सोमवार, 29 दिसंबर 2008

मेरा कबूलनामा ३...दिल से


बाबा और दादी
तारीख २५ दिसम्बर थी..साल १९९२ था..बाबा के गुजरने की खबर आई..मुझे याद है हम क्रिकेट खेल रहे थे (थोड़ा थोड़ा याद है) हमें किसी ने आकर बताया कि फैजाबाद चलना है...कहा तो ये गया कि बाबा की तबीयत काफी खराब है...लेकिन मुझे उसी वक्त कुछ खटका लग गया...बाबा ने हम भाईयों से कभी प्यार से दो लफ्ज नहीं बोले...लेकिन वो एक अच्छे इंसान थे...पूजा पाठ करते थे...ईमानदार थे...और सबसे बड़ी बात थी उनकी गांव नें सभी लोग इज्जत करते थे...इतने सालों बाद भी उनका चेहरा मेरे जेहन में है...लेकिन उनसे कभी उतनी आत्मीयता नहीं हो पाई...जितनी मेरी दादी से थी...दादी का नाम मनराजी देवी था...बहुत पूछने पर बहुत शरमा कर वो अपना नाम बताती थी...वो बिल्कुल पढ़ी लिखी नहीं थी...उन्हे ना तो घड़ी देखना आता था...और ना ही दुनियादारी से ही कोई मतलब था...उनके होने या ना होने का कोई फर्क कम से कम घर के लोगों के बीच कभी नहीं दिखा...लेकिन मैने उनकी आंखों में ममता देखी...बड़े पापा या चाचा के आने पर वो दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती थी...लेकिन उनकी इस ममता को कभी पुचकार नसीब नहीं हुई...बाबा और दादी के बीच कभी बात हुई हो याद नहीं आता...शायद उनको लेकर यही उपेक्षा मुझे दादी के करीब लाती थी...वो मेरी दादी थी...जिनकी गोद में सर रख देता था तो बड़ी देर तक सर सहलाती थी.. उनकी बातें समझ में नहीं आती थी फिर भी सुनता था...उनको ए बी सी डी सिखाता था...वो हंसती थी..टूटी फूटी जुबान में बतती थी कि उन्होने अंग्रेजों को देखा था....लेकिन इससे ज्यादा उन्हें कुछ नहीं पता था...शायद घर की चारदीवारी ने उन्हे उतनी सहूलियत नही दी कि वो कुछ जान पाती...घर पर लोग कहते थे कि उनमें समझ कम है...लेकिन वो मेरी दादी थी..उनके बारे में आज सोचता हूं तो आंखे भर आती हैं...आज भी अफसोस होता है कि उनके आखिरी वक्त मैं उनके साथ नहीं था...लेकिन ये जरुर कबूल करता हूं कि उन्हें दुनिया से और न्याय मिलना चाहिए था...दरअसल ये बातें मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि आपकी जिंदगी बहुत सारी चींजों से बनती है...आपकी जिंदगी के एक एक पात्र का आप पर असर होता है...बाबा और दादी मेरी जिंदगी का ऐसा ही हिस्सा हैं...लोग बचपन में मेरी दयालुता देखकर जब मुझे अपने बाबा की तरह बताते थे तो मुझे अच्छा लगता था...और जब दादी से मेरे लगाव की बात कोई करता था...तो भी मुझे अच्छा लगता था...साफ था कि कहीं ना कहीं मेरे बाबा और दादी का हिस्सा मेरे अंदर गहरे तक था...

मेरा कबूलनामा...दिल से 2

साम्प्रदायिकता और मै
जिंदगी की कहानी कहना काफी मुश्किल है.. .कभी कभी चीजें काफी उलझी सी दिखती है...कभी लगता है जिंदगी किसी खुली किताब की तरह है...इस बार उसी जिंदगी के पन्नों को पलटने की कोशिश कर रहा हूं...शायद किसी पन्ने से अपने लिए कुछ तलाश सकूं...याद करता हूं तो बचपन में ऐसा कुछ याद नहीं आता जो रोमांच से भर दे.. हां जमकर क्रिकेट जरुर खेली...हालांकि ना तो बैटिंग ही अच्छी थी और ना ही बॉलिंग...बॉलिग का एक्शन तो देखकर लोग मुझ पर हंसते भी थे...लेकिन जब तक क्रिकेट खेलने की उम्र थी खेली..अघोषित तौर पर कैप्टन भी रहा....लेकिन कब खेल जिंदगी में पीछे छूट गया...पता नहीं चला...दूसरा जो काम मुझे याद आता है वो है अखबार चाटना...उम्र कोई बहुत ज्यादा नहीं होगी...छठी क्लास से अखबार पढ़ने का चस्का लग गया था...हां बस पन्ने बदलते रहे...पहले खेल पेज फिर मनोरंजन की खबरें और फिर शहर को जानने के लिए पेज नंबर ३...
बात १९९० की है... इस दौरान अयोध्या में भी काफी कुछ चल रहा था...कारसेवक अयोध्या पहुंच रहे थे...कहा जा रहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़ कर वहां भव्य राममंदिर बनना चाहिए...जय श्री राम का नारा हर जुबान पर था...हर दीवारें नारों से पटी थीं...मुझे वो नारे अभी भी याद हैं काफी दिनों तक पुरानी दीवारों पर वो नारे टिके भी रहे... बच्चा बच्चा राम का जन्मभूमि के काम का...रामलला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे...हजारों की संख्या में कारसेवकों का अयोध्या पहुंचने का सिलसिला चल रहा था...अयोध्या छावनी में तब्दील कर दी गई थी....अयोध्या में पसरे खौफ का असर लखनऊ तक दिखा करता था.. अगर मैं गलत नहीं हूं तो उस वक्त अशोक प्रियदर्शनी लखनऊ के डीएम हुआ करते थे...हमारे स्कूल कालेज लगातार बंद चल रहे थे...सरकार मुलायम सिंह यादव की थी...वही मुलायम जिनका पहली बार नाम सुनकर हमें बड़ी हंसी आई थी.. तब शायद समाजवादी जनता पार्टी की सरकार थी...फिलहाल ३१ अकटूबर को अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाई गई...सैकड़ों कारसेवक मारे गए...एक नवम्बर के अखबार कारसेवको के खून से रंगे थे...सभी की हेडलाइन एक से बढ़कर एक थी...एक अखबार ने हेडिंग लगाई थी कि कारसेवको के खून से लाल हुई सरयू...अब पता नहीं की कोई नदी कितने लोगों के मारे जाने से लाल हो सकती है....लेकिन ये तो तय था कि अयोध्या में जो कुछ हुआ है उससे लोग आहत हैं....खासकर हिन्दू....लेकिन इसी गोलीकांड ने मुलायम सिंह यादव को मुसलमानों के बीच हीरो बना दिया था...मुसलमानों को लगा कि इस देश में कोई तो ऐसा नेता है जो मस्जिद बचाने के लिए अपना सबकुछ झोंक सकता है...खुद मुलायम ये ऐलान कर चुके थे कि मस्जिद के पास कोई परिन्दा भी पर नहीं मार सकता है...ऐसा हुआ भी....कारसेवक मस्जिद तक नहीं पहुंच पाए...लेकिन इस पूरी घटना ने देश को साम्प्रदायिक खांचे में बांट दिया...आज उस माहौल को याद करता हूं तो लगता है कि वो समय अगर मुलायम को राजनीतिक पहचान दिलाने के लिहाज से अहम था...तो बीजेपी को भी एक मॉस सपोर्ट उसी वक्त मिला...और देश खतरनाक तौर पर साम्प्रदायिक खांचे मे बंट गया...मैं भी बंटा...कुछ कुछ बीजेपी की तर्ज पर... मैं भी उस भीड़ में शुमार था जो मुसलमानों को कोसते हैं...
इसके घटना के बाद दो बड़े चेंज हुए...मुलायम सिंह यादव सत्ता से बेदखल हो गए...और बाद में हुए चुनाव में बीजेपी बड़े बहुमत के साथ यूपी समेत पांच राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब हुई...यूपी मे कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने.. मेरे ख्याल से ये बीजेपी का सबसे बेहतरीन दौर था...लेकिन एक और घटना इस बीच में हुई राजीव गांधी की मौत...कहते हैं इस मौत की सहानुभूति में कांग्रेस केन्द्र में आने में कामयाब रही...और नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने...इसके बाद काफी दिनो तक फिजा में सम्प्रदायिकता घुली रही...तब तक जब तक ६ दिसम्बर १९९२ को बाबरी मस्जिद गिरा नहीं दी गई...मुझे वो दिन आज भी याद है....अयोध्या में मस्जिद पूरी तरह गिर चुकी थी...लेकिन शाम को दूरदर्शन के समाचार में हेडलाइन थी कि बाबरी मस्जिद के गुंबदों को काफी नुकसान ..अगले दिन अखबारों में बाबरी मस्जिद के गिरने की जो खबर छपी...उसके बाद तो पूरे देश में दंगे शुरु हो गई...उसी साल मेरे बाबा बीमार पड़े थे...१९९२ की बात है... उन्हें कैंसर हो गया था...पीजीआई में काफी दिनों तक सिकाई हुई...जिस दिन मस्जिद गिराई जा रही थी उसी दिन बाबा को लेकर मम्मी पापा अयोध्या गए थे...सामने जायसवाल अंकल की गाड़ी किराए पर ली गई थी...उसके कुछ दिनों बाद २५ दिसम्बर को बाबा चल बसे...अयोध्या में मचे हंगामे की वजह से हमारे स्कूल बंद थे...मुझे फैजाबाद में बिताए कोहरे भरे दिन आज भी याद हैं....एक तरह से कहूं तो वो कोहरा मेरे अंदर तक साम्प्रदायिक सोच के तौर पर काफी दिनों तक रहा...

रविवार, 28 दिसंबर 2008

मेरा कबूलनामा...दिल से...१


इसे आप मेरा कबूलनामा कह सकते हैं...कुछ लोगों को मेरे इस लिखे में मेरा फ्रस्टेशन नजर आ सकता है...लेकिन यकीन मानिए मैं केवल इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं नहीं चाहता मेरी गिनती जिंदा लाशों में की जाए...मेरा भरोसा आज भी लोगों पर कायम है..मैं लोगों पर आज भी यकीन करता हूं...दुनिया मुझे सरल लगती है...इसलिए आज तक किसी को गाली देने की नौबत नहीं आई...किसी से दो दो हाथ करने के हालत पैदा नहीं हुए...फिर भी जिस दौर से गुजर रहा हूं ज्यादात्तर समय चाय की दुकान पर बीतता है...लोगों के मुंह से दुनिया की कांस्परेसी के बारे में सुनता हूं...हां में हां भी मिलाता हूं लेकिन पता नहीं क्यों यकीन नहीं होता..लगता है हम सब यकीन ना करने की बीमारी से जूझ रहे हैं...समझ में नही आता लोगों को दूसरो के खिलाफ साजिश रचने का समय कैसे मिल जाता है...जब लोगों से ये मासूम सवाल पूछता हूं तो लोग कहते हैं सुबोध बाबू लगता है अभी दुनिया नहीं देखी..लेकिन जिस पेशे में हूं...वहां इतनी तो स्पेस है कि चीजों को समझ सकता हूं...और बस इसी कोशिश में लगा हूं...मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि मेरी कोशिश इस समझ को यकीन से कहीं आगे ले जाने की होगी...मैं लिखूंगा और दिल खोल कर लिखूंगा...अपने गुनाह कबूल करुंगा...खुद को बताने की कोशिश करुंगा कि एक कहानी दो टुकड़ों में आकर अधूरी क्यों रह गई...कविताओं के पीछे वाकई भावना थी या फिर केवल कोरी तुकबंदी...ये मेरे दिल की बात होगी...जिसमें सभी का दखल होगा...मेरी पत्नी से लेकर मेरे भाई और मेरे दोस्तों तक का...

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

दिल से...रोज पढ़ें...


(दरअसल कुछ बातें दिल को छू जाती हैं...१७ दिसम्बर को दैनिक भास्कर में छपे सम्पादकीय में जाने पहचाने विचारक स्टीफन आर कवी का इंटरव्यू छपा था...उन्होने कुछ ऐसी बातें कही... जिसने मुझे काफी प्रभावित किया...उनके इंटरव्यू के कुछ अंश यहां कोड कर रहा हूं...)
सवाल...जिंदगी को कैसे देखें....
स्टीफन...
शरीर के बारे में सोचिए कि आपको दिल का दौरा पड़ चुका है...अब उसी हिसाब से खानपान और जीवनचर्या तय करें...
दिमाग के बारे में सोचिए कि आपकी आधी पेशेवर जिंदगी सिर्फ दो साल है...इसलिए इसी हिसाब से तैयारी करें...दिल के बारे में ये मानिए कि आपकी हर बात दूसरे तक पहुंचती है...लोग आपकी बात छिपकर सुन सकते हैं...और उसी इसी हिसाब से बोलें...
जहां तक भावना का सवाल है...ये सोचिए कि आपका ऊपरवाले के साथ हर तीन महिने में सीधा साक्षात्कार होता है...इसी हिसाब से जीवन की दिशा तय करें...

