मंगलवार, 17 जून 2008

Yaqin jano...

Waqt-e-vasl1 main na khamosh baitho tum
Ki, Dil machalne lagta hai,
Koi farmaish2 karo, koi shikwa3 hi kaho
Ki khud pe tumhara ikhtiyar4 lagta hai.
Na bandho zulfon ko bandishon5 me,
Inke udhne per hi inka rang nikrta hai
Har baat ka jawab sir jhuka ke deti ho,
Han sach hai,
Tumko kya gharz6 hai, kiska dam nikalta hai
Sach kahun! Mujhe taab7 nahi hai, nazar milane ki,
Ki hausla to rakhta hu,
magar dil be-ekhtiyar8 sa lagta hai…
Kya sochte ho chupaloge khud ko iss chilman9 se?
Ki Aftab, abr10 hone per bhi asar rahta hai…………
Kahe jate ho ki jana hai - Aur uthte bhi nahi
Aur hum jumbish11 kerte hain
To kehte ho ki bura sa lagta hai…
Dil ko manana itna aasan to nahi hai magar
Yaqin jano!
Ki phir milne ke ahad12 se ye bhi samabhalne lagta hai….
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1. Waqt-e-vasl=meeting time, 2. farmaish=Wish, 3. Shilwa=complain, 4. ikhtiyar=Control, 5. bandishon=Limitation, 6. gharz=Want, 7. taab=Power, 8. be-ekhtiyar=out of control, 9. chilman=Curtain, 10. abr=Cloud, 11. jumbish=movement, ahad=promises

(Javed aziz....00447918901248) london U.K.

सोमवार, 16 जून 2008

माफ़ करना बाबूजी...पार्ट १

उस खिड़की से... दूर दूर तक पेड नज़र आते थे... लगता था कि पूरे शहर को पेड़ से घेर दिया गया हो... शाम को सूरज लाल होकर गुम होने तक उस खिड़की से झांकता रहता.. शाम जब रात की करवट लेती तो पूरा शहर रोशनी की चादर तान लेता.. अक्सर ऐसे वक्त उपन्यास के कुछ पन्ने खुद ब खुद पलट जाते... और निर्मल वर्मा का एकाकीपन मन के गहरे तक उतर जाता... चाय की मिठास में वक्त घुलते घुलते नींद के आगोश में जाने को बेकरार हो उठता....लेकिन इस बीच कमबख्त नीद कब छत पर टहलने चली जाती पता नहीं चलता... चांद की रोशनी में यादें बार बार बचपन के करवट हो लेतीं...और जब अपने याद आते तो मन बेचैन हो जाता... इस बेचैनी के बीच रात और चाय का एक अजीब सा रिश्ता बन गया था... रातें उसके लिए खुली किताब की तरह थी.. जिसपर वो बार बार कुछ लिखकर मिटाता रहता... दोस्तों के फोन भी अब ज्यादा नहीं आते थे... अब वो अक्सर उपन्यासों से बात करता.. कविताओं से बोलता.. और चाय के साथ गजले सुनकर रात काट देता.. सुबह से उसे एक अनजाना सा डर लगने लगा था... सुबह का मतलब था नौकरी की तलाश में दर दर की ठोकर...ऐसा करते करते चार महिने और चार दिन गुजर चुके थे...पुरानी नौकरी से कमाया पैसा अब खत्म होने को था...दिल्ली में रहना अब मुश्किल था.. कभी कभी तो सब्र जबाब दे जाता... लेकिन बीमार रिटायर पिता की चिंता उसे दिल्ली की दिक्कत के बीच रोक देती... जब तक पैसे कमाए तब तक ज्यादात्तर पैसा बाबूजी को मनीआर्डर कर दिया...लेकिन दो बार से मनीआर्डर नहीं भेजा...हां कुछ बहाने और उम्मीदें जरुर अपने बूढे बाबूजी तक पहुंचा दी.. बाबूजी भी अब अक्सर बीमार रहने लगे थे...मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद भी मां की आंखों का धुंधलापन गया नहीं था.. भला हो उस छोटकी का जिसने घर संभाल रखा था.. .कहने को वो घर पर सबसे छोटी थी... लेकिन भाई का सारा फर्ज अपने छोटे कंधे पर उठा रखा था... इस साल गांव के सरकारी स्कूल में नवें में दाखिला लिया था... पिछली बार बाबूजी के सारे पैसे छोटकी का दाखिला करने में खत्म हो गए... आगे की उम्मीद बेटे के मनीआर्डर पर टिक गई थी.. लेकिन वो बेटा....क्या बताता वो बाबूजी से...कि वो दिल्ली में आजकल नौकरी के लिए धक्के खा रहा है... क्या कहता बाबू जी से कि देखिए बाबूजी भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा ना बनकर मैने गलती की.. या फिर बाबू जी समाज बदलने निकला आपका लड़का धीरे धीरे खुद बदल रहा है... बाबू जी पुराने कम्यूनिस्ट थे... व्यवस्था के भ्रष्ट तंत्र से उन्हें चिढ़ थी..जब तक हाथ पैर चले लेनिन और मार्क्स को समझने और समझाने की कोशिश करते रहे...लेकिन बूढ़ापे के आगे उनका कम्यूनिज्म हार गया... वो सपना टूट गया...जो जोशीले भाषणों में बार बार दिखता था...गांव के बेकार लोग जिन्हें बाबू जी समाज का कोढ़ कहते थे शहर जाकर खूब पैसे जुटा लाए थे... गांव के खेतों मे शाखाएं लगनी शुरु हो गईं थीं.. रहमान और शकील चाचा से गांव के लोगों ने दूरी बना ली... बेबस आंखो से बाबू जी कम्यूनिज्म के गांव में पहुंचने का इंतजार करते रहे... जब बाबूजी का शरीर साथ देने से इंकार करने लगा तो ...अपने सपनों का बोझ उन्होने बेटे का कंधे पर रख दिया... बेटा दिल्ली में था...और एक अखबार में कम्यूनिस्ट पार्टी कवर करता था...बाबू जी इसी बात से खुश थे... लेकिन उन्हें क्या पता था कि अखबार के दफ्तरों में साम्यवाद नहीं चलता.. यहां बॉसिजिज्म का सिक्का बोलता है... जिसके लिए सब मशीन हैं... उनका बेटा भी...(आगे जारी)

