![](http://1.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/TNot48WJcoI/AAAAAAAABB4/t8SofuwrSXc/s320/Barack-Obama-visits-India-006.jpg)
मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
बुधवार, 10 नवंबर 2010
हमारी नजरें उनका चश्मा यानी ओबामा
![](http://1.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/TNot48WJcoI/AAAAAAAABB4/t8SofuwrSXc/s320/Barack-Obama-visits-India-006.jpg)
सोमवार, 27 सितंबर 2010
यूनिवर्सिटी में झकमारी १
![](http://2.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/TKCPI4FgPTI/AAAAAAAAA7E/FhtVI3pDp64/s320/lucknow_university.jpg)
शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
कयामत के दिन कयामत की रात
बेसिर पैर की बातें। कयामत का दिन कयामत की रातें। ये टीवी के तथाकथित पत्रकारों का नया फार्मूला है। अपनी कमजोर याद्दाश्त को दर्शकों को थोपने की होड़ लगी है। रोज रोज दिल्ली को डूबोते डूबोते टीवी पत्रकारिता को हमने कितना डूबो दिया है इसका एहसास ना किसी को है ना कोई करना चाहता है। सब टीआरपी की सुसाइड रेस में भाग रहे हैं। कोई ये याद करना नहीं चाहता कि खबरें विश्वास के पैमाने पर कसी जाती हैं ना ही टीआरपी के ढोंग के पैमाने पर। ढोंग करके मदारी भी सड़क पर भीड़ जुटा लेता है। क्या कभी ये जानने की कोशिश की गई कि जो आज नंबर वन है लोग उनकी बात पर कितना भरोसा करते हैं। अपनी बातों पर लोगों का भरोसा हासिल करना मुश्किल काम है और इस मुश्किल रास्ते पर चलना कोई नहीं चाहता। सब शार्टकट की तलाश में हैं। अब न्यूज सबसे बड़ी क़ॉमिक ट्रैजडी बन चुके हैं। श्रीलाल शुक्ला के शब्दों में कहें तो कुछ टीवी चैनलों को देखकर यकीन हो जाता है कि उनका जन्म केवल और केवल खबरों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। देखते जाइए ये बलात्कार कब तक चलता है। क्योंकि टीआरपी के फूहड़ आंकड़े से पीछा छुड़ाने की कोशिश कहीं नहीं दिख रही है। और ना तो स्थिति बेहतर करने के लिए कोई शोध ही हो रहा है।
बुधवार, 9 जून 2010
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे
![](http://1.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/TA8ZIkU9jUI/AAAAAAAAA5Q/5H_stwS7uFo/s320/news-clip-art.gif)
बंद करो अब शोर लगती हैं तुम्हारी ये खबरें
जान चुका हूं तुम्हारे पुते चेहरों पर झल्लाहट का सारा सच
मुझे मालूम है तुम्हारी नेताओं से सांठगांठ की हकीकत
मुझे ये भी पता है कि एक हारी लड़ाई लड़ रहे हो तुम सब
खुद खरोच रहे हो अपने वजूद को अपने नाखूनों से
पैसों की तहों में दब चुकी है तुम्हारी सोच और तुम्हारा प्रोफेशन
मुझे पता है तुम खुद को सुनाने के लिए चीखते हो
मुझे ये भी पता है कि तुम खुद को बचाने के लिए चीखते हो
लेकिन दोस्त तुम्हारी ये चीख
अब दिमाग में हलचल पैदा नहीं करती
सिर्फ और सिर्फ झल्लाहट पैदा करती है
और थोड़ी बहुत तरस पैदा करती है तुम्हारे लिए
तुम्हारे पेशे के लिए
शुक्रवार, 4 जून 2010
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे
![](http://2.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/TAiNZo6NGjI/AAAAAAAAA4s/OAkoOD5OHBg/s320/sad.jpg)
मंगलवार, 11 मई 2010
पत्रकारिता के गुनहगारों को फांसी दो !
