शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

नाकामियों का जश्न


25 साल की नाकामियों का जश्न कैसे मनाया जाता है। देखना हो तो भोपाल आईए। कैमरे 25 साल पुरानी त्रासदी की भावुकता की खोज में जुटे हैं। पुराने सवालों को झाड़ पोछ कर फिर से जिलाने की कोशिश हो रही है। पहले भी होती रही है और आगे भी होती रहेगी। हादसों को याद करने का यही तरीका है हमारे पास। उससे आगे देखने की ना तो हमारी कूबत है और ना ही कोई इच्छा शक्ति। नाकामियों पर आंसू बहाना हमारी आदत है। पहले 26/11 पर आंसू अब भोपाल की 25 सीं बरसी पर आंसू। 3 दिसम्बर 1984 को भोपाल ने जो मंजर देखा उसे हम याद भी कैसे कर सकते हैं। दोषी अभी भी खुलेआम घूम रहे हैं। सबसे बड़ा दोषी एंडरसन मौज कर रहा है। मुआवजे की छीनाझपटी मची है सो अलग। यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन की फैक्ट्री बूत की तरह खड़ी है। 25 सालों में हादसे से उठे सवालों पर जंग लग गई है। अब कोई नहीं जानना चाहता कि भोपाल को नरसंहार के मुहाने पर क्यों छोड़ दिया गया। क्यो इस हादसे के बाद भी कसूरवार खुली हवा में सांस ले रहे हैं। हादसे का सबसे बड़ा गुनहगार एंडरसन अभी भी यही दलील दे रहा है कि ये साजिश थी और साजिश से निपटने के लिए दुनिया में कोई सैफ्टी सिस्टम डिजाइन किया नहीं गया है। लेकिन 25 साल पहले हादसे के ठीक पहले फैक्ट्री में कुछ ऐसा हो रहा था। जो नहीं होना चाहिए था। जाने अनजाने साजिश रची जा रही थी। फैक्ट्री के अंदर एक बड़े हादसे की बू महसूस की जाने लगी थी। 2 दिसम्बर 1984 की रात से करीब एक सप्ताह पहले फैक्ट्री में जो हो रहा था। उससे साफ था कि कुछ ना कुछ तो गड़बड़ है। अचानक फैक्ट्री ने अपने एक कर्मचारी को निकाल दिया और करीब करीब सभी कर्मचारियों पर पेनाल्टी लगा दी गई। फैक्ट्री ने ये कदम सिर्फ इसलिए उठाया क्योंकि कर्मचारियों ने सैफ्टी नार्म्स से हटने से मना कर दिया था। जाहिर था फैक्ट्री के अंदर के हालात अच्छे नहीं थे। कर्मचारियों पर दबाव था और उन्हें बुरे से बुरे हालात में काम करना पड़ रहा था। यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन सेविन नाम का पेस्टिसाइड बनाती थी। 1979 से ही भोपाल की फैक्ट्री में मिथाइल आईसो साइनेड का इस्तेमाल हो रहा था। जबकि सेविन का उत्पादन करने वाली दुनिया की दूसरी कंपनी बेयर MIC के इस्तेमाल से तौबा कर चुकी थी। बावजूद इसके यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन पैसा बचाने के लिए MIC यानी मिथाइल आईसो साइनेट का इस्तेमाल करती रही। चूक यहीं तक नहीं थी इस गैस को जिस तरीके से भोपाल की फैक्ट्री में बनाया जा रहा था वो तरीका भी गलता था। पैसा बचाने के लिए यूनियन कार्बाइड अपने पुराने और खौफनाक ढर्रे पर चलती रही। उस वक्त किसी ने इस बात की ओर भी ध्यान नहीं दिया कि एक खतरनाक गैस का इस्तेमाल करने वाली फैक्ट्री शहर के बीचों बीच कैसे है। सवाल यहीं खत्म नहीं होते उस वक्त के सेफ्टी नार्मस के मुताबिक MIC जैसी गैस को स्टील के छोटे छोटे कंटेनर में रखा जाना चाहिए था लेकिन यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन में ऐसे नियमों का कोई मतलब नहीं था। फैक्ट्री ने महज पैसा बचाने के लिए MIC जैसे खतरनाक गैस को बड़े बड़े टैंकों में रखा। . यही नहीं भोपाल की खूनी फैक्ट्री नियम कानून को ताक पर रखकर चलाई जा रही थी। सेफ्टी नियमों का यहां कोई मतलब नहीं था। इसी फैक्ट्री के वर्जीनिया प्लांट में फोर लेयर आटोमेटिक सैफ्टी सिस्टम लगा था लेकिन हिंदुस्तान में उसकी फैक्ट्री सिर्फ एक और वो भी मैनुयल सैफ्टी सिस्टम के भरोसे चल रही थीष। फैक्ट्री के रेफ्रिजरेशन यूनिट का भी बुरा हाल था । MIC जैसी जहरीली गैस के कंटेनर से जुड़ी एक रेफ्रिजरेशन यूनिट हुआ करती थी। इस यूनिट को कुछ पैसे बचाने के लिए वारेन एंडरसन ने बंद कर दिया। माना जाता है कि अगर ये रेफ्रिजरेशन यूनिट चल रही होती तो भोपाल का हादसा काफी हद तक रोका जा सकता था। गैस को जिस तापमान पर रखा जाना चाहिए था उसे लेकर भी खूब लापरवाहियां हुईं। जिस MIC को 4.5 डिग्री सेल्सियस पर स्टोर किया जाना चाहिए था उसे 20 डिग्री सेल्सियस पर रखा गया था। भोपाल में 25 साल पहले जिस गैस ने पूरे भोपाल की हवा को जहरीला कर दिया उस गैस का रिसाव टैंकर नंबर 610 में पानी जाने से हुआ था। लेकिन इस बात का खुलासा आज भी नहीं हो सका है कि ये टैंकर तक पानी पहुंचा कैसे। टैंकर नंबर 610 में पानी जाने की वजह से ही तापमान 200 डिग्री सेल्सियस पहुंचा और टैंकर से निकली गैस ने भोपाल को बेदम कर दिया। यही नहीं 2 से 3 दिसंबर की रात जब भोपाल जहरीली हवा की जद में था उस वक्त शहर में मौत की गैस पर काबू पाने का कोई इंतजाम नहीं था। फैक्ट्री में अपातकाल के लिए लगा स्प्रे सिस्टम मजह 13 मीटर तक का ही था जो काफी नहीं था। इतना ही नहीं कंपनी के फ्लेयर टावर का डिजाइन भी गलत थी। माना जाता है कि अगर स्प्रे सिस्टम और फ्लेयर टावर सही होता तो इस हादसे के असर को आधे के करीब कम किया जा सकता था। कंपनी ने बात बात पर कंजूसी बरती। कंपनी में गैस स्क्रबर का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए नहीं हो रहा था कि कंपनी के पास कास्टिक सोड नहीं था। अगर कंपनी के पास कास्टिक सोडा होता तो भोपाल की त्रासदी की तस्वीरें इस कदर खौफनाक नहीं होतीं...फैक्ट्री में कर्मचारियों को सेफ्टी मनुअल की किताबें अंग्रेजी में दीं जबकि इस फैक्ट्री में ज्यादातर कर्मचारियों को अंग्रेजी नहीं आती थी। जब कर्मचारियों ने हिंदी में सेफ्टी मैनुअल की मांग की तो उनकी मांग को कंपनी के CEO एंडरसन ने साफ तौर पर खारिज कर दिया। पैसे बचाकर मुनाफे कमाने के लिए भोपाल की यूनियन कार्बाइड जुगाड़ के जरिए चलाई जा रही थी। यहां कंपनी के बॉयलर को चलाने के लिए 12 आपरेटर की जरुरत होती थी लेकिन कंपनी ने केवल 6 आपरेटर रखे थे। 6 आपरेटर कंपनी के रवैये से नाराज होकर कंपनी छोड़ चुके थे। यही नहीं जब कंपनी से ऑपरेटर की डिमांड की गई तो उनकी नियुक्ति करने के बजाए हर घंटे होने वाले बायलर चेकिंग का वक्त बढ़ाकर दो घंटे का कर दिया। साफ था नियमों को ताक पर रखने की छूट एंडरसन एंड कंपनी को सरकार की मिलीभगत से नहीं मिल सकती थी। अखबारों में फैक्ट्री के बारे में छपी तमाम रिपोर्ट के बावजूद उस वक्त की मध्यप्रदेश सरकार ने फैक्ट्री को सुरक्षा के लिहाज से फिट बताया। 25 साल बाद भोपाल का जख्म फिर से कुरेदा जा रहा है। नाकामियों की कहानी गढ़ी जा रही है जो गुनहगार हैं उनकी आंखों का पानी मर चुका है और जो जी जी कर मर रहे हैं उनकी आंखे पथरा चुकी हैं।

रविवार, 8 नवंबर 2009

अच्छा हुआ खबर ज्यादा नहीं चली


मैं चाहता भी नहीं था कि प्रभाष जोशी के गुजर जाने की खबर टीवी चैनलों पर चले। अमिताभ बच्चन और रणवीर कपूर के फूहड़ ड्रामें के बीच प्रभाष जोशी के निधन की खबर बार बार चुभी। जैसे लगा कोई गलीज और गिरा इंसान किसी भले आदमी के मरने की खबर सुना रहा है। प्रभाष जोशी को पहली बार लखनऊ में सुना दोबारा दफ्तर में मुलाकात हुई, जल्दी में थे सो ज्यादा संवाद नहीं हो पाया। फिर मिलने का मौका तब मिला जब प्रभाष जी हमेशा के लिए आंखें बंद कर चुके थे। फिर भी नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हुई। एक अपराधी की तरह थोड़ी देर खड़ा रहा। सोचा अच्छा हुआ उनके जीते जी उनसे मिलना नहीं हुआ। वरना पूछते क्या करते हो तो क्या बतता। क्या कहता उनसे कि रोज पत्रकारिता के साथ छल कर रहा हूं। प्रभाष जी थे तो भरोसा था लेकिन उनके जाने के बाद बचा खुचा भरोसा भी खाक हो गया। पत्रकारिता की रेस में अभी ज्यादा नहीं दौड़ा हूं फिर भी हांफने लगा हूं। अभी ज्यादा उम्र नहीं हुई है फिर भी लगता है कि उम्र बीत गई। क्या वाकई प्रभाष जी के साथ पत्रकारिता की सच्ची लौ हमेशा के लिए बुझ गई। लगता तो यही है।
प्रभाष जी ने जनसत्ता को जो पहचान दी वैसी पहचान आज तक कोई अखबार नहीं बना पाया। अखबारों ने प्रसार संख्या तो खूब बढा़ई लेकिन ये प्रसार पैसे का था लोगों के दिलों में ज्यादा से ज्यादा दस्तक देने का नहीं। नंबर वन की दौड़ में खबर को ही कुचल दिया गया। अब अखबार आवाम की आवाज नहीं, बल्कि बाजार की आवाज हैं। सच्चे और सामाजिक विचारों को अखबार में कैसे और कितनी जगह मिलती है सब जानते हैं। सच बोलने की हिम्मत किसी में नहीं है। सरकार के तलवे चाटने वाले चैनलों और अखबारों के बीच प्रभाष जी की आवाज का खामोश होना, किसी मातम से कम नहीं है। प्रभाष जी खबर को अनाथ करके चले गए। प्रभाष जी के जाने के बाद खबर की खबर लेने वाला कोई नहीं बचा है। बस अफसोस इसी बात का है कि हमने प्रभाष जी को अपनी मरती पत्रकारिता की राख के साथ विदा किया है।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

जिंदगी का एहसास

जिंदगी धूप की तरह है,
कभी हसीन लगती है,
कभी चुभती है,
कभी डूबते सूरज की तरह गुम हो जाती है।
जिंदगी उस फूल सी भी लगती है,
जो तमाम हसरतें लिए खिलता है
फिर मुरझा जाता है,
जिंदगी कुछ कुछ हवा के एहसास की तरह भी है
जो कभी ताजगी देता है
तो कभी गर्म थपेड़ों सा जान पड़ता है।
जिंदगी उस अधूरी कहानी सी है
जिसके पूरे होने का इंतजार
मुझे भी शिद्दत से है।
जिंदगी कुछ कुछ मां सी है
जिसके एहसास की गहराई को
मैं हर वक्त महसूस करता हूं।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

तुम्हारा न्यूज सेंस तुम्हे मुबारक

खबरों को लेकर खबरदार बनने का नाटक क्यों। क्यों नहीं परचून की दुकान या फिर शराब का ठेका। माफ कीजिएगा न्यूज सेंस आपका मरा है लोगों का नहीं। बारिश केवल दिल्ली और मुंबई में नहीं होती बरखूद्दार, लखनऊ और मुज्जफरपुर में भी होती है। सड़कें वहां भी भरती हैं, जाम से दो चार वहां के लोग भी होते हैं। लेकिन तुम्हारे न्यूज सेंस की हदें दिल्ली और मुंबई से आगे बढ़ नहीं पाती। पैसे की मलाई यहीं है तुम यहीं की मलाई चाटते रहो। टीवी पर इंटरटेनमेंट चैनल के फुटेज दिखाकर तुम खुद को भले क्रिएटिव कहो। लेकिन हम तो इसे चोरी कहते हैं। तुम पैसे बनाने के चक्कर में क्या से क्या हो गए इसको लेकर तो अब हम भी कन्फ्यूज हैं। अंधविश्वास फैलाने में तो तुमने पाखंड का धंधा करने वाले ज्योतिषों को पीछे छोड़ दिया है। डर क्रिएट करने में तुमने हॉरर फिल्मों को पीछे छोड़ दिया है। तुमसे तो अच्छे वो कार्टून चैनल हैं जो कम से कम बच्चों को तो बांधे रखते हैं। तुम अपनी खबरों से दो मुल्कों के बीच बरसों में बनने वाले रिश्ते गंधा सकते हो। तुम अपनी खबरों से खली का फर्जी हैव्वा तैयार कर सकते हो। तुम अपनी खबरों से बालिका बधू की नई कहानी गढ़ सकते। लेकिन तुम अब अपनी खबरों से दो मुल्कों को पास नहीं ला सकते। तुम सरकारों को क्या हम आम आदमी को बेचैन नहीं कर सकते। बुरा लगे तो लगता रहे... तुम्हारा न्यूज सेंस तुम्हे मुबारक। तुम्हारी हदे यहीं तक है और छिछले शब्दों में कहें तो तुम्हारी औकात इतनी भर रह गई है। हा इतना जरुर कहूंगा, कि बारिश की रिपोर्टिंग करते करते अपने लिए इतना पानी खोज लेना जहां तुम अपने न्यूज सेंस के साथ डूबकर मर सको।

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

'मोहल्ला' का कीचड़नामा

घटिया आलोचनाओं का इतना ऊंचा ज्वार उठेगा इसके बारे में सोचा नहीं था। मोहल्लेदारी इतने छिछले स्तर पर चली जाएगी इसका भी इल्म नहीं था। प्रभाष जोशी की आलोचना उसके बाद आलोक मेहता की छिछालेदर और अब आलोक तोमर की ऐसी तैसी। सब मिलाकर गाली गलौज का भरपूर इंतजाम। फिलहाल तो बौद्धिक लहजे में गरियाते गरियाते मोहल्ले में इतना कीचड़ तो हो ही गया है कि जिस पर मन हो उछाल दो। ऐसा नहीं की इस कीचड़ उछाल बौद्धिकता की शिकायत मैंने अविनाश जी से नहीं की। लेकिन शायद पाठकों की चाह में मेरी शिकायत अनसुनी हो गई। दरअसल किसी की निजी जिंदगी में तांकझांक करके आलोचनाओं की तथ्य खोज लाना बड़ा आसान है। प्रभाष जोशी, अविनाश जी और उनके सुर में सुर मिलाने वालों के लिए भले खलनायक हों। लेकिन हमारे जैसे नए लोगों ने उन्हें पढ़कर पत्रकारिता की ए बी सी डी सीखी है। जरुरी नहीं कि आपकी निजी सोच, आपकी व्यवहारिक जिंदगी से हमेशा मेल खाए। ऐसे में किसी पत्रकार या बुद्धिजीवी (खासकर वो जिसे पत्रकारिता या साहित्य के आदर्श होने की हैसियत हासिल हो) को उसकी निजी जिंदगी में तांकझांक करके कलंकित करना ठीक नहीं है। आप पत्रकारिता के आदर्शों (खैर अब तो रहे ही नहीं) को सब पर थोप नहीं सकते और ना ही सभी से ये उम्मीद कर सकते हैं। मोहल्ला का कीचड़नामा जारी है और अभी अभी पता चला है कि कीचड़ राजेन्द्र यादव पर उछलने के विधिवत कार्यक्रम का फीता कट चुका है।

