शनिवार, 25 अगस्त 2007

वक्त

वक्त
हाथों से
फिसलता है
रेत की तरह
कोई करता है
उसे थामने की
कोशिश
तो कोई
खोल देता है
अपनी मुट्ठी
और
यहीं बदल जाती है
वक्त की पहचान
जिंदगी और मौत में

शनिवार, 11 अगस्त 2007

खामोशी

एक शाम बातें कर रही थी
आने वाली रात से
जाने वाले दिन से
अंधेरा बार बार डराता था
वो बयां करता था
रात की वीरानी को
वो सुनाता था भटके
मुसाफिरों के किस्से
जब उजाले की बारी आयी
तो वो कुछ नहीं बोला
शाम समझ गयी
इस खामोशी का इशारा
कि
उसे भी पार करनी है
ये रात
खामोशी के साथ

संवेदना की मौत

काफी समय पहले पढ़ा था कि आने वाले समय में अच्छा समान तो मिलेगा लेकिन अच्छे लोग नहीं मिलेंगें.तब समझना मुश्किल था लेकिन अब सब समझ में आता है.समान में तो क्वालिटी और वैरायटी आ गयी लेकिन लोगों में वैरायटी गायब होती चली गयी.दुर्घटना को लेकर संवेदना खत्म हुई .बलात्कार की घटनाएं खबर तक सिमट गईं.बमों की आवाज़ें मरने वालों की तदाद से सुनी जाने लगीं.इस बीच हमारी संवेदनाएं ना जाने कब मर गयीं.इन संवेदनाओं का मर जाना खतरनाक था लेकिन उससे ज्यादा खतरनाक था उन संवेदनाओं के बाद भी सांसें लेना.संवेदना की मौत के बाद उसकी कब्र पर उगी पैसा कमाने की भूख जैसे अपने साथ सबकुछ बहा ले गयी.लोग अपना काम छोड़ कर दूसरों के काम में टांग अड़ाने लगे.सबने दूसरों को गाली देकर खुद को काबिल साबित करने की आसान रास्ता खोज लिया.ऐसे में कुछ खामोश हो गये और कुछ जरुरत से ज्यादा बोलने लगे.कुछ का काम इससे भी नहीं चला तो वो उग्र हो गये.लेकिन किसी ने उन संवेदनाओं को टटोलने की कोशिश नहीं कि जो फिराक साहब को अक्सर चुप चुप रह कर रोने को मजबूर करती रही थी.

शुक्रवार, 10 अगस्त 2007

थोड़ी सी मायूसी

क्या वाकई हम हार रहे हैं. कल तसलीमा नसरीन के साथ हैदराबाद में जो कुछ हुआ निराश करता है.अभिव्यक्ति की आजादी पर जिस तरह हमला हुआ उसने साफ कर दिया कि वाकई ध्रर्म का जरुरत इस अधकचरे समाज को नहीं है.ऐसे में हमारी कुछ फिल्में थोड़ी सी दिलासा जरुर देती हैं जहां एक बार फिर बेहतर कहानियां सामने आ रही है.साहित्य शायद उस भाषा में आम लोगों से बात नहीं कर पा रहा जिस भाषा में आज मुन्नाभाई जैसी फिल्में बोल रही हैं.गांधी को तमाम सहित्य उस तरह से आम जन तक नहीं पहुंचा पाये जिस तरीके से मुन्नाभाई जैसे किरदार ने इसे कर दिखाया.ऐसे में आम लोगों तक कुछ बेहतर पहुंचाने की उम्मीद फिल्मों से ही की जा सकती है. आज चक दे इंडिया पर्दे पर आ जायेगी. उस संदेश के साथ जिसके जरिए हम तसलीमा के साथ हुए बर्ताव की तकलीफ कुछ हद तक कम कर सकते हैं.फिल्म संदेश देती है कि आप अगर हारते हैं तो इसका मतलब साफ है कि आपका सर्वश्रेष्ठ भी आपके विरोधी से अच्छा नहीं है शायद यही बात साहित्य से जुड़े लोगों पर भी लागू होती है. हम कलम से भी उस मानसिकता को नहीं हरा सके जो तसलीमा जैसी महिला लेखकों पर हाथ उठाती है.

