मंगलवार, 30 मार्च 2010

गरियाना तो सबको आता है पर...


बड़बड़ाते झुंझलाते और काफी हद तक गरियाते लोगों से घिरा हूं। समझना मुश्किल है क्या बोलूं क्या कहूं। बस हां में हां मिलाकर काम चला लेता हूं। ना सहमति ना असहमति। सबकी अपनी शिकायते हैं सबकी अपनी कहानियां हैं। दरअसल दिक्कतें कई हैं। सब अपनी नजरों में सिकंदर हैं। सबके अपने पूर्वाग्रह हैं। लेकिन मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि कोई कैसे तय कर सकता है कि वो इस सदी का सबसे बड़ा राइटर है। कोई कैसे इस गुमान में जी लेता है कि वो बोलेगा और कई सदियों का कहा हमेशा के लिए मिट जाएगा। या फिर वो लिखेगा और पुराना लिखा सबकुछ मिटा देगा। क्यों लोग आसपास की दुनिया को देखना नहीं चाहते अपनी कमीज पर लगे दागों को धोने की कोशिश करना नहीं चाहते। शिकायतें यहीं से शुरु होती हैं। काबिलियत बोले जाने की मोहताज नहीं होती। उसका खुद का चेहरा होता है। ठीक वैसे जैसे ए आर रहमान की काबलियत धुनों में सुनी जा सकती है। सचिन का एक्सीलेंस उनके शॉट्स में बखूबी छलक आता है। दरअसल सीखने के लिए बहुत कुछ है और करने को बहुत स्पेस है। जरुरत है अपने दिमाग में स्पेस बनाने की। समाचार माध्यमों के साथ जो हो रहा है वो दिमाग में उस स्पेस की कमी का नतीजा है। जो दिमाग में विचारों का स्पेस बना लेते हैं वो इस भेड़चाल में भी दिल्ली का लापतागंज खोज लेते हैं। कैमरे आंख की तरह इस्तेमाल हों और माइक किसी की आवाज की तरह तो यकीन जानिए न्यूज में बहुत कुछ कहने सुनने के लिए होगा। वरना कॉमेडी सर्कस और रियलटी की उधारी से न्यूज चैनलों की दुकानें सजती रहेंगी।

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

वो गुमनाम खत पार्ट २

साइकिलों का भी क्लास बंटने लगा। हीरो रेंजर साइकिलों का नया संस्करण था। पुराने मॉडल की साइकिलें छात्र के गंवारुपन की पहचान बनने लगीं। इसी बीच हीरो पुक ने आकर साइकिलों को दहला दिया। लड़के एक लीटर में ७० किलोमीटर का सफर मोपेट से तय करने लगे। लड़के लड़कियों के बीच हीरो पुक का नया मॉडल नए जमाने का नया फैशन हो गया। कपड़े भी बदले बैगी स्वेटर बैगी पैंट और ढीले ढाले कपड़े फैशन में आ गए। लड़कों की जेब में कंघियां रहने लगीं। फैशन का बुखार हमें भी चढ़ा। साइकिलें निक्सन मार्केट (अब वहां पार्क है) जाने की जिद करने लगीं। हम बदले लेकिन कॉलेज और हमारी पढ़ाई का मिजाज़ नहीं बदला। फिजिक्स और कैमेट्री की मोटी किताबें अब हमें पहले से ज्यादा परेशान करने लगीं। बायो की किताब में बने मेढ़क और खरगोश के फोटो खौफनाक लगने लगे। हम पढ़ तो रहे थे लेकिन क्या और क्यों हम खुद नहीं जानते थे। कंपटीशन नाम का वायरस कई छात्रों में घुस चुका था। लेकिन हम इस वायरस से बेखबर थे। पहली बार पीएमटी नाम सुना। पूरा नाम सुनने और याद करने में वक्त लग गया। लेकिन इन सबके बीच हमारी साइकिलों की पिक्चर हॉल जाने की हसरत बनी रही। बसंत, मेफेयर, साहू, लीला, गुलाब ये सब उन सिनेमाघरों के नाम थे जहां हमारी साइकिलें जाने को मचलती थीं। बसंत, मेफेयर, साहू, लीला ये सारे हॉल हजरतगंज में पड़ते थे। हॉल में घुसते वक्त किसी के देख लिए जाने का डर भी होता था। लेकिन इस डर के सामने फिल्म देखने का रोमांच भारी पड़ता। अक्सर हॉल में किसी परिचित से मुलाकात होती तो आंखों ही आंखों में एक दूसरे की चुगली ना करने का आश्वासन हम ले लिया करते थे। शाहरुख का ग्राफ चढ़ रहा था, मिथुन अपनी उम्र से जूझ रहे थे, अक्की खन्ना खतरों से खेल रहे थे, और रवीना टंडन, करिश्मा कपूर, आयशा जुल्का, जूही चावला जैसी एक्ट्रस अपने करियर की चढ़ान पर थीं। आमिर फिल्म में अपना अपना अंदाज दिखा रहे थे। बांबे आकर जा चुकी थी। हम आपके है कौन के साथ साथ दिल वाले दुल्हनियां ले जा रहे थे, पर्दे पर टाइटेनिक डूबकर पैसे कमा रही थी, दलाल और रावणराज जैसी घटिया फिल्में भी भीड़ बटोर लेती थीं। हमारी साइकिलों को भी अच्छी बुरी फिल्मों की पहचान थी।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