रविवार, 30 अगस्त 2009

आडवाणी से क्या कहा भागवत ने (एक्सक्लूसिव)


( आडवाणी से क्या कहा मोहन भागवत ने इसकी जानकारी हमारे संवाददाता विमल कांत के हाथ लगी है...इस इंटरव्यू को आरएसएस के एक निष्ठावान कार्यकर्ता ने हमें मुहैया कराया है...हम आपको इतना भर बता सकते हैं कि ये स्वयंसेवक बीजेपी में बड़ी हैसियत रखता है और आडवाणी का काफी बड़ा शुभचिंतक बताया जाता है तो सुनिए क्या कुछ कहा सुना गया जब भागवत आडवाणी से मिलने पहुंचे )

आडवाणी....प्रणाम
भागवत.....प्रणाम आईये बैठिए आडवाणी जी
आडवाणी....इन मीडिया वालों ने तो नरक काट दिया है भागवत जी
भागवत....और आप क्या काट रहे हैं पार्टी को भारतीय झगड़ा पार्टी बना रखा है
आडवाणी....आप मुझ पर क्यों नाराज हो रहे हैं मैं तो बोलता ही कम हूं और कभी बोल भी देता हूं तो बाद में तुरंत कह देता हूं कि मुझे याद नहीं
भागवत....जसवंत जी कह रहे थे कि आपको सब पता था
आडवाणी....आपको पता है कि मैं अपने मस्तिष्क पर ज्यादा भार नहीं डालता इतिहास की ऐसी कई घटनाएं हैं जो मुझे स्मरण नहीं है तो बताईये मैं क्या करूं
भागवत....तो आप कहना चाह रहे हैं कि आप भुलक्कड़ हो चुके हैं
आडवाणी....देखिए भागवत जी राजनीति को दूर से देखने और राजनीति में रहकर चीजों को समझने में अंतर होता है. राजनीति में लाभ की चीजों को याद रखना पड़ता है और हानि की चीजों को भूल जाना होता है
भागवत....फिलहाल आपको अभी अभी क्या याद है
आडवाणी....यही की मैं पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का सबसे योग्य दावेदार था हूं और रहूंगा...युवा हूं...लौह पुरुष पार्ट टू भी कहें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है
भागवत.... अब ये भी बता दीजिए कि आपको क्या क्या स्मरण नहीं है
आडवाणी....अगर आप मुझे नेता अपोजिशन का पद छोड़ने को कहेंगे तो थोड़ी देर बार ये आदेश स्मृति से लुप्त हो जाएगा. कंधार का मामले में मुझे सब पता था ये भी मुझे याद नहीं है...बाबरी मस्जिद को मेरे सामने गिरा दिया गया था ये भी मुझे याद होगा मुझे डाउट है...यही नहीं जिन्ना के संदर्भ में पाकिस्तान में मैं क्या क्या बोलकर आया था भागवत जी आपकी कसम खाकर कहता हूं वो भी स्मृति में धुंधला सा गया है
भागवत....अच्छा आप ये तो जानते हैं कि मैं कौन हूं
आडवाणी....जी ये तो आप पर निर्भर करेगा कि मैं क्या क्या याद रखूं क्या क्या भूलूं...मसलन आप इस्तीफा देने को कहेंगे तो मैं भूल सकता हूं कि आप कौन हैं...हा हा क्या करुं कम्बख्त मस्तिष्क भी
भागवत....आप स्वयंसेवक हैं ये तो याद है ना आपको
आडवाणी....हां मेरे मित्र बताते हैं कि इलेक्शन के टाइम तक जब संघ के सहयोग की आवश्यकता थी तो मुझे स्मरण था लेकिन चुनाव के बाद मैं भुल गया...अब आप मेरे पीछे पड़ गए हैं तो याद आ रहा है कि अभी हाल में आपने स्वयंसेवक संघ की बागडोर अपने युवा हाथों में संभाली थी
भागवत....जसवंत भी आप पर तमाम आरोप लगा रहे हैं आपको नहीं लगता कि पार्टी के साथ साथ आपकी छवि भी खराब हो रही है
आडवाणी.... भागवत जी मुंह ना खुलवाएं तो अच्छा होगा
भागवत....धमकी दे रहे हैं आप आडवाणी जी
आडवाणी....नहीं भागवत जी धमकी तो मैने आजतक किसी को नहीं दी आपको स्मरण होगा जब पार्टियामेट पर पाकिस्तान ने हमला कराया था तब भी हमने पाकिस्तान को देख लेने के सिवा कुछ नहीं किया...बंदरों की तरह आक्रमण की मुद्रा तो बनाई लेकिन कोई आक्रमण नहीं किया
भागवत....बुरा मत मानिएगा ये तो आपकी पुरानी आदत है
आडवाणी....हा हा हा हा संघ से जो सिखा वो देश को अर्पण करने में जुटा हूं
भागवत.... आडवाणी जी कब से खाकी नेकर धारण नहीं की
आडवाणी....स्मरण नहीं है जहा तक मुझे याद आता है है
भागवत....रहने दीजिए याद करने की जरुरत नहीं है बीजेपी नेताओं से कहिए सप्ताह में एक दिन खाकी नेकर आनिवार्य रुप से पहनें जिससे ये स्मृति में बना रहे कि वो संघ के कार्यकर्ता पहले हैं बाद में बीजेपी के
आडवाणी....आप भी नाहक इमोशनल होते हैं हमारे शिवराजजी और नरेन्द्र मोदी तो हमेशा ही खाकी नेकर धारण करते रखते हैं...
भागवत....तो इस्तीफा कब दे रहे हैं
आडवाणी....दे दूंगा...पहले प्रधानमंत्री बन जाऊं...पांच साल के कार्यकाल के बाद तो एक बार इस्तीफा देना पड़ता है राष्ट्रपति जी को सो तभी दे दूंगा...
भागवत....(हाथ जोड़कर) आडवाणी जी माफ कीजिए...जाइए बीजेपी की निष्ठावान नेताओं की लंबी कतार है...उनसे भी मिलना है
आडवाणी....नाराज मत होइये मुझे स्मरण है कि संघ.
भागवत....बस बस रहने दीजिए...और सुनिए अगर स्मरण रख पाएं तो रखिएगा कि बाहर मीडिया वाले भूखे कुत्ते की तरह माइक लिए आपके ऊपर लपकेंगे लेकिन आप कुछ बोलिएगा नहीं..
आडवाणी....ठीक है जैसी आपकी मर्जी...

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

क्या कह रिया है

खबर से पहले चेतावनी...
'इन खबरों
का वास्तविक घटना से कोई लेनादेना नहीं है। ये खबर डेस्क के कुछ खुराफाती लोगों की
दिमाग की उपज है।'

हमें खबर मिली है कि कसाब ने सोचना बंद कर दिया है। उसके डॉक्टरों के कहना है कि कुछ चैनल उसके सोचने से पहले ही ये सोचने लगे हैं कि वो क्या सोचने वाला है इसलिए सोचने को काम कसाब ने चैनल वालों को सौंप दिया है। अभी अभी ये भी खबर आई है कि शिल्पा शादी करने वाली हैं लेकिन हम शिल्पा के बारे में जो खुलासा करेंगे वो आपके होश उड़ा देगा। होश उड़वाने के लिए आपको करना होगा इंतजार। क्योंकि डेस्क पर कुछ लोग यू ट्यूब पर वो फुटेज सर्च करने में जुटे हैं जिससे शिल्पा को लेकर कन्फ्यूजन क्रिएट किया जा सके। फिलहाल बढ़ते हैं दूसरी बड़ी खबर की ओर। पाकिस्तान में तालिबान ने फिर से हथियार उठा लिए हैं। अभी अभी हमें यूट्यूब पर कुछ ऐसी क्लिपिंग मिली है जिससे लगता है कि कुछ लोग हाथों में हथियार लिए हैं, ये लोग किसी पहाड़ी इलाके में हैं पठानी सूट पहने हैं। हमने मान लिया है कि वो तालिबानी हैं और पाकिस्तान में ही हैं। आपको मनवाने के लिए हमारे डेस्क के कुछ सहयोगी ग्राफिक्स वालों से मदद ले रहे हैं विजुअल के घालमेल से हम पूरा माहौल बनाने की कोशिश करेंगे और पूरा यकीन दिलाने की कोशिश करेंगे, वैसे भी कौन सा तालिबान वाले हमारे ऊपर क्लेम करने आ रहे हैं। चलिए आपको दिखाते हैं मिलावट के काले कारोबारियो की वो करतूत जो आपके होश उडा देगी। वैसे होश आपके हम पहले भी उड़ाते रहे हैं लेकिन लगता है कि आप होश उड़वाने के मामले में हैव्यूचअल हो गए हैं। खैर दिल्ली में डालडा बनाने वाली फैक्ट्री का पर्दाफाश हुआ है। गिरफ्तार किया गया आरोपी खुद को पुराना टीवी जर्नलिस्ट बताता है। उसका कहना है कि वो पहले खबरों में मिलावट करता था। इन मिलावटी खबरों का कोई असर दर्शकों पर पड़ता ना देख उसने मिलावट के धंधे का एक्टेंशन किया और मिलावटी डालडा बेचने लगा। उसका कहना है कि उसका नेटवर्क नोएडा और दिल्ली के कई इलाकों में फैला है। खबर खेल की..क्रिकेट कहीं हो नहीं रहा है जो हो रहा है उसकी टीआरपी नहीं है...ऐसे मे भला हो वीरु का जो दिल्ली क्रिकेट बोर्ड से खेल रहे हैं। खेल की पिच पर उनका बखूबी साथ दे रहे हैं अरुण जेटली। माना जा रहा है कि दोनों का मैच टाई हो गया है। लेकिन हम पूरी कोशिश कर रहे हैं कि ये मैच आगे चलता रहे। इसलिए हमारे संवाददाता को नौकरी का हवाला देकर कह दिया गया है कि वो सहवाग के इंटरव्यू से कुछ कॉन्ट्रोवर्सियल हिस्से निकाले नहीं तो उसका चैनल से निकलना तय है। फिलहाल यहां वक्त हो चला है एक छोटे से ब्रेक का। ब्रेक में देखिए कि सात सौ की पेंशन पाकर बुजुर्गों ने कैसे मटकाए कुल्हे। और कौन है वो माई का लाल जो बिना खापों के इजाजत के बता रहा है हरियाणा को नंबर वन। देखते रहिए.....

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

राम राम! अरुण शौरी....

राम कब तक नैया पार लगाते। बीजेपी की राजनीति राम भरोसे कब तक चलती। जब तक चली तब तक बीजेपी ने खूब चलाई। लेकिन जब मुद्दा पुराना हुआ तो ओवरहालिंग भी काम नहीं आई। सत्ता आई और चली भी गई। अब पार्टी की कलह सामने है। जसवंत पार्टी से बाहर हैं और अरुण शौरी बगावत का बिगुल फूंक चुके हैं। कभी यूपी की महोना सीट से विधायकी का इलेक्शन हारने वाले राजनाथ अनुशासन के नाम पर मनमर्जी करने में जुटे हैं। कोई ये जानने को तैयार नहीं कि पार्टी की इस दुर्दशा के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है। दरअसल बीजेपी कन्फ्यूजन का शिकार है। ये कन्फ्यूजन चाल चरित्र और चेहरे का है। बीजेपी किस राह चले ये सवाल पार्टी के सामने गुत्थी बनकर खड़ा है। पार्टी की कट्टर छवि गठबंधन के लिए मुफीद नहीं है और उदार छवि पार्टी को आगे नहीं बढ़ा पा रही। कुछ कुछ यही भ्रम चेहरे को लेकर है। नए चेहरों के तौर पर बीजेपी में नरेन्द्र मोदी और सुषमा स्वराज के चेहरे नजर आते हैं। लेकिन आडवाणी की जिद के चेहरे के पीछे ये चेहरे गायब दिखते हैं। दरअसल आरएसएस ने बीजेपी को हमेशा अपनी संपत्ति की तरह समझा और इस्तेमाल किया। उसे अटल के उदार चेहरे से हमेशा एतराज रहा। राम के नाम पर बीजेपी की राजनीति तो चमक गई। लेकिन ये चमक वक्त के साथ फीकी पड़नी थी, सो पड़ी। बीजेपी राम की राजनीति का विकल्प नहीं तलाश पाई। दरअसल राम मंदिर को बीजेपी ने रामराज्य से जोड़कर मुद्दे को जरुरत से ज्यादा भावनात्मक बना दिया। राम को बीजेपी ने मसले के फ्रेम में तो उतार लिया लेकिन उसे अपनी राजनीति का आदर्श नहीं बना पाई। इसका साइड इफेक्ट ये हुआ कि राम फसाद का मसला बन गए और बीजेपी की राजनीति नफरत की राजनीति। फिलहाल तो अब बीजेपी का कन्फ्यूजन चरम पर है। अरुण शौरी शुरुआत हैं...पिक्चर अभी बाकी है...।

सोमवार, 24 अगस्त 2009

कवरपेज पर 'जिन्न' आ

जिन्ना इंडिया टुडे और आउटलुक के कवरपेज पर हैं। जाहिर है जिन्ना का इतिहास वर्तमान के सामने खड़ा है। जिन्ना के बारे में पाकिस्तान के कन्फ्यूजन को समझना हो तो 1998 में बनी फिल्म 'जिन्ना' देखिए। ये फिल्म अंग्रेजी में बनी बाद में उर्दू में भी डब हुई। क्रिटोफर ली जिन्ना की भूमिका में है। राष्ट्रवादियों को ऐतराज हो सकता है क्योंकि फिल्म में शशि कपूर भी हैं। जो कहानी को नैरेटर के तौर पर आगे बढ़ाते हैं। फिल्म कमलेश्वर के 'कितने पाकिस्तान' के अंदाज में बढ़ती है। जिन्ना तमाम अनसुलझे सवालों के जवाब के साथ वर्तमान में शशि कपूर से मुखातिब हैं। कहानी जिन्ना के तमाम पहलुओं को छूती है लेकिन छिछले ढंग से। नेहरु इस फिल्म के असल खलनायक हैं। फिल्म में उन्हें अंग्रेजों के मोहरे के तौर पर पेश किया गया है। उनकी और एडविना की दोस्ती फिल्म में अंतरंगता की सारी हदें पार करती दिखती है। एक सीन मे जब जर्नलिस्ट नेहरु के कमेंट को कोट करके उनसे सवाल पूछते हैं तो जिन्ना कहते हैं कि मैं उसके लतीफों पर हंसता नहीं इसलिए वो ऐसी अफवाहें फैलाता है। जिन्ना के नजरों में महात्मा गांधी केवल मिस्टर गांधी हैं। उन्हें गांधी को महात्मा गांधी कहने मे एतराज है। फिल्म में अपनी सहूलियत के मुताबिक खलनायकों को चुनने के बावजूद नायक जिन्ना खुद ही पूरी कहानी में अन्तर्द्वन्द से जूझते नजर आते हैं। अपनी निजी जिंदगी के तमाम सवालों में जिन्ना बार बार उलझते हैं। बंटवारे में लाखों कत्ल के बाद जब ये सवाल उठता है कि क्या बंटवारा जरुरी था। तो जवाब में जिन्ना फिल्म के नैरेटर यानी शशिकपूर को ६ दिसम्बर के बाबरी विध्वंश की तस्वीरें दिखाते हैं और बताने की कोशिश करते हैं कि क्या हिन्दुस्तान में मुसलमान महफूज रह सकते हैं। एक सीन में जब लार्ड माउंटवेटन बंटवारे की जिद को जिन्ना का दीवानापन बताते हैं तो जवाब मे जिन्ना कहते दिखते हैं कि ये उतना ही पागलपन होगा कि छोड़ दिया जाए मुसलमान अक्लियत को मुतासिद हिन्दुओं के अक्लियत जेरे तस्लुद...। कहानी बार बार अंग्रेजों को हिन्दुस्तान का फिक्रमंद बताने की कोशिश करती है। फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं। लेकिन इस फिल्म को खुद जिन्ना का किरदार कमजोर बनाता है। कुल मिलाकर जिन्ना पर बनी इस फिल्म के बहाने सरहद पार के इतिहास को समझना कठिन हो जाता है।

बुधवार, 19 अगस्त 2009

बहस के रास्ते खोल दिए जसवंत ने

देश बंटा, मसले हुए, मुल्क छूटा और दुनिया की तस्वीर में हिन्दु्स्तान और पाकिस्तान का अक्स भी शामिल हो गया। दोनो मुल्कों ने बंटवारे के लिए अपने अपने नायक और खलनायक भी तलाश लिए। जिन्ना भारत के लिए खलनायक बन गए और पाकिस्तान ने उन्हें अपना नायक घोषित कर दिया। सदी की सबसे बड़ी त्रासदी ने दुनिया का इतिहास दो मुल्कों के नजरिए में बांट दिया। चूंकि दोनो मु्ल्क अपने अपने इतिहास अपने नजरिए से लिख चुके थे सो बहस के रास्ते भी हमेशा के लिए बंद हो गए। लेकिन जसवंत के बहाने बहस के रास्ते फिर से खुले और आडवाणी के बाद दूसरी बड़ी कुर्बानी जसवंत को देनी पड़ी। जसवंत ने ये सवाल फिर से जिंदा कर दिया कि क्या विभाजन वाकई केवल जिन्ना की जिद्द का नतीजा था। या फिर नेहरु और पटेल भी इस बंटवारे के बराबर के जिम्मेदार थे। निश्चित तौर पर सवाल पेचीदा हैं। आरएसएस और बीजेपी नेहरु को विभाजन का दोषी ठहराती रही है, लेकिन उसे पटेल को कटघरे में खडा़ करने से एतराज है। ऐसा नहीं कि आरएसएस और बीजेपी ने अपने नजरिए से इतिहास में जाकर छेड़छाड़ नहीं की। उसने भी इतिहास को अपनी सहूलियत की हदों तक जाकर बदला है लेकिन इतिहास के सच का कसीलापन बीजेपी को बर्दाश्त नहीं। राम की राजनीति करने वाली बीजेपी जिन्ना के जिन्न से घबरा गई। फिलहाल जसवंत सिंह ने जिन्ना के बहाने बहस की जो गुंजाइश छोड़ी है उस पर बात करने की जरुरत है। ये जानने की जरुरत है कि कभी नमाज ना पढ़ने वाले जिन्ना को मजहबी देश की मांग के लिए किन हालातों में मजबूर होना पड़ा। साथ ही सवाल ये भी है कि विभाजन को लेकर अगर नेहरु के दिल में टीस थी तो उन्होने बंटवारे की लकीरों को मिटाने की कोशिश बाद के सालों में क्यों नहीं की। सच कड़वा है और जरुरत है सार्थक बहस की.

