25 साल की नाकामियों का जश्न कैसे मनाया जाता है। देखना हो तो भोपाल आईए। कैमरे 25 साल पुरानी त्रासदी की भावुकता की खोज में जुटे हैं। पुराने सवालों को झाड़ पोछ कर फिर से जिलाने की कोशिश हो रही है। पहले भी होती रही है और आगे भी होती रहेगी। हादसों को याद करने का यही तरीका है हमारे पास। उससे आगे देखने की ना तो हमारी कूबत है और ना ही कोई इच्छा शक्ति। नाकामियों पर आंसू बहाना हमारी आदत है। पहले 26/11 पर आंसू अब भोपाल की 25 सीं बरसी पर आंसू। 3 दिसम्बर 1984 को भोपाल ने जो मंजर देखा उसे हम याद भी कैसे कर सकते हैं। दोषी अभी भी खुलेआम घूम रहे हैं। सबसे बड़ा दोषी एंडरसन मौज कर रहा है। मुआवजे की छीनाझपटी मची है सो अलग। यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन की फैक्ट्री बूत की तरह खड़ी है। 25 सालों में हादसे से उठे सवालों पर जंग लग गई है। अब कोई नहीं जानना चाहता कि भोपाल को नरसंहार के मुहाने पर क्यों छोड़ दिया गया। क्यो इस हादसे के बाद भी कसूरवार खुली हवा में सांस ले रहे हैं। हादसे का सबसे बड़ा गुनहगार एंडरसन अभी भी यही दलील दे रहा है कि ये साजिश थी और साजिश से निपटने के लिए दुनिया में कोई सैफ्टी सिस्टम डिजाइन किया नहीं गया है। लेकिन 25 साल पहले हादसे के ठीक पहले फैक्ट्री में कुछ ऐसा हो रहा था। जो नहीं होना चाहिए था। जाने अनजाने साजिश रची जा रही थी। फैक्ट्री के अंदर एक बड़े हादसे की बू महसूस की जाने लगी थी। 2 दिसम्बर 1984 की रात से करीब एक सप्ताह पहले फैक्ट्री में जो हो रहा था। उससे साफ था कि कुछ ना कुछ तो गड़बड़ है। अचानक फैक्ट्री ने अपने एक कर्मचारी को निकाल दिया और करीब करीब सभी कर्मचारियों पर पेनाल्टी लगा दी गई। फैक्ट्री ने ये कदम सिर्फ इसलिए उठाया क्योंकि कर्मचारियों ने सैफ्टी नार्म्स से हटने से मना कर दिया था। जाहिर था फैक्ट्री के अंदर के हालात अच्छे नहीं थे। कर्मचारियों पर दबाव था और उन्हें बुरे से बुरे हालात में काम करना पड़ रहा था। यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन सेविन नाम का पेस्टिसाइड बनाती थी। 1979 से ही भोपाल की फैक्ट्री में मिथाइल आईसो साइनेड का इस्तेमाल हो रहा था। जबकि सेविन का उत्पादन करने वाली दुनिया की दूसरी कंपनी बेयर MIC के इस्तेमाल से तौबा कर चुकी थी। बावजूद इसके यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन पैसा बचाने के लिए MIC यानी मिथाइल आईसो साइनेट का इस्तेमाल करती रही। चूक यहीं तक नहीं थी इस गैस को जिस तरीके से भोपाल की फैक्ट्री में बनाया जा रहा था वो तरीका भी गलता था। पैसा बचाने के लिए यूनियन कार्बाइड अपने पुराने और खौफनाक ढर्रे पर चलती रही। उस वक्त किसी ने इस बात की ओर भी ध्यान नहीं दिया कि एक खतरनाक गैस का इस्तेमाल करने वाली फैक्ट्री शहर के बीचों बीच कैसे है। सवाल यहीं खत्म नहीं होते उस वक्त के सेफ्टी नार्मस के मुताबिक MIC जैसी गैस को स्टील के छोटे छोटे कंटेनर में रखा जाना चाहिए था लेकिन यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन में ऐसे नियमों का कोई मतलब नहीं था। फैक्ट्री ने महज पैसा बचाने के लिए MIC जैसे खतरनाक गैस को बड़े बड़े टैंकों में रखा। . यही नहीं भोपाल की खूनी फैक्ट्री नियम