आई एम नॉट टेररिस्ट !

ओसामा बिन लादेन को सब जानते हैं तालिबान की सोच सबको पता है। लेकिन क्या मुसलमानों की पहचान लादेन और तालिबान पर आकर खत्म हो जाती है। क्यों नहीं लादेन के सामने मुसलमानों का कोई उदारवादी चेहरा उभर पाता है। क्यों तालिबान को हम ठेस मुसलमान की असल परिभाषा मान बैठते हैं। दरअसल माए नेम इज ख़ान इन सवालों के पार जाती है। फिल्म बताती है कि पूरी दुनिया अच्छे और बुरे इंसानों के खांचों में बंटी है और ये सबक फिल्म के साथ आखिरी तक जाता है। मज़हब और इंसानियत को जीते हुए फिल्म का नायक रिज़वान खान सबके दिलों को छू लेता है। ९/११ की पृष्ठभूमि में अब तक बनी शायद ये सबसे शानदार फिल्म है। फिल्म पर्दे से बाहर ऐसे तमाम सवाल छोड़ती है जिसके जवाब मुसलमानों को भी देने हैं। मसलन आज तक रिज़वान खान के किरदार सरीखे लाखों करोड़ों उदारवादी मुसलमान अपने मज़हब की पहचान क्यों नहीं बन पाए हैं। ज़ेहाद और इस्लाम के नाम पर हमेशा उन्मादी नामों का जिक्र बार बार क्यों होता है। क्यों लादेन और दूसरे कट्टरपंथी इस्लाम के पैरोकार की तरह स्थापित होते जा रहे हैं। मुसलमानों को समझना होगा कि मज़हब की रहनुमाई का ढिंढोरा पीटने वाले इन्हीं नामों की वजह से मुसलमानों की मुश्किलें बढ़ी हैं। तमाम मुल्कों में उन्हें शक की निगाह से देखा जा रहा है और उन पर तमाम तरह की पाबंदियां लगाई जा रही हैं। जरुरत लाखों करोड़ो उदारवादी मुसलमानों के सामने आने की है, जो मुसलमानों के बारे में गलतफहमी रखने वालों की आंखों में आंखे डालकर कह सकें कि आई एम मुस्लिम एंड आई एम नॉट टेररिस्ट। शायद आतंक का इससे ज्यादा मुंहतोड़ जवाब कुछ नहीं होगा। अगर ऐसा हुआ तो यकीन जानिए की नफरत की बुनियाद पर अपने दिन काट रही शिवसेना जैसी फिरकापरस्त सोच की ताबूत पर ये सबसे मजबूत कील होगी...

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

वो गुमनाम खत पार्ट १

कम्बख्त साइकिल को पता नहीं तमाम रास्तों की पहचान कैसे थी। स्कूल जाते वक्त रास्ता भटक जाना, गर्ल्स कॉलेज के सामने अदब से रफ्तार थाम लेना या फिर सिनेमाघर के स्टैंड पर घंटों तक आराम फरमाने की जिद के आगे मेरी ईमानदारी कई बार हारी। कभी हमारी साइकिलों ने स्टैंड के स्टैण्डर्ड का रोना नहीं रोया। जहां हमने उनकी रफ्तार पर ताला मारकर खड़ा किया चुपचाप खड़ी हो गईं। स्कूल के स्टैंड की तानाशाही ना हमें और ना हमारी साइकिलों को बर्दाश्त थीं। हम अपनी साइकिलें अक्सर उन स्टैंड के हवाले कर देते जो कुकुरमुत्तों की तरह स्कूल के आसपास उग आए थे। वक्त बेवक्त गोला मारने की बेताबी से ऐसे साइकिल स्टैंड का धंधा चोखा था। हमारा स्कूल सरकारी था और लखनऊ सिटी स्टेशन के पीछे चुपचाप कई सालों से खड़ा था। स्कूल के माहौल में सख्ती थी लेकिन उन स्टूडेंट के लिए नहीं जो स्कूल के मास्टरों को ट्यूशन के नाम पर चंदा चढ़ा आते थे। फिजिक्स कमेस्ट्री बॉयलोजी और मैथ्स गुमनाम है कोई...की तर्ज पर स्कूल में बसा करते थे। मास्टरों के लिए स्कूल क्लॉस ट्यूशन के प्रमोशन का अड्डा थे। हर टीचर पढ़ाई का डेमो देकर अपने घर का पता दे दिया करता था। कुछ इस तरह....कि पास होना है तो इस पते पर चले आओ...ट्यूशन की टाइमिंग फलाना फलाना है। साइंस के मास्टरों के लिए छात्रों का शिकार करना आसान था। लेकिन जल्दी ही आर्ट के मास्टरों ने भी ये कला सीख ली. सूर और कबीर के दोहों को समझने में भी स्टूडेंट फेल होने लगे और पास होने के लिए माथा टेकने गुरूजी के दर पर पहुंचने लगे। लैब में हमारा आना जाना अमावस में निकलने वाले चांद की तरह था। माइक्रोस्कोप से इंट्रोडक्शन नहीं हो पाया, टेस्ट ट्यूब कभी टेस्ट नहीं कर पाए और ब्यूरेट पीपेट से कभी आई लव यू नहीं बोल पाए। इसी उधेड़बुन में वक्त कब इंतहान का आ गया पता नहीं चला। सारा वक्त मास्टरों का नामकरण और उनके पुराने नाम को सहेजने में निकल गया। हमारी कोशिशों का ही नतीजा था कि स्कूल में कैमेस्ट्री के टीचर्स को सभी आदर से सुग्गा कहते थे और फिजिक्स के नेगी जी लेढ़ी जी हो गए थे। उधर साइकिलें हमारा इंतजार किसी प्रेमिका की तरह किया करतीं थीं। हम उन्हें स्कूल जैसे जेल से कहीं दूर टिका दिया करते थे। इन पलों में हमारी साइकिलें ना जाने कितने ख्वाब बुन लिया करती थीं, कितने सिनेमाघरों के पोस्टरों को मन ही मन देखकर लौट आती थीं और कभी कभी स्कूल के किसी टीचर या उनके किसी रिश्तेदार के मरने की दुआ भी ऊपरवाले से मांग लिया करती थीं। साइकिलों से हमारी बेपनाह मोहब्बत ही थी कि हम धर्मेंद्र और अमिताभ की तरह स्कूल की जेल सी ऊंची दीवारें फांदकर उन तक पहुंचने लगे। साइकिल से दिवानगी का आलम ये हो गया कि जुम्मे के दिन हर हिंदू लड़के को नमाज की तलब लगने लगी और शिवरात्रि के दिन मुस्लिम छात्र बाबा भोलेनाथ के दर्शन को बेचैन होने लगे।....जारी