सोमवार, 2 जून 2008

गुलज़ार के बहाने ग़ालिब..एक


तकरीबन दो दशक पहले गुलज़ार ने मूवी हाउस के बैनर तले सीरियल मिर्ज़ा गा़लिब बनाया था...नसिरुद्ददीन शाह ने मिर्ज़ा गा़लिब का किरदार अदा किया था...और रिसर्च का काम क़ैफ़ी आज़मी और गुलज़ार ने मिलकर किया था...संगीत जगजीत सिंह का था जो आज भी गुनगुनाया जाता है..कुछ दिन पहले मिर्ज़ा ग़ालिब फिर से देखने का मौका लगा...सीरियल तो खूबसूरत है कि उसकी स्क्रिप्ट संजोकर रखने वाली है..
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( दीवाली के मौके पर चौसर खेलते हुए )
मिर्ज़ा तोफ्ता ...अरे वाह उस्ताद दीवाली पर तो आप हर साल जीतते हैं...
मिर्ज़ा गा़लिब ...जीतता तो मैं ईद पर भी हूं..मिर्जा तोफ्ता ..बस ईद पर रस्म नहीं है जुआं खेलने की
अनजान शख्स...आप भी कहां रस्मों रिवाज मानते हैं मिर्जा
मिर्ज़ा गा़लिब... ऐसा ना कहो भाई ..मैं हर रस्मों रिवाज को मानता हूं..इसीलिए एक का कायल नहीं हूं....
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( गालिब के बेटे की मौत के बाद )
मुफ्ती...सब्र करो मिर्ज़ा...उसकी मर्जी में क्या छिपा है क्या पोशिदा है कोई नहीं जानता ...उसके राज निराले हैं
मिर्ज़ा गा़लिब... क्या छुपा है मुफ्ती साहब..क्या पोशिदा है..मेरा एक बेटा हुआ था... वो मर गया.. और वो दफ्न है अपनी कब्र में.. इतनी छटंकी सी जान... मनों मिट्टी पड़ी है उस पे कि कम्बख्त करवट भी ना ले सके.. . इसमें राज की कौन सी बात है... जना था उमराव बेगम ने और मारा उसे अल्लाह ने.. और कौन है मारने वाला... उसके बगैर हक है किसी को
मुफ्ती...आप ही ने कहा था जान दी..दी हुई उसी की थी.. हक तो यूं है कि हक अदा ना हुआ... ...
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( बेटे की कब्र के पास)
मिर्ज़ा गा़लिब ..जाते हुए कहते हो कयामत को मिलेगें...क्या खूब..कमायत का है गोया कोई दिन और..
लाला ( मिर्ज़ा गा़लिब के दोस्त ).. असद कहां खो गए हो इस वक्त
मिर्ज़ा गा़लिब... सोच रहा हूं कि दरगाह तक हो आऊं.. एक चादर चढ़ानी बाकी है...एक चढ़ाई थी जब मन्नत मांगने गया था बच्चे की...एक शुक्राने की चढ़ाई थी...अब एक माज़रत की चढ़ा आऊं...माफी मांग आऊं ख्वामोखां तकलीफ दी आपको....
लाला...जी कड़वा मत करो असद
मिर्ज़ा गा़लिब ...मै नहीं करता लाला...लेकिन उस औरत का क्या करुं.. जो मरी जा रही बच्चे जनते जनते...अपनी गोद भरने के लिए...उसकी गोद तो मुर्दों से भरी जा रही है...ये पांचवा बच्चा था लाला....
लाला..चलो घर चलो...
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रविवार, 1 जून 2008

सरकारी स्कूल की दीवारें

सरकारी स्कूलों की
दीवारें अक्सर
ज्यादा उंची नहीं होती..
बड़ा आसान होता है
उन्हें यूं ही फांदा जाना..
मुझे अपने
स्कूल की दीवार कभी ज्यादा
ऊंची नहीं लगी
सरकारी तंत्र की हवा
आसानी से यहां आती जाती रही..
जाति..धर्म का एहसास
मास्टरों के दिमाग से होता हुआ
अक्सर मेरे अंदर
घुसपैठ करता रहा...
भ्रष्टाचार को
गुरु शिष्य परम्परा
के लबादे में..
कई बार सरकारी स्कूल की दीवारें
फांद कर आते देखा..
मास्टरो की डांट
अक्सर
स्कूल की दीवारें
फांद कर उनके घरों में
ट्यूशन पढ़ने के लिए
मजबूर करती रही..
आज भी जब अपने स्कूल
की ओर से गुजरता हूं
तो अपने भीतर की
एक छोटी दीवार का
एहसास हो जाता है...
( सरकारी स्कूल का वो सच जो मैने महसूस किया..ये मेरे निजी विचार हैं..सरकारी स्कूल को लेकर सहानुभूति मेरी भी है..लेकिन जो लिखा मेरा अपना अनुभव है..)