![](http://1.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S-j8u7CL4wI/AAAAAAAAA3w/0Ydz2ucv-8g/s320/journalist_25.jpg)
There can be no press freedom if journalists exist condition of corruption, poverty or fear
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट का पन्ना इसी सच के साथ खुलता है। फेडरेशन की चिंता अरब और मिडिल ईस्ट में पत्रकारिता पर पड़ी बेड़ियों से होते हुए रुस तिब्बत श्रीलंका और नेपाल तक जाती है। एशिया पैसिफिक में पत्रकारिता के जोखिम पर ये साइट खुलकर बात करती है। भारत के पत्रकारों पर कट्टरपंथियों और तमाम दबे छिपे दबावों का जिक्र भी एक पन्ने पर है। बहरहाल भारत के पत्रकारों की खुद ऐसी कोई साइट नहीं है। जो साइट हैं भी वो केवल यूनियन के चुनावों और गोष्ठियों के सहारे पत्रकारिता की चिंता के नाटक तक सीमित हैं। कहीं कोई ईमानदार कोशिश नहीं दिखती। प्रेस काउंसिल और तमाम तरह के गिल्ड की क्या हैसियत है वो किसी से छिपी नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया टीआरपी से अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है तो अखबारों को पेड न्यूज के कीड़े ने काट रखा है। चैनलों की दुकानदारी में उनके मालिक मुनाफे और सत्ता के गलियारों में अपनी पैठ बनाने का रास्ता तलाश रहे हैं। इस उलझन में नए पत्रकारों के लिए ना तो स्पेस ही बची है और ना ही उनका भविष्य बाकी है। पत्रकारिता के तथाकथित पुरोधा फिलहाल अपनी जेबें भरने में जुटे हैं। इस चिंता से बेखबर कि देश में पत्रकारिता का शून्य आगे चलकर कैसे भरा जाएगा। एक डाक्टर के बनने में आठ से दस साल का वक्त लगता है। इंजीनियरिंग के लिए भी चार से पांच साल की कठिन पढ़ाई होती है। तो फिर पत्रकारिता के लिए क्रैश कोर्स क्यों। ये भारत की पत्रकारिता का वो जोखिम है जो पत्रकारों पर हमलों और कैमरे तोड़े जाने की घटना से बड़ा है। सोचने की जरुरत है कि आम लोगों की आवाज उठाने वाले पत्रकार अभी तक ऐसा दबाव समूह क्यों नहीं बना पाए जिससे सत्ता प्रतिष्ठान की रुह कांपती हो। जिससे बेलगाम चैनल मालिक घबराते हों। जो दबाव निरुपमा के मसले पर बनाया जा रहा है वो चैनल से बेतरतीब ढंग से बाहर कर दिए गए पत्रकारों के लिए क्यों नहीं बनाया जा सकता। इंसाफ तो सबके साथ होना चाहिए।
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट का पन्ना इसी सच के साथ खुलता है। फेडरेशन की चिंता अरब और मिडिल ईस्ट में पत्रकारिता पर पड़ी बेड़ियों से होते हुए रुस तिब्बत श्रीलंका और नेपाल तक जाती है। एशिया पैसिफिक में पत्रकारिता के जोखिम पर ये साइट खुलकर बात करती है। भारत के पत्रकारों पर कट्टरपंथियों और तमाम दबे छिपे दबावों का जिक्र भी एक पन्ने पर है। बहरहाल भारत के पत्रकारों की खुद ऐसी कोई साइट नहीं है। जो साइट हैं भी वो केवल यूनियन के चुनावों और गोष्ठियों के सहारे पत्रकारिता की चिंता के नाटक तक सीमित हैं। कहीं कोई ईमानदार कोशिश नहीं दिखती। प्रेस काउंसिल और तमाम तरह के गिल्ड की क्या हैसियत है वो किसी से छिपी नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया टीआरपी से अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है तो अखबारों को पेड न्यूज के कीड़े ने काट रखा है। चैनलों की दुकानदारी में उनके मालिक मुनाफे और सत्ता के गलियारों में अपनी पैठ बनाने का रास्ता तलाश रहे हैं। इस उलझन में नए पत्रकारों के लिए ना तो स्पेस ही बची है और ना ही उनका भविष्य बाकी है। पत्रकारिता के तथाकथित पुरोधा फिलहाल अपनी जेबें भरने में जुटे हैं। इस चिंता से बेखबर कि देश में पत्रकारिता का शून्य आगे चलकर कैसे भरा जाएगा। एक डाक्टर के बनने में आठ से दस साल का वक्त लगता है। इंजीनियरिंग के लिए भी चार से पांच साल की कठिन पढ़ाई होती है। तो फिर पत्रकारिता के लिए क्रैश कोर्स क्यों। ये भारत की पत्रकारिता का वो जोखिम है जो पत्रकारों पर हमलों और कैमरे तोड़े जाने की घटना से बड़ा है। सोचने की जरुरत है कि आम लोगों की आवाज उठाने वाले पत्रकार अभी तक ऐसा दबाव समूह क्यों नहीं बना पाए जिससे सत्ता प्रतिष्ठान की रुह कांपती हो। जिससे बेलगाम चैनल मालिक घबराते हों। जो दबाव निरुपमा के मसले पर बनाया जा रहा है वो चैनल से बेतरतीब ढंग से बाहर कर दिए गए पत्रकारों के लिए क्यों नहीं बनाया जा सकता। इंसाफ तो सबके साथ होना चाहिए।
सोमवार, 10 मई 2010
यूपीएससी इंतहान और कुछ सुलगते सवाल
![](http://3.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S-d-zNlhEXI/AAAAAAAAA3o/0WoqoDybc1A/s320/babus.jpg)
अधिकारी तबका अंग्रेजियत से उबर नहीं पाया हैं। शायद इसलिए कि हुक्म चलाना हमारी आदत है। यूपीएससी के इंतहान में पास उम्मीदवारों के इंटरव्यू से जो टीस उठी उससे उठे तमाम सवालों को ब्ल़ॉग पर साझा करने की कोशिश की। जिस तरह हर मसले के कई पहलू होते हैं इस मसले को देखने के भी कई नजरिए हैं और हर नजरिया दूसरे नजरिए के बिना पूरा नहीं है। अतुल भाई पिछले आर्टिकिल से पूरी तरह असहमत दिखे। लंबा चौड़ा लेख लिख मारा।
चिंता वाकई बड़ी है, लेकिन जिस तरह से की जा रही है उस हिसाब से तो इंसान का जीना ही दुभर हो जाएगा। केवल यूपीएससी ही क्यों, देश की कोई एक परीक्षा बता दीजिए जिसमें लोग असफल नहीं होते। यह तो होता ही है कि सफल लोगों की तुलना में असफल ज्यादा होते हैं। जिंदगी के हर मुकाम में असफल लोगों की तादात सफल लोगों से बहुत ज्यादा है। अब आप ही बताइए कि सरकार किस किस का रिसर्च करे। खैर हम सभी आजाद हैं और हमारी जिस अभिव्यक्ति से किसी को कोई नुकसान न हो, इतना तो हक है ही हमें। शायद इसीलिए आपने सरकार को नसीहत दी है, लेकिन मैं कुछ सुझाव देने की हिमाकत कर रहा हूं...गौर फरमाइएगा...मेरा मानना है कि क्या हो रहा है इस पर मगजमारी करने से ज्यादा बेहतर है कि क्या बेहतर हो सकता है इस पर विचार किया जाए। देश में नरेगा (माफ कीजिएगा मनरेगा)का मकसद कुछ ही दिन सही पर रोजगार की गारंटी देना है। अगर ऐसा ही यूपीएससी समेत सभी परीक्षाओं में हो तो हालात कुछ सुधर सकते हैं...और हर किसी को उसकी काबिलियत के हिसाब से काम भी मिल सकता है। अब क्रिकेट को ही देखिए देश में स्कूल कॉलेज की टीम से लेकर स्टेट टीम तक लाखों लोग उस अंतिम ग्यारह में जगह बनाने की कोशिश करते हैं, जो देश के लिए खेलती है। अफसोस की कामयाब सिर्फ ग्यारह को ही मिलती है। लेकिन आईपीएल ने एक नई दिशा दी है और इंडियन टीम की ग्यारह में शामिल होने वाले अगर उसमें शामिल नहीं हो पाते, तो उनके पास शोहरत और पैसा कमाने के लिए आईपीएल का दरवाजा खुला है। अगर कुछ ऐसा ही यूपीएससी में भी हो तो असफल लोगों पर रिसर्च करने की ज्यादा जरूरत महसूस नहीं होगी। मेरे पास एक फार्मूला है...
