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मंगलवार, 7 अक्टूबर 2008

कुछ यूं ही गुजर रही है जिंदगी

वक्त के बीते पन्ने
कुछ पीले पड़ने लगे हैं...
यादों की तमाम तहें
घुन सी गई हैं...
वक्त की सीलन
यादों में गहरे तक उतर आई है...
जिंदगी रस्सी के उन सिरों की तरह लगती है
जो उलझे भी हैं
और उलझे मालूम भी नहीं पड़ते...
वक्त रेत की तरह
मुट्ठी से फिसलता जा रहा है...
उलझन साए सी
जिंदगी के पीछे पड़ गई है...
हवाओं में हर ओर
साजिश की बू आती है
हर रास्ता अजनबी सा लगता है...
बार बार अपने अंदर का भरोसा
कड़वी हकीकत चखकर
तीखा हो जाता है...

लेकिन जेहन के एक कोने में पड़ा
उम्मीद का मीठा टुकड़ा...
बार बार यादों में घुलता है...
यादें फिर से उम्मीद की करवट होकर
समेटने लगती हैं
यादों के पीले पन्नों को...