शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

फरमानों का हाईटाइड


तालिबानी कहें या तुकलकी...शब्द कम पड़ जाएंगे। पानी पी पी कर कोसेगें तो थक जाएंगे। गोत्र के चक्कर में उलझे तो यकीन मानिये सर घूम जाएगा लेकिन समझना मुमकिन नहीं हो पाएगा। फिर भी सवाल यही है कि आखिर गोत्र के नाम पर किसी का कत्ल कैसे किया जा सकता है। मसला वोट बैंक का है सो पंचायतों के इन फरमानों पर हरियाणा सरकार भी खामोश है। सवाल उठता है की खापों को किसी की हत्या का आदेश देने से लेकर किसी को गांव छोड़ने के आदेश सुनाने का अधिकार किसने दिया। क्या उस परम्परा ने जो अभी भी आदिम युग की है या फिर उस जिद ने जो अभी भी एक घटिया परम्परा को बचाए रखने पर तूली है। दरअसल हरियाणा में खापों की ये परम्परा हर्षवर्धन के वक्त की बताई जाती है। उस वक्त समाज गुटों और कबीलों में बंटा हुआ था और समाज खुद में एक तंत्र की तरह काम करता था। विवाद से लेकर तमाम मसले समाज के अंदर के प्रभावशाली लोग निपटाते थे। वक्त के साथ प्रभावशाली लोगों का गुट खाप के नाम से पुकारा जाने लगा। अब इन खापों का काम गोत्र और गांव के महत्वपूर्ण फैसले निपटाने का हो गया है। कई मसलों पर तमाम खापें मिलकर सामूहिक पंचायत बुलातीं हैं और और फैसला करतीं हैं। इतिहास में खापों ने कई ऐसे फैसले भी लिए हैं जो अभी भी याद किए जाते हैं। इन खापों ने अलाउद्दीन खिलजी, औरंगजेब से लेकर तैमूरलंग के गलत फैसलों तक का विरोध किया है। लेकिन आज के खाप ये भूल गए कि अब पानी काफी बह चुका है। अब सरकारें हैं, कानून है और बहुत से कायदे हैं जिनका काम फैसले लेना या सजा सुनाना है। समझना ये भी जरुरी है जब देश की तमाम रियासते खत्म हो गईं तो खापों की पुरानी दुकानदारी कैसे कायम रह सकती है। अब ये जाट समुदाय को तय करना होगा कि खापों की पुरानी सोच को आगे बढाएं या फिर खापों को आधुनिक सोच की ओर ले जाएं।