1. यूपीएससी के लिए परीक्षा देने वाले लोगों में से कोई भी अगर लगातार दो प्री इक्जाम पास कर ले तो उसे अगली बार से सीधे लिखित परीक्षा देने की इजाजात हो।
2. जो भी परीक्षार्थी लगातार दो बार इंटरव्यू दे उसे अगली बार से लिखित परीक्षा देने की बजाय सीधे इंटरव्यू के लिए बुलाया जाए।
3. जो भी दो बार से अधिक इंटरव्यू देने का बाद अपने सभी मौके गवां दे, उसे सांत्वना नौकरी दे दी जाए। अगर उस लेबल की नौकरी देना मुश्किल हो तो उसके थोड़ी कमतर ही सही नौकरी तो दो ही देनी चाहिए। क्योंकि एक दो नंबर से रुकने का मतलब सिर्फ इतना है कि हम उस साल परीक्षा देने वाले लोगों से थोड़ा पीछे हैं...लेकिन इसका ये भी मतलब है कि देश के कई लोगों खासकर यूपीएससी लेबल के नीचे की नौकरी कर रहे लोगों से बेहतर भी हैं।मेरा मानना है कि ये तकनीक सिर्फ यूपीएससी के लिए ही नहीं बल्कि हर लेबल पर इस्तेमाल होनी चाहिए, और ऐसे लोगों को उनकी योग्यता से थोड़ी नीचे ही सही नौकरी दे देनी चाहिए। इससे परीक्षा में बैठे लोगों को तो तसल्ली मिलेगी ही, सरकार को भी परीक्षा में अनावश्यक बोझ से थोड़ी राहत मिलेगी।अंत में कुछ बातें और...
1. देश के बहुत से प्रशासनिक अधिकारियों ने अपनी योग्यता से देश को गर्वान्वित किया है, मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर कैसे हैं इसका मुल्यांकन राजनीतिक होगा, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर बेहद सफल रहे हैं औऱ मिसाल कायम की है।
2.इंटरव्यू में सफल लोग घिसे पिटे जवाब सिर्फ इसलिए देते हैं क्योंकि सवाल ही घिसे पिटे पूछे जाते हैं।
3. घुड़सवारी और टेबल मैनर के साथ ही घास छीलना भी सिखाया जाता है।
4. कालाहांडी ही क्यों, अगर आप प्रोजेक्ट देखेंगे तो पता चलेगा, बुन्देलखंड से लेकर दंतेबाड़ा तक के प्रोजक्ट दिए जाते हैं। आप कभी आईपीएस की ट्रेनिंग देख लीजिएगा, रोंगटे खड़े हो जाएंगे। उम्मीद है...आपके साथ ही सरकार भी थोड़ा बेहतर सोचेगी।
1. यूपीएससी के लिए परीक्षा देने वाले लोगों में से कोई भी अगर लगातार दो प्री इक्जाम पास कर ले तो उसे अगली बार से सीधे लिखित परीक्षा देने की इजाजात हो।
