शनिवार, 24 जनवरी 2009

मेरा कबूलनामा दिल से 9

मेरी अधूरी कहानी
किसी कहानी का अधूरा रह जाना...आपके अंदर के अधूरेपन की तरह है...दरअसल मेरी कहानी दो किस्तों में आकर आज भी अधूरी पड़ी है...अब मुझे समझ में आता है कि कहानी किस्तों में भले छपतीं हो...लेकिन लिखी तो कतई नहीं जाती होगी (ऐसा मैं सोचता हूं)...कहानी के अंदाजे बयां के नाम पर मुझे कुमुद नागर जी याद आते हैं...कुछ कुछ निराला सा चेहरा...सफेद होती दाढ़ी...लंबा कद...और शानदार व्यक्तित्व...मुझे काफी दिनों बाद पता चला कि वो अमृतलाल नागर के पुत्र हैं...वो अक्सर हमें कहानी के बारे में बताया करते थे...उनके जिम्मे में वो काम था जो मेरे ख्याल से नामुमकिन सा था...वो हमें स्क्रिप्ट लिखना सिखाया करते थे...कहानी कैसे कही जाती है ये भी सिखाना उनके जिम्मे में था...जितना उनके करीब गया उतना ही बड़ा पाया...वो कई विधाओं में माहिर थे...थियेटर से लेकर पेटिंग तक...उन्होने कई सालों तक रेडियो और टेलीविजन में काम भी काम किया था...उनकी आवाज उनके आखिरी वक्त तक फंसने लगी थी...जब मैं दिल्ली में था...तब पता चला उनकी मौत हो गई है...टहलने के दौरान टेम्पो की टक्कर ने उनकी जिंदगी उनसे हमेशा के लिए छिन ली...मुझे उनका चेहरा आज भी याद है....मुझे अफसोस है कि मेरे पास इस ब्लॉग पर लगाने के लिए उनका कोई फोटो नहीं है...खैर बात कहानी की हो रही थी...
मानता हूं कि मैं गुनाहगार हूं उस कहानी का जो दो किस्तों में आकर भी अधूरी पड़ी है...मैं उसे पूरा कर पाऊं...मुझे नहीं लगता...क्योंकि कहानी कहने के लिए जिंदगी को महसूस करने का वक्त चाहिए...जो अब मुझसे छिन सा गया लगता है....सोचता हूं कुछ ऐसा कहूं जो सब सुने...ऐसा बोलूं कि खुद को भी अच्छा लगे...खुद को पात्र की तरह पेश करूं और असली सी कहानी कह डालूं...लेकिन इसके लिए आपकी आप से मुलाकात भी तो जरुरी है...वो भी अब नहीं हो पाती...फिर भी आस है लिख रहा हूं...खूब पढ़ने की ख्वाहिश है...अभी उम्र भी कोई ज्यादा नहीं हुई है...औऱ थकान भी नहीं है...इसलिए लिखने की आस है...फिलहाल तो आप इसे उस अधूरी कहानी को लेकर मेरा पश्चाताप कह सकते हैं...

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

लखनऊ के ख्यालों में नोएडा

पहले शहर नदियो के आसपास बसा करते थे...जो स्वाभाविक था औऱ जरुरी भी..नदियां इंसान के तमाम मकसद हल कर दिया करती थीं...लेकिन अब शहर बाजार के आसपास बसते हैं...या कहें बसाए जाते हैं...नोएडा के बारे में मेरी सोच कुछ कुछ ऐसी ही है...हालांकि यमुना इस शहर को छूकर गुजरती है...लेकिन उसकी हालत देखकर आपका मन भी उसे नदी मानने से इंकार कर देगा..शायद यहां कोई मानता भी नहीं है...ऐसे में अपने लखनऊ से दूर होने के एहसास के बीच शहर के मायने समझ में आते हैं...हमारे शहर ने हमें अदब की तालीम दी..नवाबों की गंगा जमुनी तहजीब की विरासत है हमारे पास.. मजाज़ लखनवी..अमृतलाल नागर से लेकर श्रीलाल शुक्ल तक का लंबा साहित्यिक सफर तय किया है हमारे शहर ने...आप तहजीब और तमीज के नाम पर इस शहर से कुछ भी मांग सकते हैं..आपको शायद ही मायूस होना पड़े..( अगर होना पड़े तो ये मानिएगा कि वो लखनवी अंदाज तो नहीं है) हमें हमारे शहर ने पाला है..लेकिन नोएडा (उसमे दिल्ली के कई हिस्से भी शामिल हैं.) में आकर अपने शहर से बिछुड़ने का दर्द सालता है...यहां सबकुछ होकर भी काफी कुछ नहीं हैं...इस शहर के पास ना तो इतिहास है...और ना ही इतिहास बनाने की कूबत...( हां आपराधिक इतिहास यहां जरुर रोज बन रहे है निठारी से लेकर आरुषि मर्डर केस तक )..जो शहर प्यास का मोल लगाने लगे उससे ज्यादा बिकाऊ शहर कोई नहीं हो सकता...आप यहां जितने प्यासे हैं उतने बड़े ग्राहक हैं...यकीन मानिए पैसे से ना तो इंसानियत खरीदी जा सकती है...और ना ही खूबसूरत एहसास...यहां जन्मे बच्चों को ना तो रोटी के मायने ही पता हैं...और ना ही धूप में पसीने बहाने वाले किसान की तकलीफ का उन्हें एहसास है...यहां बचपन से बाजार की तालीम मिलती है...समझाया जाता है कि पैसे से पैसे कैसे बनाए जाए...या फिर अथाह संपत्ति को कैसे लुटाया जाए..अब समझ में आता है कि साहित्य से जुड़े लोगों का जमावड़ा होते हुए भी इस शहर में साहित्य की ( खासकर हिन्दी..अंग्रेजी साहित्य पढ़ना तो स्टेटस सिंबल है ) कोई दुकान क्यों नहीं है...यहां रह रहे साहित्यकार हमारे लखनऊ तक में कहीं ज्यादा पापुलर हैं...लेकिन नोएडा और दिल्ली के कुछ इलाकों में उन्हें कोई नहीं जानता...और ज्यादा कड़े अल्फाजों में कहूं तो कोई जानना भी नहीं चाहता...ये सिर्फ मेरी भड़ास हो सकती है...हो सकता है कई लोगो को मेरी ये तकलीफ बेवजह लगे...लेकिन जब एक वक्त की दवाई खाने के लिए पानी मांगने के बजाए १५ रुपए की पानी की बोतल खरीदनी पड़ती है...तो एहसास की कड़वाहट कुछ ज्यादा तीखी हो जाती है...बस गु्स्सा आती है पानी की कीमत पर बाजारू जिंदगी जीने वाले इस नोएडा शहर पर...