ग्लैमरस अपमान

शाहरुख एक्टर हैं तो अमर सिंह उनसे बड़े कलाकार है। एक पर्दे पर रुलाता और हंसाता है तो दूसरा राजनीति के सीने पर बरसों से मूंग दल रहा है। ड्रामेबाज दोनो हैं, फर्क बस इतना है कि एक ड्रामा करके पैसे बनाता है और दूसरा ड्रामा करके लोगों को बेवकूफ। शाहरुख अमेरिका से अपमानित होकर इंडिया पहुंचे तो उनका स्वागत किसी गोल्ड मेडल जीते खिलाड़ी की तरह हुआ। शायद ये पहली बार हुआ होगा कि अपमान को इस कदर सम्मान मिला हो। लेकिन ये बात राजनीति के मंच पर अमूमन अपमानित होने के आदी अमर सिंह को अच्छी नहीं लगी। अपमान से उनका तालुक्क पुराना है, लेकिन अपमान के सम्मान का स्वाद शाहरुख को जिस तरह चखने को मिला वो अमर बाबू को कभी नहीं मिला। दर्द दिल से निकला और जुबां पर आ गया और शाहरुख के अपमान को वो पब्लिसिटी स्टंट बता बैठे। अमर सिंह अपनी चुभने वाली शायरी से अक्सर लोगों को घायल करते रहे हैं। लेकिन उनकी जुबान की ये चुभन शाहरुख ने पहली बार महसूस की। शाहरुख ने भी अमर को खरी खोटी सुनाने में देर नहीं लगाई। अपमान पर अपमान का शो चलता रहा। चैनल वाले टीआरपी बटोरते रहे और दर्शक हमेशा की तरह बेवकूफ बनते रहे। इस चर्चा में ये सवाल कहीं गुम हो गया कि आम आदमी के अपमान पर इतना बवाल कभी क्यों नहीं हुआ। पुलिस से लेकर सरकारी मुलाजिमों की चौखट पर आम आदमी रोज अपमानित होता रहा। लेकिन इस अपमान पर टीवी के चौखटे पर कभी कोई बहस क्यों नहीं हुई। फिलहाल दौर ग्लैमर का है सो अपमान भी ग्लैमरस हो चुका है।

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

जसवंत को भुक्तभोगी का खत

जसवंत जी हम पर रहम खाइए। इतिहास को लेकर कम कन्फ्यूजन नहीं हैं जो आप भी कन्फ्यूज करने चले आए। खाकी नेकर वालों ने पहले ही हिस्ट्री को मिस्ट्री बनाकर रखा हुआ है। जिस तरह की आपकी ऐतिहासिक सोच है। उस तरह सोचने वाले और भी हैं। अब तो इतिहास जाति के खेमे तक मोल्ड हो चुका है। हर जाति का पर्सनल इतिहास हैं अपने एक्सक्लूसिव पूर्वज हैं। यकीन ना हो तो यूपी चले आईए। मायावती जी की लगाई हर मूर्ति के साथ इतिहास की नई इबारत चस्पा है। गांधी और नेहरु को लेकर आरएसएस वाले अपने शिशु मंदिर में पहले ही कम कन्फ्यूजन क्रिएट नहीं कर रहे। जसवंत जी समझ में नहीं आता कि जिन्ना से आपकी मोहब्बत इतने दिनों तक आपके दिल मे कैसे दफन रही। ऐसे कई मौके आए जब आप जिन्ना से अपनी मोहब्बत का इजहार कर सकते थे। शायद आप भी टाइमिंग के इंतजार में बैठे रहे होंगे। लेकिन आपकी टाइमिंग इस बार तो और गलत रही। पटेल और नेहरु को अपने ऐतिहासिक भ्रम में लपेट कर आप ना घर के रहे ना घाट के। जसवंत जी इतना तो तय है कि जिन्ना से इजहार ए मोहबब्त में आपको ना तो निशान ए पाक मिलने जा रहा है और ना ही इतनी महान ऐतिहासिक सोच पर बीजेपी आपको राजनाथ की जगह रिप्लेस करने जा रही है। काफी दिन पहले लॉफ्टर चैलेंज में एक कैरेक्टर बार बार यही कहा करता था कि उल्टा सोचो। सोचो की ये दिन नहीं रात है। लगता है कि आप भी ये खेल सिख गए हैं, और उल्टा सोच रहे हैं। फिलहाल मीडिया वाले तो आपकी किताब पर दिन भर पिले रहे। लगा कि किताब नहीं साक्षात इतिहास उतर रहा है। विवाद का एलीमेंट था सो चैनल वाले भी भूखे कुत्ते की तरह आपकी रचना के ज्ञानवर्धक तथ्यों से दर्शकों को बोर करते रहे। जसवंत जी आपकी किताब मार्केट में आ गई है सो झेलनी पड़ेगी। लेकिन पता लगाईये कि कहीं प्रवीण भाई तोगड़िया या फिर नरेंद्र दामोदर दास मोदी तो कोई किताब नहीं लिख रहे। या फिर आपकी पब्लिसिटी स्टंट के आपार सफलता के बाद विनय कटियार या फिर योगी आदित्यनाथ ने भी किताब लिखने का षड्यंत्र तैयार करना तो नहीं शुरु कर दिया है
आपकी किताब का भुक्तभोगी

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

क्या वाकई नेता लिखते हैं

जसवंत सिंह का पढ़ने लिखने से तारुफ्फ पुराना है। विद्वान हैं। लेकिन इन दिनों इतिहास लिखने का चस्का सवार हुआ है। इतिहास लिख नहीं गढ़ रहे हैं। अपने विचारों को इतिहास का चोला पहनाकर किताब ले आए हैं। ये नेता वेता किताब लिख कैसे लेते हैं, मेरे लिए पहेली की तरह है। पहले आडवाणी ने लिखी अब जसवंत जी किताब लेकर आ गए हैं। वैसे जसवंत जी को इतिहास का कितना इल्म है मुझे नहीं मालूम। हां कॉन्ट्रोवर्सी से उनकी मोहब्बत जगजाहिर हो रही है। वो नेहरु और जिन्ना को एक ही तराजू में तोलने में जुटे हैं। फिलहाल कॉन्ट्रोवर्सी का पूरा मसाला तैयार है, देखना होगा कि किताब कितना बिकती है। लेकिन सवाल अभी भी यही है कि इन नेताओं की किताबों को पढ़ना कौन चाहता है और ये किताबें क्या वाकई लोगों से संवाद बनाने को लिखी जाती हैं। लगता तो नहीं है। मुझे आडवाणी कि किताब में कोई दिलचस्पी नहीं है और ना ही जसवंत सिंह की किताब को पढ़ने की इच्छा है। वो क्या लिख सकते हैं क्या सोच सकते हैं और कितनी विद्वता झाड़ सकते हैं सब पता है। इतिहास लिखा नहीं जाता रचा जाता है। चाहें वो आडवाणी हों या फिर जसवंत सिंह इतिहास रचने का वक्त इन्होने खो दिया है। ऐसे में इतिहास में जाकर विवाद खड़े करने के अलावा इनके पास कोई रास्ता भी नहीं बचा है। इन नेताओं से विजन की उम्मीद है भी नहीं। जैसे जसवंत की आई वैसे कल मायावती की किताब भी आएगी। किताब वो लिखेंगी ये लिखवाएंगी ये पता नहीं लेकिन बड़े बड़े शब्दों में मायावती का नाम लिखा होगा। मायावती जाति के खांचों में बंटे समाज की कोई नहीं कहानी गढ़ेंगी। लेकिन इस बात का जवाब उनके पास भी नहीं होगा कि उनके राज में दलितों के हालात क्यों नहीं सुधरे। विडम्बना यही है जो नेता समझने के लायक नहीं है वो पढ़ने लायक कैसे होंगे। नेताओं के लिए बेहतर होगा कि वो कम से कम अपने नाम कि किताबें लिखना या लिखवाना बंद करें। मुद्दों को समझें गरीबी की वजहों को टटोलें। बेरोजगारी को दूर करने की कोशिश करें।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

ए.आर.रहमान की कहानी तहलका की जुबानी

(रहमान सुर का दूसरा नाम हैं, उनकी शख्सियत संगीत की तरह है, वो बोलते कम हैं लेकिन उनका संगीत सबकुछ कह जाता है। काफी दिनों पहले तहलका पर उनका शोभा चौधरी का एक आर्टिकिल छपा था, तहलका के साभार ये आर्टिकिल अपने ब्लॉग पर पब्लिश कर रहा हूं)