2. जो भी परीक्षार्थी लगातार दो बार इंटरव्यू दे उसे अगली बार से लिखित परीक्षा देने की बजाय सीधे इंटरव्यू के लिए बुलाया जाए।
3. जो भी दो बार से अधिक इंटरव्यू देने का बाद अपने सभी मौके गवां दे, उसे सांत्वना नौकरी दे दी जाए। अगर उस लेबल की नौकरी देना मुश्किल हो तो उसके थोड़ी कमतर ही सही नौकरी तो दो ही देनी चाहिए। क्योंकि एक दो नंबर से रुकने का मतलब सिर्फ इतना है कि हम उस साल परीक्षा देने वाले लोगों से थोड़ा पीछे हैं...लेकिन इसका ये भी मतलब है कि देश के कई लोगों खासकर यूपीएससी लेबल के नीचे की नौकरी कर रहे लोगों से बेहतर भी हैं।मेरा मानना है कि ये तकनीक सिर्फ यूपीएससी के लिए ही नहीं बल्कि हर लेबल पर इस्तेमाल होनी चाहिए, और ऐसे लोगों को उनकी योग्यता से थोड़ी नीचे ही सही नौकरी दे देनी चाहिए। इससे परीक्षा में बैठे लोगों को तो तसल्ली मिलेगी ही, सरकार को भी परीक्षा में अनावश्यक बोझ से थोड़ी राहत मिलेगी।अंत में कुछ बातें और...
1. देश के बहुत से प्रशासनिक अधिकारियों ने अपनी योग्यता से देश को गर्वान्वित किया है, मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर कैसे हैं इसका मुल्यांकन राजनीतिक होगा, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर बेहद सफल रहे हैं औऱ मिसाल कायम की है।
2.इंटरव्यू में सफल लोग घिसे पिटे जवाब सिर्फ इसलिए देते हैं क्योंकि सवाल ही घिसे पिटे पूछे जाते हैं।
3. घुड़सवारी और टेबल मैनर के साथ ही घास छीलना भी सिखाया जाता है।
4. कालाहांडी ही क्यों, अगर आप प्रोजेक्ट देखेंगे तो पता चलेगा, बुन्देलखंड से लेकर दंतेबाड़ा तक के प्रोजक्ट दिए जाते हैं। आप कभी आईपीएस की ट्रेनिंग देख लीजिएगा, रोंगटे खड़े हो जाएंगे। उम्मीद है...आपके साथ ही सरकार भी थोड़ा बेहतर सोचेगी।
शुक्रवार, 7 मई 2010
यहां अंग्रेज पैदा होते हैं
![](http://1.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S-PTUtQx9NI/AAAAAAAAA3g/MCKtdBc3Fa4/s320/black-money-and-corruption2.jpg)
गुरुवार, 6 मई 2010
निरुपमा...तुम खबर नहीं बन सकती !
