रविवार, 7 अक्टूबर 2007

एक नॉन सेन्स कविता

बहादुर,
बचपन से रहा
लेकिन घर की चौखट के भीतर..
बातों ही बातों में
क्रांति का बिगुल
कई बार फूंका..
लेकिन बिगुल की आवाज़
दोस्तों के कानों में चुटकुले बन कर
कहीं खो गई..
समाज बदलने भी कई बार निकला
लेकिन खुद के घर का
समाजशास्त्र बिगड़ गया
पत्रकार बना
तो एक दिन आर्थिक तंगी के चलते
खुद खबर बन गया..
राजनीति में करियर बनाने की सोची
तो मेरा शून्य क्रिमिनल रिकार्ड
आड़े आ गया
फिलहाल
भगवा ड्रेस में
अधर्म में धर्म की तलाश का दौर जारी है
बहादुर
बचपन से रहा
बस उसके एक सफल प्रयोग की तैयारी है

मासूम आंखें

जी भर रो लेने के बाद
बच्चों की मासूम
आंखें..
पहले से कहीं ज्यादा
चमकदार हो जाती हैं...
उन्हें
नहीं आती
बड़ों की तरह
आंसुओं को छुपाने की
बहादुरी..
वो नहीं जानती
बड़ों की तरह
आंखों की बनावटी भंगिमाएं..
नफरतों
के पैमानों से
अन्जान होती हैं
बच्चों की आंखें..
इसलिए
शायद चमकदार होती हैं
बच्चों की आंखें..

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2007

ठगी...अपराध नहीं

ठगी
अब कोई अपराध नहीं..
बदल चुकी है
अब ठगी की परिभाषा..
लोगों के सुखों में अब शामिल है
ठगे जाने का सुख..
बाजार के रास्तों पर हैं.
अब ठगों की
नई नई स्कीमें..
बच्चों की किताबों से लेकर
मरीजों की
जिंदगी के सौदों के बीच
हर जगह है
ठगी का बाजार
मजदूरों के पसीने
से लेकर
किसानों की उम्मीदों
तक हर जगह
है
ठगी का व्यापार
शायद
इसलिए नहीं है
ठगी कोई
अपराध

सोमवार, 1 अक्टूबर 2007

ब्लॉग..पर कविता

कोशिशों की
छोटी छोटी कहानियों
से बनी
एक लंबी कहानी हैं
ये ब्लॉग..
इन कहानियों में
कहीं रवीश का कस्बा है
तो कहीं
प्रियदर्शन की बातें हैं...
कहीं समीर लाल हैं
तो कहीं वाह वाह करते
संजीव तिवारी के
अल्फाज़ हैं...
राजेश रोशन के सपनों
कि कहानी हैं
ये ब्लॉग....
वाकई
कोशिशों की
छोटी छोटी कहानियों
से बनी
एक लंबी कहानी हैं
ये ब्लॉग....
रितेश गुप्ता की
भावनाएं
हैं यहां....
रवीन्द्र प्रधान के
लफ्ज़ों की मिठास
है यहां...
ढाई आखर की जुबानी
है यहां...
कोशिशों की
छोटी छोटी कहानियों
से बनी
एक लंबी कहानी हैं
ये ब्लॉग..

रविवार, 30 सितंबर 2007

आम आदमी हूं...

लोग कहते हैं कि अभी
मैं नासमझ हूं..
दुनिया देखने की
समझ नहीं हैं मुझमें...
लेकिन
मै भांप लेता हूं
लोगों के गलत
इरादे..
वायदों से आती
झूठ की बू
को पहचानता हूं मैं...
बाज़ार के समानों
में देख लेता हूं
फायदों के पनपते
अमानवीय रिश्ते को ..
पल पल मरती
अभिव्यक्ति के बीच
एक कोने की तलाश में
दिख जाते हैं
मुझे लोग
लेकिन फिर भी
लोग कहते हैं...
मैं नासमझ हूं
क्योंकि
मैं एक
आम आदमी हूं...

शनिवार, 29 सितंबर 2007

चेहरों कि झुर्रियां

मेरे मां बाप के चेहरों
कि
झुर्रियां
अक्सर मुझे
मेरी जिम्मेदारियों का
एहसास कराती हैं..
ये झुर्रियां बयां करती हैं
उन तमाम
जिंदगी के किस्से..
जहां रिश्तों के साए
में..
दुलार और फिक्र
के बीच..
एक कोना मेरा भी है..

सोमवार, 17 सितंबर 2007

योग कहीं भी कभी भी

एक लंबी सांस लीजिए
थोड़ा धैर्य रखिए,
दूसरे के अपशब्दों को
उसके संस्कारों का
छिछलापन मानकर
भूल जाईये,
उनके बारे में सोचिए
जो आपको पसंद हैं,
उनकी खुशी को
महसूस करिए
जिनकी सरलता से
आपको खुशी मिलती हो,
अब सांस छोड़ दीजिए
और
खुद के अंदर छिपी
अथाह शांति को
महसूस कीजिए