मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
सोमवार, 3 मार्च 2008
ये गालियां कुछ कहती हैं...
बात बात पर दूसरों की मां बहन को याद करना दिल्ली की खास खूबी है..इस नायाब खूबी से दिल्ली का तारुफ कब और कैसे हुआ...रिसर्च का बेहतरीन टॉपिक है....ऐसा नहीं की इस खासियत पर केवल दिल्ली का कॉपीराइट हो.....लखनऊ जैसे शहरों में भी बात बात पर मां बहन एक करने की अदा बड़ी नज़ाकत और नफासत के साथ...टेम्पों स्टैण्ड से लेकर रेलवे स्टेशन तक बिखरी मिल जाएगी.....ये गालियां कहां से आईं...और किसके आशीर्वाद से हवा में स्थाई हो गई ...उल्लेख किसी किताब में नहीं मिलता....मुगलकाल से लेकर आज तक गालियों के शिल्प में बदलावों पर चर्चा ना होना चौंकाता है...देश की राजधानी में गालियां जिंदगी का स्थाई भाव हैं..बसें इन्हीं उच्चारणों के साथ ज्यादा माइलेज दे रही हैं...और तो और यहां गालियां जीवित और बेजान भावनाओं से कहीं ऊपर उठी दिखती हैं....गालियों ने तो अब अपना चरित्र परलौकिक भी करना शुरु कर दिया है..ऐसे में गालियों की बुनावट और उसके शिल्प पर सेमिनारों में चर्चा करनी ही चाहिए....इन सेमिनारों के टॉपिक हो सकते हैं....आधुनिक युग में गालियों के बदलते आयाम...गालियां और उसके समाजिक सरोकार...आदि आदि....फिलहाल तो ये गालियां अपनी सामाजिक भूमिकाएं निभाने में बीज़ी हैं....इन्हीं गालियों ने बडी़ से बडी़ सिर फुट्टवल की घटनाओं को महज अपनी तीन चार शब्दों की बुनावट से रोका है...इन्हीं गालियों ने उम्र की सीमाएं तहस नहस कर नई दुनिया गड़ी है...जहां इनके हवा में तारी होते ही बुजुर्ग और छोरे का फर्क खत्म हो जाता है...तो इन गालियों पर चर्चा जारी रहेगी..यहां ले लेते हैं एक बडा़ सा ब्रेक...मुझे दीजिए इजाज़त नमस्कार...
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