
मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
बुधवार, 8 जुलाई 2009
गाजियाबाद में रहता हूं अपना दर्द सुनता हूं

मंगलवार, 7 जुलाई 2009
प्रभात जी का हलफनामा

(प्रभात जी बेहद संजीदा इंसान...प्रभात जी अपने ब्लॉग हलफनामा में इस बार कुछ ऐसा लिख गए हैं...जो झकझोरने वाला है...उनसे पूछ कर उनका लिखा अपने ब्ल़ॉग पर डाल रहा हूं...क्योंकि ये आवाज कहीं ना कहीं खुद की भी लगती है)
मित्रों को मजाक लगता है.कुछ ज्यादा संवेदनशील मित्र इसे काम का दबाव मानते हैं.कुछ ऐसे भी हैं जो इसे बकवास करार देंगे.दरअसल मेरी ख्वाहिश ही कुछ ऐसी है जिसे लोगबाग गंभीरता से नहीं लेते.मैं वाकई गांव वापस लौट जाना चाहता हूं.इसके पीछे कोई ठोस वजह नहीं है.शुरू शुरू में ये ख्याल एक लहर की तरह आया.लेकिन अब गाहे बिगाहे परेशान करता है.दावे के साथ कह सकता हूं कि इस ख्याल की वजह नास्टेल्जिया नहीं है.गांव में जाकर कोई सामाजिक आर्थिक क्रांति करने का इरादा भी नहीं.बस गांव में जाकर बसना चाहता हूं.हालाकि वहां से कभी उजड़ा हूं, ऐसा भी नहीं.मैं तो शुद्ध कस्बाई हूं.लेकिन गांव करीब था इसलिए आना जाना लगा रहा.अब नए सीरे से गांव में बसने को जी चाहता है.वैसे ही जैसै मेरे पूर्वज बसे होंगे पहली बार.मैं जानता हूं ये फैसला इतना आसान नहीं. जीवन यापन का सवाल एक बार फिर मुंह बाए खड़ा होगा.इसके अलावा कई साल दिल्ली जैसे शहर में गुजारने के बाद ठेठ गांव में जाकर रहने की अपनी चुनौतियां होंगी.दिक्कतें होंगी इतना जानता हूं.फैसले में हो रही देरी भी इसी वजह से है.लेकिन सच्चाई यही है कि इस शहर में होने की एक भी वजह मेरे पास नहीं है.किसी भी दूसरे प्रवासी की तरह इस शहर ने मेरी भी पहचान सालों पहले खत्म कर दी थी.पढाई लिखाई तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन अब इस शहर का क्या करूं.कुछ ना करते करते एक दिन मैने खुद को इस शहर में रोजगार करते पाया.इस शहर ने मुझे रोजगार दिया है और इसके एवज में मुझसे हरेक चीज ले ली है जो मेरी अपनी होती थी.यहां तक कि मेरी आदतें भी.कई महिने गुजर गए, गालिब को नहीं पढ़ा.श्मशेर मेरे सामने धूल फांकते उदास बैठे रहते है.कमोबेश मेरे घर में कुछ सालों से उपेक्षा के ऐसे ही शिकार हैं मुक्तिबोध रघुवीर सहाय धूमिल और मजाज.यकीन मानिए जिन्दगी बड़ी ही नीरस हो चली है.कुछ इसकी वजह मेरे काम का अपना स्वभाव भी है.लेकिन काम करने की मजबूरी समझ में नहीं आती.किसी फरमाबर्दार नौकर की तरह अपने काम को अंजाम देता हूं.मैं भी किसी शाह का मुसाहिब बन के इतराना और काम से मुंह चुराना चाहता था.कर नहीं पाया.इसलिए अपने काबिल मित्रों की शिकायत भी नहीं करता.मेहनत के बल पर अपने आर्थिक हालात बेहतर करने का हौसला देर तक कायम रखा, लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता.मेरे मामले में भी नहीं हुआ.नतीजा, फाकेमस्ती ना सही लेकिन गुरबत का दौर आज भी जारी है.अपने सुबहो शाम अपने काम के नाम करके, गधा बन गया हूं.हालाकि इसी काम की बदौलत कई गधे सफलता के शिखर पर हैं.खैर ये तो अपनी अपनी काबिलियत और किस्मत की बात है.मेरे दिन नहीं फिरे, ना सही.लेकिन तब इस शहर में होने का औचित्य क्या है.खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए...सवाल ये है कि किताबों ने क्या दिया मुझको.कुछ नहीं.एक बेहद अतार्किक और बेमकसद सी जिन्दगी.दोस्तों इसी जिन्दगी से भागना चाहता हूं.पहली बार हालात से भागना चाहता हूं.मैं गांव लौट जाना चाहता हूं,अपने खेतों में जहां किसी ने, कभी गुलाब की फसल उगाने की कामना की थी.यकीन कीजिए गुलाब, खबरों से ज्यादा अहमियत रखते हैं (घोर निराशा के मूड में)
प्रस्तुतकर्ता प्रभात रंजन
प्रस्तुतकर्ता प्रभात रंजन
रविवार, 14 जून 2009
बहस
बहस क्या हैं...
केवल विचार
या फिर दिमाग को चीर देने वाली आवाज...
बहस क्या हैं...
बेबुनियाद सी लगती चीख...
या फिर बुनियाद को खडा करने का जज्बा....
बहस क्या है...
शोर
या फिर गलत के खिलाफ शोर पैदा करने का हौसला
बहस क्या है
मैं
या फिर मैं से हम होने का एहसास
( ये कविता शौर्य की थीम पर है, लेकिन यकीन मानिए ओरिजनल है)
शुक्रवार, 12 जून 2009
एक कविता दोस्ती के नाम