![](http://4.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S-I1ZvUVMoI/AAAAAAAAA3Y/RU6dzvBuS-4/s320/nirupamajournalistgrid216.jpg)
( अमित यादव आईएमएमसी के उसी बैच के छात्र हैं जिस बैच में निरुपमा थीं। निरुपमा और प्रियभांशु की दोस्ती और प्रेम का रास्ता अमित ने काफी करीब से देखा। जब प्रियभांशु और निरुपमा पर लिखी खबर का वाइसओवर करने का वक्त आया तो अमित का गला रुंध गया। दोस्त और उसके प्रेम का देखते देखते यूं खबर बन जाना किस कदर कचोटता है। ये अमित ने हमारे साथ साझा किया)
मंगलवार, 4 मई 2010
फ्लैश के उस पार
![](http://1.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S9-j5CnzGyI/AAAAAAAAA3E/o5F1YI-ieII/s320/old_man.gif)
कैमरे का फ्लैश चमकने से पहले,
रेडी वन टू थ्री कहते ही
कितनों के चेहरे पर आई होगी
जबरदस्ती की मुस्कुराहट ।
कैमरे ने बड़े सलीके से खींच लिए होंगे
होठों के वो बनावटी एक्सप्रेशन।
कैमरों में बड़ी चालाकी से छिप गई होगी
जिंदगी से जूझने की जद्दोजहद,
मां की बीमारी की परेशानी,
और रोज रोज बनते बिगड़ते रिश्तों की कहानी।
तस्वीरों के ऐसे आधे अधूरे सच
फोटो की शक्ल में किसी के फेसबुक
तो किसी के ब्लॉग पर नत्थी हैं।
आधी अधूरी तस्वीरों की तमाम दस्तकें
फ्रैण्डस् रिक्वेस्ट की शक्ल में सामने हैं
एक भ्रम और है जो उसे एक्सेप्ट कर रहा है।
(04 april 2010)
रेडी वन टू थ्री कहते ही
कितनों के चेहरे पर आई होगी
जबरदस्ती की मुस्कुराहट ।
कैमरे ने बड़े सलीके से खींच लिए होंगे
होठों के वो बनावटी एक्सप्रेशन।
कैमरों में बड़ी चालाकी से छिप गई होगी
जिंदगी से जूझने की जद्दोजहद,
मां की बीमारी की परेशानी,
और रोज रोज बनते बिगड़ते रिश्तों की कहानी।
तस्वीरों के ऐसे आधे अधूरे सच
फोटो की शक्ल में किसी के फेसबुक
तो किसी के ब्लॉग पर नत्थी हैं।
आधी अधूरी तस्वीरों की तमाम दस्तकें
फ्रैण्डस् रिक्वेस्ट की शक्ल में सामने हैं
एक भ्रम और है जो उसे एक्सेप्ट कर रहा है।
(04 april 2010)
जिंदगी को कैसे देखें...
![](http://4.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S998I50HpOI/AAAAAAAAA28/EvrNSqi9tjI/s320/sky.jpg)
(कुछ बातें दिल को छू जाती हैं...१७ दिसम्बर २००८ को दैनिक भास्कर में छपे सम्पादकीय में विचारक स्टीफन आर कवी का इंटरव्यू छपा था...उन्होने कुछ ऐसी बातें कही... जिसने मुझे काफी प्रभावित किया...उनके इंटरव्यू के कुछ अंश यहां कोड कर रहा हूं...)
सवाल...जिंदगी को कैसे देखें...
स्टीफन...शरीर के बारे में सोचिए कि आपको दिल का दौरा पड़ चुका है...अब उसी हिसाब से खानपान और जीवनचर्या तय करें...दिमाग के बारे में सोचिए कि आपकी आधी पेशेवर जिंदगी सिर्फ दो साल है...इसलिए इसी हिसाब से तैयारी करें...दिल के बारे में ये मानिए कि आपकी हर बात दूसरे तक पहुंचती है...लोग आपकी बात छिपकर सुन सकते हैं...और उसी इसी हिसाब से बोलें...जहां तक भावना का सवाल है...ये सोचिए कि आपका ऊपरवाले के साथ हर तीन महिने में सीधा साक्षात्कार होता है...इसी हिसाब से जीवन की दिशा तय करें...