तहलका पर वो दो कविताएं


कम से कम मुझे इतना तो यकीन है कि मैं कोई कवि नहीं हूं... और ना ही शब्दों की तुकबंदी करने की काबलियत ही है मुझमें... लेकिन पिछले तीन या चार महिने से तहलका की साइट पर दो कविताओं का एहसास अटका पडा है... कविताएं अब तक भले पुरानी सी हो गई हों...लेकिन कमेंट की ताजगी ने उन्हें बासी होने से बचाए रखा है...कविताओं पर काफी प्रतिक्रियाएं भी आ चुकी हैं...पढ़कर खुशी होती है...लिखे शब्द जब बोलते हैं तो अच्छा लगता है...पिछले दिनों पढ़ने लिखने का सिलसिला थोड़ा कम हुआ है (सच कहूं तो काफी कम हो गया है थोड़ा कम कह कर खुद को तसल्ली देने की बेवजह कोशिश करता रहता हूं)...कविताएं भावनाओं का बहाव होती हैं...उन्हें रोक पाना खुद के बस में भी नहीं होता..कविताओं में शब्द तर्कों से कहीं आगे जाकर खुद नए तर्क गढ़ देते हैं...फिलहाल जब कभी खुद को तसल्ली देने का मन करता है तो तहलका पर अटकी पड़ी कविता पढ़ लेता हूं...अच्छा लगता है लेकिन यकीन मानिए फिर भी खुद को कवि मानाने की गुस्ताखी नहीं करता...

सोमवार, 19 जनवरी 2009

मेरा कबूलनामा दिल से 8



खूबसूरत दुनिया के ख्याल
खूबसूरत ख्यालों से कहीं बेहतर होती हैं
खूबसूरत कोशिशें
मैं अक्सर खूबसूरत ख्यालों में जीता हूं
उसी के आंचल में सपने पालता हूं
भूल जाता हूं कि
खूबसूरत कोशिशों के बगैर
खूबसूरत ख्यालों का कोई मतलब नहीं
मुझे ये भी पता है कि
ख्यालों की वो खूबसूरत दुनिया
हर आंखों में बसती है
लेकिन उस तक पहुंचने का रास्ता
बहुत पथरीला है
शायद कहा भी इसीलिए गया है कि
सपने वो नहीं होते
जो बंद आंखों से देखे जाते हैं
सपने वो होते हैं
जो आपको सोने नहीं देते

( मेरी उम्र अभी तीस होने में काफी वक्त है...लेकिन जिन सपनों में मैं जीता हूं...वो थोड़े बड़े और थोड़े हट कर हैं..पैसे का लोभ अभी तक नहीं था...लेकिन अब थोड़ा थोड़ा होने लगा है...बाजार से चिढ़ थी...अब बाजार में ही रह रहा हूं..या कहूं रहने की आदत डाल रहा हूं...दो वक्त की रोटी के लिए जो नौकरी कर रहा हूं उसका कभी सपना देखा करता था...लेकिन अब ये सपना काफी डरावना हो गया है...मुझे लगता है कि सपनों और हकीकत के बीच फासला हमेशा से रहा है...जो इस फासले की खाई को पाट लेते हैं...उन्हें सपनों की दुनिया हासिल हो जाती है...और बाकी सपने पालने की गुस्ताखी करते रह जाते हैं...मैं भी दूसरी श्रेणी में आता हूं...सपने अभी भी जिंदा है इस बात का सूकून है...लेकिन इस बात का मलाल भी ज्यादा है कि कोशिशों को लेकर मैं कभी ईमानदार नहीं रहा..सच कहूं तो मैं व्यक्तिगत स्तर पर काफी लापरवाह पर्सनालिटी हूं...सुस्त कामचोर..काम को टालने वाला...लेकिन ये भी सच है...चमक्तार की उम्मीद नहीं करता...इसलिए ज्यादा मुगालते में नहीं जीता.. शायद इसलिए खुद को झकझोरने के लिए ये कविता लिख डाली...उम्मीद करता हूं कि जब अगली कविता लिखूं तो बातें खूबसूरत कोशिशों की हों...और जिक्र खूबसूरत कोशिशों के पथरीले रास्तों का हो.. ताकि मेरा सर कम से कम अपनी नजरों में ना झुके...)