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

टोबा टेक सिंह - मंटो की कहानी

बंटवारे के दो तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि इखलाकी क़ैदियों की तरह पागलों का तबादला भी होना चाहिए...यानी जो मुसलमान पागल, हिंदुस्तान के पागल-ख़ानों में हैं उन्हें पकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागल-ख़ानों में हैं उन्हे हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए.. मालूम नहीं यह बात माक़ूल थी या ग़ैर-माक़ूल, बहरहाल दानिश-मन्दों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर उधर ऊंची सतह की कान्फ्रेंसे हुईं ,और बाल-आख़िर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुकर्रर हो गया..अच्छी तर‌ह छानबीन की गई। वह मुसलमान पागल जिन के लवाहिक़ीन हिंदुस्तान में ही में थे,वहीं रहने दिए गए थे, जो बाक़ी थे उन को सर‌हद पर रवाना कर दिया गया.. यहां पाकिस्तान में चूंकि क़रीब क़रीब तमाम हिंदू सिख जा चुके थे, इसलिए किसी को रखने रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू सिख पागल थे, सब के सब पुलिस की हिफ़ाज़त में बॉर्डर पर पहुंचा दिए गए। उधर का मालूम नहीं, लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने में जब उस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चिह-मी-गूइयां होने लगीं। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज़ बा-क़ाइदगी के साथ ” ज़मीनदार ” पढ़ता था उस से जब उस के एक दोस्त ने पूछा ” मोलबी साब , यह पाकिस्‌तन क्या होता है”,उस ने बड़े ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद जवाब दिया,” हिंदुस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बन हैं।”यह जवाब सुन कर उस का दोस्त मुत्‌मईन हो गया.. उसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा “सरदार-जी हमें हिंदुस्तान क्यूं भेजा जा रहा है हमें तो वहां की बोली नहीं आती?”दूसरा मुस्कुराया ” मुझे तो हिंदुस्तोड़ो की बोली आती है — हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ आकड़ फिरते हैं। ”एक दिन नहाते नहाते एक मुसलमान पागल ने ” पाकिस्तान जिंदाबाद ” का नारा इस ज़ोर से बुलंद किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया । बाज़ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे। उन में अक्सरियत ऐसे क़ातिलों की थी जिन के रिश्तेदारों ने अफ़सरों को दे दिला कर पागलख़ाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जाएं। यह कुछ कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्यूं तक़सीम हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है? लेकिन सही वाक़िआत से यह भी बे-ख़बर थे। अख़बारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उन की गुफ़्‌तगू से भी वह कोई नतीजा बरामद नहीं कर सकते थे। उनको सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आद्मी मुहम्मद अली जिन्ना है जिस को काइदे आजम कह्ते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक `इलाहिदा मुल्क बनाया है जिस का नाम पाकिस्तान है। यह कहां है , उस का मह्‌ल्‌ल-ए वुक़ू` क्या है। उस के मुताल्लिक़ वह कुछ नहीं जानते थे। यही वजह है कि पागलख़ाने में वह सब पागल जिन का दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहीं हुआ था इस मख़्मसे में गिरफ़्तार थे कि वह पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में? अगर हिंदुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है? अगर वह पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वह कुछ अरसा पहले यहीं रह्ते हुए भी हिंदुस्तान में थे । एक पागल तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान, और हिंदुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़ियादा पागल हो गया। झाड़ू देते देते एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टह्‌नी पर बैठ कर दो घंटे मुसल्सल तक़्‌रीर करता रहा जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया। डराया धमकाया गया तो उस ने कहा — ” मैं हिंदुस्तान में रह्‌ना चाहता हूं न पाकिस्तान में — मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा। ”बड़ी मुश्किलों के बाद जब उस का दौरा सर्द पड़ा तो वह नीचे उतरा और अपने हिन्दू सिख दोस्तों से गले मिल मिल कर रोने लगा, इस ख्याल से उस का दिल भर आया था कि वह उसे छोड़ कर हिंदुस्तान चले जाएंगे।
एक एम एस सी पास रेडियो इन्जीनियर में जो मुसल्मान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग थलग बाग़ की एक ख़ास रविश पर सारा दिन ख़ामोश टहलता रह्‌ता था यह तबदीली नमूदार हुई कि उस ने तमाम कप्‌ड़े उतार कर दफ़`अदार के हवाले कर दिए और नंग धड़ंग सारे बाग़ में चलना फिरना शुरू` कर दिया।
चन्योट के एक मोटे मुसल्मान पागल ने जो मुस्लिम लीग का सर-गर्म कार्कुन रह चुका था और दिन में पन्द्रह सोलह मर्तबा नहाया करता था यक-लख़्‌त यह आदत तर्क कर दी। उस का नाम मुहम्मद अली था। चुनांचे उस ने एक दिन अपने जंगले में एलान कर दिया कि वह काइदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना है। उस की देखा देखी एक सिख पागल मास्टर तारा सिंघ बन गया। क़रीब था कि उस जंगले में ख़ून ख़राबा हो जाए मगर दोनों को ख़तरनाक पागल क़रार दे कर `अलाहिदा `अलाहिदा बंद कर दिया गया। लाहौर का एक नौजवान हिंदू वकील था जो मुहब्बत में नाकाम हो कर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। उसी शह‌र की एक हिन्दू लड़्‌की से उसे मुहब्बत हो गई थी। गो उस ने उस वकील को ठुकरा दिया था मगर दीवानगी की हालत में भी वह उस को नहीं भूला था। चुनांचे उन तमाम हिन्दू और मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था जिन्होने मिल मिला कर हिंदुस्तान के दो टुक्‌ड़े कर दिए। — उस की मह्‌बूबा हिंदुस्तानी बन गई और वह पाकिस्तानी।
जब तबादले की बात शुरु हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे। उस को हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा। उस हिंदुस्तान में जहां उस की महबूबा रहती है। मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाह्‌ता था। इसलिए कि उस का ख्याल था कि अमृतसर में उस की प्रेक्टिस नहीं चलेगी। यूरोपियन वार्ड में दो ऐंग्लो-इन्डियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आज़ाद कर के अंग्रेज चले गए हैं तो उन को बहुत सदमा हुआ वह छुप छुप कर घंटों आपस में इस अहम मसले पर गुफ़्तगू करते रह्‌ते कि पागलख़ाने में उन की हैसियत किस क़िस्म की होगी। यूरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ा दिया जाएगा। ब्रेकफ़ास्ट मिला करेगा या नहीं। क्या उन्हें डबल रोटी के बजाए बलडी इन्डियन चपाटी तो ज़हर मार नहीं करना पड़ेगी? एक सिख था जिस को पागल-ख़ाने में दाख़िल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक़्त उस की ज़बान से यह `अजीब-ओ-ग़रीब अल्फ़ाज़ सुन्‌ने में आते थे ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ दी लालटेन।” दिन को सोता था न रात को। पहरेदारों का यह कहना था कि पन्द्रह बरस के तवील अर्से में वह एक लहज़े के लिए भी नहीं सोया। लेटता भी नहीं था। अलबत्ता कभी कभी किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।
हर वक़्त खड़े रहने से उस के पांव सूज गए थे। पिंडलियां भी फूल गई थीं। मगर इस जिस्मानी तकलीफ़ के बावजूद लेट कर आराम नहीं करता था। हिंदुस्तान,पाकिस्तान और पागलों के तबादिले के मुत्तालिक जब कभी पागलख़ाने में गुफ़्‌तगू होती थी तो वह ग़ौर से सुन्‌ता था। कोई उससे पूछ्‌ता कि उस का क्या ख़्याल है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनकस दी बे ध्याना दी मूंग दी दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्न्मन्ट। लेकिन बाद में ” आफ़ दी पाकिस्तान गवर्न्मन्ट” की जगह ” आफ़ दी टोबा टेक सिंघ गवर्न्मन्ट” ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंघ कहां है जहां का वह रह्‌ने वाला है। लेकिन किसी को भी मालूम नहीं था कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। जो बताने की कोशिश करते थे वह खुद इस उलझावों में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिंदुस्तान में चला जाए। या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए। और यह भी कौन सीने पर हाथ रख कर कह सकता था कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब ही हो जाएं।
इस सिख पागल के केस छिदरे हो के बहुत मुख़्तसर रह गए थे चूंकि बहुत कम नहाता था इस लिए दाढ़ी और सर के बाल आपस में जम गए थे। जिन के बाइस उस की शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी। मगर आदमी बेज़रर था। पन्द्रह बरसों में उस ने कभी किसी से झगड़ा फ़साद नहीं किया था। पागलख़ाने के जो पुराने मुलाज़िम थे वह उस के मुत्तलिक इतना जानते थे कि टोबा टेक सिंह में उसकी कई ज़मीनें थीं। अच्छा खाता पीता ज़मीनदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया। उस के रिश्तेदार लोहे की मोटी मोटी ज़ंजीरों में उसे बांध कर लाए और पागल-ख़ाने में दाख़िल करा गए। महीने में एक बार मुलाक़ात के लिए यह लोग आते थे और उसकी ख़ैरख़ैरियत दर्याफ़्त करके चले जाते थे। एक मुद्दत तक यह सिलसिला जारी रहा। पर जब पाकिस्तान,हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उन का आना बन्द हो गया। उस का नाम बिशन सिंघ था मगर सब उसे टोबा टेक सिंघ कह्‌ते थे। उस को इतना मालूम नहीं था कि दिन कौन सा है,महीना कौन सा है,या कितने साल बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उस के अज़ीज़-ओ-अक़ारिब उससे मिलने के लिए आते थे तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वह दफादार से कह्‌ता कि उसकी मुलाक़ात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता,बदन पर ख़ूब साबुन घिसता और सर में तेल लगा कर कंघा करता,अपने कपड़े जो वह कभी इसतेमाल नहीं करता था निकलवा के पहनता और यूं सज बन कर मिलने वालों के पास जाता। वह उससे कुछ पूछ्ते तो वह ख़ामोश रहता या कभी कभार ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनकस दी बे ध्याना दी मूंग दी दाल आफ़ दी लाल्टेन ” कह देता। उस की एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गई थी। बिशन सिंघ उस को पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी अपने बाप को देखकर रोती थी , जवान हुई तब भी उसकी आंखों से आंसू बह्‌ते थे। पाकिस्तान और हिंदुस्तान का क़िस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंघ कहां है? जब इत्‌मीनान-बख़्‌श जवाब न मिला तो उस की कुरेद दिन-बदिन बढ़ती गई। अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी। पह‌ले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं,पर अब जैसे उस के दिल की आवाज़ भी बन्द हो गई थी जो उसे उन की आमद की ख़बर दे दिया करती थी। उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वह लोग आएं जो उस से हमदर्दी का इज़हार करते थे और उसके लिए फल,मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वह अगर उन से पूछ्ता कि टोबह टेक सिंघ कहां है तो वह यक़ीनन उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। क्योंकि उस का ख्याल था कि वह टोबा टेक सिंघ ही से आते हैं जहां उस की ज़मीनें हैं। पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को ख़ुदा कह्‌ता था। उस से जब एक रोज़ बिशन सिंघ ने पूछा कि टोबा टेक सिंघ पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में तो उसने हस्ब-ए`आदत क़हक़हा लगाया और कहा “वह पाकिस्तान में है न हिंदुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं दिया। “ बिशन सिंघ ने इस ख़ुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत समाजत से कहा कि वह हुक्म दे दे ताकि झंझट ख़त्म हो मगर वह बहुत मसरूफ़ था इसलिए कि उसे और बे-शुमार हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा “ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ वाहे गूरू जी दा ख़ालसा ऐंड वाहे गूरू जी की फ़तह — जो बोले सो निहाल,सत सरी अकाल।”
उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमानों के ख़ुदा हो सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते। तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंघ का एक मुसलमान जो उसका दोस्त था मुलाक़ात के लिए आया। पह‌ले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंघ ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया और वापस जाने लगा। मगर सिपाहियों ने उसे रोका” यह तुम से मिलने आया है — तुम्हारा दोस्त फ़ज़ल दीन है। “ बिशन सिंघ ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फ़ज़ल दीन ने आगे बढ़ कर उसके कन्धे पर हाथ रखा”मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुम से मिलूं लेकिन फ़ुरसत ही न मिली, तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से हिंदुस्तान चले गए थे, मुझसे जितनी मदद हो सकी मैंने की, तुम्हारी बेटी रूप कौर...“ वह कुछ कह‌ते कहते रुक गया । बिशन सिंघ कुछ याद करने लगा” बेटी रूप कौर ” फ़ज़लदीन ने रुक रुक कर कहा ” हां... वह...वह भी ठीक ठाक है उनके साथ ही चली गई थी। “बिशन सिंघ ख़ामोश रहा। फ़ज़लदीन ने कह‌ना शुरू किया ” उन्होने मुझ से कहा था कि तुम्हारी ख़ैर ख़ैरियत पूछ्ता रहूं — अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो — भाई बल्बेसर सिंघ और भाई वधावा सिंघ से मेरा सलाम कहना — और बहन अमरित कौर से भी...भाई बल्बेसर से कह्‌ना फ़ज़लदीन राज़ी खुशी है — वह भूरी भैंसें जो वह छोड़ गए थे उनमें से एक ने कट्‌टा दिया है — दूसरी के कट्‌टी हुई थी पर वह छह दिन की हो के मर गई...और...लाइक़ जो ख़िदमत हो कहना...हर वक़्त तैयार हूं...और यह तुम्हारे थोड़े से मरूंडे लाया हूं। “
बिशन सिंघ ने मरूंडों की पोटली ले कर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़लदीन से पूछा “टोबा टेक सिंघ कहां है ?”
फ़ज़लदीन ने क़द्रे हैरत से कहा ” कहां है? — वहीं है जहां था “बिशन सिंघ ने फिर पूछा ” पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में ? “
” हिंदुस्तान में नहीं नहीं पाकिस्तान में ” फ़ज़लदीन बौखला सा गया।
बिशन सिंघ बड़‌बड़ाता हुआ चला गया ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ दी आफ़ दी पाकिस्तान ऐंड हिंदुस्तान आफ़ दी दूर फिटे मुंह ! “तबादले के तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की फ़हरिस्तें पहुंच गई थीं और तबादले का दिन भी मुक़र्रर हो चुका था।।
सख़्त सर्दियां थीं जब लाहौर के पागलख़ाने से हिन्दू सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुई मुत्तलिक अफ़सर भी हमराह थे। वाघा के बार्डर पर तरफ़ैन के सुपरिंटेडेंट एक दूसरे से मिले और इब्तिदाई कारवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू` हो गया जो रात भर जारी रहा। पागलों को लारियों से निकालना और दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज़ तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रज़ा-मन्द होते थे, उन को संभालना मुश्किल हो जाता था,क्योंकि इधर उधर भाग उठते थे,जो नंगे थे उन को कपड़े पहनाए जाते तो वह फाड़ कर अपने तन से जुदा कर देते। कोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है,आपस में लड़झगड़ रहे हैं,रो रहे थे, बिलख रहे हैं, कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी,पागल औरतों का शोर-ओ-ग़ौग़ा अलग था और सर्दी इतनी कड़ाके की थी कि दांत से दांत बज रहे थे । पागलों की अकसरियत इस तबादले के हक़ में नहीं थी। इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आता था कि उंहें अपनी जगह से उखाड़ कर कहां फेंका जा रहा है। वह चन्द जो कुछ सोच समझ सकते थे ” पाकिस्तान जिंदाबाद” और ” पाकिस्तान मुर्दाबाद” के नारे लगा रहे थे। दो तीन मर्तबा फ़साद होते होते बचा, क्योंकि बाज़ मुसलमानों ओर सिखों को यह नारे सुन कर तेश आ गया था।
बिशन सिंघ की बारी आई और वाघा के उस पार मुत्तलिक अफ़सर उस का नाम रिजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उस ने पूछा ” टोबा टेक सिंघ कहां है? — पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में ? “ मुत्तलिक अफ़सर हंसा ” पाकिस्तान में “
यह सुन कर बिशन सिंघ उछल कर एक तरफ़ हटा और दौड़ कर अपने बाक़ी मांदह साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगर उसने चलने से इन्कार कर दिया “टोबा टेक सिंघ यहां है —” और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा _ ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ टोबा टेक सिंघ ऐंड पाकिस्तान “उसे बहुत समझाया गया कि देखो अब टोबा टेक सिंघ हिंदुस्तान में चला गया है, अगर नहीं गया तो उसे फ़ौरन वहां भेज दिया जाएगा। मगर वह न माना। जब उस को ज़बरदस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वह दर्मियान में एक जगह इस अंदाज़ में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे कोई ताक़त वहां से नहीं हिला सकेगी।
आदमी चूंकि बेज़रर था इस लिए उससे मज़ीद ज़बरदस्ती न की गई , उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और तबादले का बाक़ी काम होता रहा। सूरज निकलने से पहले साकत-ओ-सामत बिशन सिंघ के हल्क़ से एक फ़लक-शिगाफ़ चीख़ निकली। इधर उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और देखा कि वह आद‌मी जो पन्द्रह बरस तक दिन रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा , औंधे मुंह लेटा है। उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान! दर्मियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिस का कोई नाम नहीं था। टोबह टेक सिंघ पड़ा था।