कुछ सुनने का मन ना हो...
तो कुछ कहने की फुरसत निकाल लेनी चाहिए...
कभी सुना या कहा पूरा नहीं होता...
कभी समझा हुआ सच नहीं होता...
कभी सच समझना मुश्किल होता है...
तो कभी समझा हुआ मुश्किल लगता है
गिले शिकवे की लड़ाई
जिंदगी से बड़ी नहीं होती
शिकायतें अक्सर पराई होती हैं
खुद से नहीं होतीं
दुनिया बड़ी है
उसके दस्तूर बड़े हैं
लोग बडे हैं
उलझने बड़ी हैं
लेकिन दोस्त जिंदगी बहुत छोटी है
तो कुछ कहने की फुरसत निकाल लेनी चाहिए...
कभी सुना या कहा पूरा नहीं होता...
कभी समझा हुआ सच नहीं होता...
कभी सच समझना मुश्किल होता है...
तो कभी समझा हुआ मुश्किल लगता है
गिले शिकवे की लड़ाई
जिंदगी से बड़ी नहीं होती
शिकायतें अक्सर पराई होती हैं
खुद से नहीं होतीं
दुनिया बड़ी है
उसके दस्तूर बड़े हैं
लोग बडे हैं
उलझने बड़ी हैं
लेकिन दोस्त जिंदगी बहुत छोटी है
सोमवार, 8 जून 2009
ये उदास वो उदास
शुक्रवार, 5 जून 2009
उफ् दिल्ली की गर्मी

येगर्मी का असर था. या फिर गरममिजाजी का. बिग बी नाराज हो गए. गुस्से का गुबार उतरा ब्लॉग पर. निशाना था उत्तर भारत . और बहाना थी गर्मी. जो लिखा वो भी बिग की एक्टिंग की तरह लाजवाब था. कहना मुश्किल था कि. बिग बी नसीहत दे रहे हैं. या फिर फटकार रहे हैं. हाल में बिग बी दिल्ली आए. इससे पहले भी आते रहे हैं. लेकिन इस बार का सफर बिग बी के जेहन में रच-बस गया. दिल्ली में उनका खैरमकदम गर्मी और गरममिजाजी दोनो ने किया. असर कुछ यूं हुआ. कि बिग बी भी उत्तर और दक्षिण के खांचें में बंटे दिखे. चलिए पहले आपको बताते हैं कि क्या फरमाया बिग बी ने अपने ब्लॉग पर दिल्ली से लौटने के बाद.
भविष्य के लिए यहां (दिल्ली)बड़ी तादात में फ्लाईओवर और अंडरग्राउंड मेट्रो के निर्माण का काम चल रहा है...आसानी से देखा जा सकता है कि संतुलित मुंबईकर के मुकाबले गरममिजाज उत्तर भारतीय बेहद जल्दी अपना आपा खो देते हैं....जब आप 40 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान में गाड़ी चला रहे हों...जय महाराष्ट्र !
कहना मुश्किल है कि बिग बी किससे नाराज है. फ्लाईओवर और मेट्रो निर्माण के चलते सड़क पर होनेवाली परेशानी से, दिल्ली की गर्मी से, या फिर यहां की गरममिजाजी से. शब्दों की तुकबंदी बिग बी को विरासत में मिली है. और बिग बी ने यहां भी इस तुकबंदी का बखूबी इस्तेमाल किया है. लेकिन उत्तर भारत की गरममिजाजी पर बिग बी की ये शिकायत. यूपी की मिट्टी से जुड़े किसी शख्स की नहीं लगती. ये गुस्सा काफी हद तक महाराष्ट्र की उस आवाज से मिलता जुलता है.जो उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र से निकालने की बात करती है.
मंगलवार, 2 जून 2009
लौट आया महाबली खली

आखिर खली गया कहां. कल तक कैमरों को अपने आगे पीछे घुमाने वाला पहलवान आखिर कहां गुम हो गया. वो इस वक्त है कहां. लेकिन हम आपको बताएंगे कहां है खली. क्या कर रहा है खली. क्यों खामोश है खली. जी हां हर राज से आज उठेगा पर्दा. फिर लौटेगा खली. फिर लड़ेगा खली. दुश्मनों को चटाएगा धूल. क्योंकि इस बार उसे मिला है नया गुरुमंत्र. ना हारने का गुरुमंत्र. अब खली हारेगा नहीं बल्कि हराएगा. तो तैयार हो जाइए. उसे फिर से देखने के लिए. लौट रहा है महाबली खली. जी हां वो फिर दिलाएगा टीआरपी. वो करेगा हमारा बेड़ा पार. वो अगर नहीं करेगा तो हम कराएंगे. वो नहीं लड़ेगा तो हम लड़ाएंगे. वो हार भी गया तो भी गुणगान करके उसे महाबली साबित करेंगे. वो खाएगा तो खबर बनाएंगे. वो नहाएगा तो भी बताएंगे. उसकी हर हरकत पर नजर रखेंगे ( झूठ बोल रहा हूं नजर तो पहले भी नहीं ऱखी थी बस अंदाजा मारते थे और दर्शक मौज लेकर देखते थे) तो लौट रहा है खली तैयार हो जाइये टीआरपी के चक्कर में पत्रकारों के जाल में फंसने के लिए...
(लेखक इलेक्ट्रानिक पत्रकार हैं... चुनाव खत्म होने के बाद काम नहीं है... टीआरपी के कीड़े ने अभी अभी काटा है...ये स्क्रिप्ट इसी छटपटाहट का नतीजा है....भगवान बचाए)
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