रविवार, 8 नवंबर 2009

अच्छा हुआ खबर ज्यादा नहीं चली


मैं चाहता भी नहीं था कि प्रभाष जोशी के गुजर जाने की खबर टीवी चैनलों पर चले। अमिताभ बच्चन और रणवीर कपूर के फूहड़ ड्रामें के बीच प्रभाष जोशी के निधन की खबर बार बार चुभी। जैसे लगा कोई गलीज और गिरा इंसान किसी भले आदमी के मरने की खबर सुना रहा है। प्रभाष जोशी को पहली बार लखनऊ में सुना दोबारा दफ्तर में मुलाकात हुई, जल्दी में थे सो ज्यादा संवाद नहीं हो पाया। फिर मिलने का मौका तब मिला जब प्रभाष जी हमेशा के लिए आंखें बंद कर चुके थे। फिर भी नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हुई। एक अपराधी की तरह थोड़ी देर खड़ा रहा। सोचा अच्छा हुआ उनके जीते जी उनसे मिलना नहीं हुआ। वरना पूछते क्या करते हो तो क्या बतता। क्या कहता उनसे कि रोज पत्रकारिता के साथ छल कर रहा हूं। प्रभाष जी थे तो भरोसा था लेकिन उनके जाने के बाद बचा खुचा भरोसा भी खाक हो गया। पत्रकारिता की रेस में अभी ज्यादा नहीं दौड़ा हूं फिर भी हांफने लगा हूं। अभी ज्यादा उम्र नहीं हुई है फिर भी लगता है कि उम्र बीत गई। क्या वाकई प्रभाष जी के साथ पत्रकारिता की सच्ची लौ हमेशा के लिए बुझ गई। लगता तो यही है।
प्रभाष जी ने जनसत्ता को जो पहचान दी वैसी पहचान आज तक कोई अखबार नहीं बना पाया। अखबारों ने प्रसार संख्या तो खूब बढा़ई लेकिन ये प्रसार पैसे का था लोगों के दिलों में ज्यादा से ज्यादा दस्तक देने का नहीं। नंबर वन की दौड़ में खबर को ही कुचल दिया गया। अब अखबार आवाम की आवाज नहीं, बल्कि बाजार की आवाज हैं। सच्चे और सामाजिक विचारों को अखबार में कैसे और कितनी जगह मिलती है सब जानते हैं। सच बोलने की हिम्मत किसी में नहीं है। सरकार के तलवे चाटने वाले चैनलों और अखबारों के बीच प्रभाष जी की आवाज का खामोश होना, किसी मातम से कम नहीं है। प्रभाष जी खबर को अनाथ करके चले गए। प्रभाष जी के जाने के बाद खबर की खबर लेने वाला कोई नहीं बचा है। बस अफसोस इसी बात का है कि हमने प्रभाष जी को अपनी मरती पत्रकारिता की राख के साथ विदा किया है।