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

दिल्ली से तू तू मैं मैं

दिल्ली वाले जश्न मनाने में उस्ताद हैं..मौका दीजिए फिर देखिए नाचेंगे दारू पीएंगे...हुड़दंग मचाएगें पंजाबी और हरियाणवी में चीखेंगे चिल्लाएंगे...३१ की शाम को जश्न में डूबी दिल्ली के जाम में फंसा तो होश ठिकाने आ गए...कनाट प्लेस पर जाम...इंडिया गेट पर ट्रैफिक बंद...बड़ी मुश्किल से घर पहुंचने का रास्ता मिला...हुड़दंग देखकर लगा की एक से सब बदल जाएगा...दिल्ली की सड़कों पर जाम नहीं लगेगा...शीला पानी का रेट कर देंगी..मनचले लड़कियों पर फब्तियां कसना बंद कर देंगे...दारु पीकर गाली देने की परम्परा खत्म हो जाएगी...लेकिन कुछ नहीं हुआ १ से ७ की सुबह एक जैसी थी...दिल्ली में मुझे आए फरवरी में दो साल हो जाएंगे...दो सालों में दिल्ली में केवल दो काम होते देख रहा हूं...मेट्रो का विस्तार और कॉमनवेल्थ की तैयारी...बाकी कुछ अपनी गति से चल रहा है ट्रैफिक से लेकर लो फ्लोर बस तक...शीला को भी अब दिल्ली की भीड़ से एतराज होने लगा है...और होना भी चाहिए...उनका मन तो राजठाकरे की तरह बिहारियों और यूपी के लोगों को दिल्ली से भगाने का करता है...लेकिन मजबूरी है...बस सलाह देकर रह जाती हैं...शीला जी अंग्रेजी बोलती हैं...मीठा बोलती हैं...इसलिए कोई ज्यादा परवाह नहीं करता है...मीडिया सर पर सवार है...सो शीला जी के कुछ कहने का मतलब है खबर...फिलहाल दिल्ली की दुर्दशा के बीच लखनऊ बहुत याद आता है...शराब का कल्चर अभी परदे में है...आपको टेम्पो और रिक्शे वाले पाउच (कच्ची दारू) पीते दिख जाएंगे...दुबली पतली सड़कें और हल्के फुल्के जाम में फंसे बाबू लोग...ज्यादातर लोग अपने बच्चों को डॉक्टर इंजीनियर बनाने का सपना पाले जिंदगी काट रहे हैं...मायावती का एजेंडा शीला जी से बिल्कुल अलहदा है...मायावती ठोस काम में यकीन करती हैं जैसे पत्थर के हाथी पत्थर के पार्क वगैरह वगैरह...ठीक ठाक सड़क पर सड़क बनवाना विकास की निशानी है...सड़क में सारा विकास समाया हुआ है...चौराहों पर अब और ज्यादा मूर्तियों की गुंजाइश नहीं बची है...कई महापुरुष वेटिंग में जिनके लिए पार्क बनाने की सूरत तलाशी जा रही है...लखनऊ विकास प्राधिकरण के लोग जगह तलाशने में जुटे हैं...सारा एजुकेशन सिस्टम कोचिंग तक सिमट कर रह गया है...यूनिवर्सिटी से रिसर्च की कम हंगामे की खबर ना आए तो लगता है कि यूनिवर्सिटी खुली ही नहीं...टेम्पो वाले अट्ठन्नी के लिए ना लड़ें तो समझिए आपका सफर बेकार है...हर साल तमाम सपनों में मेट्रो का सपना भी लखनऊ वाले पिछले चार पांच साल से देख रहे हैं...उसी में हम सब खुश हैं... वहां अभी भी दिल्ली की तरह भागदौ़ड़ नहीं है...छोटी सी दुनिया है...दिल्ली की सर्दी और जाम के बीच लखनऊ याद आ रहा था...वैसे भी दिल्ली को कोसने में बड़ा मजा आता है...शीला जी सुन लें तो शहर से भाग जाने का फरमान जारी कर दें...वैसे भी हम जैसों पर पहले ही भड़की हुई हैं...

