गुरुवार, 27 अगस्त 2009

क्या कह रिया है

खबर से पहले चेतावनी...
'इन खबरों
का वास्तविक घटना से कोई लेनादेना नहीं है। ये खबर डेस्क के कुछ खुराफाती लोगों की
दिमाग की उपज है।'

हमें खबर मिली है कि कसाब ने सोचना बंद कर दिया है। उसके डॉक्टरों के कहना है कि कुछ चैनल उसके सोचने से पहले ही ये सोचने लगे हैं कि वो क्या सोचने वाला है इसलिए सोचने को काम कसाब ने चैनल वालों को सौंप दिया है। अभी अभी ये भी खबर आई है कि शिल्पा शादी करने वाली हैं लेकिन हम शिल्पा के बारे में जो खुलासा करेंगे वो आपके होश उड़ा देगा। होश उड़वाने के लिए आपको करना होगा इंतजार। क्योंकि डेस्क पर कुछ लोग यू ट्यूब पर वो फुटेज सर्च करने में जुटे हैं जिससे शिल्पा को लेकर कन्फ्यूजन क्रिएट किया जा सके। फिलहाल बढ़ते हैं दूसरी बड़ी खबर की ओर। पाकिस्तान में तालिबान ने फिर से हथियार उठा लिए हैं। अभी अभी हमें यूट्यूब पर कुछ ऐसी क्लिपिंग मिली है जिससे लगता है कि कुछ लोग हाथों में हथियार लिए हैं, ये लोग किसी पहाड़ी इलाके में हैं पठानी सूट पहने हैं। हमने मान लिया है कि वो तालिबानी हैं और पाकिस्तान में ही हैं। आपको मनवाने के लिए हमारे डेस्क के कुछ सहयोगी ग्राफिक्स वालों से मदद ले रहे हैं विजुअल के घालमेल से हम पूरा माहौल बनाने की कोशिश करेंगे और पूरा यकीन दिलाने की कोशिश करेंगे, वैसे भी कौन सा तालिबान वाले हमारे ऊपर क्लेम करने आ रहे हैं। चलिए आपको दिखाते हैं मिलावट के काले कारोबारियो की वो करतूत जो आपके होश उडा देगी। वैसे होश आपके हम पहले भी उड़ाते रहे हैं लेकिन लगता है कि आप होश उड़वाने के मामले में हैव्यूचअल हो गए हैं। खैर दिल्ली में डालडा बनाने वाली फैक्ट्री का पर्दाफाश हुआ है। गिरफ्तार किया गया आरोपी खुद को पुराना टीवी जर्नलिस्ट बताता है। उसका कहना है कि वो पहले खबरों में मिलावट करता था। इन मिलावटी खबरों का कोई असर दर्शकों पर पड़ता ना देख उसने मिलावट के धंधे का एक्टेंशन किया और मिलावटी डालडा बेचने लगा। उसका कहना है कि उसका नेटवर्क नोएडा और दिल्ली के कई इलाकों में फैला है। खबर खेल की..क्रिकेट कहीं हो नहीं रहा है जो हो रहा है उसकी टीआरपी नहीं है...ऐसे मे भला हो वीरु का जो दिल्ली क्रिकेट बोर्ड से खेल रहे हैं। खेल की पिच पर उनका बखूबी साथ दे रहे हैं अरुण जेटली। माना जा रहा है कि दोनों का मैच टाई हो गया है। लेकिन हम पूरी कोशिश कर रहे हैं कि ये मैच आगे चलता रहे। इसलिए हमारे संवाददाता को नौकरी का हवाला देकर कह दिया गया है कि वो सहवाग के इंटरव्यू से कुछ कॉन्ट्रोवर्सियल हिस्से निकाले नहीं तो उसका चैनल से निकलना तय है। फिलहाल यहां वक्त हो चला है एक छोटे से ब्रेक का। ब्रेक में देखिए कि सात सौ की पेंशन पाकर बुजुर्गों ने कैसे मटकाए कुल्हे। और कौन है वो माई का लाल जो बिना खापों के इजाजत के बता रहा है हरियाणा को नंबर वन। देखते रहिए.....

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

राम राम! अरुण शौरी....