विलक्षण प्रतिभा के जन्म से पहले ही उसके आने की भविष्यवाणी की जा चुकी थी. तमिल संगीतकार आरके शेखर और उनकी पत्नी कस्तूरी के यहां जब पहली संतान एक बेटी ने जन्म लिया तो बेटे की बाट जोह रहे इस परिवार को ज्योतिषियों ने बताया कि जल्द ही उनके घर एक ऐसा असाधारण पुत्र पैदा होगा जिसका नाम दसों दिशाओं में गूंजेगा और जिसके रचे संगीत को सुनकर सारी दुनिया मंत्रमुग्ध हो जाएगी.
लगभग एक साल बाद छह जनवरी 1966 को शेखर और कस्तूरी के घर एक बालक ने जन्म लिया. मां-बाप ने उसका नाम रखा दिलीप कुमार. यही दिलीप आगे चलकर एआर रहमान कहलाने वाला था. बेटे के तीन साल का होते-होते शेखर और कस्तूरी को उसकी विलक्षणता और ज्योतिषियों की भविष्यवाणी सही होने के संकेत दिखने लगे. ठीक से बोलना शुरू करने से पहले ही ये प्रतिभाशाली बालक हारमोनियम बजाने लगा था और रहस्यमय रूप से उसके जन्म के साथ ही उसके पिता के दिन भी फिरने लगे थे.
धीरे-धीरे बालक दिलीप मशहूर होने लगा. रहमान की बहन कंचना याद करती हैं कि चार साल के दिलीप को जब उसके पिता दक्षिण के मशहूर संगीतकार सुदर्शन के पास लेकर गए तो उन्होंने लगभग चुनौती भरे अंदाज में कहा था, ‘सुना है कि तुम्हारा बेटा कुछ भी बजा सकता है. चलो देखते हैं कि इसमें कितना दम है.’ ये कहने के बाद सुदर्शन ने हारमोनियम पर एक बेहद मुश्किल धुन बजाई. इसके बाद उन्होंने हारमोनियम पर एक धोती डाल दिलीप के काम को और मुश्किल बनाया और दिलीप से धुन दोहराने के लिए कहा. मगर जब छोटे से बो ने इस धुन को आराम से हूबहू बजा दिया तो सुदर्शन को अहसास हो गया कि ये कोई साधारण बालक नहीं है. वे उठे और नन्हें दिलीप को गले से लगा लिया.
विलक्षणता की ये यात्रा अब तक निर्बाध जारी है. 11 जनवरी 2009 को जब रहमान चर्चित हॉलीवुड फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर में अपने संगीत के लिए गोल्डन ग्लोब पुरस्कार जीतने वाले पहले भारतीय बने तो करोड़ों देशवासियों के लिए ये गर्व और खुशी का दिन था. वैसे तो टाइम मैगजीन द्वारा मोजार्ट ऑफ मद्रास कहे गए इस संगीतकार को अभी तक पदमश्री, चार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, 12 स्क्रीन और 21 फिल्मफेयर अवार्डस सहित न जाने कितने सम्मान मिल चुके हैं मगर इस सम्मान ने उनके नाम को एक अलग ही ऊंचाई तक पहुंचा दिया है. अभी इस पड़ाव पर रहमान ने जरा ठहरकर सांस भी नहीं ली थी कि 22 जनवरी 2009 को उन्हें दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित ऑस्कर पुरस्कारों की एक नहीं तीन श्रेणियों में नामित किए जाने की घोषणा ने देश को उत्साह से भर दिया है.
लॉस एंजेल्स की चमक-चमक से दूर चेन्नई में हम रहमान के संगीत की कुछ और गहरी परतों से रूबरू होते हैं. अवार्ड मिले तीन दिन हो चुके हैं मगर रहमान अभी वापस नहीं लौटे हैं. आमतौर पर भीड़भाड़ वाला ये शहर आज शांत नजर आ रहा है. दुकानें बंद हैं और सड़कें खाली. दरअसल आज पोंगल का त्यौहार है और सब लोग छुट्टी का आनंद ले रहे हैं. रहमान का एएम स्टूडियोज, जो एशिया का सबसे अत्याधुनिक साउंड स्टूडियो है और जहां आमतौर पर दर्जनों संगीतकार, निर्देशक और साउंड इंजीनियर्स नजर आते हैं, में भी आज निस्तब्धता छाई हुई है.
लकड़ी के फर्श वाली इस सफेद चार मंजिला इमारत के भीतर जाने पर आपको किसी प्रार्थनाघर सा अहसास होता है. स्टूडियो के बीचोंबीच एक विशाल कमरा है जिसमें 30 वाद्ययंत्रों वाला एक ऑरकेस्ट्रा आराम से समा सकता है. इसके सामने शीशे की दीवार के पार कंट्रोल रूम है जहां लगभग चार करोड़ रुपये की कीमत का एक विशाल मिक्सिंग कंसोल (तरह-तरह की आवाजों को साधने वाली एक मशीन) है जिसमें इतनी घुंडियां लगी हैं कि जैसे इससे समूचे ब्रह्मांड के सुर ठीक किए जा सकते हैं. इमारत में और भी कई साउंडप्रूफ कमरे हैं जिनमें चमचमाते पियानो, सिंथेसाइजर, वायलिन, हारमोनियम और ड्रम्स रखे हैं. छत पर एक विशाल हॉल है जहां दुनिया का लगभग हर वाद्ययंत्र मौजूद होगा. ऐसा लगता है मानो ये अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं कि कब संगीत का ये जादूगर ऐसी धुन रचेगा जिसमें वे भी अपना योगदान दे सकेंगे.
स्टूडियो में पसरी शांति हमें रहमान के उस अद्भुत संगीत को कुछ अलग तरह से, कुछ और पास से समझने का मौका देती है जो समय के साथ पुराना होने की बजाय कुछ और ताजा होता जाता है. बाज लुरमन, डैनी बोएल और शेखर कपूर जैसे सिनेमा के उस्ताद कहते हैं कि उन्होंने ऐसा संगीत पहले कभी नहीं सुना. इसका रहस्य रहमान की आध्यामिकता में छिपा है.
जब रहमान (तब दिलीप) केवल नौ साल के थे तो कुछ ऐसे हालात पैदा होने लगे कि ज्योतिषियों की भविष्यवाणी गलत लगने लगी. उनके पिता की अचानक मृत्यु हो गई. वो भी उस दिन जब बतौर स्वतंत्र संगीतकार उनकी पहली फिल्म रिलीज हो रही थी. परिवार के लिए ये एक बड़ा झटका था. आय का जरिया जाता रहा था और अब परिवार को संभालने और चलाने की जिम्मेदारी मां-बेटे पर आ गई थी. ये बड़ा मुश्किल दौर था. दिलीप को समझ ही नहीं आता था कि क्या किया जाए. मां ने कुछ समय तक वाद्ययंत्रों को किराए पर देकर घर का खर्च चलाया. 11 साल का होते-होते बालक दिलीप नियमित रूप से कई संगीतकारों के ऑरकेस्ट्रा में काम करने लगा था. इस वजह से स्कूल में उसकी हाजिरी और प्रदर्शन में काफी गिरावट आ गई. उसे स्कूल छोड़ने के लिए कह दिया गया. इसके बाद एक साल तक दिलीप एक दूसरे स्थानीय स्कूल में गया और फिर उसने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला ले लिया. मगर लगभग वही सब यहां भी हुआ और 15 साल की उम्र में दिलीप ने औपचारिक शिक्षा को अलविदा कह दिया. इसके बाद उसने टेलीविजन कार्यक्रमों में पियानो और गिटार बजाए और कई मलयाली, तमिल और तेलुगु संगीतकारों के ऑरकेस्ट्राओं में काम किया. इनमें से एक इलयराजा भी थे जिनके यहां दिलीप ने करीब एक साल का वक्त बिताया.
देखा जाए तो खेलकूद और पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा दिलचस्पी न रखने वाले दिलीप को ये किसी झंझट से छुटकारा पाने जैसा लगना चाहिए था मगर ऐसा था नहीं. कंचना के मुताबिक उनका भाई किसी आम लड़के की तरह ही जीना चाहता था. उसे देर तक सोना और कैरम खेलकर वक्त बिताना अच्छा लगता था. कंचना ये भी बताती हैं कि पियानो की प्रैक्टिस के लिए सुबह सात बजे जगाए जाने पर दिलीप बहुत झुंझलाता था. मगर मां कस्तूरी को ज्योतिषियों की भविष्यवाणी पर विश्वास था और वो मंदिरों, मस्जिदों और चर्चो के दरवाजे पर दस्तक देती रहती थीं.
जब दिलीप 11 साल का हुआ तो एक रेलवे स्टेशन पर इस परिवार को सूफी पीर करीमुल्ला शाह कादरी मिले. करीमुल्ला ने दिलीप के पूरे जीवन को लेकर भविष्यवाणी की और कहा कि ये बालक 10 साल बाद फिर से उन्हें मिलने आएगा. कुछ समय पहले समाचार चैनल सीएनएन को दिए गए इंटरव्यू में रहमान भी ये बात मानते हुए कहते हैं, ‘वह एक निर्णायक मोड़ था. हर चीज वसे ही हुई जसी उन्होंने भविष्यवाणी की थी.’
अपने संगीत शिक्षक जॉन जैकब की जिद पर संगीत की पढ़ाई करने के लिए दिलीप ने ऑक्सफोर्ड के ट्रिनिटी कॉलेज में स्कॉलरशिप के लिए आवेदन किया. ये उनकी जिंदगी का बेहद अहम दौर था जिसमें उन्होंने पाश्चात्य संगीत की बारीकियों को समझ. 1987 में जब वह मात्र 21 साल का ही था, दिलीप, मां कस्तूरी और दो छोटी बहनों ने इस्लाम अपना लिया - कंचना ने ऐसा कुछ समय बाद किया था. ऐसा करने के पीछे वह सब कुछ था जो उसकी जिंदगी में अब तक हुआ था और जिसका उसके मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था. दो साल बाद दिलीप ने अपने घर के पिछवाड़े पंचतन रिकार्ड्स स्थापना की. इसका शिलान्यास करीमुल्ला शाह ने किया. अब तक दिलीप ने एड जिंगल्स बनाना शुरू कर दिया था. 1991 में मणिरत्नम ने इस नौजवान को अपनी फिल्म रोजा के संगीत का जिम्मा सौंपा. मणिरत्नम को दिलीप की प्रतिभा पर विश्वास तो था पर ये उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि ये प्रतिभा उनकी फिल्म के जरिए संगीत के तब तक के सारे कायदे-कानूनों को तोड़ने जा रही है.
इसी दौरान दिलीप को सात नए नामों की पेशकश की गई जिसमें से उन्होंने चुना, अल्लाह रक्खा रहमान, अल्लाह के 1000 नामों में से पहला. रोजा रिलीज हुई और जैसा कि पीर ने भविष्यवाणी की थी - इसई पुयल - एआर रहमान नाम के तूफान ने जन्म लिया. रहमान का आना किसी ज्वालामुखी के विस्फोट जैसा था जो यकायक हर चीज को बौना बना देता है. इतिहास हमें ऐसी प्रतिभाओं के बारे में बताता है जिन्होंने अलग-अलग दौर में जन्म लेकर इतिहास को ही बदलकर रख दिया. रहमान भी उन्हीं में से एक हैं. रोजा जैसा संगीत किसी ने भी पहले कभी नहीं सुना था. हर तरफ उनके नाम की चर्चा होने लगी और उसी साल उन्होंने इस फिल्म के संगीत के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीत लिया. ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी संगीतकार को अपनी पहली ही फिल्म के लिए ये पुरस्कार दिया गया हो. 2005 में टाइम मैगजीन ने जब 10 सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ फिल्म संगीत की सूची बनाई तो उनमें रोजा का नाम भी शामिल था.
रहमान के मित्र और गीतकार प्रसून जोशी कहते हैं, ‘रहमान एक बुनकर की तरह हैं. रोजा में उन्होंने ऐसी महीन और जटिल ध्वनियां रचीं जिन्हें रचने की कोशिश इससे पहले किसी ने नहीं की थी. भारतीय संगीत और फिल्म उद्योग हमेशा से असाधारण धुनों, गायकों, मुखड़ों और अंतरों पर निर्भर रहा है. मगर रहमान ने इस पारंपरिक ढांचे के साथ कई प्रयोग किए. उन्होंने धुन को आवाजों के कई रेशों के साथ गूंथ दिया. उन्होंने इस ढांचे में ऐसी जगहें पैदा की जहां आप एक-एक झंकार और एक-एक ताल को सुनकर उसका आनंद ले सकते हैं. उनका संगीत किसी नदी की तरह है जिसमें कई धाराएं हैं और आप कहीं पर भी डुबकी लगा सकते हैं. इससे पहले कभी भी ऐसी कोई चीज नहीं हुई थी.’
रोजा से लेकर आज तक करीब दो दशक बीत चुके हैं और संगीत की ये अनूठी धारा पहले जैसी ही निर्बाध बही जा रही है. निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा को रहमान 2000 साल पहले के उन चीनी यात्रियों की तरह लगते हैं जो दुनिया भर में घूमते थे और हर संस्कृति के प्रवाह और प्रभाव को महसूस करते थे. पाश्चात्य, भारतीय, लोक, हिपहॉप, रैप, रॉक, पॉप, जज, ऑपरा, सूफी, अफ्रीकी, अरबी ..ऐसा कोई संगीत नहीं है जिसे रहमान ने अपनी रचनाओं में न गूंथा हो.
किस्से कई हैं. हज के दौरान रहमान को एक आदमी दिखा जो मैय्या मैय्या (अरबी में पानी) चिल्लाता हुआ पानी बेच रहा था. उन्हें आवाज में कुछ लगा और मणिरत्नम की फिल्म गुरू में उन्होंने इसी शीर्षक से एक गाना कनाडाई गायक मरियम टोलर से गवाया जो काफी लोकप्रिय हुआ. इसी तरह चैनल वी टैलेंट हंट में जिस नरेश अय्यर नाम के गायक को अदनान सामी जैसे जजों ने दरकिनार कर दिया था उससे रहमान ने रंग दे बसंती का लोकप्रिय गीत रूबरू गवाया. मेहरा की अगली फिल्म दिल्ली 6 में उन्होंने एश किंग नाम के एक गायक को लंदन की गलियों से ढूंढ निकाला और हिंदी का एक शब्द न आने के बावजूद उससे दिल गिरा दफ्फतन गवाया तो सिर्फ इसलिए कि उसकी आवाज ही उन्हें इस गाने के लिए सबसे ज्यादा माकूल लगती थी. रहमान ने
सुखविंदर, मधुश्री विजय येसुदास जैसी अनगिनत आवाजों को मौका दिया है. मगर ऐसा उन्होंने किया केवल तब जब उनके पास ऐसा करने की वजहें थीं. यहां तक कि अपनी बहन कंचना (अब रेहाना) तक को गाने का मौका उन्होंने अपनी पहली फिल्म रोजा के 17 साल बाद शिवाजी में दिया. क्योंकि उससे पहले उन्हें ये लगा ही नहीं कि उनके किसी गाने के लिए रेहाना की आवाज उपयुक्त थी.
किस्से कई हैं. मगर जो बात कम ही लोग जानते हैं वह है अपनी अद्भुत प्रतिभा के बारे में रहमान की सोच. टाइम मैगजीन ने जिस मोजार्ट से उनकी तुलना की थी उस अत्यधिक प्रतिभाशाली मोजार्ट का अहम बहुत बड़ा था. लेकिन रहमान को जानने वाले बताते हैं कि अहम शायद उनके पास से होकर भी नहीं गुजरा है. कुछ मायने में वे पिछली सदी में हुए प्रतिभाशाली गणितज्ञ रामानुजम जैसे हैं जो कहते थे कि गणित की मुश्किल से मुश्किल पहेलियों के समाधान उन्हें देवी नामगिरी सुझती हैं और वह सिर्फ साधन मात्र हैं. रहमान भी मानते हैं कि वह सिर्फ एक जरिया हैं. जैसा कि निर्देशक शेखर कपूर कहते हैं, ‘रहमान नहीं मानते कि संगीत उनमें बसता है बल्कि उनका विश्वास है कि वे इसे चेतना के एक ऐसे क्षेत्र से ग्रहण करते हैं जो सनातन है. रहमान ये भी मानते हैं कि उस क्षेत्र तक पहुंचने के लिए आपको बहुत पवित्र होने की जरूरत होती है. मेरे हिसाब से जब तक वह स्वयं को माध्यममात्र मानते रहेंगे तब तक उनकी सीमाएं अनंत होंगी.’
पवित्रता की इसी जरूरत के चलते रहमान के लिए उनका जीवन किसी दोहरी यात्रा जैसा रहा है. एक तरफ इसका बाहरी पहलू था जिसमें उन्हें अपने हुनर को लगातार तराशना और नई तकनीक के इस्तेमाल में पारंगत होना था. दूसरी यात्रा स्वयं के भीतर की थी जिसमें उन्हें खुद को ईश्वर की इच्छा के आगे समर्पित और स्वयं की तुच्छता का अनुभव करना था.
इस यात्रा के केंद्र में दो व्यक्तित्व हैं. इनमें पहले हैं आरिफुल्ला मोहम्मद अल हुसैनी चिश्ती उल कादिरी, जिन्होंने अपने पिता करीमुल्ला शाह के देहावसान के बाद रहमान के आध्यात्मिक गुरू की जगह ली है. कादिरी को हजरत मोहम्मद का वंशज कहा जाता है और आंध्र प्रदेश के कड़प्पा शरीफ स्थित उनकी दरगाह तक जाना रहमान के लिए कभी तीर्थयात्रा जैसा रहा है और कभी शरण पाने के लिए की गई यात्रा जैसा. रहमान उन्हें मालिक बाबा कहते हैं. 2005 में स्थापित उनके एएम स्टूडियोज का नाम भी शायद उनके नाम के ही शुरुआती अक्षरों पर रखा गया है. हालांकि रहमान के कई करीबी सहयोगी भी इसकी पुष्टि नहीं कर सकते.
मगर हम देखते हैं कि मालिक बाबा की एक छोटी-सी तस्वीर स्टूडियो के प्रवेशद्वार की शोभा बढ़ा रही है. खिड़कियों और दीवारों पर कई जगह चंदन के गुटकों पर छपे हाथ के निशान बताते हैं कि रहमान एक धार्मिक व्यक्ति हैं. उनकी बहन रेहाना कहती हैं, ‘भाई अपनी ही दुनिया में रहने वाले आदमी हैं. अगर मैं उनसे एक घर मांगूं तो वे मुङो खरीद कर दे देंगे. अगर मैं एक स्टूडियो की फरमाइश करूं तो वो भी पूरी हो जाएगी. वे बस यही कहेंगे कि ले लो, पर मेरे वाले में मत घुसना.’
मेहरा कहते हैं, ‘मेरी जिंदगी में अब तक जो लोग आए हैं उनमें मुझे रहमान सबसे ज्यादा आध्यात्मिक लगते हैं. उनमें अहम नहीं है, बिल्कुल भी नहीं, उनमें मैं या मेरा जसी कोई बात नहीं है.’ पिछले 16 साल से रहमान के दोस्त और उनकी दुनियाभर में होने वालीं कंसर्ट्स में से अधिकांश की जिम्मेदारी संभालने वाले दीपक गट्टानी इससे सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘ये सच है. उन्होंने मुझे सिखाया कि हमारी आंखें जो देखती हैं जिंदगी उससे ज्यादा कुछ है. वे कभी भी किसी बात पर तत्काल प्रतिक्रिया नहीं देते.’ रहमान के साथ कई टुअर करने वाले गायक कैलाश खेर कहते हैं, ‘उन्हें ईश्वर ने भेजा है. कुदरत ने उनको बनाया है.’
