर्शको को जायका खराब करेंगे.. तो आगे बेहतर दिखाने की कोई जगह आपके पास नहीं होगी...वैसे भी टीवी के अस्सी फीसदी हिस्से पर मनोरंजन का बोलबाला है...और कुछ टीवी न्यूज चैनल उस पर भी अपनी नजरें गढ़ाए बैठे हैं...साफ है कि बाजार के तकाज़ों से आप खबरों की साख नहीं तोल सकते...बाजार उपभोग और उपभोक्ता की परिभाषा से चलता है...उसे अच्छे बुरे से कोई मतलब नहीं होता...ऐसे में खबरों को बाजार के सुपुर्द करना खतरनाक तो है ही...दिल पर हाथ रख कर बताइये कि क्या आप पत्रकार के तौर पर अपने लिए लोगों के नजरों में सम्मान नहीं देखना चाहते? अगर हां तो वक्त संजीदा होने का है..नहीं तो इंतजार करिए टीवी पत्रकारिता के हमेशा के लिए खत्मे का..उस वक्त वो बाजार भी आपका साथ छोड़ देगा...वही बजार जिसके हाथों में आपने अपनी साख गिरवी रख दी है...