राम कब तक नैया पार लगाते। बीजेपी की राजनीति राम भरोसे कब तक चलती। जब तक चली तब तक बीजेपी ने खूब चलाई। लेकिन जब मुद्दा पुराना हुआ तो ओवरहालिंग भी काम नहीं आई। सत्ता आई और चली भी गई। अब पार्टी की कलह सामने है। जसवंत पार्टी से बाहर हैं और अरुण शौरी बगावत का बिगुल फूंक चुके हैं। कभी यूपी की महोना सीट से विधायकी का इलेक्शन हारने वाले राजनाथ अनुशासन के नाम पर मनमर्जी करने में जुटे हैं। कोई ये जानने को तैयार नहीं कि पार्टी की इस दुर्दशा के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है। दरअसल बीजेपी कन्फ्यूजन का शिकार है। ये कन्फ्यूजन चाल चरित्र और चेहरे का है। बीजेपी किस राह चले ये सवाल पार्टी के सामने गुत्थी बनकर खड़ा है। पार्टी की कट्टर छवि गठबंधन के लिए मुफीद नहीं है और उदार छवि पार्टी को आगे नहीं बढ़ा पा रही। कुछ कुछ यही भ्रम चेहरे को लेकर है। नए चेहरों के तौर पर बीजेपी में नरेन्द्र मोदी और सुषमा स्वराज के चेहरे नजर आते हैं। लेकिन आडवाणी की जिद के चेहरे के पीछे ये चेहरे गायब दिखते हैं। दरअसल आरएसएस ने बीजेपी को हमेशा अपनी संपत्ति की तरह समझा और इस्तेमाल किया। उसे अटल के उदार चेहरे से हमेशा एतराज रहा। राम के नाम पर बीजेपी की राजनीति तो चमक गई। लेकिन ये चमक वक्त के साथ फीकी पड़नी थी, सो पड़ी। बीजेपी राम की राजनीति का विकल्प नहीं तलाश पाई। दरअसल राम मंदिर को बीजेपी ने रामराज्य से जोड़कर मुद्दे को जरुरत से ज्यादा भावनात्मक बना दिया। राम को बीजेपी ने मसले के फ्रेम में तो उतार लिया लेकिन उसे अपनी राजनीति का आदर्श नहीं बना पाई। इसका साइड इफेक्ट ये हुआ कि राम फसाद का मसला बन गए और बीजेपी की राजनीति नफरत की राजनीति। फिलहाल तो अब बीजेपी का कन्फ्यूजन चरम पर है। अरुण शौरी शुरुआत हैं...पिक्चर अभी बाकी है...।

