(फ़िराक साहब पर बात करने से पहले उनके कुछ शब्द)
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं
मेरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान-ओ-ईमान है
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं
(नज़रें : eyes, glances; क़ातिल : murderer; […]
रात भी, नींद भी, कहानी भी
हाए! क्या चीज़ है जवानी भी
दिल को शोलों से करती है सैलाब
ज़िन्दगी आग भी है, पानी भी
हर्फ क्या क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूँ मैं तेरी ज़ुबानी भी
पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी, मेज़बानी भी
(मेहमानी : to visit as a guest; […]
(हर्फ : words) (शोला : fire ball; सैलाब : flood)
मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
रविवार, 16 सितंबर 2007
रविवार, 2 सितंबर 2007
फायदे का एहसास
शहर में फायदों की बातें
बहुत सुनी हैं
लेकिन,
इन फायदों के बीच
नुकसान का एहसास
सबको है,
शहर की भीड़ में
खो जाने का एहसास
सबको है,
बाजार के बीच
ठगे जाने का एहसास
सबको है,
भागती सड़क पर
कुचलने का एहसास
सबको है,
फैशन के नये दौर में
पुराने हो जाने का एहसास
सबको है,
शहर में फायदों की बातें
बहुत सुनी हैं
लेकिन,
फायदों के बीच
अपनो से बिछड़ने का एहसास
सबको है
बहुत सुनी हैं
लेकिन,
इन फायदों के बीच
नुकसान का एहसास
सबको है,
शहर की भीड़ में
खो जाने का एहसास
सबको है,
बाजार के बीच
ठगे जाने का एहसास
सबको है,
भागती सड़क पर
कुचलने का एहसास
सबको है,
फैशन के नये दौर में
पुराने हो जाने का एहसास
सबको है,
शहर में फायदों की बातें
बहुत सुनी हैं
लेकिन,
फायदों के बीच
अपनो से बिछड़ने का एहसास
सबको है
दहशतगर्द
उन्हें नहीं मालूम थे
तुम्हारे इरादे,
वो नहीं जानते थे
कि
तुम्हारी दुश्मनी
किससे है,
वो जानना भी नहीं चाहते थे
कि तुम ऐसे क्यों हो
लेकिन
फिर भी
तुमने उन्हे मार दिया
और
बता दिया
कि
तुम कायर हो
तुम्हारा
कोई भगवान नहीं
तुम्हारा
कोई अल्लाह नहीं
तुम कायरता की बैशाखी
पर
चलने वाले दहशतगर्द हो
(शनिवार,२५ अगस्त को हैदराबाद में बम धमाकों में तमाम मौतों के बाद लिखी कविता,ये शहर मेरे काफी करीब है,शायद अपने लखनऊ से भी ज्यादा)
तुम्हारे इरादे,
वो नहीं जानते थे
कि
तुम्हारी दुश्मनी
किससे है,
वो जानना भी नहीं चाहते थे
कि तुम ऐसे क्यों हो
लेकिन
फिर भी
तुमने उन्हे मार दिया
और
बता दिया
कि
तुम कायर हो
तुम्हारा
कोई भगवान नहीं
तुम्हारा
कोई अल्लाह नहीं
तुम कायरता की बैशाखी
पर
चलने वाले दहशतगर्द हो
(शनिवार,२५ अगस्त को हैदराबाद में बम धमाकों में तमाम मौतों के बाद लिखी कविता,ये शहर मेरे काफी करीब है,शायद अपने लखनऊ से भी ज्यादा)
शनिवार, 25 अगस्त 2007
वक्त
वक्त
हाथों से
फिसलता है
रेत की तरह
कोई करता है
उसे थामने की
कोशिश
तो कोई
खोल देता है
अपनी मुट्ठी
और
यहीं बदल जाती है
वक्त की पहचान
जिंदगी और मौत में
हाथों से
फिसलता है
रेत की तरह
कोई करता है
उसे थामने की
कोशिश
तो कोई
खोल देता है
अपनी मुट्ठी
और
यहीं बदल जाती है
वक्त की पहचान
