रविवार, 28 दिसंबर 2008

मेरा कबूलनामा...दिल से...१


इसे आप मेरा कबूलनामा कह सकते हैं...कुछ लोगों को मेरे इस लिखे में मेरा फ्रस्टेशन नजर आ सकता है...लेकिन यकीन मानिए मैं केवल इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं नहीं चाहता मेरी गिनती जिंदा लाशों में की जाए...मेरा भरोसा आज भी लोगों पर कायम है..मैं लोगों पर आज भी यकीन करता हूं...दुनिया मुझे सरल लगती है...इसलिए आज तक किसी को गाली देने की नौबत नहीं आई...किसी से दो दो हाथ करने के हालत पैदा नहीं हुए...फिर भी जिस दौर से गुजर रहा हूं ज्यादात्तर समय चाय की दुकान पर बीतता है...लोगों के मुंह से दुनिया की कांस्परेसी के बारे में सुनता हूं...हां में हां भी मिलाता हूं लेकिन पता नहीं क्यों यकीन नहीं होता..लगता है हम सब यकीन ना करने की बीमारी से जूझ रहे हैं...समझ में नही आता लोगों को दूसरो के खिलाफ साजिश रचने का समय कैसे मिल जाता है...जब लोगों से ये मासूम सवाल पूछता हूं तो लोग कहते हैं सुबोध बाबू लगता है अभी दुनिया नहीं देखी..लेकिन जिस पेशे में हूं...वहां इतनी तो स्पेस है कि चीजों को समझ सकता हूं...और बस इसी कोशिश में लगा हूं...मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि मेरी कोशिश इस समझ को यकीन से कहीं आगे ले जाने की होगी...मैं लिखूंगा और दिल खोल कर लिखूंगा...अपने गुनाह कबूल करुंगा...खुद को बताने की कोशिश करुंगा कि एक कहानी दो टुकड़ों में आकर अधूरी क्यों रह गई...कविताओं के पीछे वाकई भावना थी या फिर केवल कोरी तुकबंदी...ये मेरे दिल की बात होगी...जिसमें सभी का दखल होगा...मेरी पत्नी से लेकर मेरे भाई और मेरे दोस्तों तक का...