वाकई रहमान एक अनोखे व्यक्तित्व हैं. एक दिन वे फॉक्स स्टूडियो के मालिकों के साथ लॉस एंजल्स में नजर आते हैं तो अगले ही दिन ऐसा भी हो सकता है कि वे फकीरों और दरवेशों के साथ किसी दरगाह पर बैठे हों. उनकी बहन बताती हैं, ‘उनकी आध्यात्मिकता को दूसरे नहीं समझ सकते. मैं उनके प्रति बहुत आदर की भावना रखती हूं. उन पर ऊपरवाले का हाथ है. उन्होंने खुद को उसके आगे समर्पित कर दिया है. उनका हर कदम, हर काम, हर विचार उसे समर्पित है.’
इस समर्पण के कई रूप हैं. मसलन सादगी से रहना, अक्सर दरगाहों पर जाना, गरीबों को उदारता से दान देना और जरूरत पड़े तो नंगे फर्श या रेत पर ही सो जाना. कभी-कभी समर्पण का ये तरीका लोगों को बेहद अतार्किक और अबूझ लगता है. उदाहरण के लिए जन्म के समय उनकी बेटी के दिल में छेद था मगर रहमान ने उसका आ¬परेशन करवाने से इनकार कर दिया. उनका मानना है कि भक्ति नियति को बदल सकती है इसलिए उन्होंने खुद को अपने पीर के हवाले कर दिया. इसे चमत्कार ही कहा जा सकता है कि दो साल की होते-होते बच्ची बिल्कुल ठीक हो गई.
रहमान की बहन मुस्कराते हुए कहती है, ‘ईश्वर हमेशा उसका ख्याल रखता है. इसे शब्दों में समझना बड़ा मुश्किल है. जो चीज लोगों को मांगनी पड़ती है वह रहमान को अपने आप ही मिल जाती है. जसे कि आप विदेश में हों और आपको बहुत भूख लगी हो, आपका कुछ गर्मागर्म खाने का मन हो. हम जैसे लोग ये सोचकर परेशान हो जाते हैं कि ठंड में बाहर जाना होगा, टैक्सी पकड़नी पड़ेगी, कायदे की जगह ढूंढनी पड़ेगी. मगर रहमान बस बैठे रहकर प्रार्थना करते रहेंगे और अचानक कोई उनके पास आकर पूछेगा, आप क्या खाना पसंद करेंगे, उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय?’
गट्टानी भी इस बात से सहमति जताते हुए कुछ समय पहले बंगलुरू में आयोजित एक म्यूजिक कंसर्ट का उदाहरण देते हैं. ये बहुत बड़ा कंसर्ट था और शहर के पैलेस ग्राउंड्स में करीब तीस हजार लोगों की भीड़ जमा थी. कार्यक्रम शुरू ही होने वाला था कि अचानक मूसलाधार बरसात शुरू हो गई. स्टेज क्षतिग्रस्त हो गया और कंपाउंड में पानी भर गया. रहमान ने आधे घंटे के लिए खुद को एक कमरे में बंद कर लिया. निकलने पर उन्होंने अपने साथियों से कहा कि वे जनता से पूछें कि वो क्या चाहती है. ये शो होना चाहिए या फिर इसे टाल दिया जाए. जवाब आया कि कंसर्ट होना चाहिए. कार्यक्रम शुरू हुआ और जसे ही रहमान ने ऑरकेस्ट्रा की तरफ पहला इशारा किया, बारिश रुक गई. मानो ये उसके लिए भी एक इशारा हो. फिर तो एक के बाद एक गाने बजते रहे. और जब रहमान आखिरी गाना वंदे मातरम खत्म कर रहे थे तो बारिश शुरू हो गई. गट्टानी कहते हैं, ‘मैं यह देखकर चकित रह गया.’
इसी तरह कई मौकों पर फैसला लेते वक्त रहमान ये कहते हुए एकांत में चले जाते हैं कि वे ‘इजाजत’ लेंगे. कुछ दिनों बाद वे हां या ना कहते हैं जो किसी दैवीय संपर्क पर निर्भर करता है. केएम कंजर्वेटरी इसका उदाहरण है. संगीत की ये पाठशाला उनका सपना थी जो वो कई सालों से देखते आ रहे थे. लंबे समय तक इस प्रोजेक्ट में सरकारी भागीदारी की चर्चा होती रही. आखिरकार रहमान ने कहा कि वे इस साङोदारी के लिए ‘इजाजत’ मांगेंगे. ये नहीं मिली और रहमान ने अपने बूते ही काम शुरू करने का फैसला किया. संगीत के प्रति जुनून और अथाह पैसे से बनी ये पाठशाला पिछले साल उनके जन्मदिन के मौके पर शुरू हुई.
मालिक बाबा उनके समर्पण का सबसे सजीव रूप हैं. रहमान मार्गदर्शन के लिए अक्सर उनकी तरफ मुड़ते हैं. आलोचकों को ये आस्था किसी बंधन जैसी लग सकती है मगर लगता है कि रहमान के लिए इसने अपना काम बखूबी किया है. सुपरस्टार आमिर खान कहते हैं, ‘हर कोई ये नहीं समझ सकता और हर किसी के लिए ये इस तरह से काम भी नहीं कर सकती. मगर रहमान एक बेहद आध्यात्मिक व्यक्तित्व हैं और ये दिलचस्प है कि आस्था के प्रति उनका संपूर्ण समर्पण उन्हें पूरी तरह से बंधनमुक्त कर देता है. उनकी आस्था उन्हें काम करने की आजादी देती है.’
रहमान के सफर में दूसरा सबसे अहम किरदार रही हैं उनकी मां कस्तूरी या करीमा बेगम. खेर कहते हैं, ‘उनका रिश्ता किसी भगवान और भक्त सरीखा है. वे उनकी इच्छा का पालन बिना कोई सवाल किए पूरी आस्था से करते हैं. अगर उन्होंने रहमान से कहा होता कि गोल्डन ग्लोब पुरस्कार के लिए लॉस एंजेल्स जाने की बजाय किसी फकीर की दरगाह पर जाओ तो मुझे यकीन है कि वे ऐसा ही करते.’
हम करीमा बेगम से उनके बेटे के बारे में पूछते हैं और वो कहती हैं, ‘वो दिन में पांच बार नमाज पढ़ता है. वह अल्लाह का तोहफा है.’ करीमा की बेटियां मजाक में उन्हें पुराने जमाने की महिला कहती हैं. उनकी बातों से कभी-कभी उस उपेक्षा की मीठी सी शिकायत भी मिलती है जो प्रतिभाशाली पुत्र के होने पर परंपरागत परिवारों में लड़कियों को झेलनी होती है. वे मजाक में कहती भी हैं, ‘हम तो बस होने के लिए वहां थे.’
अवार्ड के बाद ये चौथा दिन है. वक्त आधी रात का है. संगीत का जादूगर घर पहुंचता है. बाहर इंतजार करते हुए पत्रकारों का भारी जमावड़ा है. हवा में अगरबत्तियों की भीनी खुशबू घुली हुई है. उनके स्वागत कक्ष की खिड़कियों पर सफेद परदे लगे हैं और दीवारों पर कालीन. इस तरह की सजावट रहमान के घर, स्टूडियो, कंजर्वेटरी, सब जगह देखने को मिलती है.
‘पंचतन रिकॉर्ड इन’ रहमान का निजी स्टूडियो है. ये एक तरह से उनका साधना कक्ष भी है. लाल और सफेद रंग के परदों से सजे इस हॉल में वाद्ययंत्र और हाइटेक उपकरण कुछ वैसे ही बिखरे दिखते हैं जैसे किसी पढ़ाकू बच्चे के कमरे में किताबें.
जब तक हमारी मुलाकात होती है तब तक वक्त काफी हो चुका है. एक पत्रकार होने के नाते मुझे एक निश्चित समय सीमा के भीतर स्टोरी खत्म करके देनी है. मैं जल्दी में हूं क्योंकि समय कम है और मेरा दुर्भाग्य देखिए रहमान लंबी बातचीत के लिए तैयार हैं. रहमान से थोड़ी-सी बातचीत में ही मुझे अहसास हो जाता है कि उनके बारे में जो कुछ भी सुना या पढ़ा था उसके सहारे उनसे बात करने की तैयारी करना बेकार गया है. वे किसी किशोर जैसे हैं - ऊर्जा से भरपूर, चुलबुले और खुले स्वभाव के. मैंने जो कुछ भी उनके बारे में सुना या पढ़ा था उससे लगता था कि वे कम बोलते होंगे. पर यहां तो रहमान न सिर्फ हर चीज के बारे में बात करने के लिए तैयार थे बल्कि कई बार लग रहा था कि वे मजाकिया मूड में भी हैं.
हम दोबारा उनकी जिंदगी के सफर पर निकलते हैं और पाते हैं कि ये संगीत, प्रार्थना या सीधे-सादे समर्पण से कहीं ज्यादा जटिल है. वे कहते हैं, ‘मैंने रातों-रात इस्लाम नहीं अपनाया न ही किसी ने मुझे इसके लिए मजबूर किया. ये बहुत लंबी प्रक्रिया थी. मुझे सूफियों को देखकर काफी जिज्ञासा होती थी इसलिए मैंने बहुत गहराई से सूफीवाद का अध्ययन किया. इसके लिए मैंने रोज तीन घंटे खर्च कर अरबी भाषा सीखी. सूफीवाद में न कोई बंधन है, न कोई नियम, न हिंदू-मुसलमान के बीच भेदभाव. सूफी सीधे आपके दिल में झंकते हैं और देख लेते हैं कि आप के दिल में औलिया यानी हजरत के नूर के लिए कितनी मुहब्बत है. इसलिए मेरा झुकाव इसकी तरफ हुआ.’
समर्पण का भी संगीत के साथ एक जटिल संबंध है. रहमान कहते हैं, ‘जब आप किसी रचनात्मक क्षेत्र में होते हैं खासतौर से फिल्म या संगीत के तो आप अक्सर अच्छे और बुरे के बीच झूलते रहते हैं. कभी वक्त अच्छा होता है तो कभी खराब. तो ऐसे में संतुलित रहने के लिए आपको सारी चीजों से अलग होकर खुद को पूरी तरह से संगीत के सहारे छोड़ देना होता है. इसके लिए अहं का खत्म होना जरूरी है. मगर फिर दिक्कत ये है कि अगर आपके पास ऐसा अहम नहीं है जो आपकी मर्जी के मुताबिक खत्म और पैदा हो सके तो आप संगीत नहीं रच सकते. आप कुछ असाधारण नहीं कर सकते. आपको अपने द्वारा स्थापित मानकों से आगे जाने की सोच भी रखनी होती है. इसलिए अहम अच्छा भी होता है और बुरा भी. संगीत जैसी चीज आपको पैसा, प्रसिद्धि, औरत जसी चीजों की तरफ भी खींचती है. लंबे समय तक ये चीजें कई तरह से मुझे अपनी तरफ खींचती रहीं — छोड़ने और हासिल करने की इस इच्छा में संतुलन साधना नामुमकिन सा काम है. मगर आखिरकार अब मुझे महसूस होता है कि मैं इन दोनों इच्छाओं के साथ संतुलन साधकर चल रहा हूं’
पिछले दो दशकों में कई बार ऐसा वक्त आया जब रहमान को लगा कि उनमें जड़ता आ रही है, उनका संगीत एकरस हो रहा है, करने के लिए कुछ नया नहीं बचा और अब उन्हें ये काम छोड़ देना चाहिए. मुस्कराते हुए रहमान बताते हैं कि जब भी वे ऐसा सोचते थे कुछ ऐसा हो जाता था कि उन्हें नए क्षितिज दिख जाते थे. जब उन्हें रोजा का ऑफर मिला तो उस वक्त तक वे जिंगल्स और मलयालम, तेलुगु और तमिल संगीतकारों के साथ रिकार्डिंग्स करते हुए बुरी तरह से ऊब चुके थे. रहमान कहते हैं, ‘मैं मणिरत्नम का बहुत आदर करता था और उनके साथ काम करना मेरा सपना था. मैंने सोचा कि ये मेरा आखिरी साउंडट्रैक होगा इसलिए मैंने जो मन में आया कर दिया. मैं इसका आनंद लेना चाहता था. मेरे मन में कोई सीमाएं नहीं थीं. उन दिनों युवा पाश्चात्य संगीत सुन रहे थे. यहां तक कि मैं भी. इसलिए मैंने सोचा कि आखिर समस्या क्या है? क्या हम पर्याप्त प्रयोग नहीं कर रहे? और मैंने खुद को बंधनमुक्त छोड़ दिया.’
रोजा का संगीत सबके दिलोदिमाग पर छा गया. मगर दो-एक साल बाद ही रहमान को फिर से गतिहीनता का अहसास होने लगा. वे कहते हैं, ‘मैंने सोचा, हो गया, मैंने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीत लिया है. अब मैं अपने स्टूडियो से होने वाली कमाई से आराम से जिंदगी गुजार सकता हूं.’ मगर इसके बाद हिंदी फिल्म जगत में काम करने का आकर्षण और उसकी चुनौतियां उनके सामने आ गईं. पहले रंगीला आई और फिर दूसरी कई हिट फिल्में. और जब यहां पर भी जड़ता का आभास होने लगा तो एलिजाबेथ, बांबे ड्रीम्ज और लॉर्ड ऑफ द रिंग के रूप में उनके क्षितिज का फिर से विस्तार हो गया. जब तक यहां ऊब पैदा होना शुरू हुई तब तक के एम कंजर्वेटरी और गरीबी के खिलाफ रहमान्स फाउंडेशन का विचार पैदा हो चुका था. रहमान मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘इन सब घटनाक्रमों के साथ मुझे सब कुछ छोड़-छाड़कर चल देने के विचार के साथ कम संघर्ष करना पड़ता है. मैंने जिंदगी के नए मायने और जीवन के नए कर्तव्य पा लिए हैं. मैं ये बात सिर्फ अपने नए प्रोजेक्ट्स के नहीं बल्कि अपने परिवार और अपने संगीत के संदर्भ में भी कह रहा हूं. अब मैं संगीत सिर्फ प्रेम और मानवता की सेवा के तौर पर देखता हूं. अब मेरे लिए संगीत के मायने हैं जीवन के आनंद को सारे इंसानों के साथ बांटना.
रहमान के परिवार-उनकी पत्नी सायरा बानो, बेटियां कथीजा और रहीमा और बेटा रुमी — को दुर्लभता से ही उनके साथ सार्वजनिक जगहों पर देखा जाता है. रहमान कहते हैं, ‘मैं सोच रहा हूं कि अब उन्हें और भी ज्यादा मौकों पर अपने साथ ले जाऊं. चाहे वो मेरा स्टूडियो हो या विदेशी दौरा या फिर मेरी आध्यात्मिक यात्राएं. मैं नहीं चाहता कि वे मुझसे अलग महसूस करें. मेरे पिता का हम पर इतना ज्यादा असर इसलिए पड़ा क्योंकि हम हमेशा उनके साथ होते थे. उनके बिना हमारी जिंदगी में संगीत जैसी कोई चीज नहीं होती.’
जैसा कि रहमान के साथ ही हो सकता है, पश्चिम के संगीत जगत में उनके आगमन के सफलता और पुरस्कारों से कहीं ज्यादा गहरे मायने हैं. रहमान कहते हैं, ‘पहले राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के बाद मेरे लिए सबसे अहम उपलब्धि गोल्डन ग्लोब पुरस्कार ही है क्योंकि मैं पूरब और पश्चिम के बीच के फर्क को खत्म करना चाहता था. मैं उस तथ्य को बदलना चाहता था कि किसी भारतीय ने ये अंतर्राष्ट्रीय फिल्म और संगीत पुरस्कार नहीं जीते हैं. ’
पश्चिमी जगत के अनुभव ने रहमान की चेतना का विस्तार किया है. वे कहते हैं, ‘जब मैं बांबे ड्रीम्ज के सिलसिले में पहली बार लंदन गया था तो मैं अपने ही कमरे में बंद, किसी से मिले-जुले बगैर संगीत बनाता रहता था. मैं पांच बार नमाज पढ़ता था और कोशिश करता था कि रोजे रखूं. मेरे चारों ओर पब थे और नशे में धुत लड़के मेरी खिड़कियों पर पेशाब कर देते थे. हर बार जब मैं घर से बाहर जाता था तो वापस आकर नहाता था. धीरे-धीरे मुझे महसूस हुआ कि प्रेम भरी दृष्टि इन सभी समस्याओं को हल कर सकती है. आपको एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत होती है, एक ऐसी नजर जो पूरब और पश्चिम, मुसलमान और गैरमुसलमान जसी चीजों के पार देख सके.’
रहमान का संगीत इन्हीं खाइयों को जोड़ने वाला पुल है. कड़ी व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा और होड़ के इस दौर में जहां शिखर तक पहुंचने और फिर अचानक गुमनामी में खो जाने में ज्यादा वक्त नहीं लगता, चीजों की असली योग्यता पहचानना मुश्किल काम हो गया है. सवाल उठता है कि क्या रहमान हमारे वक्त के मोजार्ट हैं? हम कह नहीं सकते. मगर ये निश्चित है कि उनका संगीत, ज्ञात और उस विराट अज्ञात के बीच के अंतर को पाटता है जिससे धरती की सुंदरता जन्म लेती है.
रहमान के घर से एक ब्लॉक दूर समाज और जीवन के प्रति कर्तव्य का उनका ये अहसास एक नई पीढ़ी की जिंदगी में रोशनी ला रहा है. पोंगल वाले दिन हमें एएम स्टूडियो के फस्र्टफ्लोर पर कुछ लड़के-लड़कियां मिलते हैं. ये लोग रहमान के ड्रीम प्रोजेक्ट यानी संगीत विद्यालय केएम कंजर्वेटरी के छात्र हैं. इनमें भी रहमान के संगीत जितनी ही विविधताएं है. मिसाल के तौर पर 16 साल का अनुराग पढ़ाई छोड़कर दिल्ली से चेन्नई आ गया है और यहां अपनी मां के साथ किराए के एक कमरे में रह रहा है. हैदराबाद की अंग्रेजी से पोस्टग्रेजुएट और 23 वर्षीय आश्रिता अरोक्यम संगीत की स्कॉलरशिप के लिए विदेश जाने की जद्दोजहद में थीं तभी उन्हें देश में ही ये अवसर मिल गया. 32 साल के सौरव सेन कोलकाता में कंप्यूटर इंजीनियर थे. फाउंडेशनल कोर्स के लिए चुने गए 40 छात्रों — चयन से पहले हरेक को ऑडिशन देना होता है - में से तीन तो रहमान के साथ अप्रेंटिशिप भी करने लगे हैं. अनुराग कहते हैं, ‘हम हर हफ्ते एक कंसर्ट का आयोजन करते हैं. जब भी रहमान सर यहां आते हैं वे भी इसमें हिस्सा लेते हैं.’
इससे पहले कि यहां भी जड़ता का आभास होने लगे, एक नया मुकाम रहमान का इंतजार कर रहा है - ये है पहला भारतीय सिंफनिक ऑरकेस्ट्रा तैयार करना. रहमान कहते हैं, ‘हम एक अरब से ज्यादा आबादी वाला देश हैं जहां प्रतिभाओं की भरमार है. तो भारत का अपना एक भी ऑरकेस्ट्रा क्यों नहीं है?’ केएम कंजर्वेटरी ये सपना पूरा कर सकती है. और प्यार व मेहनत से इसे सींच रहे रहमान इन छात्रों को देखकर शायद उन दुश्वारियों की टीस भूल सकते हैं जो उन्हें अपने बचपन में ङोलनी पड़ीं थीं.
(यह आलेख रहमान को ऑस्कर और ब्रिटिश फिल्म अकादमी (बाफ्टा) में सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार मिलने से पहले लिखा गया है.)