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

नाकामियों का जश्न


25 साल की नाकामियों का जश्न कैसे मनाया जाता है। देखना हो तो भोपाल आईए। कैमरे 25 साल पुरानी त्रासदी की भावुकता की खोज में जुटे हैं। पुराने सवालों को झाड़ पोछ कर फिर से जिलाने की कोशिश हो रही है। पहले भी होती रही है और आगे भी होती रहेगी। हादसों को याद करने का यही तरीका है हमारे पास। उससे आगे देखने की ना तो हमारी कूबत है और ना ही कोई इच्छा शक्ति। नाकामियों पर आंसू बहाना हमारी आदत है। पहले 26/11 पर आंसू अब भोपाल की 25 सीं बरसी पर आंसू। 3 दिसम्बर 1984 को भोपाल ने जो मंजर देखा उसे हम याद भी कैसे कर सकते हैं। दोषी अभी भी खुलेआम घूम रहे हैं। सबसे बड़ा दोषी एंडरसन मौज कर रहा है। मुआवजे की छीनाझपटी मची है सो अलग। यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन की फैक्ट्री बूत की तरह खड़ी है। 25 सालों में हादसे से उठे सवालों पर जंग लग गई है। अब कोई नहीं जानना चाहता कि भोपाल को नरसंहार के मुहाने पर क्यों छोड़ दिया गया। क्यो इस हादसे के बाद भी कसूरवार खुली हवा में सांस ले रहे हैं। हादसे का सबसे बड़ा गुनहगार एंडरसन अभी भी यही दलील दे रहा है कि ये साजिश थी और साजिश से निपटने के लिए दुनिया में कोई सैफ्टी सिस्टम डिजाइन किया नहीं गया है। लेकिन 25 साल पहले हादसे के ठीक पहले फैक्ट्री में कुछ ऐसा हो रहा था। जो नहीं होना चाहिए था। जाने अनजाने साजिश रची जा रही थी। फैक्ट्री के अंदर एक बड़े हादसे की बू महसूस की जाने लगी थी। 2 दिसम्बर 1984 की रात से करीब एक सप्ताह पहले फैक्ट्री में जो हो रहा था। उससे साफ था कि कुछ ना कुछ तो गड़बड़ है। अचानक फैक्ट्री ने अपने एक कर्मचारी को निकाल दिया और करीब करीब सभी कर्मचारियों पर पेनाल्टी लगा दी गई। फैक्ट्री ने ये कदम सिर्फ इसलिए उठाया क्योंकि कर्मचारियों ने सैफ्टी नार्म्स से हटने से मना कर दिया था। जाहिर था फैक्ट्री के अंदर के हालात अच्छे नहीं थे। कर्मचारियों पर दबाव था और उन्हें बुरे से बुरे हालात में काम करना पड़ रहा था। यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन सेविन नाम का पेस्टिसाइड बनाती थी। 1979 से ही भोपाल की फैक्ट्री में मिथाइल आईसो साइनेड का इस्तेमाल हो रहा था। जबकि सेविन का उत्पादन करने वाली दुनिया की दूसरी कंपनी बेयर MIC के इस्तेमाल से तौबा कर चुकी थी। बावजूद इसके यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन पैसा बचाने के लिए MIC यानी मिथाइल आईसो साइनेट का इस्तेमाल करती रही। चूक यहीं तक नहीं थी इस गैस को जिस तरीके से भोपाल की फैक्ट्री में बनाया जा रहा था वो तरीका भी गलता था। पैसा बचाने के लिए यूनियन कार्बाइड अपने पुराने और खौफनाक ढर्रे पर चलती रही। उस वक्त किसी ने इस बात की ओर भी ध्यान नहीं दिया कि एक खतरनाक गैस का इस्तेमाल करने वाली फैक्ट्री शहर के बीचों बीच कैसे है। सवाल यहीं खत्म नहीं होते उस वक्त के सेफ्टी नार्मस के मुताबिक MIC जैसी गैस को स्टील के छोटे छोटे कंटेनर में रखा जाना चाहिए था लेकिन यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन में ऐसे नियमों का कोई मतलब नहीं था। फैक्ट्री ने महज पैसा बचाने के लिए MIC जैसे खतरनाक गैस को बड़े बड़े टैंकों में रखा। . यही