रविवार, 2 अगस्त 2009

पुलिस और चोर में चोर कौन

(सवाल फेसबुक पर उठा और सवाल पर सवाल खड़े होते चले गए। सवाल कई थे पहला क्या बच्चों में आज भी पुलिस में जाने का कोई क्रेज बचा है और अगर नहीं तो क्यों। दरअसल ब्रिटिश मानसिकता में जीती आई पुलिस आजादी के साठ सालों में लाठी भांजने की मानसिकता से उबर नहीं पाई। मैं तो ये भी कहूंगा की उबारने की कोशिश ही नहीं की गई। ये बहस की शुरुआत है अच्छा होगा की बहस पुलिस सुधार की कोशिशों के पड़ताल को लेकर आगे बढ़े। )

अतुल राय
तो क्या आज के बच्चे चोर सिपाही के खेल में चोर बनना पसंद करते हैं ? शायद नहीं, मेरा मतलब है मैं तो बिल्कुल नहीं। आज भी बच्चे उसी जोश के साथ सिपाही बनने में रुचि रखते हैं। मेरे ख्याल से आज की पुलिस, उसके कामकाज और व्यवहार पहले से ज्यादा अच्छे और स्वीकार्य हैं। आज शायद हमें उनकी इतनी गलतियां इसलिए भी दिखाई दे रही हैं क्योंकि अब वो हमारे सामने मीडिया के माध्यम से आ रही हैं। जबकि होता तो पहले भी ऐसा ही था/ रहा होगा । आज की पुलिस पहले से ज्यादा जबाबदेह है और पहले से ज्यादा जनता के दबाव में है । हमें इस बात पर रोने के बजाय, कि पुलिस का कितना पतन हो गया है, खुश होना चाहिए कि उनकी हर ज्यादती और जुल्म से हम परिचित हो जा रहे हैं और कोर्ट तक उनको घसीटकर ले जा पा रहे हैं। आज छोटी से छोटी घटना पर पुलिसवालों को तुरंत लाइन हाजिर कर दिया जा रहा है। बड़ी वारदातों में तो निलंबन और बर्खास्तगी जैसी सजा मिल जा रही है । जांच कराई जा रही है और ज्यादातर मामलों में गलती मिलने पर सजा भी हो रही है। एसे बहुत से मामले हमलोगों को मालूम हैं। आजादी के बाद से लेकर अबतक, शुरुआत के 45 साल और बाद के 27 साल की अगर तुलना की जाए, तो बाद के 27 साल में ज्यादा (बल्कि बहुत ज्यादा) पुलिसवालों को सजा मिली है ( इस बारे में मेरे पास फिलहाल तो कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है लेकिन मेरा ख्याल है कि सच्चाई कुछ ऐसी है )। मैं आज भी अगर चोर सिपाही का खेल खेलूं, तो सिपाही बनने का उतना ही फक्र होगा...जितना बचपन में था।
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सुबोध
सवाल था कि पुलिस को लेकर बचपन से अब तक हमारी सोच कितनी बदली है। दरअसल ये सवाल इसलिए उठाया गया क्योंकि मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन्होने पुलिस की ज्यादती सही है उसकी गालियां खाईं है और कई दिनों तक पैसे के लिए पुलिस वालों ने उन्हें परेशान किया है। 'मित्र पुलिस' से लेकर 'क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूं' तक कि तख्तियां थानों पर लटकाई गईं, लेकिन थाने के अंदर पुलिस का रवैया नहीं बदला। हां ये सही है कि पुलिस एक संस्था है और उसके वजूद पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। लेकिन ये भी सच है कि आम आदमी से पुलिस की दूरी हमेशा से बनी रही। आम आदमी आज भी पुलिस के चक्कर में पड़ना नहीं चाहता। क्या ये सही नहीं है कि बच्चों ने चोर सिपाही का खेल खेलना बंद कर दिया है, बच्चे भी जानने लगे हैं कि चोरी तो गलत है ही और पुलिस बनकर गालियों को अपनी बोली में शुमार करना और भी गलत है। दरअसल सवाल कई हैं देहरादून में पिछले दिनों जिस तरीके का फर्जी एनकाउंटर हुआ आप उसे कैसे जायज ठहराएंगे, किसी निर्दोष को मारने के एवज में पुलिस वालों को वो सजा क्यों नहीं मिलती जो किसी दूसरे गुनहगार को मिलती है। लेकिन हर किसी का नजरिया अलग होता है, अतुल भाई का नजरिया भी अलग है। उनकी बातों में दम है। लेकिन सवाल पुलिस के चरित्र को लेकर है और उसे लेकर ज्यादातर लोग क्या सोचते हैं आपको मालूम है।