जिंदगी और मौत में
शनिवार, 11 अगस्त 2007
खामोशी
एक शाम बातें कर रही थी
आने वाली रात से
जाने वाले दिन से
अंधेरा बार बार डराता था
वो बयां करता था
रात की वीरानी को
वो सुनाता था भटके
मुसाफिरों के किस्से
जब उजाले की बारी आयी
तो वो कुछ नहीं बोला
शाम समझ गयी
इस खामोशी का इशारा
कि
उसे भी पार करनी है
ये रात
खामोशी के साथ
आने वाली रात से
जाने वाले दिन से
अंधेरा बार बार डराता था
वो बयां करता था
रात की वीरानी को
वो सुनाता था भटके
मुसाफिरों के किस्से
जब उजाले की बारी आयी
तो वो कुछ नहीं बोला
शाम समझ गयी
इस खामोशी का इशारा
कि
उसे भी पार करनी है
ये रात
खामोशी के साथ
संवेदना की मौत
काफी समय पहले पढ़ा था कि आने वाले समय में अच्छा समान तो मिलेगा लेकिन अच्छे लोग नहीं मिलेंगें.तब समझना मुश्किल था लेकिन अब सब समझ में आता है.समान में तो क्वालिटी और वैरायटी आ गयी लेकिन लोगों में वैरायटी गायब होती चली गयी.दुर्घटना को लेकर संवेदना खत्म हुई .बलात्कार की घटनाएं खबर तक सिमट गईं.बमों की आवाज़ें मरने वालों की तदाद से सुनी जाने लगीं.इस बीच हमारी संवेदनाएं ना जाने कब मर गयीं.इन संवेदनाओं का मर जाना खतरनाक था लेकिन उससे ज्यादा खतरनाक था उन संवेदनाओं के बाद भी सांसें लेना.संवेदना की मौत के बाद उसकी कब्र पर उगी पैसा कमाने की भूख जैसे अपने साथ सबकुछ बहा ले गयी.लोग अपना काम छोड़ कर दूसरों के काम में टांग अड़ाने लगे.सबने दूसरों को गाली देकर खुद को काबिल साबित करने की आसान रास्ता खोज लिया.ऐसे में कुछ खामोश हो गये और कुछ जरुरत से ज्यादा बोलने लगे.कुछ का काम इससे भी नहीं चला तो वो उग्र हो गये.लेकिन किसी ने उन संवेदनाओं को टटोलने की कोशिश नहीं कि जो फिराक साहब को अक्सर चुप चुप रह कर रोने को मजबूर करती रही थी.
शुक्रवार, 10 अगस्त 2007
थोड़ी सी मायूसी
क्या वाकई हम हार रहे हैं. कल तसलीमा नसरीन के साथ हैदराबाद में जो कुछ हुआ निराश करता है.अभिव्यक्ति की आजादी पर जिस तरह हमला हुआ उसने साफ कर दिया कि वाकई ध्रर्म का जरुरत इस अधकचरे समाज को नहीं है.ऐसे में हमारी कुछ फिल्में थोड़ी सी दिलासा जरुर देती हैं जहां एक बार फिर बेहतर कहानियां सामने आ रही है.साहित्य शायद उस भाषा में आम लोगों से बात नहीं कर पा रहा जिस भाषा में आज मुन्नाभाई जैसी फिल्में बोल रही हैं.गांधी को तमाम सहित्य उस तरह से आम जन तक नहीं पहुंचा पाये जिस तरीके से मुन्नाभाई जैसे किरदार ने इसे कर दिखाया.ऐसे में आम लोगों तक कुछ बेहतर पहुंचाने की उम्मीद फिल्मों से ही की जा सकती है. आज चक दे इंडिया पर्दे पर आ जायेगी. उस संदेश के साथ जिसके जरिए हम तसलीमा के साथ हुए बर्ताव की तकलीफ कुछ हद तक कम कर सकते हैं.फिल्म संदेश देती है कि आप अगर हारते हैं तो इसका मतलब साफ है कि आपका सर्वश्रेष्ठ भी आपके विरोधी से अच्छा नहीं है शायद यही बात साहित्य से जुड़े लोगों पर भी लागू होती है. हम कलम से भी उस मानसिकता को नहीं हरा सके जो तसलीमा जैसी महिला लेखकों पर हाथ उठाती है.
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