सोमवार, 2 जून 2008

गुलज़ार के बहाने ग़ालिब..एक


तकरीबन दो दशक पहले गुलज़ार ने मूवी हाउस के बैनर तले सीरियल मिर्ज़ा गा़लिब बनाया था...नसिरुद्ददीन शाह ने मिर्ज़ा गा़लिब का किरदार अदा किया था...और रिसर्च का काम क़ैफ़ी आज़मी और गुलज़ार ने मिलकर किया था...संगीत जगजीत सिंह का था जो आज भी गुनगुनाया जाता है..कुछ दिन पहले मिर्ज़ा ग़ालिब फिर से देखने का मौका लगा...सीरियल तो खूबसूरत है कि उसकी स्क्रिप्ट संजोकर रखने वाली है..
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( दीवाली के मौके पर चौसर खेलते हुए )
मिर्ज़ा तोफ्ता ...अरे वाह उस्ताद दीवाली पर तो आप हर साल जीतते हैं...
मिर्ज़ा गा़लिब ...जीतता तो मैं ईद पर भी हूं..मिर्जा तोफ्ता ..बस ईद पर रस्म नहीं है जुआं खेलने की
अनजान शख्स...आप भी कहां रस्मों रिवाज मानते हैं मिर्जा
मिर्ज़ा गा़लिब... ऐसा ना कहो भाई ..मैं हर रस्मों रिवाज को मानता हूं..इसीलिए एक का कायल नहीं हूं....
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( गालिब के बेटे की मौत के बाद )
मुफ्ती...सब्र करो मिर्ज़ा...उसकी मर्जी में क्या छिपा है क्या पोशिदा है कोई नहीं जानता ...उसके राज निराले हैं
मिर्ज़ा गा़लिब... क्या छुपा है मुफ्ती साहब..क्या पोशिदा है..मेरा एक बेटा हुआ था... वो मर गया.. और वो दफ्न है अपनी कब्र में.. इतनी छटंकी सी जान... मनों मिट्टी पड़ी है उस पे कि कम्बख्त करवट भी ना ले सके.. . इसमें राज की कौन सी बात है... जना था उमराव बेगम ने और मारा उसे अल्लाह ने.. और कौन है मारने वाला... उसके बगैर हक है किसी को
मुफ्ती...आप ही ने कहा था जान दी..दी हुई उसी की थी.. हक तो यूं है कि हक अदा ना हुआ... ...
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( बेटे की कब्र के पास)
मिर्ज़ा गा़लिब ..जाते हुए कहते हो कयामत को मिलेगें...क्या खूब..कमायत का है गोया कोई दिन और..
लाला ( मिर्ज़ा गा़लिब के दोस्त ).. असद कहां खो गए हो इस वक्त
मिर्ज़ा गा़लिब... सोच रहा हूं कि दरगाह तक हो आऊं.. एक चादर चढ़ानी बाकी है...एक चढ़ाई थी जब मन्नत मांगने गया था बच्चे की...एक शुक्राने की चढ़ाई थी...अब एक माज़रत की चढ़ा आऊं...माफी मांग आऊं ख्वामोखां तकलीफ दी आपको....
लाला...जी कड़वा मत करो असद
मिर्ज़ा गा़लिब ...मै नहीं करता लाला...लेकिन उस औरत का क्या करुं.. जो मरी जा रही बच्चे जनते जनते...अपनी गोद भरने के लिए...उसकी गोद तो मुर्दों से भरी जा रही है...ये पांचवा बच्चा था लाला....
लाला..चलो घर चलो...
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