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

दिल्ली में एक मौत - कमलेश्वर

( कमलेश्वर की कहानी..जो बताती है कि शहर की भागदौड़ में जिंदगी कैसे पीछे छूट जाती है..)
मैं चुपचाप खड़ा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लड़के से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश्मन का साथ भी दिया जाता है। सर्दी की वजह से मेरी हिम्मत छूट रही है... पर मन में कहीं शवयात्रा में शामिल होने की बात भीतर ही भीतर कोंच रही है।
चारों तरफ कुहरा छाया हुआ है। सुबह के नौ बजे हैं, लेकिन पूरी दिल्ली धुँध में लिपटी हुई है। सड़कें नम हैं। पेड़ भीगे हुए हैं। कुछ भी साफ दिखाई नहीं देता। जिंदगी की हलचल का पता आवाजों से लग रहा है। ये आवाजें कानों में बस गई हैं। घर के हर हिस्से से आवाजें आ रही हैं। वासवानी के नौकर ने रोज की तरह स्टोव जला दिया है, उसकी सनसनाहट दीवार के पार से आ रही है। बगल वाले कमरे में अतुल मवानी जूते पर पालिश कर रहा है... ऊपर सरदारजी मूँछों पर फिक्सो लगा रहे हैं... उनकी खिड़की के परदे के पार जलता हुआ बल्ब बड़े मोती की तरह चमक रहा है। सब दरवाजे बंद हैं, सब खिड़कियों पर परदे हैं, लेकिन हर हिस्से में जिंदगी की खनक है। तिमंजिले पर वासवानी ने बाथरूम का दरवाजा बंद किया है और पाइप खोल दिया है...
कुहरे में बसें दौड़ रही हैं। जूँ-जूँ करते भारी टायरों की आवाजें दूर से नजदीक आती हैं और फिर दूर होती जाती हैं। मोटर-रिक्शे बेतहाशा भागे चले जा रहे हैं। टैक्सी का मीटर अभी किसी ने डाउन किया है। पड़ोस के डॉक्टर के यहाँ फोन की घंटी बज रही है। और पिछवाड़े गली से गुजरती हुई कुछ लड़कियाँ सुबह की शिफ्ट पर जा रही हैं।
सख्त सर्दी है। सड़कें ठिठुरी हुई हैं और कोहरे के बादलों को चीरती हुई कारें और बसें हॉर्न बजाती हुई भाग रही हैं। सड़कों और पटरियों पर भीड़ है, पर कुहरे में लिपटा हुआ हर आदमी भटकती हुई रूह की तरह लग रहा है।
वे रूहें चुपचाप धुँध के समुद्र में बढ़ती जा रही हैं... बसों में भीड़ है। लोग ठंडी सीटों पर सिकुड़े हुए बैठे हैं और कुछ लोग बीच में ही ईसा की तरह सलीब पर लटके हुए हैं- बाँहें पसारे, उनकी हथेलियों में कीलें नहीं, बस की बर्फीली, चमकदार छड़ें हैं।
और ऐसे में दूर से एक अर्थी सड़क पर चली आ रही है।
इस अर्थी की खबर अखबार में है। मैंने अभी-अभी पढ़ी है। इसी मौत की खबर होगी। अखबार में छपा है- आज रात करोलबाग के मशहूर और लोकप्रिय बिजनेस मैगनेट सेठ दीवानचंद की मौत इरविन अस्पताल में हो गई। उनका शव कोठी पर ले आया गया है। कल सुबह नौ बजे उनकी अर्थी आर्य समाज रोड से होती हुई पंचकुइयाँ श्मशान-भूमि में दाह-संस्कार के लिए जाएगी।
और इस वक्त सड़क पर आती हुई यह अर्थी उन्हीं की होगी। कुछ लोग टोपियाँ लगाए और मफलर बाँधे हुए खामोशी से पीछे-पीछे आ रहे हैं। उनकी चाल बहुत धीमी है। कुछ दिखाई पड़ रहा है, कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है, पर मुझे ऐसा लगता है अर्थी के पीछे कुछ आदमी हैं।
मेरे दरवाजे पर दस्तक होती है। मैं अखबार एक तरफ रखकर दरवाजा खोलता हूँ। अतुल मवानी सामने खड़ा है।
`यार, क्या मुसीबत है, आज कोई आयरन करने वाला भी नहीं आया, जरा अपना आयरन देना।' अतुल कहता है तो मुझे तसल्ली होती है। नहीं तो उसका चेहरा देखते ही मुझे खटका हुआ था कि कहीं शवयात्रा में जाने का बवाल न खड़ा कर दे। मैं उसे फौरन आयरन दे देता हूँ और निश्चिंत हो जाता हूँ कि अतुल अब अपनी पेंट पर लोहा करेगा और दूतावासों के चक्कर काटने के लिए निकल जाएगा।
जब से मैंने अखबार में सेठ दीवानचंद की मौत की खबर पढ़ी थी, मुझे हर क्षण यही खटका लगा था कि कहीं कोई आकर इस सर्दी में शव के साथ जाने की बात न कह दे। बिल्डिंग के सभी लोग उनसे परिचित थे और सभी शरीफ, दुनियादार आदमी थे।
तभी सरदारजी का नौकर जीने से भड़भड़ाता हुआ आया और दरवाजा खोलकर बाहर जाने लगा। अपने मन को और सहारा देने के लिए मैंने उसे पुकारा, `धर्मा! कहाँ जा रहा है?'
`सरदारजी के लिए मक्खन लेने,' उसने वहीं से जवाब दिया तो लगे हाथों लपककर मैंने भी अपनी सिगरेट मँगवाने के लिए उसे पैसे थमा दिए।
सरदारजी नाश्ते के लिए मक्खन मँगवा रहे हैं, इसका मतलब है वे भी शवयात्रा में शामिल नहीं हो रहे हैं। मुझे कुछ और राहत मिली। जब अतुल मवानी और सरदारजी का इरादा शवयात्रा में जाने का नहीं है तो मेरा कोई सवाल ही नहीं उठता। इन दोनों का या वासवानी परिवार का ही सेठ दीवानचंद के यहाँ ज्यादा आना-जाना था। मेरी तो चार-पाँच बार की मुलाकात भर थी। अगर ये लोग ही शामिल नहीं हो रहे हैं तो मेरा सवाल ही नहीं उठता।
सामने बारजे पर मुझे मिसेस वासवानी दिखाई पड़ती हैं। उनके खूबसूरत चेहरे पर अजीब-सी सफेदी और होंठों पर पिछली शाम की लिपस्टिक की हल्की लाली अभी भी मौजूद थी। गाउन पहने हुए ही वे निकली हैं और अपना जूड़ा बाँध रही हैं। उनकी आवाज सुनाई पड़ती है, `डार्लिंग, जरा मुझे पेस्ट देना, प्लीज...'
मुझे और राहत मिलती है। इसका मतलब है कि मिस्टर वासवानी भी मैयत में शामिल नहीं हो रहे हैं।
दूर आर्य समाज रोड पर वह अर्थी बहुत आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ती आ रही है...
अतुल मवानी मुझे आयरन लौटाने आता है। मैं आयरन लेकर दरवाजा बंद कर लेना चाहता हूँ, पर वह भीतर आकर खड़ा हो जाता है और कहता है, `तुमने सुना, दीवानचंदजी की कल मौत हो गई है।'
`मैंने अभी अखबार में पढ़ा है,' मैं सीधा-सा जवाब देता हूँ, ताकि मौत की बात आगे न बढ़े। अतुल मवानी के चेहरे पर सफेदी झलक रही है, वह शेव कर चुका है। वह आगे कहता है, `बड़े भले आदमी थे दीवानचंद।'
यह सुनकर मुझे लगता है कि अगर बात आगे बढ़ गई तो अभी शवयात्रा में शामिल होने की नैतिक जिम्मेदारी हो जाएगी, इसलिए मैं कहता हूँ, `तुम्हारे उस काम का क्या हुआ?'
`बस, मशीन आने भर की देर है। आते ही अपना कमीशन तो खड़ा हो जाएगा। यह कमीशन का काम भी बड़ा बेहूदा है। पर किया क्या जाए? आठ-दस मशीनें मेरे थ्रू निकल गइंर् तो अपना बिजनेस शुरू कर दूँगा।' अतुल मवानी कह रहा है, `भई, शुरू-शुरू में जब मैं यहाँ आया था तो दीवानचंदजी ने बड़ी मदद की थी मेरी। उन्हीं की वजह से कुछ काम-धाम मिल गया था। लोग बहुत मानते थे उन्हें।'
फिर दीवानचंद का नाम सुनते ही मेरे कान खड़े हो जाते हैं। तभी खिड़की से सरदारजी सिर निकालकर पूछने लगते हैं, `मिस्टर मवानी! कितने बजे चलना है?'
`वक्त तो नौ बजे का था, शायद सर्दी और कुहरे की वजह से कुछ देर हो जाए।' वह कह रहा है और मुझे लगता है कि यह बात शवयात्रा के बारे में ही है।
सरदारजी का नौकर धर्मा मुझे सिगरेट देकर जा चुका है और ऊपर मेज पर चाय लगा रहा है। तभी मिसेज वासवानी की आवाज सुनाई पड़ती है, `मेरे खयाल से प्रमिला वहाँ जरूर पहुँचेगी, क्यों डार्लिंग?'
`पहुँचना तो चाहिए। ...तुम जरा जल्दी तैयार हो जाओ।' कहते हुए मिस्टर वासवानी बारजे से गुजर गए हैं।
अतुल मुझसे पूछ रहा है, `शाम को कॉफी-हाउस की तरफ आना होगा?'
`शायद चला आऊँ,' कहते हुए मैं कम्बल लपेट लेता हूँ और वह वापस अपने कमरे में चला जाता है। आधे मिनट बाद ही उसकी आवाज फिर आती है, `भई, बिजली आ रही है?'
मैं जवाब दे देता हूँ, `हाँ, आ रही है।' मैं जानता हूँ कि वह इलेक्ट्रिक रॉड से पानी गर्म कर रहा है, इसीलिए उसने यह पूछा है।
`पॉलिश!' बूट पॉलिश वाला लड़का हर रोज की तरह अदब से आवाज लगाता है और सरदारजी उसे ऊपर पुकार लेते हैं। लड़का बाहर बैठकर पॉलिश करने लगता है और वह अपने नौकर को हिदायतें दे रहे हैं, `खाना ठीक एक बजे लेकर आना।... पापड़ भूनकर लाना और सलाद भी बना लेना...।'
मैं जानता हूँ सरदारजी का नौकर कभी वक्त से खाना नहीं पहुँचाता और न उनके मन की चीजें ही पकाता है।
बाहर सड़क पर कुहरा अभी भी घना है। सूरज की किरणों का पता नहीं है। कुलचे-छोलेवाले वैष्णव ने अपनी रेढ़ी लाकर खड़ी कर ली है। रोज की तरह वह प्लेटें सजा रहा है, उनकी खनखनाहट की आवाज आ रही है।
सात नंबर की बस छूट रही है। सूलियों पर लटके ईसा उसमें चले जा रहे हैं और क्यू में खड़े और लोगों को कंडक्टर पेशगी टिकट बाँट रहा है। हर बार जब भी वह पैसे वापस करता है तो रेजगारी की खनक यहाँ तक आती है। धुँध में लिपटी रूहों के बीच काली वर्दी वाला कंडक्टर शैतान की तरह लग रहा है।
और अर्थी अब कुछ और पास आ गई है।
`नीली साड़ी पहन लूँ?' मिसेज वासवानी पूछ रही हैं।
वासवानी के जवाब देने की घुटी-घुटी आवाज से लग रहा है कि वह टाई की नॉट ठीक कर रहा है।
सरदारजी के नौकर ने उनका सूट ब्रुश से साफ करके हैंगर पर लटका दिया है। और सरदारजी शीशे के सामने खड़े पगड़ी बाँध रहे हैं।
अतुल मवानी फिर मेरे सामने से निकला है। पोर्टफोलियो उसके हाथ में है। पिछले महीने बनवाया हुआ सूट उसने पहन रखा है। उसके चेहरे पर ताजगी है और जूतों पर चमक। आते ही वह मुझे पूछता है, `तुम नहीं चल रहे हो?' और मैं जब तक पूछूँ कि कहाँ चलने को वह पूछ रहा है, वह सरदारजी को आवाज लगाता है, `आइए, सरदारजी! अब देर हो रही है। दस बज चुका है।'
दो मिनट बाद ही सरदारजी तैयार होकर नीचे आते हैं कि वासवानी ऊपर से ही मवानी का सूट देखकर पूछता है, `ये सूट किधर सिलवाया?'
`उधर खान मार्केट में।'
`बहुत अच्छा सिला है। टेलर का पता हमें भी देना।' फिर वह अपनी मिसेज को पुकारता है, `अब आ जाओ, डियर!... अच्छा मैं नीचे खड़ा हूँ तुम आओ।' कहता हुआ वह भी मवानी और सरदारजी के पास आ जाता है और सूट को हाथ लगाते हुए पूछता है, `लाइनिंग इंडियन है।'
`इंग्लिश!'
`बहुत अच्छा फिटिंग है!' कहते हुए वह टेलर का पता डायरी में नोट करता है। मिसेज वासवानी बारजे पर दिखाई पड़ती हैं।
अर्थी अब सड़क पर ठीक मेरे कमरे के नीचे है। उसके साथ कुछेक आदमी हैं, एक-दो कारें भी हैं, जो धीरे-धीरे रेंग रही हैं। लोग बातों में मशगूल हैं।
मिसेज वासवानी जूड़े में फूल लगाते हुए नीचे उतरती हैं तो सरदारजी अपनी जेब का रुमाल ठीक करने लगते हैं। और इससे पहले कि वे लोग बाहर जाएँ वासवानी मुझसे पूछता है, `आप नहीं चल रहे?'
`आप चलिए मैं आ रहा हूँ' मैं कहता हूँ पर दूसरे ही क्षण मुझे लगता है कि उसने मुझसे कहाँ चलने को कहा है? मैं अभी खड़ा सोच ही रहा रहा हूँ कि वे चारों घर के बाहर हो जाते हैं।
अर्थी कुछ और आगे निकल गई है। एक कार पीछे से आती है और अर्थी के पास धीमी होती है। चलाने वाले साहब शवयात्रा में पैदल चलने वाले एक आदमी से कुछ बात करते हैं और कार सर्र से आगे बढ़ जाती है। अर्थी के साथ पीछे जाने वाली दोनों कारें भी उसी कार के पीछे सरसराती हुई चली जाती हैं।
मिसेज वासवानी और वे तीनों लोग टैक्सी स्टैंड की ओर जा रहे हैं। मैं उन्हें देखता रहता हूँ। मिसेज वासवानी ने फर-कालर डाल रखा है। और शायद सरदारजी अपने चमड़े के दास्ताने पहने हैं और वे चारों टैक्सी मेें बैठ जाते हैं। अब टैक्सी इधर ही आ रही है और उसमें से खिलखिलाने की आवाज मुझे सुनाई पड़ रही है। वासवानी आगे सड़क पर जाती अर्थी की ओर इशारा करते हुए ड्राइवर को कुछ बता रहा है।...
मैं चुपचाप खड़ा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लड़के से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश्मन का साथ भी दिया जाता है। सर्दी की वजह से मेरी हिम्मत छूट रही है... पर मन में कहीं शवयात्रा में शामिल होने की बात भीतर ही भीतर कोंच रही है।
उन चारों की टैक्सी अर्थी के पास धीमी होती है। मवानी गर्दन निकालकर कुछ कहता है और दाहिने से रास्ता काटते हुए टैक्सी आगे बढ़ जाती है।
मुझे धक्का-सा लगता है और मैं ओवरकोट पहनकर, चप्पलें डालकर नीचे उतर आता हूँ। मुझे मेरे कदम अपने आप अर्थी के पास पहुँचा देते हैं, और मैं चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलने लगता हूँ। चार आदमी कंधा दिए हुए हैं और सात आदमी साथ चल रहे हैं- सातवाँ मैं ही हूँ।और मैं सोच रहा हूँ कि आदमी के मरते ही कितना फर्क पड़ जाता है। पिछले साल ही दीवानचंद ने अपनी लड़की की शादी की थी तो हजारों की भीड़ थी। कोठी के बाहर कारों की लाइन लगी हुई थी...
मैं अर्थी के साथ-साथ लिंक रोड पर पहुँच चुका हूँ। अगले मोड़ पर ही पंचकुइयाँ श्मशान भूमि है।
और जैसे ही अर्थी मोड़ पर घूमती है, लोगों की भीड़ और कारों की कतार मुझे दिखाई देने लगती है। कुछ स्कूटर भी खड़े हैं। औरतों की भीड़ एक तरफ खड़ी है। उनकी बातों की ऊँची ध्वनियाँ सुनाई पड़ रही हैं। उनके खड़े होने में वही लचक है जो कनॉट प्लेस में दिखाई पड़ती है। सभी के जूड़ों के स्टाइल अलग-अलग हैं। मर्दों की भीड़ से सिगरेट का धुआँ उठ-उठकर कुहरे में घुला जा रहा है और बात करती हुई औरतों के लाल-लाल होंठ और सफेद दाँत चमक रहे हैं और उनकी आँखों में एक गरूर है...
अर्थी को बाहर बने चबूतरे पर रख दिया गया है। अब खामोशी छा गई है। इधर-उधर बिखरी हुई भीड़ शव के ईद-गिर्द जमा हो गई है और कारों के शोफर हाथों में फूलों के गुलदस्ते और मालाएँ लिए अपनी मालकिनों की नजरों का इंतजार कर रहे हैं।
मेरी नजर वासवानी पर पड़ती है। वह अपनी मिसेज को आँख के इशारे से शव के पास जाने को कह रहा है और वह है कि एक औरत के साथ खड़ी बात कर रही है। सरदारजी और अतुल मवानी भी वहीं खड़े हुए हैं।
शव का मुँह खोल दिया गया है और अब औरतें फूल और मालाएँ उसके ईद-गिर्द रखती जा रही हैं। शोफर खाली होकर अब कारों के पास खड़े सिगरेट पी रहे हैं।
एक महिला माला रखकर कोट की जेब से रुमाल निकालती है और आँखों पर रखकर नाक सुरसुराने लगती है और पीछे हट जाती है।
और अब सभी औरतों ने रुमाल निकाल लिए हैं और उनकी नाकों से आवाजें आ रही हैं।
कुछ आदमियों ने अगरबत्तियाँ जलाकर शव के सिरहाने रख दी हैं। वे निश्चल खड़े हैं।
आवाजों से लग रहा है औरतों के दिल को ज्यादा सदमा पहुँचा है।
अतुल मवानी अपने पोर्टफोलियो से कोई कागज निकालकर वासवानी को दिखा रहा है। मेरे खयाल से वह पासपोर्ट का फॉर्म है।
अब शव को भीतर श्मशान भूमि में ले जाया जा रहा है। भीड़ फाटक के बाहर खड़ी देख रही है। शोफरों ने सिगरेटें या तो पी ली हैं या बुझा दी हैं और वे अपनी-अपनी कारों के पास तैनात हैं।
शव अब भीतर पहुँच चुका है।
मातमपुरसी के लिए आए हुए आदमी और औरतें अब बाहर की तरफ लौट रहे हैं। कारों के दरवाजे खुलने और बंद होने की आवाजें आ रही हैं। स्कूटर स्टार्ट हो रहे हैं। और कुछ लोग रीडिंग रोड, बस-स्टॉप की ओर बढ़ रहे हैं।
कुहरा अभी भी घना है। सड़क से बसें गुजर रही हैं और मिसेज वासवानी कह रही हैं, `प्रमिला ने शाम को बुलाया है, चलोगे न डियर? कार आ जाएगी। ठीक है न?'
वासवानी स्वीकृति में सिर हिला रहा है।
कारों में जाती हुई औरतें मुस्कराते हुए एक-दूसरे से बिदा ले रही हैं और बाय-बाय की कुछेक आवाजें आ रही हैं। कारें स्टार्ट होकर जा रही हैं।
अतुल मवानी और सरदारजी भी रीडिंग रोड, बस स्टॉप की ओर बढ़ गए हैं और मैं खड़ा सोच रहा हूँ कि अगर मैं भी तैयार होकर आया होता तो यहीं से सीधा काम पर निकल जाता। लेकिन अब तो साढ़े ग्यारह बज चुके हैं।
चिता में आग लगा दी गई है और चार-पाँच आदमी पेड़ के नीचे पड़ी बैंच पर बैठे हुए हैं। मेरी तरह वे भी यूँ ही चले आए हैं। उन्होंने जरूर छुट्टी ले रखी होगी, नहीं तो वे भी तैयार होकर आते।
मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि घर जाकर तैयार होकर दफ्तर जाऊँ या अब एक मौत का बहाना बनाकर आज की छुट्टी ले लूँ- आखिर मौत तो हुई ही है और मैं शवयात्रा में शामिल भी हुआ हूँ।