ऐ गमे दिल क्या करूं


बाजार में अब क्या क्या बिकना बचा है। मामला निजता की नीलामी तक जा पहुंचा है। आज से पंद्रह साल पहले हम ग्लोबलाइजेशन और बाजारीकरण के नफे नुकसान के सेमिनारों में हिस्सा लिया करता थे। राम पुनियानी से लेकर कश्यप जी जैसे बड़े बडे धुरंधरों के लेक्चर सुना करते थे। मार्क्स को समझने का सिलसिला शुरु ही हुआ था। लेकिन तब खतरा इतना बड़ा नहीं लगता था। शायद छोटे शहर ने भी इस डर से काफी हद तक महफूज रखा। लेकिन अब ये डर जिंदगी में घुसने लगा है। जिस पेशे में हूं उस पर बाजार हावी हो रहा है। काम करने की स्पेस कम होती जा रही है। सेक्स सर्वे हो रहे हैं और जंगल के बाथ सीन टीवी पर धड़ल्ले से चल रहे हैं। पॉलिटिक्स की खबरें बिकती कम हैं सो छोटे पर्दे से गायब हो रही हैं। बाजार ने सिस्टम का चौथा खंभा कमजोर करना शुरु कर दिया है। लिखने पढ़ने वालों के लिए अब ज्यादा स्पेस नहीं बची है। आपको ना कोई सुनने वाला है ना समझने की फुरसत ही किसी के पास है। आप कुढ़ते रहिए अपनी नॉलेज अपने पास रखिए लोगों को इसकी जरुरत नहीं है। ये संकट है या फिर एक दौर। मुझे नहीं लगता कि ये दौर है ये संकट की शुरुआत है। बाजार हमेशा नए के डिमांड और सप्लाई के सिद्धांत पर चलता है और ऐसे में अभी तो डिमांड की शुरुआत हुई है। आगे क्या क्या डिमांड होती है, देखते जाइए। सरकार न्यूज कटेंट को लेकर बेफिक्र है और हो भी क्यों ना। जो चैनल कल तक सरकार की नींद हराम करने का बूता रखते थे। उनकी ब्रेकिंग और एक्सक्लूसिव का कोई फर्क लोगों पर अब नहीं पड़ता। यही वजह है कि कपिल सिब्बल तक आसानी से कह जाते हैं छापते रहिए दिखाते रहिए हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन न्यूज चैनल के मालिक इस जलालत पर भी खामोश हैं। फिलहाल पुराना वक्त फिर से सामने है पूंजीवाद और बाजारीकरण के खिलाफ नारे कान में गूंज रहे हैं।

शनिवार, 8 अगस्त 2009

मीडिया की दलाली और प्रभात जी का पैगाम

प्रभात रंजन
क्योंकि ये अच्छी तरह जानते हैं कि इन्होने क्या गुनाह किया है।सैकड़ो-हजारों बार सुने हुए से अल्फाज...मीडिया और मीडिया के नाम पर थोथे,बेकार से शब्द...बाजार उपभोक्तावाद न्यूज रूम की मजबूरियां...हाय री सिर होने की दुश्वारियां...हाय री दुश्वारियों में फंसे दोस्तों की फरमाबर्दारियां...यहीं वो जगह है जहां कत्ल हुए थे तुम...ज्यादा पुरानी बात नहीं...और तब तुम्हारे गर्म उबलते खुन ने जमीन से कुछ वादे किए थे...लेकिन जंगल की हरियाली में तुम्हारी आत्मा ऐयाश हो गई...तुम देखते रहे...ताश की गड्डी मे से निकल कर एक जोकर सिंहासन पर जा बैठा...हैरान परेशान राजा मंत्री - यहां तक कि रानी भी...और तुम हुक्म बजा लाने के सामां हो गए...हैरत की बात नहीं दोस्त...भूख हर तहजीब को खा जाती है...खासकर के वो तहजीब जो तुमने किसी और से उधार ली हो...और जिस पर जमा ली हो तुमने अपनी दुकान...खैर जाने दो दोस्त...ठीक इसी नुक्ते पर कोई भी पालतू होने को मजबूर होता है... मैं जानता हूं मेरे भाई कि तुम्हारी आत्मा का भी एक चोर दरवाजा है जो संडास के पीछे खुलता है...लेकिन मैं क्या करूं...मैं आज भी व्याकरण की नाक पर रूमाल रखके...निष्ठा का तुक विष्ठा से नहीं मिला सकता...शायद इसीलिए जहां हूं, मेरी जगह वही हैं...मैं मानता हू कि मैने भी गलत किया...इस बंद कमरे को जहाजी बेडो का बंदरगाह समझके...इस अकाल बेला में...लेकिन क्या सचमुच तुम्हारी आत्मा का कोई भी अंश जीवित नहीं...हालाकि जीवित हो तुम...बावजूद इसके कि सब कुछ मर सा गया है...लिया बहुत कुछ दिया कुछ भी नहीं...फिर भी तुम जीवित हो...लेकिन मेरे दोस्त...जीने के पीछे अगर तर्क नहीं है...तो रंडियों की दलाली करने...और रामनामी बेच के जीने में...कोई फर्क नहीं है...दुख तो यही है कि तुम्हे तर्क की जरूरत नहीं...बावजूद इसके कि तुम्हारी पूरी जिन्दगी एक घटिया फिल्म के इंटरवल तक पहूंच चुकी है...तुम बडे मजे से अपने बच्चे के साथ पॉपकार्न चबा रहे हो...और संतुष्ट हो...जब कि तुम्हारे एक इंकार की जरूरत है...जबकि तुम्हारे एक विरोध से नए रास्ते निकल सकते हैं...कुछ और हो या ना हो...रथ पर खडे एक शिखंडी की मौत हो सकती है...यकीन करो दोस्त उसका हिजडापन पूरी पीढी के लिए एक बडी चुनौती है...लेकिन इन सबसे संज्ञान...तुम बह्मराक्षस बने हुए हो...क्योंकि तुम्हे लगता है...सूरज तुम्हें शीश झुकाने को निकलता है...और चांद तुम्हारी संध्या आरती के लिए...तुम खबरों में झूठी सार्थकता तलाशने का दंभ भरते हो...एक चोट खाये स्वाभिमान को चाटते...अपनी काबिलियत का स्वांग भरते हो...ठीक उस वक्त जब एक हिजडा अपनी नामरदी का डंका पीट रहा होता है...तुम चुप रहते हो...सच तो ये है कि तुम भी अपराधियों के संयुक्त दल के हिस्से हो... सच तो ये है कि...खैर आवाज देने से भी कुछ फायदा नहीं...उसने हर दरवाजा खटखटाया है...जिसकी भी पूंछ उठाई...उसे मादा पाया है...ये हमारे दौर की खूबसूरती है...तुम्हे सबकुछ बर्दाश्त है...क्योंकि तुम्हारी जरूरत अदद बीबी बच्चे और मकान है...इसके बाद जो कुछ भी है...बकवास है...फिर ये विधवा विलाप क्यों...कल जब पचासों सिर कलम कर दिए गए, और तुम तमाशा देखते रहे...हाथ कट गए और तुम सिर बने,बाल नोचते रहे...जब कुछ बेहद ईमानदार लोग तबाह हो गए...किस अदा से तुम जहांपनाह हो गए...सवाल तीखे हैं...मगर बेखबर से तुम...ड्रामेटिक अंदाज में मीडिया की मौजूदा मजबूरियों पर बहस करना चाहते हो...सेमिनार के बहाने...अपने बचे रहने की दलील देना चाहते हो...लेकिन तुम नही जानते दोस्त...बेमतलब शब्दों के सहारे ये मोर्चा हम हार जायेंगे...तुम नहीं जानते दोस्त, हिजडापन एक संक्रामक बिमारी है...जो हमले के लिए हमारे ठीक पीछे खडी है...और खबरों पर होने वाली किसी भी बहस से ज्यादा जरूरी है...इंसानी हक में खडा होना...(जो हमारे पेशे की टैग लाईन भी है)...दोस्त मेरे, पेट से अलग ,पीठ में एक रीढ की हड्डी होती है...तुम्हे याद दिला दूं...जो जीने की सबसे अनिवार्य शर्त होती है।

रविवार, 2 अगस्त 2009

पुलिस और चोर में चोर कौन

(सवाल फेसबुक पर उठा और सवाल पर सवाल खड़े होते चले गए। सवाल कई थे पहला क्या बच्चों में आज भी पुलिस में जाने का कोई क्रेज बचा है और अगर नहीं तो क्यों। दरअसल ब्रिटिश मानसिकता में जीती आई पुलिस आजादी के साठ सालों में लाठी भांजने की मानसिकता से उबर नहीं पाई। मैं तो ये भी कहूंगा की उबारने की कोशिश ही नहीं की गई। ये बहस की शुरुआत है अच्छा होगा की बहस पुलिस सुधार की कोशिशों के पड़ताल को लेकर आगे बढ़े। )

अतुल राय
तो क्या आज के बच्चे चोर सिपाही के खेल में चोर बनना पसंद करते हैं ? शायद नहीं, मेरा मतलब है मैं तो बिल्कुल नहीं। आज भी बच्चे उसी जोश के साथ सिपाही बनने में रुचि रखते हैं। मेरे ख्याल से आज की पुलिस, उसके कामकाज और व्यवहार पहले से ज्यादा अच्छे और स्वीकार्य हैं। आज शायद हमें उनकी इतनी गलतियां इसलिए भी दिखाई दे रही हैं क्योंकि अब वो हमारे सामने मीडिया के माध्यम से आ रही हैं। जबकि होता तो पहले भी ऐसा ही था/ रहा होगा । आज की पुलिस पहले से ज्यादा जबाबदेह है और पहले से ज्यादा जनता के दबाव में है । हमें इस बात पर रोने के बजाय, कि पुलिस का कितना पतन हो गया है, खुश होना चाहिए कि उनकी हर ज्यादती और जुल्म से हम परिचित हो जा रहे हैं और कोर्ट तक उनको घसीटकर ले जा पा रहे हैं। आज छोटी से छोटी घटना पर पुलिसवालों को तुरंत लाइन हाजिर कर दिया जा रहा है। बड़ी वारदातों में तो निलंबन और बर्खास्तगी जैसी सजा मिल जा रही है । जांच कराई जा रही है और ज्यादातर मामलों में गलती मिलने पर सजा भी हो रही है। एसे बहुत से मामले हमलोगों को मालूम हैं। आजादी के बाद से लेकर अबतक, शुरुआत के 45 साल और बाद के 27 साल की अगर तुलना की जाए, तो बाद के 27 साल में ज्यादा (बल्कि बहुत ज्यादा) पुलिसवालों को सजा मिली है ( इस बारे में मेरे पास फिलहाल तो कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है लेकिन मेरा ख्याल है कि सच्चाई कुछ ऐसी है )। मैं आज भी अगर चोर सिपाही का खेल खेलूं, तो सिपाही बनने का उतना ही फक्र होगा...जितना बचपन में था।
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सुबोध
सवाल था कि पुलिस को लेकर बचपन से अब तक हमारी सोच कितनी बदली है। दरअसल ये सवाल इसलिए उठाया गया क्योंकि मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन्होने पुलिस की ज्यादती सही है उसकी गालियां खाईं है और कई दिनों तक पैसे के लिए पुलिस वालों ने उन्हें परेशान किया है। 'मित्र पुलिस' से लेकर 'क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूं' तक कि तख्तियां थानों पर लटकाई गईं, लेकिन थाने के अंदर पुलिस का रवैया नहीं बदला। हां ये सही है कि पुलिस एक संस्था है और उसके वजूद पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। लेकिन ये भी सच है कि आम आदमी से पुलिस की दूरी हमेशा से बनी रही। आम आदमी आज भी पुलिस के चक्कर में पड़ना नहीं चाहता। क्या ये सही नहीं है कि बच्चों ने चोर सिपाही का खेल खेलना बंद कर दिया है, बच्चे भी जानने लगे हैं कि चोरी तो गलत है ही और पुलिस बनकर गालियों को अपनी बोली में शुमार करना और भी गलत है। दरअसल सवाल कई हैं देहरादून में पिछले दिनों जिस तरीके का फर्जी एनकाउंटर हुआ आप उसे कैसे जायज ठहराएंगे, किसी निर्दोष को मारने के एवज में पुलिस वालों को वो सजा क्यों नहीं मिलती जो किसी दूसरे गुनहगार को मिलती है। लेकिन हर किसी का नजरिया अलग होता है, अतुल भाई का नजरिया भी अलग है। उनकी बातों में दम है। लेकिन सवाल पुलिस के चरित्र को लेकर है और उसे लेकर ज्यादातर लोग क्या सोचते हैं आपको मालूम है।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

फरमानों का हाईटाइड


तालिबानी कहें या तुकलकी...शब्द कम पड़ जाएंगे। पानी पी पी कर कोसेगें तो थक जाएंगे। गोत्र के चक्कर में उलझे तो यकीन मानिये सर घूम जाएगा लेकिन समझना मुमकिन नहीं हो पाएगा। फिर भी सवाल यही है कि आखिर गोत्र के नाम पर किसी का कत्ल कैसे किया जा सकता है। मसला वोट बैंक का है सो पंचायतों के इन फरमानों पर हरियाणा सरकार भी खामोश है। सवाल उठता है की खापों को किसी की हत्या का आदेश देने से लेकर किसी को गांव छोड़ने के आदेश सुनाने का अधिकार किसने दिया। क्या उस परम्परा ने जो अभी भी आदिम युग की है या फिर उस जिद ने जो अभी भी एक घटिया परम्परा को बचाए रखने पर तूली है। दरअसल हरियाणा में खापों की ये परम्परा हर्षवर्धन के वक्त की बताई जाती है। उस वक्त समाज गुटों और कबीलों में बंटा हुआ था और समाज खुद में एक तंत्र की तरह काम करता था। विवाद से लेकर तमाम मसले समाज के अंदर के प्रभावशाली लोग निपटाते थे। वक्त के साथ प्रभावशाली लोगों का गुट खाप के नाम से पुकारा जाने लगा। अब इन खापों का काम गोत्र और गांव के महत्वपूर्ण फैसले निपटाने का हो गया है। कई मसलों पर तमाम खापें मिलकर सामूहिक पंचायत बुलातीं हैं और और फैसला करतीं हैं। इतिहास में खापों ने कई ऐसे फैसले भी लिए हैं जो अभी भी याद किए जाते हैं। इन खापों ने अलाउद्दीन खिलजी, औरंगजेब से लेकर तैमूरलंग के गलत फैसलों तक का विरोध किया है। लेकिन आज के खाप ये भूल गए कि अब पानी काफी बह चुका है। अब सरकारें हैं, कानून है और बहुत से कायदे हैं जिनका काम फैसले लेना या सजा सुनाना है। समझना ये भी जरुरी है जब देश की तमाम रियासते खत्म हो गईं तो खापों की पुरानी दुकानदारी कैसे कायम रह सकती है। अब ये जाट समुदाय को तय करना होगा कि खापों की पुरानी सोच को आगे बढाएं या फिर खापों को आधुनिक सोच की ओर ले जाएं।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