कानून को ताक पर रखकर चलाई जा रही थी। सेफ्टी नियमों का यहां कोई मतलब नहीं था। इसी फैक्ट्री के वर्जीनिया प्लांट में फोर लेयर आटोमेटिक सैफ्टी सिस्टम लगा था लेकिन हिंदुस्तान में उसकी फैक्ट्री सिर्फ एक और वो भी मैनुयल सैफ्टी सिस्टम के भरोसे चल रही थीष। फैक्ट्री के रेफ्रिजरेशन यूनिट का भी बुरा हाल था । MIC जैसी जहरीली गैस के कंटेनर से जुड़ी एक रेफ्रिजरेशन यूनिट हुआ करती थी। इस यूनिट को कुछ पैसे बचाने के लिए वारेन एंडरसन ने बंद कर दिया। माना जाता है कि अगर ये रेफ्रिजरेशन यूनिट चल रही होती तो भोपाल का हादसा काफी हद तक रोका जा सकता था। गैस को जिस तापमान पर रखा जाना चाहिए था उसे लेकर भी खूब लापरवाहियां हुईं। जिस MIC को 4.5 डिग्री सेल्सियस पर स्टोर किया जाना चाहिए था उसे 20 डिग्री सेल्सियस पर रखा गया था। भोपाल में 25 साल पहले जिस गैस ने पूरे भोपाल की हवा को जहरीला कर दिया उस गैस का रिसाव टैंकर नंबर 610 में पानी जाने से हुआ था। लेकिन इस बात का खुलासा आज भी नहीं हो सका है कि ये टैंकर तक पानी पहुंचा कैसे। टैंकर नंबर 610 में पानी जाने की वजह से ही तापमान 200 डिग्री सेल्सियस पहुंचा और टैंकर से निकली गैस ने भोपाल को बेदम कर दिया। यही नहीं 2 से 3 दिसंबर की रात जब भोपाल जहरीली हवा की जद में था उस वक्त शहर में मौत की गैस पर काबू पाने का कोई इंतजाम नहीं था। फैक्ट्री में अपातकाल के लिए लगा स्प्रे सिस्टम मजह 13 मीटर तक का ही था जो काफी नहीं था। इतना ही नहीं कंपनी के फ्लेयर टावर का डिजाइन भी गलत थी। माना जाता है कि अगर स्प्रे सिस्टम और फ्लेयर टावर सही होता तो इस हादसे के असर को आधे के करीब कम किया जा सकता था। कंपनी ने बात बात पर कंजूसी बरती। कंपनी में गैस स्क्रबर का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए नहीं हो रहा था कि कंपनी के पास कास्टिक सोड नहीं था। अगर कंपनी के पास कास्टिक सोडा होता तो भोपाल की त्रासदी की तस्वीरें इस कदर खौफनाक नहीं होतीं...फैक्ट्री में कर्मचारियों को सेफ्टी मनुअल की किताबें अंग्रेजी में दीं जबकि इस फैक्ट्री में ज्यादातर कर्मचारियों को अंग्रेजी नहीं आती थी। जब कर्मचारियों ने हिंदी में सेफ्टी मैनुअल की मांग की तो उनकी मांग को कंपनी के CEO एंडरसन ने साफ तौर पर खारिज कर दिया। पैसे बचाकर मुनाफे कमाने के लिए भोपाल की यूनियन कार्बाइड जुगाड़ के जरिए चलाई जा रही थी। यहां कंपनी के बॉयलर को चलाने के लिए 12 आपरेटर की जरुरत होती थी लेकिन कंपनी ने केवल 6 आपरेटर रखे थे। 6 आपरेटर कंपनी के रवैये से नाराज होकर कंपनी छोड़ चुके थे। यही नहीं जब कंपनी से ऑपरेटर की डिमांड की गई तो उनकी नियुक्ति करने के बजाए हर घंटे होने वाले बायलर चेकिंग का वक्त बढ़ाकर दो घंटे का कर दिया। साफ था नियमों को ताक पर रखने की छूट एंडरसन एंड कंपनी को सरकार की मिलीभगत से नहीं मिल सकती थी। अखबारों में फैक्ट्री के बारे में छपी तमाम रिपोर्ट के बावजूद उस वक्त की मध्यप्रदेश सरकार ने फैक्ट्री को सुरक्षा के लिहाज से फिट बताया। 25 साल बाद भोपाल का जख्म फिर से कुरेदा जा रहा है। नाकामियों की कहानी गढ़ी जा रही है जो गुनहगार हैं उनकी आंखों का पानी मर चुका है और जो जी जी कर मर रहे हैं उनकी आंखे पथरा चुकी हैं।