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

फिराक की वो मनहूस कोठी


गोरखपुर के तुर्कमान की वो कोठी...जिसमें कभी फ़िराक साहब का बचपन बीता..आज वहां सन्नाटा है..पुरानी सी दिखने वाली इस कोठी से वैसे तो फ़िराक साहब ने बरसों पहले अपना नाता तोड़ लिया था...फिर भी उनकी जिंदगी के एक आईने की तरह उनकी ये पुरानी कोठी...आज भी खड़ी है...हालांकि तुर्कमान में ये कोठी एक ऐसी मनहूस कोठी की तरह जानी जाती है...जिसने अपने मालिकों का सूकून कभी नहीं देखा..फिराक तो इसे मनहूस कोठी कह कर चले गए...लेकिन फिराक साहब से जिसने इस कोठी को खरीदा..उसका सूकून भी इस कोठी ने यूं छिना..कि पूरे तुर्कमान में इस कोठी के मनहूसियत के किस्से चर्चा में आ गए...आज इस कोठी के मालिक के तीनों बेटे दिमागी तौर पर पागल हो चुके हैं...कोठी में चल रहे एक स्कूल से आने वाले पैसे से इनकी जिंदगी की गाड़ी खीच रही हैं...लोग बताते हैं कि रघुपति सहाय यानी फिराक साहब से इस कोठी को खरीदने वाले हज़रात किसी जमाने में गोरखपुर की नामी शख्शियत हुआ करते थे...लेकिन कोठी के साथ उनका नाम जुड़ते उनकी जिंदगी का सुकून हमेशा के लिए छिन गया...खुद कोठी के लोग मानते हैं कि इस कोठी ने अपने हर मालिक कि किस्मत आंसुओं से लिखी...कोठी कि इसी बदनसीबी को भांप कर शायद फिराक ने इससे तौबा करना ही मुनासिब समझा था..पर आज फ़िराक साहब की पहचान रही..ये कोठी मनहूस कोठी के नाम से पुकारी जाती है...और यही है इस कोठी का नसीब..

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

सबक लेने का समय


ग्लोबलाइजेशन के फायदे के बाद अब दौर उसके साइड इफेक्ट का है...मंदी की मार में हजारों नौकरियां बेरोजगारी में बदल चुकी है..जिनकी नौकरी गई है वो सड़कों पर हैं...और अपनी नौकरी वापस पाने के लिए नारे लगा रहे हैं...पैसे की बाढ़ के बाद अब जिंदगी कर्ज और दुविधा के कीचड़ से सनी दिख रही है...ये वो दौर है जिसका डर पिछले दिनो किसी को नहीं था...जिनके पास नौकरियां थी... वो ऐश की जिंदगी जी रहे थे...क्रेडिट कार्ड धड़ल्ले से बंटे जा रहे थे...और शहरों की चमकदमक के बीच अस्सी फीसदी देश की फिक्र भुला दी गई थी...जेट के कर्मचारियों के सपनों के साथ खिलवाड़ हुआ...अभी और भी छंटनी की बातें हो रही हैं...कहा जा रहा है कि भारी पैमाने पर कर्मचारियों को निकाला जाएगा.. आईटी सेक्टर से बैंकिंग सेक्टर तक पर छंटनी की गाज गिर सकती है...ऐसे में हर किसी का सहम जाना लाजमी है....आजकल जो हो रहा है...उससे सभी को सहानुभूति है...लेकिन इस डर में ऐसा काफी कुछ है.. जो हमें संभलने की सीख देता है...दरअसल ग्लोबलाइजेश के साथ आए पूंजीवाद ने अभी तक हमें जिंदगी के केवल वो पहलू दिखाए जिनमें चमक थी.. तड़क भड़क थी...पूंजीवाद के नशे ने शहरों को गांवो से दूर कर दिया...अपनी लाखों की नौकरी में किसी को कभी विदर्भ और बुंदेलखण्ड में मरते किसान नजर नहीं आए... पता ही नहीं चला की यूपी और बिहार के पिछड़ेपन में रोज कितने लोग भूखे प्यासे मरते रहे हैं... ये सब तब हो रहा था...जब किसान अपनी मेहनत के सहारे देश की अर्थव्यवस्था के लिए अपना पसीना बहा रहे थे...लेकिन जब मंदी की मार पड़ी... और बड़े बड़े संस्थानों में काम कर रहे लोगों की नौकरियां जाने लगीं तो...तो उन्हें भी देश की सरकार याद आने लगी...वित्तमंत्री याद आने लगे...और भारत की अर्थव्यवस्था के भविष्य की पड़ताल होने लगी...मंदी की मार दुनिया पर पहली बार नहीं पड़ी...लेकिन इस बार मंदी के झटके यहां भी महसूस हुए हैं... ऐसे में वक्त सबक लेने का है...ये तय करने का है कि हर नागरिक की समाजिक और निजी सुरक्षा को कैसे सुनिश्चित किया जाए...इसके लिए पहल का ये सबसे बेहतर समय है...खुद के लिए भी और सरकार के लिए भी...

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

कुछ यूं ही गुजर रही है जिंदगी

वक्त के बीते पन्ने
कुछ पीले पड़ने लगे हैं...
यादों की तमाम तहें
घुन सी गई हैं...
वक्त की सीलन
यादों में गहरे तक उतर आई है...
जिंदगी रस्सी के उन सिरों की तरह लगती है
जो उलझे भी हैं
और उलझे मालूम भी नहीं पड़ते...
वक्त रेत की तरह
मुट्ठी से फिसलता जा रहा है...
उलझन साए सी
जिंदगी के पीछे पड़ गई है...
हवाओं में हर ओर
साजिश की बू आती है
हर रास्ता अजनबी सा लगता है...
बार बार अपने अंदर का भरोसा
कड़वी हकीकत चखकर
तीखा हो जाता है...

लेकिन जेहन के एक कोने में पड़ा
उम्मीद का मीठा टुकड़ा...
बार बार यादों में घुलता है...
यादें फिर से उम्मीद की करवट होकर
समेटने लगती हैं
यादों के पीले पन्नों को...

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

कमरे में बसी यादें


मेरे घर के ऊपर के कमरे में
अब कोई नहीं रहता
उसकी जुबान
अक्सर ताले में बंद रहती है
कमरे की सूरत
कुछ कबाड़खाने सी हो गई है
जिसमें अखबार की पुरानी कतरन जमा है
धूल की मोटी परत से
उस पर लिखे शब्द बेमानी से हो गए हैं
अखबार के तमाम फटे पन्नों से
अभी भी मुद्दों की आवाजें आती हैं
वो कुछ बोलना चाहते हैं
लेकिन उनकी आवाजें
बार बार खामोशी में घुल जाती हैं
कमरे में लगी पुरानी सीनरी
अब बहुत पुरानी हो गई है
धूल की परत उसकी बर्फ पर भी जमा है
उसे साफ करने
कमरे में कोई नहीं जाता
केवल उन समानों के सिवा
जिनके लिए अब घर में जगह नहीं है
मेरा कमरा कुछ कुछ
मेरी यादों की तरह है
जिसकी दहलीज पुरानी यादों की दस्तक
सुनने के लिए बेचैन है

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

खुशी है छलक ही आती है


ये खुशी है...झूमती हुई...इठलाती हुई...सूरज की रोशनी से भी तेज भागती हुई...बचपन की ताजगी के बीच ये खुशी ऐसे ही छलकती रहे...हमेशा ये ताजगी बनी रहे...