भगवान इन टीवी के प्रलय से बचाओ


भगवान तू कहां है। तू कहता है कि जब जब हम पर संकट आता है तू कोई ना कोई रूप धर कर संकट से उबारने आ जाता है। भगवान एक रियल संकट घर में घुस आया है। हमारे प्राण रोज संकट में होते हैं प्रभु। ऐसा शायद ही कोई दिन होता होगा जब मौत हमारे पीछे ना पड़ती हो। सब कुछ मौत के साथ जुड़ा लगता है। मौत का खाना. मौत की दाल। भगवन आपने हमें जिंदगी दी, और ये न्यूज चैनल वाले हमारी जान के पीछे पड़ गए हैं। कई बार लगा की आज ही प्रलय आ जाएगा। लेकिन वो हमारा लक था जो हम बच गए। एक भयानक किस्म का सनसनीखेज बाबा आकर बकायदा डरा भी गया था। अपने टकलेपन के ओज से ओतप्रोत वो बार बार हमारी राशि पर आने वाले तमाम संकट के बारे में भी बहुत कुछ सुना गया। लगता तो यही है प्रभु ये टकला हमारी जान के पीछे पड़ गया है। अब जबकि सूर्य ग्रहण के तमाम प्रकोप से भी तुम बचा चुके हो, उसी तरह हमें इन टीवी वालों से बचा लो। भगवन ये टीवी वाले हमें नहीं छोड़ेंगे, देखना सूरज के ग्रहण को जबरन हमारी जिंदगी में कलह फैलाने के लिए घुसा देंगे। भगवान कुछ ऐसा करो कि टीवी पर प्रलय आना बंद हो जाए, हमारी जिंदगी में इसके सिवा कोई प्रलय नहीं है।

शनिवार, 18 जुलाई 2009

सच का सामना


टीवी चैनल पर मनोरंजन का जायका बदल रहा है। सास बहू और कॉमेडी के दौर से चैनल रियलिटी के मैदान में आ चुके हैं। अब रियल और रियल होने जा रहा है। सामना सच से है और निशाना टीआरपी है। दरअसल आश्चर्य ने हमेशा इंसान को नई खोज के लिए प्रेरित किया, और जब ये प्रेरणा आश्चर्य के रहस्योघाटन तक पहुंची तो साइंस के दायरे में आ गई, सच खोजने का यही तरीका इंसान को पहले से बड़ा इंसान बनाता रहा। लेकिन उलझनें फिर भी बनी रहीं। पाप पुण्य से लेकर सच और झूठ की दुनिया में मनुष्य का भटकाव जारी रहा। सच की खोज में लाखों साधु हो गए तो हजारों पागल हो गए, लेकिन पूरा सच किसी के हाथ नहीं लगा। आखिर मान लिया गया कि सच ही भगवान है सच ही खुदा है। बावजूद इसके सच खुलासों की मांग करता रहा। लेकिन अब सच का सामना टीवी पर हो रहा है। शो में पूछे जाने वाले सवाल निहायत व्यक्तिगत हैं। एक करोड़ के लिए बोला जाने वाला सच बेशकिमती रिश्तों पर भारी पड़ रहा है। एक करोड़ में सच बाजार में खड़ा है। और इस बाजार में निजता की कीमत तय की जा चुकी है। दरअसल जिंदगी झूठ और सच के तजुर्बों से मिलजुल कर बनती है। सच अगर चीनी है तो झूठ नमक। फिर भी यही कहूंगा कि सत्य की खोज जारी रहनी चाहिए। गांधी के सत्य के प्रयोग उनके साथ भले खत्म हो गए हों। लेकिन ये प्रयोग आम लोगों की जिंदगी में जारी रहते तो सच आज कुछ और होता।

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

पत्थर की माया


मायावती समय का पहिया घुमाना चाहती हैं। वो दलितों के अंदर वही दंभ देखना चाहती हैं जिससे कुछ जातियां लंबे समय से ग्रसित रही हैं। लेकिन ये उपचार नहीं बल्कि मर्ज को बनाए रखने का तरीका है। मायावती राजनीति में चली तो आईं, लेकिन राजनीति को उन्होने हमेशा शतरंज की तरह खेला, उनके लिए उन्हें छोड़कर सब मोहरें हैं, जब कोई मोहरा अपनी चाल चलने की कोशिश करता है तो मायावती उसका खेल से बाहर कर देती हैं। दरअसल राजनीति के अक्स में देखें तो मायावती की राजनीति में खोट ज्यादा है समझदारी कम । मायावती दलितों के उत्थान की बात करती हैं (चाहती हैं या नहीं ये वो जानें ) लेकिन जब राहुल गांधी किसी दलित के यहां रात बीताते हैं तो वो उसे नौटंकी बताती हैं, यही नहीं दलितों को इस बात से बरगलाना भी नहीं भूलतीं की राहुल दिल्ली लौटकर साबुन से अपने हाथ साफ करते हैं। अगर मायावती को लगता है कि सिर्फ वो ही दलितों और पिछड़ों की हिमायती हैं तो उन्होने कभी किसी दलित के यहां रुकने या उसके सुखदुख में शरीक होने की कोशिश क्यों नहीं की। मायावती जानती हैं कि उनकी राजनीति तभी तक है जब तक समाज में जाति की लकीर कायम है इसलिए मायावती जाति के भरते जख्मों को बार बार कुदेरती हैं, वो बार बार दलितों और पिछड़ों को समाज से मिलीं पुरानी तकलीफें याद कराती हैं। मायावती भले दूसरों पर जातिवादी होने का आरोप जड़ें लेकिन सच तो ये है कि वो खुद जाति का भेद खत्म करना नहीं चाहतीं। रीता जोशी बहुगुणा के भाषण पर उत्तेजित होना स्वाभाविक है, लेकिन इस सवाल से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि मायावती के राज में दलित महिलाओं पर लगातार अत्याचार बढ़े हैं। लेकिन मायावती की सोच से ऐसे असल मुद्दे सिरे से गायब हैं। फिलहाल वो अभी अपनी मूर्तियां लगाने में व्यस्त हैं। मायावती की आस्था भले पूजा पाठ में ना हो, लेकिन वो अब खुद की पूजा करवाना चाहती हैं, वो एक ऐसी देवी बनाना चाहती हैं जिसकी मूर्ति के अपमान पर समाज में आग लग जाए, वो खुद को आस्था की ऐसी मूरत के रुप में स्थापित करने की जल्दबाजी में है जिनके अपमान की हिमाकत करने वाला दलित विरोधी करार दे दिया जाए । मायावती भले अपने बुत पर इतराती फिरें लेकिन उन्हें ये मालूम होना चाहिए कि सद्दाम के बुत तक जमींदोज़ किए जा चुके हैं । मायावती को जैसा मौका मिला है, राजनीति ऐसे मौके बहुत कम लोगों को देती है खासकर समाज के उस पिछड़े को जिसे विरासत में तिरस्कार के सिवा कुछ ना मिला हो। मायावती अगर इतिहास बनाना चाहती हैं तो वो देश के पिछडे़ सूबे में हजारों स्कूल खुलवा सकती हैं, हाथी के बुत लगाने की जगह वन्य जीवों को बचाने की तमाम बंद होती परियोजनाओं को जिंदा कर सकती हैं। यूपी के तमाम बीमार जिला अस्पतालों को नई जिंदगी दे सकती हैं। अगर वो ऐसा कर पाईं तो यकीन मानिए आने वाला वक्त खुद उनकी मूर्तियां लगाएगा और अगर मायावती ने अभी भी अपना दंभ नहीं छोड़ा तो वही दलित एक दिन जगह जगह से उनके बुत उखाड़ने पर आमादा दिखाई देगा।

बुधवार, 15 जुलाई 2009

पिंक स्लिप

कितनी बार टूटा होगा वो
कितनी बार संभाला होगा उसने खुद को
कितनी बार तसल्ली दी होगी
उसने अपने आप को
फिर भी बीमार मां का ख्याल
अपने घर के छप्पर से टपकने वाले पानी की दिक्कत
अपने बाबू जी के गर्व के ढह जाने का मलाल
उसे बार बार तोड़ता होगा
उसे जवाब देना होगा अपने उस गांव को भी
जिसने अभी तक खूब नखरे सहे उसके
क्या कहेगा वो उन दोस्तों से
जिनकी दोस्ती को बीच मझधार में छोड़कर
वो आ गया था देश के सबसे बड़े शहर
लेकिन कम्बख्त वो शहर
परायेपन का एहसास ढूंसता रहा उसके भीतर
हर पहचान के साथ
मकान मालिक की पहचान नत्थी करनी पड़ी उसे
नौकरी के चंद पैसों से सबकुछ खरीद पाने के गुमान के साथ
सूकुन ना खरीद पाने का मलाल सालता रहा उसे
फिर भी तनख्वाह के पैसों को हर महीने गांव भेजते हुए वो
गांव से दूरी का मलाल कम कर लेता
लेकिन अब उस नौकरी की तसल्ली भी जाती रही
पिंक स्लिप लगा दी गई उसके माथे पर
नौकरी जाने के बाद
अब शहर भी मांगने लगा है उससे रहने का हिसाब
पैसे देते वक्त मकानमालिक के चेहरे पर रहने वाली मुस्कान भी
अब बनिए के तकादे सी हो गई है
मंहगाई के बीच रहने की जद्दोजहद करता वो
टूट रहा है या कहिए टूट चुका है
( बेहद तकलीफ में लिखी गई कविता..)

शनिवार, 11 जुलाई 2009

कौन खुश रविवार या शनिवार

शनिवार से खास मुहब्बत है...उनको तो और भी होगी जो शनिवार और रविवार दोनो दिन छुट्टी मनाते हैं..लेकिन मेरी किस्मत इतनी मेहरबान नहीं..फिर भी शानिवार बचपन से भाता है...शनिवार हमेशा असलाया हुआ लगता है..जैसे कह रहा हो बैठो यार कितना काम करोगे..बाजार में रौनक..थियेटर में चहलपहल..सड़कों पर भीड़ कम..लगता है दुनिया आराम करने का इरादा लिए निकल गई हो..अगर ढूंढिये तो शनिवार से मोहब्बत करने वाले संडे की कद्र करने वालों से ज्यादा मिल जाएंगे..शनिवार का रुतबा कायम है...संड को भले शनिवार से शिकायत हो मुझे नहीं है...कहते हैं कभी कभी सफर मंजिल से ज्यादा खुशनुमा होता है...शनिवार के साथ ऐसा ही है...संडे बाद में आता है लेकिन छुट्टी के इंतजार में छुट्टी का सारा मजा शनिवार के हिस्से में आ जाता है...और सारा काम सोमवार के मत्थे पड़ जाता है...शनिवार का मिजाज मुझे बहुत पसंद है..भगवान करे सप्ताह में तीन शनिवार पड़ें..ताकि तीन संडे का इंतजार रहे...जिन्हें छुट्टी से एतराज है वो काम करें...बस हमें आराम करने दें..

बुधवार, 8 जुलाई 2009

गाजियाबाद में रहता हूं अपना दर्द सुनता हूं

हूं लखनऊ का...लेकिन काम ने गाजियाबाद में ला पटका है...इससे पहले नोएडा में था..और उससे पहले हैदराबाद में...समय काटना किसे कहते हैं अब समझ में आ रहा है...गाजियाबाद में बिजली आती कम है जाती ज्यादा है...10 से 15 घंटे की कटौती...दिक्कत इस लिहाज से भी बड़ी है...कि बिजली और पानी पर देश की चिंता करने वाले ज्यादातर पत्रकार यहीं रहते हैं...अंदाजन पचास फीसदी से ज्यादा...लेकिन गाजियाबाद की इस दिक्कत पर मैने कभी लाइव होते नहीं देखा...और ना ही किसी अखबार में दो कॉलम से ज्यादा की खबर देखी...मर्ज बड़ा है...और मेरे मकानमालिक ने इसका इलाज भी बता दिया है...इन्वर्टर...लखनऊ में था तो इन्वर्टर के बारे में थोड़ा बहुत सुना था...हैदराबाद में कभी इसके बारे में सुनने की फुरसत नहीं मिली...नोएडा में जिस मकान में रहता था वहां मकानमालिक ने इन्वर्टर दे रखा था...मौसम का दस्तूर ही था कि इन्वर्टर की ज्यादा जरुरत नहीं पड़ा...दलालों (जिन्हे नोएडा और आसपास के इलाकों में प्रॉपर्टी डीलर के नाम से जानते हैं) ने ये बताने मे कोई कसर बाकी नहीं रखी कि मकान का भाड़ा इसलिए ज्यादा है कि क्योंकि इन्वर्टर की सुविधा है...लेकिन गाजियाबाद में जब पंखे ने हर दिन हर घंटे रुककर शहर की औकात बताई तो इन्वर्टर का मतलब समझ में आया...लेकिन फिर भी कई दिनों तक संपूर्ण क्रांति के इंतजार में बैठा रहा...लगा कि हो ना हो एक दिन गाजियाबाद के कई गजनी टाइप लोग पावरस्टेशन पर हमला बोलेंगे...बिजली के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की पिटाई होगी...लोग बिजली का बिल देने से इंकार कर देगे.. अखबार और चैनल चीख चीखकर दिल्ली से सटे इलाके की दुर्दशा पर लाइव करेंगे...लेकिन क्रांति की चिंगारी उठे उससे पहले इन्वर्टर ने उस पर पानी फेर दिया...सोच रहा हूं बिजली के संकट से निपटने के लिए मैं भी इन्वर्टर ले आऊं...घर का संकट हल कर लूं...फिर देश के बिजली संकट पर खबर लिखूं...

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

प्रभात जी का हलफनामा


(प्रभात जी बेहद संजीदा इंसान...प्रभात जी अपने ब्लॉग हलफनामा में इस बार कुछ ऐसा लिख गए हैं...जो झकझोरने वाला है...उनसे पूछ कर उनका लिखा अपने ब्ल़ॉग पर डाल रहा हूं...क्योंकि ये आवाज कहीं ना कहीं खुद की भी लगती है)

मित्रों को मजाक लगता है.कुछ ज्यादा संवेदनशील मित्र इसे काम का दबाव मानते हैं.कुछ ऐसे भी हैं जो इसे बकवास करार देंगे.दरअसल मेरी ख्वाहिश ही कुछ ऐसी है जिसे लोगबाग गंभीरता से नहीं लेते.मैं वाकई गांव वापस लौट जाना चाहता हूं.इसके पीछे कोई ठोस वजह नहीं है.शुरू शुरू में ये ख्याल एक लहर की तरह आया.लेकिन अब गाहे बिगाहे परेशान करता है.दावे के साथ कह सकता हूं कि इस ख्याल की वजह नास्टेल्जिया नहीं है.गांव में जाकर कोई सामाजिक आर्थिक क्रांति करने का इरादा भी नहीं.बस गांव में जाकर बसना चाहता हूं.हालाकि वहां से कभी उजड़ा हूं, ऐसा भी नहीं.मैं तो शुद्ध कस्बाई हूं.लेकिन गांव करीब था इसलिए आना जाना लगा रहा.अब नए सीरे से गांव में बसने को जी चाहता है.वैसे ही जैसै मेरे पूर्वज बसे होंगे पहली बार.मैं जानता हूं ये फैसला इतना आसान नहीं. जीवन यापन का सवाल एक बार फिर मुंह बाए खड़ा होगा.इसके अलावा कई साल दिल्ली जैसे शहर में गुजारने के बाद ठेठ गांव में जाकर रहने की अपनी चुनौतियां होंगी.दिक्कतें होंगी इतना जानता हूं.फैसले में हो रही देरी भी इसी वजह से है.लेकिन सच्चाई यही है कि इस शहर में होने की एक भी वजह मेरे पास नहीं है.किसी भी दूसरे प्रवासी की तरह इस शहर ने मेरी भी पहचान सालों पहले खत्म कर दी थी.पढाई लिखाई तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन अब इस शहर का क्या करूं.कुछ ना करते करते एक दिन मैने खुद को इस शहर में रोजगार करते पाया.इस शहर ने मुझे रोजगार दिया है और इसके एवज में मुझसे हरेक चीज ले ली है जो मेरी अपनी होती थी.यहां तक कि मेरी आदतें भी.कई महिने गुजर गए, गालिब को नहीं पढ़ा.श्मशेर मेरे सामने धूल फांकते उदास बैठे रहते है.कमोबेश मेरे घर में कुछ सालों से उपेक्षा के ऐसे ही शिकार हैं मुक्तिबोध रघुवीर सहाय धूमिल और मजाज.यकीन मानिए जिन्दगी बड़ी ही नीरस हो चली है.कुछ इसकी वजह मेरे काम का अपना स्वभाव भी है.लेकिन काम करने की मजबूरी समझ में नहीं आती.किसी फरमाबर्दार नौकर की तरह अपने काम को अंजाम देता हूं.मैं भी किसी शाह का मुसाहिब बन के इतराना और काम से मुंह चुराना चाहता था.कर नहीं पाया.इसलिए अपने काबिल मित्रों की शिकायत भी नहीं करता.मेहनत के बल पर अपने आर्थिक हालात बेहतर करने का हौसला देर तक कायम रखा, लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता.मेरे मामले में भी नहीं हुआ.नतीजा, फाकेमस्ती ना सही लेकिन गुरबत का दौर आज भी जारी है.अपने सुबहो शाम अपने काम के नाम करके, गधा बन गया हूं.हालाकि इसी काम की बदौलत कई गधे सफलता के शिखर पर हैं.खैर ये तो अपनी अपनी काबिलियत और किस्मत की बात है.मेरे दिन नहीं फिरे, ना सही.लेकिन तब इस शहर में होने का औचित्य क्या है.खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए...सवाल ये है कि किताबों ने क्या दिया मुझको.कुछ नहीं.एक बेहद अतार्किक और बेमकसद सी जिन्दगी.दोस्तों इसी जिन्दगी से भागना चाहता हूं.पहली बार हालात से भागना चाहता हूं.मैं गांव लौट जाना चाहता हूं,अपने खेतों में जहां किसी ने, कभी गुलाब की फसल उगाने की कामना की थी.यकीन कीजिए गुलाब, खबरों से ज्यादा अहमियत रखते हैं (घोर निराशा के मूड में)
प्रस्तुतकर्ता प्रभात रंजन