नहीं भोपाल की खूनी फैक्ट्री नियम कानून को ताक पर रखकर चलाई जा रही थी। सेफ्टी नियमों का यहां कोई मतलब नहीं था। इसी फैक्ट्री के वर्जीनिया प्लांट में फोर लेयर आटोमेटिक सैफ्टी सिस्टम लगा था लेकिन हिंदुस्तान में उसकी फैक्ट्री सिर्फ एक और वो भी मैनुयल सैफ्टी सिस्टम के भरोसे चल रही थीष। फैक्ट्री के रेफ्रिजरेशन यूनिट का भी बुरा हाल था । MIC जैसी जहरीली गैस के कंटेनर से जुड़ी एक रेफ्रिजरेशन यूनिट हुआ करती थी। इस यूनिट को कुछ पैसे बचाने के लिए वारेन एंडरसन ने बंद कर दिया। माना जाता है कि अगर ये रेफ्रिजरेशन यूनिट चल रही होती तो भोपाल का हादसा काफी हद तक रोका जा सकता था। गैस को जिस तापमान पर रखा जाना चाहिए था उसे लेकर भी खूब लापरवाहियां हुईं। जिस MIC को 4.5 डिग्री सेल्सियस पर स्टोर किया जाना चाहिए था उसे 20 डिग्री सेल्सियस पर रखा गया था। भोपाल में 25 साल पहले जिस गैस ने पूरे भोपाल की हवा को जहरीला कर दिया उस गैस का रिसाव टैंकर नंबर 610 में पानी जाने से हुआ था। लेकिन इस बात का खुलासा आज भी नहीं हो सका है कि ये टैंकर तक पानी पहुंचा कैसे। टैंकर नंबर 610 में पानी जाने की वजह से ही तापमान 200 डिग्री सेल्सियस पहुंचा और टैंकर से निकली गैस ने भोपाल को बेदम कर दिया। यही नहीं 2 से 3 दिसंबर की रात जब भोपाल जहरीली हवा की जद में था उस वक्त शहर में मौत की गैस पर काबू पाने का कोई इंतजाम नहीं था। फैक्ट्री में अपातकाल के लिए लगा स्प्रे सिस्टम मजह 13 मीटर तक का ही था जो काफी नहीं था। इतना ही नहीं कंपनी के फ्लेयर टावर का डिजाइन भी गलत थी। माना जाता है कि अगर स्प्रे सिस्टम और फ्लेयर टावर सही होता तो इस हादसे के असर को आधे के करीब कम किया जा सकता था। कंपनी ने बात बात पर कंजूसी बरती। कंपनी में गैस स्क्रबर का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए नहीं हो रहा था कि कंपनी के पास कास्टिक सोड नहीं था। अगर कंपनी के पास कास्टिक सोडा होता तो भोपाल की त्रासदी की तस्वीरें इस कदर खौफनाक नहीं होतीं...फैक्ट्री में कर्मचारियों को सेफ्टी मनुअल की किताबें अंग्रेजी में दीं जबकि इस फैक्ट्री में ज्यादातर कर्मचारियों को अंग्रेजी नहीं आती थी। जब कर्मचारियों ने हिंदी में सेफ्टी मैनुअल की मांग की तो उनकी मांग को कंपनी के CEO एंडरसन ने साफ तौर पर खारिज कर दिया। पैसे बचाकर मुनाफे कमाने के लिए भोपाल की यूनियन कार्बाइड जुगाड़ के जरिए चलाई जा रही थी। यहां कंपनी के बॉयलर को चलाने के लिए 12 आपरेटर की जरुरत होती थी लेकिन कंपनी ने केवल 6 आपरेटर रखे थे। 6 आपरेटर कंपनी के रवैये से नाराज होकर कंपनी छोड़ चुके थे। यही नहीं जब कंपनी से ऑपरेटर की डिमांड की गई तो उनकी नियुक्ति करने के बजाए हर घंटे होने वाले बायलर चेकिंग का वक्त बढ़ाकर दो घंटे का कर दिया। साफ था नियमों को ताक पर रखने की छूट एंडरसन एंड कंपनी को सरकार की मिलीभगत से नहीं मिल सकती थी। अखबारों में फैक्ट्री के बारे में छपी तमाम रिपोर्ट के बावजूद उस वक्त की मध्यप्रदेश सरकार ने फैक्ट्री को सुरक्षा के लिहाज से फिट बताया। 25 साल बाद भोपाल का जख्म फिर से कुरेदा जा रहा है। नाकामियों की कहानी गढ़ी जा रही है जो गुनहगार हैं उनकी आंखों का पानी मर चुका है और जो जी जी कर मर रहे हैं उनकी आंखे पथरा चुकी हैं।