सोमवार, 24 अगस्त 2009

कवरपेज पर 'जिन्न' आ

जिन्ना इंडिया टुडे और आउटलुक के कवरपेज पर हैं। जाहिर है जिन्ना का इतिहास वर्तमान के सामने खड़ा है। जिन्ना के बारे में पाकिस्तान के कन्फ्यूजन को समझना हो तो 1998 में बनी फिल्म 'जिन्ना' देखिए। ये फिल्म अंग्रेजी में बनी बाद में उर्दू में भी डब हुई। क्रिटोफर ली जिन्ना की भूमिका में है। राष्ट्रवादियों को ऐतराज हो सकता है क्योंकि फिल्म में शशि कपूर भी हैं। जो कहानी को नैरेटर के तौर पर आगे बढ़ाते हैं। फिल्म कमलेश्वर के 'कितने पाकिस्तान' के अंदाज में बढ़ती है। जिन्ना तमाम अनसुलझे सवालों के जवाब के साथ वर्तमान में शशि कपूर से मुखातिब हैं। कहानी जिन्ना के तमाम पहलुओं को छूती है लेकिन छिछले ढंग से। नेहरु इस फिल्म के असल खलनायक हैं। फिल्म में उन्हें अंग्रेजों के मोहरे के तौर पर पेश किया गया है। उनकी और एडविना की दोस्ती फिल्म में अंतरंगता की सारी हदें पार करती दिखती है। एक सीन मे जब जर्नलिस्ट नेहरु के कमेंट को कोट करके उनसे सवाल पूछते हैं तो जिन्ना कहते हैं कि मैं उसके लतीफों पर हंसता नहीं इसलिए वो ऐसी अफवाहें फैलाता है। जिन्ना के नजरों में महात्मा गांधी केवल मिस्टर गांधी हैं। उन्हें गांधी को महात्मा गांधी कहने मे एतराज है। फिल्म में अपनी सहूलियत के मुताबिक खलनायकों को चुनने के बावजूद नायक जिन्ना खुद ही पूरी कहानी में अन्तर्द्वन्द से जूझते नजर आते हैं। अपनी निजी जिंदगी के तमाम सवालों में जिन्ना बार बार उलझते हैं। बंटवारे में लाखों कत्ल के बाद जब ये सवाल उठता है कि क्या बंटवारा जरुरी था। तो जवाब में जिन्ना फिल्म के नैरेटर यानी शशिकपूर को ६ दिसम्बर के बाबरी विध्वंश की तस्वीरें दिखाते हैं और बताने की कोशिश करते हैं कि क्या हिन्दुस्तान में मुसलमान महफूज रह सकते हैं। एक सीन में जब लार्ड माउंटवेटन बंटवारे की जिद को जिन्ना का दीवानापन बताते हैं तो जवाब मे जिन्ना कहते दिखते हैं कि ये उतना ही पागलपन होगा कि छोड़ दिया जाए मुसलमान अक्लियत को मुतासिद हिन्दुओं के अक्लियत जेरे तस्लुद...। कहानी बार बार अंग्रेजों को हिन्दुस्तान का फिक्रमंद बताने की कोशिश करती है। फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं। लेकिन इस फिल्म को खुद जिन्ना का किरदार कमजोर बनाता है। कुल मिलाकर जिन्ना पर बनी इस फिल्म के बहाने सरहद पार के इतिहास को समझना कठिन हो जाता है।

बुधवार, 19 अगस्त 2009

बहस के रास्ते खोल दिए जसवंत ने

देश बंटा, मसले हुए, मुल्क छूटा और दुनिया की तस्वीर में हिन्दु्स्तान और पाकिस्तान का अक्स भी शामिल हो गया। दोनो मुल्कों ने बंटवारे के लिए अपने अपने नायक और खलनायक भी तलाश लिए। जिन्ना भारत के लिए खलनायक बन गए और पाकिस्तान ने उन्हें अपना नायक घोषित कर दिया। सदी की सबसे बड़ी त्रासदी ने दुनिया का इतिहास दो मुल्कों के नजरिए में बांट दिया। चूंकि दोनो मु्ल्क अपने अपने इतिहास अपने नजरिए से लिख चुके थे सो बहस के रास्ते भी हमेशा के लिए बंद हो गए। लेकिन जसवंत के बहाने बहस के रास्ते फिर से खुले और आडवाणी के बाद दूसरी बड़ी कुर्बानी जसवंत को देनी पड़ी। जसवंत ने ये सवाल फिर से जिंदा कर दिया कि क्या विभाजन वाकई केवल जिन्ना की जिद्द का नतीजा था। या फिर नेहरु और पटेल भी इस बंटवारे के बराबर के जिम्मेदार थे। निश्चित तौर पर सवाल पेचीदा हैं। आरएसएस और बीजेपी नेहरु को विभाजन का दोषी ठहराती रही है, लेकिन उसे पटेल को कटघरे में खडा़ करने से एतराज है। ऐसा नहीं कि आरएसएस और बीजेपी ने अपने नजरिए से इतिहास में जाकर छेड़छाड़ नहीं की। उसने भी इतिहास को अपनी सहूलियत की हदों तक जाकर बदला है लेकिन इतिहास के सच का कसीलापन बीजेपी को बर्दाश्त नहीं। राम की राजनीति करने वाली बीजेपी जिन्ना के जिन्न से घबरा गई। फिलहाल जसवंत सिंह ने जिन्ना के बहाने बहस की जो गुंजाइश छोड़ी है उस पर बात करने की जरुरत है। ये जानने की जरुरत है कि कभी नमाज ना पढ़ने वाले जिन्ना को मजहबी देश की मांग के लिए किन हालातों में मजबूर होना पड़ा। साथ ही सवाल ये भी है कि विभाजन को लेकर अगर नेहरु के दिल में टीस थी तो उन्होने बंटवारे की लकीरों को मिटाने की कोशिश बाद के सालों में क्यों नहीं की। सच कड़वा है और जरुरत है सार्थक बहस की.

