शुक्रवार, 10 अगस्त 2007

थोड़ी सी मायूसी

क्या वाकई हम हार रहे हैं. कल तसलीमा नसरीन के साथ हैदराबाद में जो कुछ हुआ निराश करता है.अभिव्यक्ति की आजादी पर जिस तरह हमला हुआ उसने साफ कर दिया कि वाकई ध्रर्म का जरुरत इस अधकचरे समाज को नहीं है.ऐसे में हमारी कुछ फिल्में थोड़ी सी दिलासा जरुर देती हैं जहां एक बार फिर बेहतर कहानियां सामने आ रही है.साहित्य शायद उस भाषा में आम लोगों से बात नहीं कर पा रहा जिस भाषा में आज मुन्नाभाई जैसी फिल्में बोल रही हैं.गांधी को तमाम सहित्य उस तरह से आम जन तक नहीं पहुंचा पाये जिस तरीके से मुन्नाभाई जैसे किरदार ने इसे कर दिखाया.ऐसे में आम लोगों तक कुछ बेहतर पहुंचाने की उम्मीद फिल्मों से ही की जा सकती है. आज चक दे इंडिया पर्दे पर आ जायेगी. उस संदेश के साथ जिसके जरिए हम तसलीमा के साथ हुए बर्ताव की तकलीफ कुछ हद तक कम कर सकते हैं.फिल्म संदेश देती है कि आप अगर हारते हैं तो इसका मतलब साफ है कि आपका सर्वश्रेष्ठ भी आपके विरोधी से अच्छा नहीं है शायद यही बात साहित्य से जुड़े लोगों पर भी लागू होती है. हम कलम से भी उस मानसिकता को नहीं हरा सके जो तसलीमा जैसी महिला लेखकों पर हाथ उठाती है.