रविवार, 5 अगस्त 2007

कन्हैया की कहानी part 1

(ये कहानी करीब चार साल पहले लिखी थी। कहानी में जिन जगहों का जिक्र है वो लखनऊ के आसपास के इलाके हैं। इटौंजा गांव लखनऊ दिल्ली राजमार्ग पर पड़ता है । कहानी के पात्र भले काल्पनिक हों लेकिन मैं आपको ये यकीन दिलाता हूं कि ये कहानी सच की जमीन पर लिखी गयी है )
बदहवास पसीने से तरबतर कन्हैया रेलवे स्टेशन तक पहुंचने के लिए जी जान लगा देना चाहता था । हालांकि स्टेशन आना जाना उसके लिए कोई नई बात नहीं थी लेकिन ये पहली बार था जब उसकी दौड़ किसी ट्रेन के छूटने के डर के साथ थी । ट्रेन छूटने की सोच से कन्हैया का रोयां कांप उठता था । दो दिन से उसके पेट ने अन्न का एक दाना नही देखा था । दौड़ते दौड़ते कभी आंखों के सामने अंधेरा छा जाता तो कभी पांव साथ देने से इंकार कर देते । लेकिन उसके कानों में कभी अपने दोनों छोटे छोटे बच्चों की भूख से बिलखती आवाजें सुनाई देतीं तो कभी बीमार बीबी वसुधा के दर्द से कराहने की आवाजें । उन तीनों ने भी तो दो दिनों से भर पेट खाना नहीं खाया था और वो वसुधा उसे छोड़कर कौन था उसका इस दुनिया मे । खेती ने लगातार तीसरे साल उसका कड़ा इम्तहान लिया था बस उसी वक्त उसने तय कर लिया था कि और इम्तहान नहीं देगा वो । खेती छोड़ मजूरी(मजदूरी)करेगा और वसुधा का इलाज करायेगा। ये सारी बातें जैसे उसके अन्दर नई जान डाल देतीं। खैर इटौंजा स्टेशन दिखते ही मन को सुकून हुआ। इतनी भीड़,कन्हैया सहम सा गया । इस भीड़ का भी अपना कितना अलग अलग चरित्र होता है,कभी तो वो हमारे लिए उल्लास का विषय होती है तो कभी लगता है कि कहीं ये भीड़ हमें कुचल ना डाले। अपनी कुल इक्कीस रुपये की जमा पूंजी से सात रुपये का टिकट लेने में जैसे कन्हैया की जान निकल गयी। खैर कुछ कमाने ही तो जा रहा था वो। स्टेशन पर उसे गांव के दूसरे किसान भी दिखे लेकिन हाथों में ब्रुश और कन्नी(मजदूरी के लिए प्रयोग किये जाने वाले औजार)लेकर कितने अनजाने लग रहे थे सभी । खैर संकोची कन्हैया ने उनसे पूछ ही लिया क्या इन औज़ारों के बिना लखनऊ में काम नहीं मिलता । लागत है पहिल बार जाए रहे हो लखनऊ...हमरे साथ चलौ कौनो काम तो मिल ही जाई.. ट्रेन आते ही जैसे भगदड़ मच गयी। वहां जमा हर कोई ट्रेन की ओर इस तरह लपका जैसे की वो उसकी जिंदगी की पहली और आखिरी ट्रेन हो। खैर कन्हैया को एक मजदूर के साथ ट्रेन के डिब्बे की छत पर जगह मिल गयी। ट्रेन के अंदर बैठने के किस्से तो सुने थे लेकिन ट्रेन की छत पर बैठने का अनुभव वाकई काफी सुखद लगा था उसे। ठंडी हवा के साथ बार बार उसकी यादों में उसके बच्चे और वसुधा आते। उसे याद आता जब पिछले दशहरे के मेले से वो बच्चों और वसुधा के लिए नये कपड़े लाया था । नयी साड़ी देखकर वसुधा की आंखें खुशी से छलक आयीं थीं। तभी ट्रेन की हार्न ने उसे यादों से यथार्थ में जा ढकेला। मोहिबुल्लापुर स्टेशन आ चुका था ट्रेन के रुकते ही दूसरे मजदूरों के साथ कन्हैया भी ट्रेन से उतर आया और गांव के दूसरे मजदूरों के साथ अड्डे की तरफ चल पड़ा। थोड़ी दूर इंजीनियरिंग कालेज चौराहे पर मजदूरों का बड़ा झुण्ड खड़ा था। सभी किसी ना किसी गांव से आये थे। यहां सभी को इंतजार मजदूरी का था । वहां फैली एक अजीब सी खामोशी तब टूटती जब कोई ट्रैक्टर वहां आता और उनसे से कुछ मजदूरों को वहां से ले जाता । उस ट्रैक्टर में चढ़ने के लिए मारा मारी मचती और गांव में एक दूसरे को पहचानने वाले तक एक दूसरे को धक्का देकर ट्रैक्टर पर चढ़ जाते और कन्हैया वहां ठगा सा सभी का चेहरा देखता रहता। एक एक कर ज्यादात्तर मजदूर ट्रैक्टर से लदकर कहीं चल दिये। सूरज काफी चढ़ चुका था और मजदूरी की आस भी धीरे धीरे खत्म होते देख बचे खुचे मजदूर वहां से जाने लगे। वहां से जाने वाले आखिरी मजदूर ने कन्हैया के कंधे पर हाथ रखकर कहा कि चलो भैया दिन चढ़ गया अब क्या काम मिलेगा। ये सुनकर कन्हैया के शरीर पर जैसे बिजली गिर पड़ी। लगा कि क्या सारे सपने टूट जायेंगें। क्या वसुधा कभी ठीक नहीं हो पाएगी क्या वो बच्चों को रोटी के दो निवाले कभी नहीं खिला पायेगा।