रविवार, 14 जून 2009

बहस

बहस क्या हैं...
केवल विचार
या फिर दिमाग को चीर देने वाली आवाज...
बहस क्या हैं...
बेबुनियाद सी लगती चीख...
या फिर बुनियाद को खडा करने का जज्बा....
बहस क्या है...
शोर
या फिर गलत के खिलाफ शोर पैदा करने का हौसला
बहस क्या है
मैं
या फिर मैं से हम होने का एहसास
( ये कविता शौर्य की थीम पर है, लेकिन यकीन मानिए ओरिजनल है)

शुक्रवार, 12 जून 2009

एक कविता दोस्ती के नाम


कुछ सुनने का मन ना हो...
तो कुछ कहने की फुरसत निकाल लेनी चाहिए...
कभी सुना या कहा पूरा नहीं होता...
कभी समझा हुआ सच नहीं होता...
कभी सच समझना मुश्किल होता है...
तो कभी समझा हुआ मुश्किल लगता है
गिले शिकवे की लड़ाई
जिंदगी से बड़ी नहीं होती
शिकायतें अक्सर पराई होती हैं
खुद से नहीं होतीं
दुनिया बड़ी है
उसके दस्तूर बड़े हैं
लोग बडे हैं
उलझने बड़ी हैं
लेकिन दोस्त जिंदगी बहुत छोटी है

सोमवार, 8 जून 2009

ये उदास वो उदास


रात उदास, दिन उदास

मन उदास,सब उदास

ये उदास, वो उदास

मैं उदास, तू उदास

सच उदास,हिम्मत उदास

हवा उदास,मौसम उदास

क्या कहें, क्या क्या उदास

( हबीब साहब की मौत की उदासी, जिंदगी की उदासी सी लगती है, शब्दों से कम हो जाए तो लिखा सार्थक समझिए)




शुक्रवार, 5 जून 2009

उफ् दिल्ली की गर्मी


येगर्मी का असर था. या फिर गरममिजाजी का. बिग बी नाराज हो गए. गुस्से का गुबार उतरा ब्लॉग पर. निशाना था उत्तर भारत . और बहाना थी गर्मी. जो लिखा वो भी बिग की एक्टिंग की तरह लाजवाब था. कहना मुश्किल था कि. बिग बी नसीहत दे रहे हैं. या फिर फटकार रहे हैं. हाल में बिग बी दिल्ली आए. इससे पहले भी आते रहे हैं. लेकिन इस बार का सफर बिग बी के जेहन में रच-बस गया. दिल्ली में उनका खैरमकदम गर्मी और गरममिजाजी दोनो ने किया. असर कुछ यूं हुआ. कि बिग बी भी उत्तर और दक्षिण के खांचें में बंटे दिखे. चलिए पहले आपको बताते हैं कि क्या फरमाया बिग बी ने अपने ब्लॉग पर दिल्ली से लौटने के बाद.
भविष्य के लिए यहां (दिल्ली)बड़ी तादात में फ्लाईओवर और अंडरग्राउंड मेट्रो के निर्माण का काम चल रहा है...आसानी से देखा जा सकता है कि संतुलित मुंबईकर के मुकाबले गरममिजाज उत्तर भारतीय बेहद जल्दी अपना आपा खो देते हैं....जब आप 40 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान में गाड़ी चला रहे हों...जय महाराष्ट्र !

कहना मुश्किल है कि बिग बी किससे नाराज है. फ्लाईओवर और मेट्रो निर्माण के चलते सड़क पर होनेवाली परेशानी से, दिल्ली की गर्मी से, या फिर यहां की गरममिजाजी से. शब्दों की तुकबंदी बिग बी को विरासत में मिली है. और बिग बी ने यहां भी इस तुकबंदी का बखूबी इस्तेमाल किया है. लेकिन उत्तर भारत की गरममिजाजी पर बिग बी की ये शिकायत. यूपी की मिट्टी से जुड़े किसी शख्स की नहीं लगती. ये गुस्सा काफी हद तक महाराष्ट्र की उस आवाज से मिलता जुलता है.जो उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र से निकालने की बात करती है.

मंगलवार, 2 जून 2009

लौट आया महाबली खली


आखिर खली गया कहां. कल तक कैमरों को अपने आगे पीछे घुमाने वाला पहलवान आखिर कहां गुम हो गया. वो इस वक्त है कहां. लेकिन हम आपको बताएंगे कहां है खली. क्या कर रहा है खली. क्यों खामोश है खली. जी हां हर राज से आज उठेगा पर्दा. फिर लौटेगा खली. फिर लड़ेगा खली. दुश्मनों को चटाएगा धूल. क्योंकि इस बार उसे मिला है नया गुरुमंत्र. ना हारने का गुरुमंत्र. अब खली हारेगा नहीं बल्कि हराएगा. तो तैयार हो जाइए. उसे फिर से देखने के लिए. लौट रहा है महाबली खली. जी हां वो फिर दिलाएगा टीआरपी. वो करेगा हमारा बेड़ा पार. वो अगर नहीं करेगा तो हम कराएंगे. वो नहीं लड़ेगा तो हम लड़ाएंगे. वो हार भी गया तो भी गुणगान करके उसे महाबली साबित करेंगे. वो खाएगा तो खबर बनाएंगे. वो नहाएगा तो भी बताएंगे. उसकी हर हरकत पर नजर रखेंगे ( झूठ बोल रहा हूं नजर तो पहले भी नहीं ऱखी थी बस अंदाजा मारते थे और दर्शक मौज लेकर देखते थे) तो लौट रहा है खली तैयार हो जाइये टीआरपी के चक्कर में पत्रकारों के जाल में फंसने के लिए...
(लेखक इलेक्ट्रानिक पत्रकार हैं... चुनाव खत्म होने के बाद काम नहीं है... टीआरपी के कीड़े ने अभी अभी काटा है...ये स्क्रिप्ट इसी छटपटाहट का नतीजा है....भगवान बचाए)

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

ये झूठ है...


हां मैने मान लिया की मेरा सच हार गया है...तुम्हारे झूठ ने मेरे सच के चिथड़े चिथड़े कर दिए हैं...मैं गलत था ये भी कबूल करता हूं...मैं खुद को कैसे कोसूं...नहीं जानता...लेकिन इतना जरुर कह सकता हूं कि तुम्हारी झूठी और दिखावटी दुनिया मुझे बेचारा कहती होगी...मेरी बेचारगी पर हंसती होगी...हंसे भी क्यों ना... अभी तक मैं सच और झूठ के फरेबी पैमाने पर दुनिया को तोलने की गुस्ताखी करता रहा... मेरे सामने लोगों ने झूठ की झूठी कसमें खाईं...सपनें दिखाकर झूठ का खंजर कई बार मेरी पीठ पर भोंका गया...लेकिन मैंने सच से अपना भरोसा नहीं उठने दिया...हर बार सच के जीतने की उम्मीद लिए झूठ को सहता रहा...लेकिन अब हार गया हूं...तुम्हारी झूठ की दुनिया ने मुझे हरा दिया है...तु्म्हारी झूठ की दुनिया को लोग सलाम करते हैं...लेकिन मेरा सच तो अभी तक अंधेरी गलियों में भटक रहा है...और लगता तो यही है कि भटकता रहेगा...लेकिन माफ करना दोस्त तुम्हारे झूठ को सलाम भी नहीं कर सकता... और अपने सच को यूं ही भटकने के लिए भी नहीं छोड़ सकता... झूठ की फरेबी दुनिया में सच के लिए कोई तो जगह होगी... कहीं तो मेरा सच झूठ से पार पाएगा... वैसे दोस्त जिंदगी से पार मौत का एक सच तुम्हारे झूठ के इंतजार में बैठा है.. वो मेरे सच की तरह कमजोर नही है...क्योंकि वो नियति है...जिंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई है...

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

मैने देखी है ज़िंदा लाश

कितना अजीब है,
नियति से हार जाना.
कितना अजीब है,
आदर्श को मुश्किल,
या नामुमकिन मान लेना.
मैं भी गुनहगारों की
कतार में हूं.
मुझे भी लगता है
कि बस वाले से बेकार है,
पहुंचने की जगह का
सही किराया पूछना.
मैं नहीं जानता
कौन है वो नेता
जो पिछली बार आया था,
वोट की भीख मांगने मेरे घर.
मैने जानने की कोशिश नहीं की
कि बलात्कार के कितने आरोप थे,
उसके ऊपर.
मैने कभी नहीं पूछा
की मेरे वोट से जीतने के बाद,
विकास के नाम पर
कितना कमीशन खाया उसने.
मैने कभी जानने की कोशिश नहीं कि
क्यों बढ़ रहा है,
अपराध का ग्राफ मेरे इलाके में.
बताते हैं कि चलने लगी हैं
तमाम लाशें सड़कों पर.
हर लाश खुद को
आम आदमी बताती है.
सवाल नहीं करती,
बस सहती जाती है...
.....................
सुबोध 06 मार्च

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

खामोश...खबर बेखबर है...2

वक्त इलेक्ट्रानिक मीडिया को लेकर विमर्श का है...और शायद रवीश कुमार ने इस विमर्श की शुरुआत कर दी है...उनके लहजे में टीवी की बिगड़ती भाषा को लेकर रोष दिखता है...वो दर्शकों को बताते हैं कि आप को खबरों के नाम पर बेवकूफ बनाया जा रहा है...दरअसल ये रवीश कुमार की तकलीफ नहीं... बल्कि उन लोगों की भी पीड़ा है जो टीवी पर बेहतर करना चाहते हैं.. रवीश की लड़ाई टीवी पत्रकारिता की साख को बनाए रखने की है...उनकी लडाई को भले कुछ तथाकथित पत्रकार टीआरपी को लेकर उनका फ्रस्टेशन करार दें...लेकिन ये सच है जिस साख के लिए रवीश जूझ रहे हैं...वो एक दिन या कुछ घंटों में नही बनती.. साख बनाने में वक्त लगता है...और ये काम रवीश जैसे पत्रकारों ने बखूबी किया है...इसलिए खुद के सामने पत्रकारिता को बेरहमी से कत्ल किए जाने की उनकी पीड़ा समझी जा सकती है...दरअसल दौर मंदी का चल रहा है और ऐसे में चारों ओर आर्थिक पलहुओं पर जोर शोर से बात हो रही है...पैसे के सूखेपन से न्यूज चैनल भी परेशान हैं... ऐसे में टीआरपी लाने का दबाव सभी न्यूज चैनलों पर है...लेकिन ऐसे में टीवी पत्रकारिता की साख को खारिज नहीं किया जा सकता...अगर आज आप दर्शको को जायका खराब करेंगे.. तो आगे बेहतर दिखाने की कोई जगह आपके पास नहीं होगी...वैसे भी टीवी के अस्सी फीसदी हिस्से पर मनोरंजन का बोलबाला है...और कुछ टीवी न्यूज चैनल उस पर भी अपनी नजरें गढ़ाए बैठे हैं...साफ है कि बाजार के तकाज़ों से आप खबरों की साख नहीं तोल सकते...बाजार उपभोग और उपभोक्ता की परिभाषा से चलता है...उसे अच्छे बुरे से कोई मतलब नहीं होता...ऐसे में खबरों को बाजार के सुपुर्द करना खतरनाक तो है ही...दिल पर हाथ रख कर बताइये कि क्या आप पत्रकार के तौर पर अपने लिए लोगों के नजरों में सम्मान नहीं देखना चाहते? अगर हां तो वक्त संजीदा होने का है..नहीं तो इंतजार करिए टीवी पत्रकारिता के हमेशा के लिए खत्मे का..उस वक्त वो बाजार भी आपका साथ छोड़ देगा...वही बजार जिसके हाथों में आपने अपनी साख गिरवी रख दी है...

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

खामोश...खबर बेखबर है...

पाकिस्तान को टीवी पर ललकार के लौटे एक टीवी पत्रकार से जब मैनें रवीश कुमार की स्पेशल रिपोर्ट का जिक्र किया....तो उनकी आवाज़ रुखी सी हो गई...बोले जिस दिन रवीश से मार्केट का टेन परसेंट मांगा जाएगा...तब देखेंगे उनकी पत्रकारिता...मैं भी चुप हो गया.. दरअसल उनके इस जवाब में मुझे उनकी मजबूरी से ज्यादा हिन्दी न्यूज चैनलों की लाचारी ज्यादा नजर आई...थोड़ी देर बार टीवी पर फिज़ा का तमतमाया चेहरा दिखाई देने लगा...सबकुछ लाइव चल रहा था...अचानक फिजा ने मीडिया को लगभग ज़लील करते हुए दो चार खरी खोटी बातें सुना डालीं...चूंकि सब लाइव था सो सारी बातें हवा में तैरते हुए दर्शकों तक भी जा पहुंचीं...लेकिन फिज़ा के गुस्से में मुझे पाकिस्तान को ललकारने वाले भाई साहब के सवाल का जवाब भी मिल गया..फिज़ा हम सब को हमारी बेशर्मी के लिए कमेंट के दो चार तगड़े तमाचे जड़ कर जा चुकी थी...ये फिज़ा का गुस्सा नहीं था... उन सभी लोगों का गुस्सा था जो हिन्दी मीडिया को मरते हुए देख रहे हैं...खबरों का तमाशा बनते हुए देख रहे हैं...
ये कड़वी सच्चाई है कि हम सब उस बाजार में खड़े हैं... जहां चंद लोग हमसे तमाशा बनने की फरमाइश कर रहे हैं...और हम उन्हें तमाशा दिखाकर खुश है...पैसे के लिए किसी भी हद तक जाने की मजबूरी में हमारे पैर जकड़े जा चुके हैं...इस बीच खबरों को लेकर हमारी संजीदगी पूरी तरह मर चुकी है... और हम अपने आप अपने प्रोफेशन का गला घोंट रहे हैं...दरअसल इस वक्त टीवी मीडिया को दो खांचों में बंटी नजर आती है... इसमें से एक इंडिया टीवी टाइप की पत्रकारिता है...जिसकी जमात कुछ ज्यादा बड़ी है...और ये रास्ता ज्यादा कठिन भी नहीं है...बस आपको खबरों को सनसनी में तब्दील करने की कला आनी चाहिए... दर्शको को बेवकूफ समझिए और कुछ भी दिखा दीजिए...हां फुटेज की चोरी करने की कला इस जमात में शामिल होने की महत्वपूर्ण शर्त है...जो आप आठवीं क्लास के किसी कम्प्यूटर में माहिर बच्चे से सीख सकते हैं...इतने भर से आप टीआरपी के हकदार बन जाते हैं...और आपके ऊपर पैसों की बरसात होने लगती है...
वहीं दूसरी जमात एनडीटीवी टाइप के पत्रकारों की है...उनका रास्ता मुश्किल भी है और उबाऊ भी..इसके लिए आपको खबरों की संजीदगी की एहसास होना जरुरी है...आपके ऊपर दर्शकों को कुछ बेहतर दिखाने का दबाव होता है...और इस मुश्किल काम में टीआरपी भी नहीं है...आज के हालात ऐसे पत्रकारों के लिए मुनासिब नहीं हैं और यही वजह है कि इंडिया टीवी टाइप पत्रकारों की जमात लगातार बढ़ रही है...और यकीन मानिए अगर हिन्दी दर्शकों को अभी भी अक्ल नहीं आई तो वो दिन दूर नही की पाखंडी बाबाओं और सांप बिच्छुओं से खेलने वाले सपेरों की जमात खुद को वरिष्ठ पत्रकार बताने लगेगी