शनिवार, 1 मई 2010
बस इतनी सी पहचान
ख्वाहिश नहीं कि इतिहास की तारीखो की तरह जबरन याद रखा जाऊं। न्यूटन के फार्मूले की तरह किसी पहचान से बंधने का इरादा भी नहीं है। पैसे को पहाड़े की तरह जोड़ने की ना अक्ल है और ना शौक। इतना बड़ा नहीं हुआ कि खुद की पहचान को शब्दों में बांट सकूं। फिलहाल अपने पेशे में खुद को तलाश रहा हूं। दिल का घर लखनऊ में है और खुद का पता अभी किराए पर है।
शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010
सानिया की स्कर्ट जैसी छोटी सोच
![](http://1.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S7Vu8YcYd9I/AAAAAAAAAyI/fHAsX3YXa5U/s320/saniya.bmp)
सानिया की शादी के बाद उनके खेल का मुल्क क्या होगा ये सवाल किसका है। आम लोगों का, नेताओं का. या फिर मीडिया का। अमिताभ सदी के महानायक हैं ये किसने तय किया। उनके फैन्स ने, खुद उन्होने, या फिर मीडिया ने। जो अमर सिंह एक चुनाव लड़ने और जीतने की हैसियत नहीं रखते उनकी प्रेस कांफ्रेंस घंटों लाइव क्यों चलती हैं। क्या अमर ऊंचे कद के नेता हैं या फिर मीडिया उन्हें बड़े नेता के तौर पर पेश करने पर तूली है। ऐसे तमाम सवाल हैं जो मीडिया की साख के सामने खड़े हैं। खबरों का मसाला तैयार करने के लिए विवादों को कैश करना मीडिया की आदत बन चुका है। अगर विवाद के साथ कोई सेलिब्रेटी जुड़ा हो तो खबरों का तड़का और भी जबरदस्त हो जाता है। मीडिया ने शायद ही सानिया के खेल को कभी इतनी तब्बज़ो दी हो जितना उनकी शोएब से शादी को हासिल हो रही है। कहानी मजेदार है सो बेची जा रही है। कहा जाता है कि टीवी सबसे मुश्किल माध्यम है दर्शक को अपने चैनल पर रोकना उससे भी मुश्किल है। इसी मुश्किल से न्यूज चैनलों की तमाम मुश्किलों की शुरुआत होती है। एक अप्रैल खबरों के लिहाज से बड़ा दिन था। एक ओर बायोमिट्रिक जनगणना की शुरुआत हुई तो दूसरी ओर राइट टू एजुकेशन का कानून लागू हुआ। रिटायर सैनिकों के पेंशन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई। लेकिन इन सभी खबरों पर सानिया की खबर भारी पड़ी। हद तो तब हो गई जब एक साइट पर अप्रैल फूल बनाने के लिए छपी सानिया की खबर को कई चैनलों ने बतौर ब्रेकिंग न्यूज तक में चला डाला। बाद में साइट ने स्पष्ट किया की वो देखना चाहते थे कि दूसरी साइट वाले और न्यूज चैनल्स किस तरह से खबरों की चोरी करते हैं। कईंयों की चोरी पकड़ी गई। इस हड़बड़ी ने कई बातें साफ कर दीं...पहली ये कि चैनल के मालिकान टीआरपी का बहाना बनाकर अपने गिरेवान में झांकना नहीं चाहते। दूसरा ये कि न्यूज को मनोरंजक बनाने के लिए खबर की जान ले लेने से भी अब टीवी संपादकों को कोई परहेज नहीं है। ये बात पूरी तरह सच है कि खबरों को लेकर दर्शकों का जायका बिगड़ा है लेकिन उतना बड़ा सच ये भी है कि उसे बिगाड़ने का काम खुद न्यूज चैनल ने किया है। बेसुरी और बेअक्ल राखी सांवत अगर खुद को सेलिब्रेटी समझती हैं तो सिर्फ और सिर्फ टीवी वालों की वजह से। अमर बार बार भद्दी शायरियां सुनाकर खुश होते हैं तो उसके पीछे भी टीवी चैनलों की सोच जिम्मेदार है। अमिताभ चैनलों को बुरी तरह तताड़ लगाकर चलते बनते हैं और कल तक चुप रहने वाली जया बच्चन चैनल वालों को आमंत्रित करके उनकी बेइज्जती करतीं हैं तो सिर्फ और सिर्फ टीवी संपादकों की छिछली सोच की वजह से। हमने दर्शकों को इन्हीं जायकों का आदी बनाया है और इस बदमिजाजी को परोसने के बाद पत्रकार की हैसियत से इज्जत की उम्मीद रखना ठीक नहीं है।
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010
खबरों का कूड़ा और उसकी दुकान
![](http://3.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S7QZV4iNWcI/AAAAAAAAAyA/HIKRXtv_Q3c/s320/aihole_dustbin.jpg)
बुधवार, 31 मार्च 2010
यूपी को बिहार से खतरा !