ग्लैमरस अपमान

शाहरुख एक्टर हैं तो अमर सिंह उनसे बड़े कलाकार है। एक पर्दे पर रुलाता और हंसाता है तो दूसरा राजनीति के सीने पर बरसों से मूंग दल रहा है। ड्रामेबाज दोनो हैं, फर्क बस इतना है कि एक ड्रामा करके पैसे बनाता है और दूसरा ड्रामा करके लोगों को बेवकूफ। शाहरुख अमेरिका से अपमानित होकर इंडिया पहुंचे तो उनका स्वागत किसी गोल्ड मेडल जीते खिलाड़ी की तरह हुआ। शायद ये पहली बार हुआ होगा कि अपमान को इस कदर सम्मान मिला हो। लेकिन ये बात राजनीति के मंच पर अमूमन अपमानित होने के आदी अमर सिंह को अच्छी नहीं लगी। अपमान से उनका तालुक्क पुराना है, लेकिन अपमान के सम्मान का स्वाद शाहरुख को जिस तरह चखने को मिला वो अमर बाबू को कभी नहीं मिला। दर्द दिल से निकला और जुबां पर आ गया और शाहरुख के अपमान को वो पब्लिसिटी स्टंट बता बैठे। अमर सिंह अपनी चुभने वाली शायरी से अक्सर लोगों को घायल करते रहे हैं। लेकिन उनकी जुबान की ये चुभन शाहरुख ने पहली बार महसूस की। शाहरुख ने भी अमर को खरी खोटी सुनाने में देर नहीं लगाई। अपमान पर अपमान का शो चलता रहा। चैनल वाले टीआरपी बटोरते रहे और दर्शक हमेशा की तरह बेवकूफ बनते रहे। इस चर्चा में ये सवाल कहीं गुम हो गया कि आम आदमी के अपमान पर इतना बवाल कभी क्यों नहीं हुआ। पुलिस से लेकर सरकारी मुलाजिमों की चौखट पर आम आदमी रोज अपमानित होता रहा। लेकिन इस अपमान पर टीवी के चौखटे पर कभी कोई बहस क्यों नहीं हुई। फिलहाल दौर ग्लैमर का है सो अपमान भी ग्लैमरस हो चुका है।

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

जसवंत को भुक्तभोगी का खत

जसवंत जी हम पर रहम खाइए। इतिहास को लेकर कम कन्फ्यूजन नहीं हैं जो आप भी कन्फ्यूज करने चले आए। खाकी नेकर वालों ने पहले ही हिस्ट्री को मिस्ट्री बनाकर रखा हुआ है। जिस तरह की आपकी ऐतिहासिक सोच है। उस तरह सोचने वाले और भी हैं। अब तो इतिहास जाति के खेमे तक मोल्ड हो चुका है। हर जाति का पर्सनल इतिहास हैं अपने एक्सक्लूसिव पूर्वज हैं। यकीन ना हो तो यूपी चले आईए। मायावती जी की लगाई हर मूर्ति के साथ इतिहास की नई इबारत चस्पा है। गांधी और नेहरु को लेकर आरएसएस वाले अपने शिशु मंदिर में पहले ही कम कन्फ्यूजन क्रिएट नहीं कर रहे। जसवंत जी समझ में नहीं आता कि जिन्ना से आपकी मोहब्बत इतने दिनों तक आपके दिल मे कैसे दफन रही। ऐसे कई मौके आए जब आप जिन्ना से अपनी मोहब्बत का इजहार कर सकते थे। शायद आप भी टाइमिंग के इंतजार में बैठे रहे होंगे। लेकिन आपकी टाइमिंग इस बार तो और गलत रही। पटेल और नेहरु को अपने ऐतिहासिक भ्रम में लपेट कर आप ना घर के रहे ना घाट के। जसवंत जी इतना तो तय है कि जिन्ना से इजहार ए मोहबब्त में आपको ना तो निशान ए पाक मिलने जा रहा है और ना ही इतनी महान ऐतिहासिक सोच पर बीजेपी आपको राजनाथ की जगह रिप्लेस करने जा रही है। काफी दिन पहले लॉफ्टर चैलेंज में एक कैरेक्टर बार बार यही कहा करता था कि उल्टा सोचो। सोचो की ये दिन नहीं रात है। लगता है कि आप भी ये खेल सिख गए हैं, और उल्टा सोच रहे हैं। फिलहाल मीडिया वाले तो आपकी किताब पर दिन भर पिले रहे। लगा कि किताब नहीं साक्षात इतिहास उतर रहा है। विवाद का एलीमेंट था सो चैनल वाले भी भूखे कुत्ते की तरह आपकी रचना के ज्ञानवर्धक तथ्यों से दर्शकों को बोर करते रहे। जसवंत जी आपकी किताब मार्केट में आ गई है सो झेलनी पड़ेगी। लेकिन पता लगाईये कि कहीं प्रवीण भाई तोगड़िया या फिर नरेंद्र दामोदर दास मोदी तो कोई किताब नहीं लिख रहे। या फिर आपकी पब्लिसिटी स्टंट के आपार सफलता के बाद विनय कटियार या फिर योगी आदित्यनाथ ने भी किताब लिखने का षड्यंत्र तैयार करना तो नहीं शुरु कर दिया है
आपकी किताब का भुक्तभोगी