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

माफ़ करना बाबूजी पार्ट २



वो दिन उसे आज भी याद थे... जब उसने दिल्ली में कदम रखा था... बाबूजी की ही जिद थी कि उनका लड़का जेएनयू में पढ़े... इत्तेफाक से जेएनयू में ही एडमिशन मिल गया... उस वक्त पढ़ाई के साथ साथ थियेटर और जन आंदोलन में हिस्सा लेना... उसका डेली का रुटीन था...गांव से दूर वो गोर्की के उपन्यासों में अपनी मां को खोजता रहता... उसे अक्सर अपनी मां याद आती...गांव की भोली भाली महिला...जिसके लिए पति के क्रांतिकारी विचार सनक और फिजूल की जिद भर थे...पति के विचारों से उन्हें कभी इत्तेफाक नहीं रहा...लेकिन पति के विचारों का सम्मान उन्होने हमेशा किया... साड़ी के तोहफे भर से खुश हो जाने वाली उसकी मां की आंखे भले आज धुंधला गई थी...लेकिन अपनी मां की तमाम यादें वो अपने साथ दिल्ली ले आया था...और वो नाम भी जो बड़े प्यार से उसकी मां से उसे दिया था...रवीश..

दिल्ली को उसने जेएनयू के क्रांतिकारी नजरिए से देखा... कार के शीशों से झांकती दिल्ली की जिंदगी उसे कभी पसंद नहीं आई... लेकिन जेएनयू कैम्पस में उसके लिए काफी कुछ था... यहां विचारों की वो जमीन थी...जो उसे अपने बाबूजी से मिली थी...जल्दी ही वो कॉलेज के वामपंथी स्टूडेंट पार्टी का मेंबर बन गया... वहीं एसएफआई के विरोध प्रदर्शन के दौरान उसकी मुलाकात मालविका से हुई थी....मालविका पोलिटिकल साइंस की स्टूडेंट थी...रुसो से लेकर मार्क्स तक गहरी समझ रखने वाली एक क्रांतिकारी लड़की....विरोध प्रदर्शनों और सेमीनारों में उसने कई बार मालविका को बोलते सुना था... उसके लिए मालविका अबूझ पहेली की तरह थी...कम लेकिन खरा बोलने वाली ...मालविका उसे प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि की सोफिया की तरह लगती...गरीबों और मजदूरों की लड़ाई को लेकर उसने मालविका को कई बार भावुक होते देखा था... मालविका के इसी जूनून को देखकर उसने समझ लिया था कि उसकी प्राथमिकताएं गरीबों और मजदूरों के हक की लड़ाई से शुरु होती है...और वहीं खत्म होती हैं... उस लड़की में एक अजीब सा आकर्षण था...वो एक ऐसी लड़की थी... जिसके मकसद साफ थे...पिता आईएएस अफसर थे... लेकिन फिर भी वो बस से ही कॉलेज आती थी...पिता की अफसरनुमा जीवनशैली उसे कभी पसंद नहीं आई... घर के लिए मालविका एक विद्रोही लड़की थी...और रवीश के लिए उसकी जिंदगी का मकसद...मालविका की तरफ उसका खिंचाव लगातार बढ़ रहा था... विचारों की जिस दुनिया में मालविका रहा करती थी... वो दुनिया रवीश को विरासत में मिली थी... बाबूजी की दुनिया भी मार्क्स और लेनिन के इर्द गिर्द घूमती थी... वो दुनिया को बदलते देखना चाहते थे...वो चाहते थे कि मजदूरी के पसीने की सही कीमत लगाई जाए... मालविका के विचारों में रवीश को अपने बाबू जी नजर आते थे...और इसलिए मालविका का आकर्षण उसके लिए कई गुना बढ़ चुका था...( आगे जारी )

गुरुवार, 31 जुलाई 2008

बस यूं ही


बारिश एक खूबसूरत शाम की तरह आती् है... और घोल देती है सारी थकान को अपने ठंडेपन के एहसास में...भीगते बच्चे कागज की नाव ना डूबने की जिद लिए घंटो पानी के साथ बहते रहते हैं...यही बारिश की वो खूबसूरती है...वो एहसास है...जो पसीने के बाद राहत की फुहारों के साथ आता है...ये सूकून सबका साझा होता है...

रविवार, 6 जुलाई 2008

लादेन सही तो बुश कहां से गलत...


ये सच है मैने कुछ दिनों से ब्लॉग पर बहुत कुछ नहीं लिखा... जो लिखा साभार लिखा... दरअसल मेरे ख्याल से लिखना तभी चाहिए...जब आप लिखे को अपने अंदर पका लें... जो लिखे वो तर्कसंगत हो...बचकाना ना लगे...पहले पढ़ें फिर अपनी सोच बनाएं...लिखना तो बहुत बाद की बात है...मुझे लगता है मेरे जैसे युवा जिनके अभी तीस के होने में वक्त है... उन्हें बोलने और लिखने से ज्यादा फिलहाल सोचने और पढ़ने लिखने की जरुरत है... और शायद साभार लेखों के जरिए मैने यही कोशिश की है... पाकिस्तान में एक मुस्लिम के मंदिर को बचाने की जंग की कहानी इसी का हिस्सा थी... लेकिन इस लेख पर जो कमेंट आया... वो चौंकाने वाला तो नहीं था...लेकिन अफसोस लायक जरुर था... बंटवारे से लेकर आजतक मुसलमानों को लेकर जो कहा या सुना जा रहा है... उसे लेकर एक आम छिछलापन पूरी सोसायटी में दिखता है... और शायद इसीलिए पाकिस्तान की खुशहाली की बात करने वाला कोई भी इंसान हमारा दुश्मन हो जाता है... और हम बंटवारे और आतंकवाद के लिए उसे ही जिम्मेदार मान बैठते हैं... लेकिन सवाल इससे भी ज्यादा आगे जाते हैं... अगर प्रवीण तोगड़िया या बजरंग दल ठीक हैं तो लादेन कहां से गलत है....अगर सद्दाम सही था तो आप बुश को कहां से गलत कह सकते हैं....दरअसल एक कट्टरता को सही ठहराने की कोशिश में हम दूसरे की अतिवादिता को जाने अनजाने सही ठहरा देते हैं...यहीं से गलती शुरु हो जाती है... हमे समझना चाहिए कि एक की कट्टरता को सही साबित कर दूसरे की कट्टर सोच को गलत कैसे ठहराया जा सकता है...मसलन लादेन को गलत ठहराकर ही आप बुश को गलत साबित कर सकते हैं...जहां तक बात बंटवारे की है... उसके लिए कौन जिम्मेदार है...इस पर बहस काफी पुरानी है...लेकिन मुझे लगता है कि इतिहास को उस वक्त के हालात के बिना ना तो समझा जा सकता है...और ना ही बयां किया जा सकता है...

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

इसे तोगड़ियाछाप लोग ना पढ़े..


( हिन्दुस्तान की सेकुलर छवि... और पाकिस्तान को लेकर नफरत की आग के बीच... ये विहिप और तोगड़िया को करारा जबाब देती खबर है... हिन्दुस्तान में बाबरी मस्जिद को गिराना भले विहिप और बजरंग दल के लिए गौरव की बात हो...लेकिन पाकिस्तान में एक मुस्लिम मंदिर को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है... ये ख़बर इंसानियत औऱ धर्म के ऐसे दुश्मनों के लिए सबक से कम नहीं है...ये ख़बर http://www.hindimedia.in/से साभार ली गई है... आप इस खबर को देखने के लिए सीधे इस लिंक पर भी जा सकते हैं..http://www.hindimedia.in/content/view/2636/134/)
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पाकिस्तान के लाहौर में एक मुसलमान वहाँ पाकिस्तानी सरकार द्वारा गिरा दिए गए एक मंदिर को फिर से बनाने के लिए लड़ाई लड़ रहा है। चौधरी रहमत अली गुज्जर अपनी यह जंग अकेला ही ल़ रहा है, 1947 में भारत के बँटवारे के समय उसके पिता को पाकिस्तानी सरकार और पाकिस्तानी मुसलमानों ने मंदिर और हिंदुस्तानियों को बचाने के ‘अपराध’ में जेल में डाल दिया था और उनको इतनी यातना दी गई कि जेल में ही उनकी मौत हो गई। बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान लाहौर में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में अलग-अलग शहरों में मौजूद कई मंदिरों को तोड़ दिया गया था। लेकिन लाहौर के बाबा माहर दास मंदिर को गिराने पहुँचे दंगाइयों को चौधरी रहमत अली ने अपने साथियों की मदद वहाँ से खदेड़ दिया था, तब तो चौधरी ने मंदिर को बचा लिया, मगर पाकिस्तान के कट्टरपंथी मुसलमानों को यह मंदिर खटकने लगा था। पाकिस्तान में स्थित हिन्दू मंदिरों के लिए शोध कर रहे इतिहासकार सुरेन्द्र कोचर अपनी शोध के सिलसिले में कई बार पाकिस्तान जा चुके हैं। जब उनकी मुलाकात इस पाकिस्तानी युवक से हुई तो उसने कहा कि हमारे घर और हवेली पर माँ साहिब (मां शेरां वाली) का पहरा है। माँ शेरावाली, भगवान कृष्ण और गुरुनानक देव जी हमारे सांझा पैगंबर हैं।लाहौर वच्छूवाली मोहल्ले में स्थित 325 साल पुराना बाबा मेहरदास का यह मंदिर 9 मार्च 2006 को कट्टरपंथी मुसलमानों ने हिंदुओं की संपत्ति के रखरखाव के लिए बने सरकारी विस्थापक ट्रस्ट संपत्ति (इवैक्यू ट्रस्ट प्रापर्टी) बोर्ड की मिलीभगत से गिरा दिया था। 28 मई 2006 को डॉन अखबार में खबर छपी कि व्यापारिक स्थल बनाने के लिए मंदिर गिरा दिया गया। इन मंदिरों की जमीन पर लाहौर के एक बिल्डर की निगाहें लगी हुई थी। बिल्डर ख्वाजा सुहैल नसीम ने स्थानीय प्रशासन और पाकिस्तान के पुरातत्व विभाग से मिलीभगत कर कर मंदिर वाली जगह पर पाँच मंजिली प्लाजा बनाने की योजना बना ली। एक रात ख्वाजा सुहैल अपने गुर्गों, खुफिया एजेसियों और फौजी अधिकारियों को लेकर आया और चौधरी को उसके ही घर में नजरबंद करके मंदिर को गिरा दिया। वच्छूवाली विभाजन के पहले अमीर हिन्दुओं की बस्ती थी और उन लोगों ने ही यहाँ कई मंदिर भी बनवाए थे। पाकिस्तान के कट्टरपंथी मुसलमानों ने पाकिस्तान सरकार की मौन स्वीकृति से इन सभी मंदिरों को नष्ट कर दिया। इन मंदिरों में 1680 में बने मंदिर बाबा माहर दास का विशेष महत्व था। इसके प्रवेश द्वार पर हनुमान जी की मूर्ति थी। अंदर राधा-कृष्ण और राम दरबार की मूर्तियाँ थीं, और इन मूर्तियों पर करोड़ों रुपेय की कीमत के कीमती आभूषण थे।
इससे संबंधित खबरें पाकिस्तान के अंग्रेजी अखबार ने प्रमुखता से प्रकाशित की है। उनकी लिंक यहाँ उपलब्ध है।
http://www.dawn.com/2006/05/28/nat23.htm
http://www.dawn.com/2006/06/13/nat16.htm
http://www.shaivam.org/siddhanta/toi_pakistan.htm
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साभार....http://www.hindimedia.in/

