सोमवार, 24 अगस्त 2009

कवरपेज पर 'जिन्न' आ

जिन्ना इंडिया टुडे और आउटलुक के कवरपेज पर हैं। जाहिर है जिन्ना का इतिहास वर्तमान के सामने खड़ा है। जिन्ना के बारे में पाकिस्तान के कन्फ्यूजन को समझना हो तो 1998 में बनी फिल्म 'जिन्ना' देखिए। ये फिल्म अंग्रेजी में बनी बाद में उर्दू में भी डब हुई। क्रिटोफर ली जिन्ना की भूमिका में है। राष्ट्रवादियों को ऐतराज हो सकता है क्योंकि फिल्म में शशि कपूर भी हैं। जो कहानी को नैरेटर के तौर पर आगे बढ़ाते हैं। फिल्म कमलेश्वर के 'कितने पाकिस्तान' के अंदाज में बढ़ती है। जिन्ना तमाम अनसुलझे सवालों के जवाब के साथ वर्तमान में शशि कपूर से मुखातिब हैं। कहानी जिन्ना के तमाम पहलुओं को छूती है लेकिन छिछले ढंग से। नेहरु इस फिल्म के असल खलनायक हैं। फिल्म में उन्हें अंग्रेजों के मोहरे के तौर पर पेश किया गया है। उनकी और एडविना की दोस्ती फिल्म में अंतरंगता की सारी हदें पार करती दिखती है। एक सीन मे जब जर्नलिस्ट नेहरु के कमेंट को कोट करके उनसे सवाल पूछते हैं तो जिन्ना कहते हैं कि मैं उसके लतीफों पर हंसता नहीं इसलिए वो ऐसी अफवाहें फैलाता है। जिन्ना के नजरों में महात्मा गांधी केवल मिस्टर गांधी हैं। उन्हें गांधी को महात्मा गांधी कहने मे एतराज है। फिल्म में अपनी सहूलियत के मुताबिक खलनायकों को चुनने के बावजूद नायक जिन्ना खुद ही पूरी कहानी में अन्तर्द्वन्द से जूझते नजर आते हैं। अपनी निजी जिंदगी के तमाम सवालों में जिन्ना बार बार उलझते हैं। बंटवारे में लाखों कत्ल के बाद जब ये सवाल उठता है कि क्या बंटवारा जरुरी था। तो जवाब में जिन्ना फिल्म के नैरेटर यानी शशिकपूर को ६ दिसम्बर के बाबरी विध्वंश की तस्वीरें दिखाते हैं और बताने की कोशिश करते हैं कि क्या हिन्दुस्तान में मुसलमान महफूज रह सकते हैं। एक सीन में जब लार्ड माउंटवेटन बंटवारे की जिद को जिन्ना का दीवानापन बताते हैं तो जवाब मे जिन्ना कहते दिखते हैं कि ये उतना ही पागलपन होगा कि छोड़ दिया जाए मुसलमान अक्लियत को मुतासिद हिन्दुओं के अक्लियत जेरे तस्लुद...। कहानी बार बार अंग्रेजों को हिन्दुस्तान का फिक्रमंद बताने की कोशिश करती है। फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं। लेकिन इस फिल्म को खुद जिन्ना का किरदार कमजोर बनाता है। कुल मिलाकर जिन्ना पर बनी इस फिल्म के बहाने सरहद पार के इतिहास को समझना कठिन हो जाता है।