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

क्या वाकई नेता लिखते हैं

जसवंत सिंह का पढ़ने लिखने से तारुफ्फ पुराना है। विद्वान हैं। लेकिन इन दिनों इतिहास लिखने का चस्का सवार हुआ है। इतिहास लिख नहीं गढ़ रहे हैं। अपने विचारों को इतिहास का चोला पहनाकर किताब ले आए हैं। ये नेता वेता किताब लिख कैसे लेते हैं, मेरे लिए पहेली की तरह है। पहले आडवाणी ने लिखी अब जसवंत जी किताब लेकर आ गए हैं। वैसे जसवंत जी को इतिहास का कितना इल्म है मुझे नहीं मालूम। हां कॉन्ट्रोवर्सी से उनकी मोहब्बत जगजाहिर हो रही है। वो नेहरु और जिन्ना को एक ही तराजू में तोलने में जुटे हैं। फिलहाल कॉन्ट्रोवर्सी का पूरा मसाला तैयार है, देखना होगा कि किताब कितना बिकती है। लेकिन सवाल अभी भी यही है कि इन नेताओं की किताबों को पढ़ना कौन चाहता है और ये किताबें क्या वाकई लोगों से संवाद बनाने को लिखी जाती हैं। लगता तो नहीं है। मुझे आडवाणी कि किताब में कोई दिलचस्पी नहीं है और ना ही जसवंत सिंह की किताब को पढ़ने की इच्छा है। वो क्या लिख सकते हैं क्या सोच सकते हैं और कितनी विद्वता झाड़ सकते हैं सब पता है। इतिहास लिखा नहीं जाता रचा जाता है। चाहें वो आडवाणी हों या फिर जसवंत सिंह इतिहास रचने का वक्त इन्होने खो दिया है। ऐसे में इतिहास में जाकर विवाद खड़े करने के अलावा इनके पास कोई रास्ता भी नहीं बचा है। इन नेताओं से विजन की उम्मीद है भी नहीं। जैसे जसवंत की आई वैसे कल मायावती की किताब भी आएगी। किताब वो लिखेंगी ये लिखवाएंगी ये पता नहीं लेकिन बड़े बड़े शब्दों में मायावती का नाम लिखा होगा। मायावती जाति के खांचों में बंटे समाज की कोई नहीं कहानी गढ़ेंगी। लेकिन इस बात का जवाब उनके पास भी नहीं होगा कि उनके राज में दलितों के हालात क्यों नहीं सुधरे। विडम्बना यही है जो नेता समझने के लायक नहीं है वो पढ़ने लायक कैसे होंगे। नेताओं के लिए बेहतर होगा कि वो कम से कम अपने नाम कि किताबें लिखना या लिखवाना बंद करें। मुद्दों को समझें गरीबी की वजहों को टटोलें। बेरोजगारी को दूर करने की कोशिश करें।