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

परमाणु समझौते का नफ़ा-नुकसान

(ये लेख बीबीसी से साभार लिया गया है...परमाणु करार की जटिलता इस लेख से कुछ हद तक सुलझती है...अगर इस मसले पर सरकार गिरती है तो आने वाले समय में ये चुनावी मुद्दा बनेगा... और तब इस मसले में दिलचस्पी ना लेने वालों को भी इसकी बारीकियों को समझना ही पड़ेगा..इस लेख के लिए हम आप बीबीसी की इस लिंक http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/08/070818_nuclear_vivechana.shtml पर भी सीधे जा सकते है...)
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भारत और अमरीका के बीच दो साल तक कई दौर की बातचीत, गहन-चर्चा और विचार-विमर्श के बाद असैन्य परमाणु सहयोग समझौता हो गया है. परमाणु सहयोग समझौते पर दोनों ही देशों में विरोध की आवाज़ें उठ रहीं हैं. सवाल यह है कि यह समझौता भारत के लिए क्या मायने रखता है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में कहा था कि चाहे कुछ भी हो, अमरीका के साथ हुआ समझौता रद्द नहीं होगा. प्रधानमंत्री का यह बयान अब उनके लिए एक राजनीतिक मुसीबत बन गया है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(यूपीए) सरकार पर संकट के बादल गहराने लगे हैं. वामपंथी दलों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि यूपीए से उनके रिश्ते टूटने की कगार पर हैं. यूपीए से संबंधों पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नेता प्रकाश कारत कहते हैं कि खटास तो आई है लेकिन अभी तलाक़ का वक़्त नहीं आया है. वहीं विपक्षी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) और संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन(यूएनपीए) या तीसरे मोर्चे को प्रधानमंत्री जयचंद की तरह नज़र आ रहें हैं जो अपने स्वार्थ के लिए देश हित को ताक पर रख रहें हैं.
फ़ायदा-घाटा
इस समय यह समझना होगा कि भविष्य में इस समझौते से देश को क्या नफ़ा-नुकसान होगा. सबसे पहला सवाल यह उठ रहा है कि क्या समझौते को मानकर भारत ने परमाणु परीक्षण करने का अपना विशेषाधिकार गंवा दिया है क्योंकि परीक्षण करते ही समझौता रद्द हो जाएगा. विज्ञान पत्रिका 'साइंस' के पत्रकार पल्लव बागला कहते हैं, “इस समझौते को दो लोगों के बीच हो रही शादी की तरह समझना चाहिए. अब शादी होने पर तलाक़ का भी डर होता है. आप तलाक़ के डर से शादी ही न करें ऐसा ठीक नहीं है. अगर आप आगे ही नहीं बढ़ना चाहते तो फिर तो आप बढ़ ही नहीं सकते और 1970-80 के दशक की पुरानी तकनीक में ही फँसे रह जाएँगे.” इस 123 समझौते में परीक्षण पर उठ रहे सवालों पर सरकार का कहना है कि फ़िलहाल हमें परीक्षण की ज़रूरत नहीं है और परीक्षण के समय हम उस स्थिति से भी निपट लेंगे. पोखरण में हुए परमाणु परीक्षण से जुड़े वैज्ञानिक के संथानम कहते हैं, “भविष्य में हम दोबारा परमाणु परीक्षण कर तो सकते हैं लेकिन उसके परिणाम और प्रभावों को भी देखना होगा. जैसे मई,1998 में लोग कहते थे कि इसके परिणाम और प्रतिबंध इतने भारी होगें कि हम मुसीबत में फँस जाएँगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था मज़बूत थी. समझौते को लेकर अगर विचारधारा के स्तर पर बात करेंगे तो हम इसी तरह विवाद करते रहेंगे.” के संथानम तो इस मुद्दे पर संतुष्ट दिखते हैं लेकिन दूसरे वैज्ञानिक इस करार से संतुष्ट नहीं हैं.
समझौता
कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि 123 समझौते में मुद्दा परमाणु परीक्षण करने के अपने अधिकार को किसी दूसरे देश के हाथों में सौंपने का है. सामरिक मामलों के जानकार भरत कर्नाड इस समझौते का विरोध कर रहे हैं. भरत कर्नाड कहते हैं, “मनमोहन सिंह अपने ही एजेंडे पर चल रहे हैं. वो चाहते हैं कि किसी भी तरीके से परमाणु सहयोग को बढ़ावा मिले. प्रधानमंत्री दूर की नहीं सोच रहे हैं. वो अपनी इस बात की रट लगाए हैं कि हमें निकट भविष्य में परमाणु परीक्षण की ज़रूरत नहीं है और जब तक ज़रूरत नहीं है तब तक परमाणु सहयोग जारी रहे.” भरत कहते हैं, “ परमाणु हथियार विकसित करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें परीक्षण करना ही पड़ेगा. जिन हथियारों के 1998 में परीक्षण हुए थे, उन सबके डिज़ाइन परीक्षण में कामयाब नहीं हुए थे. जैसे थर्मल न्यूक्लियर डिवाइस (जिसे हाईड्रोजन बम भी कहते हैं) की डिज़ाइन परीक्षण में ठीक से सफल नहीं हुई थी. मामला यही है कि आप परीक्षण कब करेंगे. ऐसा तो नहीं है कि अब परीक्षण करना ही नहीं हैं.” इससे साफ होता है कि इस समझौते का असर भारत के सामरिक कार्यक्रमों पर पड़ेगा. हालाँकि इस समझौते के समर्थक कहते हैं कि समझौते में इस बात पर ध्यान दिया गया है कि कहीं ऐसा न हो कि परमाणु परीक्षण होने की दशा में फौरन सभी परमाणु संयंत्र बंद हो जाएँ. परीक्षण से पहले एक साल का नोटिस दिया जाएगा और अमरीका इस बात की जाँच करेगा कि ऐसी कौन सी परस्थितियाँ हैं जिनमें भारत को परमाणु परीक्षण करना पड़ रहा है और यह निर्णय सही है या नहीं?
यहाँ एक बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या अब अमरीका यह तय करेगा कि भारत के परमाणु परीक्षण करने का फ़ैसला सही था या नहीं?
तकनीकी
वामदलों या भाजपा को इस सवाल पर कहना है अमरीका को यह अधिकार नहीं दिया जा सकता. कुछ जानेमाने वैज्ञानिक भी इसे अमरीका के चंगुल में फँसना बता रहे हैं.
लेकिन परमाणु समझौते के लागू होने पर कुछ फ़ायदे एकदम से नज़र आने लगेंगे. ये ऐसे फ़ायदे हैं जो वैज्ञानिकों और उच्च तकनीक क्षेत्र में काम करने वालों के लिए अहम होंगे. इस बारे में पल्लव बागला का कहना है, “भारत पर 1974 के बाद से तकनीकी प्रतिबंध लगे हुए थे और देश का वैज्ञानिक ढांचा उन्नत तकनीकी से पूरी तरह अछूता रह गया था. भारत पर अंतरिक्ष और कंप्यूटर जैसे उच्च तकनीकी वाले क्षेत्रों में प्रतिबंध लगा हुआ था. वो कहते हैं, "दूसरी बात यह है कि परमाणु अप्रसार संधि(एनपीटी) पर हस्ताक्षर न करने के बावजूद भारत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बैठने के लिए एक सीट तो मिल ही रही है. शुरू में आपको बैठने के लिए कुर्सी की जगह स्टूल ही मिल रहा है. लेकिन आपको वहाँ बैठने की जगह तो दी ही जा रही है. यह अपने आप में एक बहुत बड़ा फ़ायदा है." लेकिन भरत कर्नाड का मानना है कि हमें परमाणु समझौते से यह आशा बिल्कुल नहीं करनी चाहिए कि इससे भारत कोई विश्वशक्ति बन जाएगा और शायद प्रधानमंत्री यथार्थ नहीं देख पा रहे हैं. भरत कर्नाड कहते हैं, “प्रधानमंत्री और उनकी नीति के समर्थक जो मीडिया में भारी संख्या में मौजूद हैं उन सबका मानना है कि अगर हम अमरीका के नज़दीक हो जाए तो अमरीका हमें एक बड़ी शक्ति बनने में मदद करेगा. एक बड़ा मुल्क़ दूसरे मुल्क़ को अपने अधीन बनाने की ही कोशिश करता है."
वो कहते हैं, "अमरीका साफ-साफ कह रहा है और अमरीकी कार्यपालिका और उनके हाइड एक्ट में भी कहा गया कि भारत को परमाणु परीक्षण करने की स्थिति में तकनीकी भी नहीं मिलेगी. हम जो ईंधन आधारित उच्च तकनीकी हस्तांतरण की बात कर रहे हैं वो कुछ भी नहीं मिलने वाला.” भरत कर्नाड यहाँ तक कहते हैं, “मुझे तो ऐसा लग रहा है कि मनमोहन सिंह और जॉर्ज डब्ल्यू बुश के बीच व्यक्तिगत संबंध इतने अच्छे हैं कि मनमोहन सिंह बाकी सब कुछ भूल बैठे हैं और वो राष्ट्रीय हितों को छोड़कर व्यक्तिगत हित देख रहे हैं.”इस पूरी बहस में किसी का ध्यान इस ओर नहीं है कि यह असैन्य परमाणु ऊर्जा समझौता है और भारत की ऊर्जा ज़रूरतें कितनी हद तक पूरी करेगा. ज़्यादातर लोग यह मानते हैं कि यह समझौता भारत की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने के लिहाज़ से काफ़ी नहीं है और कभी भी पूरे देश में कुल बिजली उत्पादन में परमाणु बिजली का हिस्सा पाँच से 10 फ़ीसदी से अधिक नहीं होगा. के संथानम का मानना है कि इस समझौते से भारत की यूरेनियम की ज़रूरत कुछ हद तक पूरी होगी.
बाज़ार
यूरेनियम मूँगफली की तरह खुले बाज़ार में तो खरीदा नहीं जा सकता इसलिए बिना परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए इस समझौते से ही भारत यूरेनियम बाज़ार से खरीद सकेगा. जानकार इस ओर भी इशारा कर रहे हैं कि इस परमाणु संधि के साथ व्यापार हित न जुड़ें हो, ऐसा हो ही नहीं सकता. अंग्रेज़ी अख़बार 'बिज़नेस स्टैंडर्ड' के शांतनु गुहा रे कहते हैं कि व्यापार जगत की इस समझौते पर विशेष नज़र है.
वो कहते हैं, “अगर परमाणु समझौता हो जाता है तो हमारे देश में परमाणु संयंत्र लगाने के लिए काफ़ी विदेशी तकनीकी की ज़रूरत होगी. ऐसी तकनीकों को विकसित करने के मामले में बाकी दुनिया के मुक़ाबले अमरीकी कंपनियाँ काफ़ी आगे हैं. अमरीका यह उम्मीद कर रहा है कि वह अगले बीस वर्षों में भारतीय बाज़ार से कम से कम 150 बिलियन डॉलर का व्यवसाय करे.” लेकिन के संथानम का मानना है कि अमरीकी उद्योग के फ़ायदे के लिए ही समझौते पर ज़ोर दिया जा रहा हो, ऐसा नहीं है. उनके अनुसार फ़िलहाल अमरीकी उद्योग यह फ़ायदा उठाने की स्थिति में नहीं है. के संथानम कहते हैं, “अगर भारत में परमाणु संयंत्र स्थापित होंगे तो मुख्य रूप से फ़ायदा रूस और उसके बाद फ्रांस को होगा. मुझे नहीं लगता कि अमरीका को इससे फ़ायदा होगा क्योंकि पिछले 30-35 वर्षों से अमरीकी परमाणु बाज़ार सुस्त है. उसने कोई भी परमाणु रिएक्टर नहीं बनाया है. जबकि फ्रांस और रूस ने इस क्षेत्र में प्रगति की है. हमें समझौते का विश्वासपूर्वक स्वागत करना चाहिए.”फ़िलहाल इस समझौते पर राजनीति हावी हो गई है. वामपंथी दल जो पहले भारत के परमाणु परीक्षणों के ख़िलाफ़ बोलते रहे हैं अब इस अधिकार के छीने जाने के डर से चिंतित हैं. भाजपा जिसने इस समझौते की नींव रखी, आज उसकी क़ब्र खोदना चाहती है. उसे इस मुद्दे पर यूपीए सरकार गिरती हुई और मध्यावधि चुनाव नज़र आते हैं. लेकिन भारत की आम जनता के लिए यह अभी भी कोई मुद्दा नहीं है. परमाणु मुद्दे पर विचारधारा और व्यावहारिकता के बीच झूल रहे प्रतिपक्ष का विरोध महज औपचारिकता है या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के परिपक्वता की निशानी?

मंगलवार, 17 जून 2008

Yaqin jano...

Waqt-e-vasl1 main na khamosh baitho tum
Ki, Dil machalne lagta hai,
Koi farmaish2 karo, koi shikwa3 hi kaho
Ki khud pe tumhara ikhtiyar4 lagta hai.
Na bandho zulfon ko bandishon5 me,
Inke udhne per hi inka rang nikrta hai
Har baat ka jawab sir jhuka ke deti ho,
Han sach hai,
Tumko kya gharz6 hai, kiska dam nikalta hai
Sach kahun! Mujhe taab7 nahi hai, nazar milane ki,
Ki hausla to rakhta hu,
magar dil be-ekhtiyar8 sa lagta hai…
Kya sochte ho chupaloge khud ko iss chilman9 se?
Ki Aftab, abr10 hone per bhi asar rahta hai…………
Kahe jate ho ki jana hai - Aur uthte bhi nahi
Aur hum jumbish11 kerte hain
To kehte ho ki bura sa lagta hai…
Dil ko manana itna aasan to nahi hai magar
Yaqin jano!
Ki phir milne ke ahad12 se ye bhi samabhalne lagta hai….
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1. Waqt-e-vasl=meeting time, 2. farmaish=Wish, 3. Shilwa=complain, 4. ikhtiyar=Control, 5. bandishon=Limitation, 6. gharz=Want, 7. taab=Power, 8. be-ekhtiyar=out of control, 9. chilman=Curtain, 10. abr=Cloud, 11. jumbish=movement, ahad=promises

(Javed aziz....00447918901248) london U.K.

सोमवार, 16 जून 2008

माफ़ करना बाबूजी...पार्ट १

उस खिड़की से... दूर दूर तक पेड नज़र आते थे... लगता था कि पूरे शहर को पेड़ से घेर दिया गया हो... शाम को सूरज लाल होकर गुम होने तक उस खिड़की से झांकता रहता.. शाम जब रात की करवट लेती तो पूरा शहर रोशनी की चादर तान लेता.. अक्सर ऐसे वक्त उपन्यास के कुछ पन्ने खुद ब खुद पलट जाते... और निर्मल वर्मा का एकाकीपन मन के गहरे तक उतर जाता... चाय की मिठास में वक्त घुलते घुलते नींद के आगोश में जाने को बेकरार हो उठता....लेकिन इस बीच कमबख्त नीद कब छत पर टहलने चली जाती पता नहीं चलता... चांद की रोशनी में यादें बार बार बचपन के करवट हो लेतीं...और जब अपने याद आते तो मन बेचैन हो जाता... इस बेचैनी के बीच रात और चाय का एक अजीब सा रिश्ता बन गया था... रातें उसके लिए खुली किताब की तरह थी.. जिसपर वो बार बार कुछ लिखकर मिटाता रहता... दोस्तों के फोन भी अब ज्यादा नहीं आते थे... अब वो अक्सर उपन्यासों से बात करता.. कविताओं से बोलता.. और चाय के साथ गजले सुनकर रात काट देता.. सुबह से उसे एक अनजाना सा डर लगने लगा था... सुबह का मतलब था नौकरी की तलाश में दर दर की ठोकर...ऐसा करते करते चार महिने और चार दिन गुजर चुके थे...पुरानी नौकरी से कमाया पैसा अब खत्म होने को था...दिल्ली में रहना अब मुश्किल था.. कभी कभी तो सब्र जबाब दे जाता... लेकिन बीमार रिटायर पिता की चिंता उसे दिल्ली की दिक्कत के बीच रोक देती... जब तक पैसे कमाए तब तक ज्यादात्तर पैसा बाबूजी को मनीआर्डर कर दिया...लेकिन दो बार से मनीआर्डर नहीं भेजा...हां कुछ बहाने और उम्मीदें जरुर अपने बूढे बाबूजी तक पहुंचा दी.. बाबूजी भी अब अक्सर बीमार रहने लगे थे...मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद भी मां की आंखों का धुंधलापन गया नहीं था.. भला हो उस छोटकी का जिसने घर संभाल रखा था.. .कहने को वो घर पर सबसे छोटी थी... लेकिन भाई का सारा फर्ज अपने छोटे कंधे पर उठा रखा था... इस साल गांव के सरकारी स्कूल में नवें में दाखिला लिया था... पिछली बार बाबूजी के सारे पैसे छोटकी का दाखिला करने में खत्म हो गए... आगे की उम्मीद बेटे के मनीआर्डर पर टिक गई थी.. लेकिन वो बेटा....क्या बताता वो बाबूजी से...कि वो दिल्ली में आजकल नौकरी के लिए धक्के खा रहा है... क्या कहता बाबू जी से कि देखिए बाबूजी भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा ना बनकर मैने गलती की.. या फिर बाबू जी समाज बदलने निकला आपका लड़का धीरे धीरे खुद बदल रहा है... बाबू जी पुराने कम्यूनिस्ट थे... व्यवस्था के भ्रष्ट तंत्र से उन्हें चिढ़ थी..जब तक हाथ पैर चले लेनिन और मार्क्स को समझने और समझाने की कोशिश करते रहे...लेकिन बूढ़ापे के आगे उनका कम्यूनिज्म हार गया... वो सपना टूट गया...जो जोशीले भाषणों में बार बार दिखता था...गांव के बेकार लोग जिन्हें बाबू जी समाज का कोढ़ कहते थे शहर जाकर खूब पैसे जुटा लाए थे... गांव के खेतों मे शाखाएं लगनी शुरु हो गईं थीं.. रहमान और शकील चाचा से गांव के लोगों ने दूरी बना ली... बेबस आंखो से बाबू जी कम्यूनिज्म के गांव में पहुंचने का इंतजार करते रहे... जब बाबूजी का शरीर साथ देने से इंकार करने लगा तो ...अपने सपनों का बोझ उन्होने बेटे का कंधे पर रख दिया... बेटा दिल्ली में था...और एक अखबार में कम्यूनिस्ट पार्टी कवर करता था...बाबू जी इसी बात से खुश थे... लेकिन उन्हें क्या पता था कि अखबार के दफ्तरों में साम्यवाद नहीं चलता.. यहां बॉसिजिज्म का सिक्का बोलता है... जिसके लिए सब मशीन हैं... उनका बेटा भी...(आगे जारी)