कन्हैया की कहानी part 2

तभी दूर एक मोटा सा आदमी उसकी ओर आता दिखा। वो पास आकर पान की पीक थूकते हुए बोला क्यों बे मजूरी करेगा.ये सुनकर जैसे कन्हैया को बड़ा सहारा मिला । हां साहब ऐ ही खातिर आये हैं..अच्छा देर शाम काम करना होगा और मजूरी मिलेगी दिन के तीस रुपये...कम है साहब.. कन्हैया गिड़गिड़ाया..आधे दिन के पूरे लेगा क्या..मोटे आदमी ने हिकारत भरी आवाज में कन्हैया की ओर देखते कहा..देख चलना है तो चल नहीं तो बहुत पड़े हैं तेरे जैसे..इतना कह कर वो मोटा आदमी वहां से चल पड़ा..लेकिन तभी कन्हैया लगभग पीछा करते हुये उस मोटे आदमी के करीब आकर बोला..साहब कहां चलना है..कुटिल मुस्कान के साथ कन्हैया की ओर देखते हुये मोटे आदमी ने उसे ट्राली में बैठने का इशारा किया.वहां से कन्हैया को एक ऐसी जगह ले जाया गया जहां बड़े पैमाने पर काम चल रहा था। कही बड़ी बड़ी दीवारें बन रहीं थीं तो कहीं असमान सी ऊंची इमारत बनाई जा रही थी..तभी एक अनजाने से आदमी ने कन्हैया को फावड़ा पकड़ाते हूये कहा कि कहा कि सुनो जहां वो गढ्ढा खोदा जा रहा है वहां जाकर साहब से पूछ लो क्या करना है और हां अगर बीड़ी वीड़ी सुलगी तो सोच लेना कुत्ते की तरह भगा दूंगा समझे...इतने कड़ुवे बोल कन्हैया ने कभी नहीं सुने थे लेकिन अपने सपनों और वसुधा के चेहरे के एक मुस्कुराहट देखने के लिए कन्हैया अपमान का ये घूंट पी गया । गढ्ढे के पास खड़ा आदमी मजदूरों से गढ्ढा खुदवा रहा था..गढ्ढे में कुछ मजदूर थे जिन्हे बाहर आने का इशारा कर उसने कन्हैया को गढ्ढा में उतरने को कहा..कहे के मुताबिक कन्हैया उस गढ्ढे में उतर गया। काम मिलने के उत्साह के आगे मानों उसकी थकान कहीं गुम हो चुकी थी। मेहनत से कन्हैया ने कभी मुंह नहीं छुपाया। चारों ओर सभी काम कर रहे थे कुछ नया बना रहे थे। गढ्ढे की गहराई करीब सात फीट हो चुकी थी। काम ज्यादा नहीं बचा था लेकिन कन्हैया का उत्साह बदस्तूर बना हुआ था। उसे पसीने की बूंद पोछते कभी वसुधा याद आती तो कभी बच्चे की किलकारियां उसके कानों में सुनाई देतीं। लेकिन तभी अंदर और आसपास की जमीन ने धंसना शुरु कर दिया। वहां खड़े मजदूर खतरे को भांपकर वहां सेजल्दी दूसरी ओर दौड़े..किसी को गढ्ढे में मौजूद कन्हैया की चिल्लाने की आवाज नहीं सुनाई दी..थोड़ी देर में मिट्टी के धंसने के साथ कन्हैया भी उसी में हमेशा के लिए दफन हो गया..हल्ला मचा..लेकिन तबतक सबकुछ खत्म हो चुका था..बताते हैं कि उस हादसे की ख़बर किसी अखबार में भी नहीं आयी.. जिन्हें इस बारे में पता था भी उनके मुंह भी चंद पैसों ने बंद कर दिये ...फिलहाल कन्हैया की गुमशुदगी की रिपोर्ट आज भी एक थाने के रजिस्टर में दर्ज है.....

तन्हाई

एक सर्द रात में
यादों के दुशाले को ओढ़ के
खामोश से तन्हा चांद को देखने निकला
फिज़ा की खुन्की चांद की तन्हाई को और
बढ़ा चुकी थी
सर्द हवाओं से खिलाफत करने मैं भी
अपनी तन्हाई का साथी तलाशने निकला
हर सिम्त एक खामोशी
जो मुझे लौट जाने को कहने लगी और बावस्ता किसी ने मेरा हाथ थाम लिया
और इशारा करने लगा फलक के सिम्त देखने को
जो नज़र गयी
तो दिल और बेचैन हो गया
दुनिया की रातों का साथी चांद
भी तो तन्हा था मेरी तरह
बेशक हम दोनो की वज़ह जुदा थी
मगर हासिल एक ही था
और हम दोनो के हाथों को थामे हुई थी
तन्हा रात
( जावेद अज़ीज, छह जनवरी २००७)