शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

जिंदगी का एहसास

जिंदगी धूप की तरह है,
कभी हसीन लगती है,
कभी चुभती है,
कभी डूबते सूरज की तरह गुम हो जाती है।
जिंदगी उस फूल सी भी लगती है,
जो तमाम हसरतें लिए खिलता है
फिर मुरझा जाता है,
जिंदगी कुछ कुछ हवा के एहसास की तरह भी है
जो कभी ताजगी देता है
तो कभी गर्म थपेड़ों सा जान पड़ता है।
जिंदगी उस अधूरी कहानी सी है
जिसके पूरे होने का इंतजार
मुझे भी शिद्दत से है।
जिंदगी कुछ कुछ मां सी है
जिसके एहसास की गहराई को
मैं हर वक्त महसूस करता हूं।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

तुम्हारा न्यूज सेंस तुम्हे मुबारक

खबरों को लेकर खबरदार बनने का नाटक क्यों। क्यों नहीं परचून की दुकान या फिर शराब का ठेका। माफ कीजिएगा न्यूज सेंस आपका मरा है लोगों का नहीं। बारिश केवल दिल्ली और मुंबई में नहीं होती बरखूद्दार, लखनऊ और मुज्जफरपुर में भी होती है। सड़कें वहां भी भरती हैं, जाम से दो चार वहां के लोग भी होते हैं। लेकिन तुम्हारे न्यूज सेंस की हदें दिल्ली और मुंबई से आगे बढ़ नहीं पाती। पैसे की मलाई यहीं है तुम यहीं की मलाई चाटते रहो। टीवी पर इंटरटेनमेंट चैनल के फुटेज दिखाकर तुम खुद को भले क्रिएटिव कहो। लेकिन हम तो इसे चोरी कहते हैं। तुम पैसे बनाने के चक्कर में क्या से क्या हो गए इसको लेकर तो अब हम भी कन्फ्यूज हैं। अंधविश्वास फैलाने में तो तुमने पाखंड का धंधा करने वाले ज्योतिषों को पीछे छोड़ दिया है। डर क्रिएट करने में तुमने हॉरर फिल्मों को पीछे छोड़ दिया है। तुमसे तो अच्छे वो कार्टून चैनल हैं जो कम से कम बच्चों को तो बांधे रखते हैं। तुम अपनी खबरों से दो मुल्कों के बीच बरसों में बनने वाले रिश्ते गंधा सकते हो। तुम अपनी खबरों से खली का फर्जी हैव्वा तैयार कर सकते हो। तुम अपनी खबरों से बालिका बधू की नई कहानी गढ़ सकते। लेकिन तुम अब अपनी खबरों से दो मुल्कों को पास नहीं ला सकते। तुम सरकारों को क्या हम आम आदमी को बेचैन नहीं कर सकते। बुरा लगे तो लगता रहे... तुम्हारा न्यूज सेंस तुम्हे मुबारक। तुम्हारी हदे यहीं तक है और छिछले शब्दों में कहें तो तुम्हारी औकात इतनी भर रह गई है। हा इतना जरुर कहूंगा, कि बारिश की रिपोर्टिंग करते करते अपने लिए इतना पानी खोज लेना जहां तुम अपने न्यूज सेंस के साथ डूबकर मर सको।

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

'मोहल्ला' का कीचड़नामा

घटिया आलोचनाओं का इतना ऊंचा ज्वार उठेगा इसके बारे में सोचा नहीं था। मोहल्लेदारी इतने छिछले स्तर पर चली जाएगी इसका भी इल्म नहीं था। प्रभाष जोशी की आलोचना उसके बाद आलोक मेहता की छिछालेदर और अब आलोक तोमर की ऐसी तैसी। सब मिलाकर गाली गलौज का भरपूर इंतजाम। फिलहाल तो बौद्धिक लहजे में गरियाते गरियाते मोहल्ले में इतना कीचड़ तो हो ही गया है कि जिस पर मन हो उछाल दो। ऐसा नहीं की इस कीचड़ उछाल बौद्धिकता की शिकायत मैंने अविनाश जी से नहीं की। लेकिन शायद पाठकों की चाह में मेरी शिकायत अनसुनी हो गई। दरअसल किसी की निजी जिंदगी में तांकझांक करके आलोचनाओं की तथ्य खोज लाना बड़ा आसान है। प्रभाष जोशी, अविनाश जी और उनके सुर में सुर मिलाने वालों के लिए भले खलनायक हों। लेकिन हमारे जैसे नए लोगों ने उन्हें पढ़कर पत्रकारिता की ए बी सी डी सीखी है। जरुरी नहीं कि आपकी निजी सोच, आपकी व्यवहारिक जिंदगी से हमेशा मेल खाए। ऐसे में किसी पत्रकार या बुद्धिजीवी (खासकर वो जिसे पत्रकारिता या साहित्य के आदर्श होने की हैसियत हासिल हो) को उसकी निजी जिंदगी में तांकझांक करके कलंकित करना ठीक नहीं है। आप पत्रकारिता के आदर्शों (खैर अब तो रहे ही नहीं) को सब पर थोप नहीं सकते और ना ही सभी से ये उम्मीद कर सकते हैं। मोहल्ला का कीचड़नामा जारी है और अभी अभी पता चला है कि कीचड़ राजेन्द्र यादव पर उछलने के विधिवत कार्यक्रम का फीता कट चुका है।