सोमवार, 2 जून 2008

गुलज़ार के बहाने ग़ालिब..एक


तकरीबन दो दशक पहले गुलज़ार ने मूवी हाउस के बैनर तले सीरियल मिर्ज़ा गा़लिब बनाया था...नसिरुद्ददीन शाह ने मिर्ज़ा गा़लिब का किरदार अदा किया था...और रिसर्च का काम क़ैफ़ी आज़मी और गुलज़ार ने मिलकर किया था...संगीत जगजीत सिंह का था जो आज भी गुनगुनाया जाता है..कुछ दिन पहले मिर्ज़ा ग़ालिब फिर से देखने का मौका लगा...सीरियल तो खूबसूरत है कि उसकी स्क्रिप्ट संजोकर रखने वाली है..
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( दीवाली के मौके पर चौसर खेलते हुए )
मिर्ज़ा तोफ्ता ...अरे वाह उस्ताद दीवाली पर तो आप हर साल जीतते हैं...
मिर्ज़ा गा़लिब ...जीतता तो मैं ईद पर भी हूं..मिर्जा तोफ्ता ..बस ईद पर रस्म नहीं है जुआं खेलने की
अनजान शख्स...आप भी कहां रस्मों रिवाज मानते हैं मिर्जा
मिर्ज़ा गा़लिब... ऐसा ना कहो भाई ..मैं हर रस्मों रिवाज को मानता हूं..इसीलिए एक का कायल नहीं हूं....
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( गालिब के बेटे की मौत के बाद )
मुफ्ती...सब्र करो मिर्ज़ा...उसकी मर्जी में क्या छिपा है क्या पोशिदा है कोई नहीं जानता ...उसके राज निराले हैं
मिर्ज़ा गा़लिब... क्या छुपा है मुफ्ती साहब..क्या पोशिदा है..मेरा एक बेटा हुआ था... वो मर गया.. और वो दफ्न है अपनी कब्र में.. इतनी छटंकी सी जान... मनों मिट्टी पड़ी है उस पे कि कम्बख्त करवट भी ना ले सके.. . इसमें राज की कौन सी बात है... जना था उमराव बेगम ने और मारा उसे अल्लाह ने.. और कौन है मारने वाला... उसके बगैर हक है किसी को
मुफ्ती...आप ही ने कहा था जान दी..दी हुई उसी की थी.. हक तो यूं है कि हक अदा ना हुआ... ...
.................................................
( बेटे की कब्र के पास)
मिर्ज़ा गा़लिब ..जाते हुए कहते हो कयामत को मिलेगें...क्या खूब..कमायत का है गोया कोई दिन और..
लाला ( मिर्ज़ा गा़लिब के दोस्त ).. असद कहां खो गए हो इस वक्त
मिर्ज़ा गा़लिब... सोच रहा हूं कि दरगाह तक हो आऊं.. एक चादर चढ़ानी बाकी है...एक चढ़ाई थी जब मन्नत मांगने गया था बच्चे की...एक शुक्राने की चढ़ाई थी...अब एक माज़रत की चढ़ा आऊं...माफी मांग आऊं ख्वामोखां तकलीफ दी आपको....
लाला...जी कड़वा मत करो असद
मिर्ज़ा गा़लिब ...मै नहीं करता लाला...लेकिन उस औरत का क्या करुं.. जो मरी जा रही बच्चे जनते जनते...अपनी गोद भरने के लिए...उसकी गोद तो मुर्दों से भरी जा रही है...ये पांचवा बच्चा था लाला....
लाला..चलो घर चलो...
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रविवार, 1 जून 2008

सरकारी स्कूल की दीवारें

सरकारी स्कूलों की
दीवारें अक्सर
ज्यादा उंची नहीं होती..
बड़ा आसान होता है
उन्हें यूं ही फांदा जाना..
मुझे अपने
स्कूल की दीवार कभी ज्यादा
ऊंची नहीं लगी
सरकारी तंत्र की हवा
आसानी से यहां आती जाती रही..
जाति..धर्म का एहसास
मास्टरों के दिमाग से होता हुआ
अक्सर मेरे अंदर
घुसपैठ करता रहा...
भ्रष्टाचार को
गुरु शिष्य परम्परा
के लबादे में..
कई बार सरकारी स्कूल की दीवारें
फांद कर आते देखा..
मास्टरो की डांट
अक्सर
स्कूल की दीवारें
फांद कर उनके घरों में
ट्यूशन पढ़ने के लिए
मजबूर करती रही..
आज भी जब अपने स्कूल
की ओर से गुजरता हूं
तो अपने भीतर की
एक छोटी दीवार का
एहसास हो जाता है...
( सरकारी स्कूल का वो सच जो मैने महसूस किया..ये मेरे निजी विचार हैं..सरकारी स्कूल को लेकर सहानुभूति मेरी भी है..लेकिन जो लिखा मेरा अपना अनुभव है..)

बुधवार, 28 मई 2008

वो बारह घंटे...

वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
वो चाहते हैं
अपने हिस्से की खिलखिलाहट...
वो मांगते हैं
अपने सपनों का हिस्सा...
वो देखना चाहते हैं
दोस्तों के सपनों में सपना...
रास्तों पर नंगे पांव दौड़ना चाहते है
वो घंटे अपना हिसाब मांगते हैं...
वो नहीं जानते
तिगड़म का जाल...
वो नहीं समझते
अपनें दिखते लोगों की चाल...
बस पेड़ की छांव चाहते हैं
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं...
सपनों के धुंधलके में उम्मीद चाहते हैं...
अपने शहर की तस्वीर चाहते हैं...
जवानी में फिर से बचपन चाहते हैं..
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
मां के हाथों की मार..
पिता की फटकार...
भाई का दुलार चाहते हैं
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
तपती दोपहर में बादल की छांव चाहते हैं
बरसात में भीगकर कंपकपना चाहते हैं
शैतानियां करके छुपाना चाहते हैं
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
चाय की चुस्कियो के बीच
ढेर सी काहानियां चाहते हैं
बहुत लिखकर कुछ कुछ मिटाना चाहते हैं
बच्चों की तूतलाहट के बीच मचलना चाहते हैं..
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते है.....
( दरअसल ये वो घंटे हैं जो पता नहीं कैसे कट जाते हैं...ना तो खुशी देते हैं...हां थोड़ा सा गम देते हैं...अपनों से दूर होने का एहसास देते हैं...मजबूरी के लाबादे में...मशहूरी के मुगालते में...ठहरे ठहरे से लगते हैं...वो दिन के बारह घंटे...दफ्तर की उमस के बीच...बीत जाते हैं पर होने का कभी भी एहसास नहीं देते...बस दूर से दूर लगते हैं...खुद से अनजान लगते हैं...वो बारह घंटे..कविता की शक्ल में बह जाना चाहते हैं...शब्दों में ठहर जाना चाहते .दिन के वो बारह घंटे जो बीत जाते हैं पर पता नहीं चलते )
Subodh 9313254747

सोमवार, 26 मई 2008

हिन्दी ब्लॉग की हत्या पर दो मिनट का मौन

यशवंत जी ने अपने ब्लॉग पर जिस भाषा का इस्तेमाल किया...वो भले उनकी अभिव्यक्ति का तरीका हो...लेकिन उससे हिन्दी ब्लॉग को गहरा धक्का लगा है...यशवंत जी से मै कभी नहीं मिला...ना तो अविनाश जी से मेरा कोई परिचय है...दोनो को मैने ब्लॉग के जरिए जाना..पढ़ा और जी भर के कमेंन्ट किए...लेकिन हाल में यशवंत जी ने जिन अपशब्दों के साथ अपनी भड़ास निकाली..उससे हिन्दी ब्लॉग की दुनिया को काफी नुकसान पहुंचा है...इस ब्लॉग ने साबित कर दिया कि...केवल चार पांच बढ़िया लाइने लिखने से आप महान नहीं बन जाते...गुस्से में आप कितना विवेक से काम लेते हैं... ये बहुत कुछ आपके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है.. .यशवंत जी ने साबित कर दिया की ब्लॉग जगत की सेवा की उनकी कोशिश ईमानदार तो कतई नहीं है...गुस्से में अपशब्दों का इस्तेमाल तो अनपढ़ भी करता है...लेकिन थोडा पढ़े लिखे लोग ऐसा करने लगते हैं तो अफसोस होता है...मैं यशवंत जी इतना ही कह सकता हूं कि अपने लिखे को दोबारा पढ़े...सोचें...उन्हे इस वक्त सोच समझ कर लिखने की जरुरत है... माना कि ब्लॉग उनका है...अभिव्यक्ति की आजादी पर उनका भी हक है...लेकिन सार्वजनिक मंचो से गाली गलौज और रंगभेदी टिप्पणी करना किसी को भी शोभा नहीं देता..फिलहात तो हिन्दी ब्लॉग की हत्या की उनकी इस कोशिश पर हम सब दो मिनट का मौन रख सकते हैं...

शनिवार, 24 मई 2008

अरे ट्राई नहीं किया क्या...

(खुद को समाचार चैनल बताने वालों सुनो...सारा खेल टीआरपी का है...और टीआरपी बटोरना कोई बड़ा काम नहीं...बस अपना ज़मीर बेचो...और उतर जाओ बजार में...हां भूले से न्यूज की बात मत करो...फिजूल की चीजों पर खेलना सीखो...सबसे खेलो....अपने अंदर के बचे खुचे पत्रकार से...लोगों की भावना से...सच्चाई दिखाने के वायदे से..और कभी कभी खुद से भी...देखना टीआरपी छप्पड़ फाड़ कर आएगी...जहां तक इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकारो का सवाल है उनकी योग्यता को लेकर मेरे पास एक मेल http://www.hindimedia.in/ से आया है जो आपके पेश ए खिदमत है.)

टीवी न्यूज चैनल के लिए तत्काल चाहिए
रमता जोगी
Thursday, 22 May 2008
शीघ्र ही शुरु होने जा रहे हिन्दी के एक न्यूज़ चैनल के लिए देश के गाँव-गाँव से लेकर शहरों के गली मोहल्ले तक टीवी रिपोर्टर यानी टीवी पर खबरें देने वाले संवाददाताओं की आवश्यकता है, जो अपने शहर या मोहल्ले में होने वाली घटनाओं की रिपोर्टिंग कर सके। आवेदक के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता निर्धारित नहीं है, कोई भी थोड़ा पढा-लिखा आवेदन दे सकता है। लेकिन आवेदक को शहर के अपारधियों से लेकर पुलिस वालों से अच्छे संबंध होना चाहिए, ताकि उसे अपराध जगत की खबरें आसानी से मिल सके। अगर आवेदक खुद ब्लैकमैलिंग, चोरी, लूट बलात्कार जैसे अपराध में जेल जा चुका है या किसी दुश्मन द्वारा फँसाया जा चुका है तो उसके आवेदन पर तत्काल विचार किया जाएगा। ऐसे आवेदक को अपने ऊपर चल रहे मुकदमों, पुलिस में अपने खिलाफ दर्ज रिपोर्ट, अखबार में अपने खिलाफ छपी खबरों की कतरनें आदि प्रमाण के रूप में भेजना होगी। अपने आवेदन के साथ चैनल को हत्या, बलात्कार, लूट, धोखाधड़ी जैसे अपराध करने वालों की सूची, उनके द्वारा किए गए सफल अपराधों की सूची और वे किस अपराध में पारंगत हैं इसका पूरा व्यौरा भेजना होगा ताकि इस तरह के अपराधों पर चैनल उनसे तत्काल संपर्क कर उनसे इस तरह के अपराध पर विस्तार में चर्चा कर उनकी विशेषज्ञता का फायदा ले सके। आवेदक को चाहिए कि वो अपने शहर या गाँव में होने वाली हर छोटी बड़ी घटना पर नजर ही नहीं रखें बल्कि किसी भी घटना के होने के तत्काल बाद बढ़ा-चढ़ाकर उसकी खबर दें। किसी खबर को जितनी जल्दी भेजा जाएगा, उस संवाददाता को उतना ही योग्य माना जाएगा। शहर में होने वाली चोरियाँ, हत्या, बलात्कार, अपहरण, अवैध शराब के अड्डे, किसी भी सांस्कृतिक कार्यक्रम या मेले में होने वाले फूहड़ नाच-गाने जैसी खबरें प्रमुखता से चैनल पर प्रसारित की जाएगी। अगर कोई रिपोर्टर साहित्यिक, सांस्कृतिक या धार्मिक रुचियों की खबरें भेजेगा तो ऐसी खबरें कतई स्वीकार नहीं की जाएगी। किसी साहित्यिक आयोजन की बजाय आपके शहर में कोई फिल्मी या टीवी अभिनेत्री किसी ब्यूटी पॉर्लर का उद्घाटन करे, किसी गली मोहल्ले में कहीं कोई फैशन शो हो रहा हो, ऐसी खबरों को प्रमुखता दें। टीवी चैनलों पर सास बहू के नकली झगड़ों को देखकर लोग अब बोर हो चुके हैं। हमारे द्वारा किए गए शोध से पता चला है कि लोग अब असली झगड़ें देखना चाहते हैं। इसके लिए आप अपने गली मोहल्ले से लेकर आसपास के मोहल्लों में ऐसे परिवारों की सूची बनालें जहाँ आए दिन सास-बहू, देवरानी-जेठानी ननंद-भोजाई के बीच लड़ाई झगड़े होते हों। इन झगडों को आप सीधे चैनल पर भी प्रसारित कर सकते हैं और अगर आप चाहें तो इन सास बहू को या ननंद-भोजाई या देवरानी-जेठानी को अपने स्टुडिओ में भी ला सकते हैं। हम इनसे सीधी चर्चा कर इसका सीधा प्रसारण करेंगे ताकि लोग समझ सकें कि घरों में आखिर ये झगड़ें क्यों होते हैं और इनको कैसे सुलझाया जा सकता है। इनसे बात करने के साथ ही हम देश के जाने माने मनोवैज्ञानिकों से, देश की जानी-मानी सासुओं और बहुओं से भी बात करेंगे। लेकिन यह ध्यान रहे कि आप हर बार अलग अलग मोहल्ले की सास-बहुओं के झगड़ें कवर करें। एक ही मोहल्ले की एक घटना का प्रसारण एक बार ही किया जाएगा। एक ही मोहल्ले से दूसरे परिवार को मौका नहीं दिया जाएगा।
अगर आप सास बहुओं के झगड़ों को कवर नहीं कर सकते हैं तो गली मोहल्ले में केल खेल में लड़ने वाले बच्चों के झगडो़ से फभी अपनी रिपोर्टिंग की शुरुआत कर सकते हैं। बच्चों के लड़ाई-झगड़ों में बड़े भी कूद पड़ते हैं और कई बार बच्चों की लडा़ई महाभारत की लडा़ई को भी मात कर देती है। आप चाहें तो गली मोहल्ले में खेलेन वाले बच्चों को उकसाकर भी उनको आपस में लड़ा सकते हैं और टीवी पर लाईव दिखा सकते हैं। टीवी पर बच्चों की लडा़ई दिखाने के बाद उनके माँ-बाप, मोहल्ले वाले और फिर उनकी जाति और समुदाय वाले भी बीच में कूद जाएंगे और इस तरह हम अपने चैनल पर बार बार यह चेतावनी देते रहेंगे कि यह झगड़ा सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले सकता है। इस तरह आप चाहें तो एक छोटी सी घटना को बड़ी घटना में वदलकर पूरे प्रशासन को और सरकार को कटघरे में खड़ा कर सकते हैं। आप चाहें तो ऐसी किसी घटना की रिपोर्टिंग करने के दो-चार दिन पहले बच्चों के आपसी झगड़ें को दिखाकर यह चेतावनी दे सकते हैं कि ये झगड़ा कबी भी हिंक रूप ले सकता है, जाहिर है प्रशासन आपकी इस बात को कतई गंभीरता से नहीं लेगा। इस खबर के प्रसारण के दो चार दिन बाद आप बच्चों को अच्ची तरह भड़काकर उनको लड़ा सकते हैं। इस संबंध में अगर किसी तरह के मार्गदर्शन की जरुरत हो तो तत्काल स्टुडिओ से संपर्क कर सकते हैं। शीघ्र ही आने वाले देश के एक सबसे तेज न्यूज़ चैनल के लिए अपराधिक मानसिकता में जीने वाले, अपराधियों और ब्लैक मेलरों से संपर्क रखने वाले होशियार, तेजतर्राट और खबर को सूंघकर पहचान सकने वाले तत्काल आवेदन करें।
(साभार http://www.hindimedia.in )