रविवार, 8 नवंबर 2009

अच्छा हुआ खबर ज्यादा नहीं चली


मैं चाहता भी नहीं था कि प्रभाष जोशी के गुजर जाने की खबर टीवी चैनलों पर चले। अमिताभ बच्चन और रणवीर कपूर के फूहड़ ड्रामें के बीच प्रभाष जोशी के निधन की खबर बार बार चुभी। जैसे लगा कोई गलीज और गिरा इंसान किसी भले आदमी के मरने की खबर सुना रहा है। प्रभाष जोशी को पहली बार लखनऊ में सुना दोबारा दफ्तर में मुलाकात हुई, जल्दी में थे सो ज्यादा संवाद नहीं हो पाया। फिर मिलने का मौका तब मिला जब प्रभाष जी हमेशा के लिए आंखें बंद कर चुके थे। फिर भी नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हुई। एक अपराधी की तरह थोड़ी देर खड़ा रहा। सोचा अच्छा हुआ उनके जीते जी उनसे मिलना नहीं हुआ। वरना पूछते क्या करते हो तो क्या बतता। क्या कहता उनसे कि रोज पत्रकारिता के साथ छल कर रहा हूं। प्रभाष जी थे तो भरोसा था लेकिन उनके जाने के बाद बचा खुचा भरोसा भी खाक हो गया। पत्रकारिता की रेस में अभी ज्यादा नहीं दौड़ा हूं फिर भी हांफने लगा हूं। अभी ज्यादा उम्र नहीं हुई है फिर भी लगता है कि उम्र बीत गई। क्या वाकई प्रभाष जी के साथ पत्रकारिता की सच्ची लौ हमेशा के लिए बुझ गई। लगता तो यही है।
प्रभाष जी ने जनसत्ता को जो पहचान दी वैसी पहचान आज तक कोई अखबार नहीं बना पाया। अखबारों ने प्रसार संख्या तो खूब बढा़ई लेकिन ये प्रसार पैसे का था लोगों के दिलों में ज्यादा से ज्यादा दस्तक देने का नहीं। नंबर वन की दौड़ में खबर को ही कुचल दिया गया। अब अखबार आवाम की आवाज नहीं, बल्कि बाजार की आवाज हैं। सच्चे और सामाजिक विचारों को अखबार में कैसे और कितनी जगह मिलती है सब जानते हैं। सच बोलने की हिम्मत किसी में नहीं है। सरकार के तलवे चाटने वाले चैनलों और अखबारों के बीच प्रभाष जी की आवाज का खामोश होना, किसी मातम से कम नहीं है। प्रभाष जी खबर को अनाथ करके चले गए। प्रभाष जी के जाने के बाद खबर की खबर लेने वाला कोई नहीं बचा है। बस अफसोस इसी बात का है कि हमने प्रभाष जी को अपनी मरती पत्रकारिता की राख के साथ विदा किया है।