![](http://4.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S7LdC5VE0fI/AAAAAAAAAxw/28hLisxGx00/s320/241108mayawati.jpg)
मंगलवार, 30 मार्च 2010
गरियाना तो सबको आता है पर...
![](http://4.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S7GCK66lU8I/AAAAAAAAAxo/FTiMkDb1IB8/s320/excellence.jpg)
बड़बड़ाते झुंझलाते और काफी हद तक गरियाते लोगों से घिरा हूं। समझना मुश्किल है क्या बोलूं क्या कहूं। बस हां में हां मिलाकर काम चला लेता हूं। ना सहमति ना असहमति। सबकी अपनी शिकायते हैं सबकी अपनी कहानियां हैं। दरअसल दिक्कतें कई हैं। सब अपनी नजरों में सिकंदर हैं। सबके अपने पूर्वाग्रह हैं। लेकिन मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि कोई कैसे तय कर सकता है कि वो इस सदी का सबसे बड़ा राइटर है। कोई कैसे इस गुमान में जी लेता है कि वो बोलेगा और कई सदियों का कहा हमेशा के लिए मिट जाएगा। या फिर वो लिखेगा और पुराना लिखा सबकुछ मिटा देगा। क्यों लोग आसपास की दुनिया को देखना नहीं चाहते अपनी कमीज पर लगे दागों को धोने की कोशिश करना नहीं चाहते। शिकायतें यहीं से शुरु होती हैं। काबिलियत बोले जाने की मोहताज नहीं होती। उसका खुद का चेहरा होता है। ठीक वैसे जैसे ए आर रहमान की काबलियत धुनों में सुनी जा सकती है। सचिन का एक्सीलेंस उनके शॉट्स में बखूबी छलक आता है। दरअसल सीखने के लिए बहुत कुछ है और करने को बहुत स्पेस है। जरुरत है अपने दिमाग में स्पेस बनाने की। समाचार माध्यमों के साथ जो हो रहा है वो दिमाग में उस स्पेस की कमी का नतीजा है। जो दिमाग में विचारों का स्पेस बना लेते हैं वो इस भेड़चाल में भी दिल्ली का लापतागंज खोज लेते हैं। कैमरे आंख की तरह इस्तेमाल हों और माइक किसी की आवाज की तरह तो यकीन जानिए न्यूज में बहुत कुछ कहने सुनने के लिए होगा। वरना कॉमेडी सर्कस और रियलटी की उधारी से न्यूज चैनलों की दुकानें सजती रहेंगी।
रविवार, 21 फ़रवरी 2010
वो गुमनाम खत पार्ट २
![](http://2.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S4DpGA3_oOI/AAAAAAAAAwk/HF3rH6OcDyc/s320/397906-7bfe347f-1aea-4f5b-b59d-7c8e0e12410cl.jpg)
गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010
आई एम नॉट टेररिस्ट !
![](http://3.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S3zsqAxoc_I/AAAAAAAAAwc/Ib6BN24dfK8/s320/my_name_is_khan_2.jpg)
सोमवार, 15 फ़रवरी 2010
वो गुमनाम खत पार्ट १
![](http://2.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S3kfQ0Kn38I/AAAAAAAAAwU/6SkWMe-Um14/s320/3.jpg)
शुक्रवार, 8 जनवरी 2010
दिल्ली से तू तू मैं मैं
![](http://1.bp.blogspot.com/_QfFu6EsvNYQ/S0a0DiCCgII/AAAAAAAAAvM/Vw99n_1eOaY/s320/traffic-jam-at-mathura-road-during-india-9464.jpg)
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