रविवार, 6 अप्रैल 2008

जाति के सवाल पर गुत्थमगुत्था

पिछले दिनों रवीश जी के कस्बे में खूब हंगामा मचा..बहस जाति को लेकर छिड़ी...तो कुछ लोगों का खून खौल गया...रवीश की मंशा पर सवालिया निशान लगाए गए...साबित करने की कोशिश शुरु हो गई कि जब रवीश की सोच में खुद खोट है...तो वो जाति का सवाल क्यों उठा रहे हैं...मामला जान से मारने की धमकी तक पहुंच गया...दरअसल जाति का सवाल केवल बिहारियों से जुड़ा नहीं है....ये सवाल हमारी मानसिकता से जुड़ा है....और उतना ही उस माहौल से जहां बार बार हमारी जाति का एहसास कराया जाता है...मेरी जाति क्या है ये सवाल सबसे पहले मुझसे मेरे उस दोस्त ने पूछा....जिसका तालुल्क मोतीहारी से था...जब मैने सवाल टालने की कोशिश की...तो मेरी जाति की छानबीन के लिए मेरे कैरेक्टर का विश्लेषण तक कर डाला गया....बाद में जाति पर कलंक की श्रेणी में डालकर मेरा खूब प्रचार प्रसार किया गया...लेकिन सच बताऊं मुझे ना तो गुस्सा आया और ना ही मैने कभी इस बात की शिकायत की...लेकिन इस पूरे अनुभव से मैने बिहारियो के बारे में एक पूर्वाग्रह जरुर गढ़ लिया कि...बिहार के लोग आपको जानने से ज्यादा आपकी जाति जानने में दिलचस्पी रखते हैं...इस दौरान मुझे खुद को जाति के जाल से निकलने का मौका जरुर मिल गया...सबसे पहले अपने नाम के आगे से जाति का पोस्टर हटाया..और जता दिया कि मेरे खून का ब्वॉयलिग प्वाइंट इतना भी कम नहीं कि जाति के नाम पर खौल उठे...ये सब इसलिए लिख रहा हूं कि रवीश के ब्लॉग पर जाति की बहस मरने मारने तक जा पहुंची है...दरअसल पूरे मामले में गलती किसकी है...जाति को जहर मानकर उस पर कुछ गंभीर चिंतन करने वाले की...या फिर किसी के विचार को अपनी जाति पर हमला समझकर व्यक्तिगत छिंटाकशी करने वाले की..जहां तक मुझे लगता है अगर आपको जाति से लडना है तो पहले खुद से लडना होगा...जाति के पूर्वाग्रह से हम सब ग्रस्त हैं...वो भी जो जाति को स्वाभिमान से जोड़ते हैं...और वो भी जो जाति के विरोध मे अपनी आवाजें बार बार बुलंद करते रहते हैं....

रविवार, 9 मार्च 2008

सबा के नाम ख़त

सबा तुम तकलीफ में हो...
जिंदगी और मौत के सारे फर्क
मिट चुके हैं
तुम्हारे लिए.......
तुम्हारी जमीन पर
फूलों ने भी महकना
छोड़ दिया है....
अपने घर में
कैद कर दिए गए हैं
तुम्हारे लोग...
बचपन अपनी मासूमियत
भूल चुका है...
बच्चों ने एक अर्से से
शरारते नहीं की..
सभी की उम्र
मौत के अंदेशों से थम चुकीं है..
रोज अपनों को विदा करते करते
तुम्हारी आंखों ने रोना छोड़ दिया है
सबा...
तुम्हारी इस हालत के गुनहगार
हम सब हैं...
हमारी सरकारें गूंगी हो चुकी हैं
विकास की अधकचरी तस्वीर से
हमारी आंखे बंद की जा चुकी हैं...
हमारे भविष्य की
बाजार में बोली लगाकर..
हमें चुप रहने की
हिदायद दे गई है...
सबा हम गाजा नहीं जानते
नहीं जानते कि क्या हो रहा है वहां
हम सिर्फ हिलेरी और ओबामा की
खबरें पढ़ते हैं
सबा
हमारी समझ कुंद कर दी गई है..
इसीलिए तुम्हारी हालत के लिए
हम सब जिम्मेदार हैं...
( मोहल्ला का शुक्रिया..सबा का ब्लॉग पढ़ा...उसके बाद जो मन में आया लिखकर मन का बोझ हल्का करने की कोशिश की )

ये म्याऊं नहीं करतीं

म्याऊं एफएम के बारे में रवीश के ब्लॉग पर पढ़ा था...दिल्ली में आने के बाद म्याऊं रेडियो से पाला भी पड़ा....बस में धक्के खाते...अचानक रेडियो म्याऊं ट्यून हो गया...महिलाएं म्याऊं म्याऊं करके बातिया रही थीं...हंसी हंसी के बीच महिलाओं का आत्मविश्नवास देखते ही बन रहा था...बोल्ड एंड इंटेलिजेन्ट....लगा की महिलाओं की यही बोल्डनेस रही तो एक दिन भौं भौं रेडियो पुरुषों का आत्मविश्वास पैदा करता सुनाई देगा...दरअसल ये महिलाओं की वो म्याऊं है...जो अमूमन दिल्ली के एअरकंडिशन घरों में बैठ कर दर्ज कराई जा रही है...ऐसी महिलाएं शायद अपने कारों के शीशों से बाहर देखना नहीं चाहतीं....दिल्ली जिन हाथों से खूबसूरत हो रही उनमें कई हाथ यूपी.. बिहार एमपी से आई महिला मजदूरों के हैं...ये महिलाएं रेडियो म्याऊं नहीं सुनती...वो केवल रेत में खेलते अपने बच्चों की तोतली जुबान को पहचानती हैं....ये महिलाएं फिट रहने या सुंदर दिखने के नुस्खे आपस में शेयर नहीं करतीं...इन्हें पुरुषों को सोफेस्टिकेटड तरीके से कोसना भी नहीं आता...ये गरियाती हैं...जमकर....आप इसे भले उनका गवांरुपन समझे...लेकिन ये उनका सहज गुस्सा है...अपने हक का गुस्सा...पुरुषों के साथ काम करके दो वक्त की रोटी खाने खिलाने के हेकड़ी का नतीजा...शायद तभी ये महिलाएं म्याऊं नहीं करती बल्कि दहाड़ती हैं...

बुधवार, 5 मार्च 2008

गिरेवान में झांकने का वक्त

अभी हाल में एक अखबार के सम्पादकीय पेज पर..इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में मशहूर पत्रकार नाइजल रीस के विचार छपे थे...नाइजल ने टीवी पत्रकारिता की धज्जियां उड़ाते हुए कहा था कि...दुनिया का सबसे आसान काम है टेलीविजन पत्रकार होना...उन्होने आगे कहा था कि...इस पत्रकारिता में आपको कुछ नहीं करना होता...सब पहले से तय होता है...आप बस खाली जगह भरते हो...अखबार ने नाइजल के हवाले से आगे लिखा था कि...टेलीविजन पत्रकार के पास बस चार सवाल होते हैं और वो उन्हें उसी क्रम में दोहराता है...मसलन घटना का विवरण क्या है...लोग क्या महसूस कर रहे हैं..अधिकारियों का क्या कहना है...और ये घटना इसी समय क्यों हुई...नाइजल ने ये बातें भले इलेकट्रानिक मीडिया के व्यवहारिक पक्ष को ध्यान में रख कर कही हों....लेकिन खबरिया चैनलों की कुछ इसी तरह की खिल्ली आपको चाय की दुकानों से लेकर पान की गुमटियों तक सुनने को मिल जाएगी...मैं खुद पिछले तीन साल से इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम कर रहा हूं..इस बीच मैने वो खुशी कभी महसूस नहीं की जिसकी उम्मीद लेकर इस क्षेत्र में मैं आया था...ज्यादात्तर न्यूज चैनल के दफ्तरों की कहानी एक सी है...अपनी गणित बैठाने और दूसरों को कोसने की बैद्धिकत्ता का नासूर...इलेक्ट्रानिक मीडिया को हर स्तर पर खोखला कर रहा है...जो बेहतर कर भी रहे हैं...उनके रोमांस के फर्जी किस्सों की ब्रेकिंग न्यूज उड़ाकर...उनकी छवि बिगाड़ने की कोशिश करने वाले पत्रकारों की तदात कम नहीं है....ऐसे में नाइजल बिल्कुल ठीक नज़र आते हैं...मैने तो अभी तक टीवी पत्रकारो को खबरों पर संजीदा होने से ज्यादा...( जिनसे मेरा पाला पड़ा है )..मंहगे मोबाइल पर भोकाल टाइट करने की लाचार कोशिश करते ही देखा है...डेस्क पर खुद पत्रकारों ( मैं कई लोगों के आगे पत्रकार लगाना नहीं चाहता लेकिन और कोई शब्द भी नहीं है मेरे पास उनके लिए ) में कम्यूनिकेशन गैप ने माहौल को बिगाड़ा है...अपनी नजरों में हर शख्स यहां सिकन्दर से कम नहीं...अजीब सी आत्ममुग्धता में जीने की...दिखावटी शैली ने...उनके अंदर के पत्रकार की संभावना का भी गला घोंट दिया है...अगर बाजारु भाषा में कहे तो पत्रकारिता एक प्रोफेशन बन चुकी है...कम से कम वो मिशन तो नहीं रही ...जहां आंखे खुली रखकर गलत और सही को पहचानने की सीख दी जाती थी...

सोमवार, 3 मार्च 2008

ये गालियां कुछ कहती हैं...

बात बात पर दूसरों की मां बहन को याद करना दिल्ली की खास खूबी है..इस नायाब खूबी से दिल्ली का तारुफ कब और कैसे हुआ...रिसर्च का बेहतरीन टॉपिक है....ऐसा नहीं की इस खासियत पर केवल दिल्ली का कॉपीराइट हो.....लखनऊ जैसे शहरों में भी बात बात पर मां बहन एक करने की अदा बड़ी नज़ाकत और नफासत के साथ...टेम्पों स्टैण्ड से लेकर रेलवे स्टेशन तक बिखरी मिल जाएगी.....ये गालियां कहां से आईं...और किसके आशीर्वाद से हवा में स्थाई हो गई ...उल्लेख किसी किताब में नहीं मिलता....मुगलकाल से लेकर आज तक गालियों के शिल्प में बदलावों पर चर्चा ना होना चौंकाता है...देश की राजधानी में गालियां जिंदगी का स्थाई भाव हैं..बसें इन्हीं उच्चारणों के साथ ज्यादा माइलेज दे रही हैं...और तो और यहां गालियां जीवित और बेजान भावनाओं से कहीं ऊपर उठी दिखती हैं....गालियों ने तो अब अपना चरित्र परलौकिक भी करना शुरु कर दिया है..ऐसे में गालियों की बुनावट और उसके शिल्प पर सेमिनारों में चर्चा करनी ही चाहिए....इन सेमिनारों के टॉपिक हो सकते हैं....आधुनिक युग में गालियों के बदलते आयाम...गालियां और उसके समाजिक सरोकार...आदि आदि....फिलहाल तो ये गालियां अपनी सामाजिक भूमिकाएं निभाने में बीज़ी हैं....इन्हीं गालियों ने बडी़ से बडी़ सिर फुट्टवल की घटनाओं को महज अपनी तीन चार शब्दों की बुनावट से रोका है...इन्हीं गालियों ने उम्र की सीमाएं तहस नहस कर नई दुनिया गड़ी है...जहां इनके हवा में तारी होते ही बुजुर्ग और छोरे का फर्क खत्म हो जाता है...तो इन गालियों पर चर्चा जारी रहेगी..यहां ले लेते हैं एक बडा़ सा ब्रेक...मुझे दीजिए इजाज़त नमस्कार...