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

मेरा कबूलनामा...दिल से ७


भगवान से दो बातें
मैं आपको तुम कह सकता हूं ना...लगता तो है कि तुम इसकी इजाजत दे देगो..क्योंकि दुनिया तुम्हें दयालु मानती है...बताते हैं कि तुम दुनिया के कष्ट हरते हो..उनका कल्याण करते हो...लोग तो ये भी बताते है कि तुम कभी कभी उनसे मिलने भी आते हो...कई बाबाओं पर तुम्हारी इतनी कृपा है कि वो तुम्हारे बारे में ऐसे बताते हैं कि लगता है कि उनका उठना बैठना तुम्हारे साथ होता है ...खैर मेरी तुमसे एक कम्प्लेन है...ओहो तुम्हें अंग्रेजी नहीं आती..ऐसा मैं नहीं कहता तुम्हारे वो भक्त बताते हैं जो अक्सर तुम्हारे जैसे किसी गॉड का गिरजाघर तोड़ते हैं ..वो तो ये भी दावा करते हैं कि तु्म्हे अरबी और उर्दू भी समझ में नहीं आती...बस तुम संस्कृत के कठिन श्लोक समझ पाते हो... वो बताते हैं कि तुम्हारा कुछ लोग अपमान करते हैं...उनसे बदला लेना है ...वो तो ये भी कहते हैं कि तुम्हारे कई मंदिर तोड़ डाले गए..पता नहीं तुम उस वक्त खामोश क्यों रह गए...अगर समय रहते तुमने कुछ चमत्कार दिखाया होता तो आज तुम्हारे ये भक्त मस्जिद औऱ चर्च को हाथ भी नहीं लगाते ...फिलहाल ये तो सोशल टाइप की बातें हो गईं....चलो कुछ कुछ पर्सनल हो जाए..पता है ये सारी बातें क्यों कर रहा हूं तुमसे...दरअसल पिछले कुछ दिनों से परेशान हूं...और तुम जानते हो जब परेशानी होती है तो तुम अक्सर याद आ ही जाते हो...यू नो सुख में तु्म्हे याद करने की फुसरत नहीं निकाल पाता...सॉरी..लेकिन आज नेट पर बैठा था तो सोचा तुमसे बात कर ली जाए..पूछना ये था कि...लेकिन प्रॉमिस करो कि बुरा नहीं मानोगे...मुझे पता है तुम किसी बात का बुरा नहीं मानते...मुझे भले इस बात पर शक हो लेकिन लोग ऐसा कहते हैं... तुम बड़े दयालु हो...मुझे पता नहीं क्यों डाउट होता है...फिर कह रहा हूं बुरा ना मानना...लेकिन ठंड में जब कुछ लोगों को सड़क पर ठिठुरते देखता हूं...और कुछ लोग पिज्जा चाटते नजर आते हैं तो पता नहीं क्यों लगता है कि तुम कुछ पर बेवजह मेहरबान हो...और कुछ बेकसूरों को बेवजह सता रहे हो...फिर समझ में आता है कि जो कर्म करता है तुम उसी की मदद करते हो...लेकिन फिर मुझे वो लोग भी दिखते हैं जो ईमानदारी और सच्चाई का बोझ उठाने के बाद भी परेशान हैं...सर पर गारा ढोते लोग भी तो शायद मेहनत करते हैं...वो तुम्हे पता नहीं क्यों नजर नहीं आते...मुझे बार बार गोर्की नाम का वो नास्तिक याद आता है जो अपनी नानी के भगवान से डरता था..पता है क्यों क्योंकि उसकी नानी तुमसे डरा करती थीं...अब ये तो तु्म्हारी सरासर ब्लैकमेलिंग हो गई ना.. वैसे तुमने भी खुद को गजब का सेफ कर रखा है...अगर कोई तकलीफ में होता है तो कहता है कि तुम उसकी परीक्षा ले रहे हो..और उसकी खुशी के लड़्डू भी मस्त हो कर खाते हो...क्या बात है.. बस यही सब बातें तुमसे करनी थीं..सोचा कि मंदिर में जाकर ये बातें कहूंगा...लेकिन वहां तुमने पुजारी को पहरेदारी पर बैठा रखा है...मस्जिद और गिरजाघर का हाल भी यही है...इसलिए नेट पर तुमसे बातें कर रहा हूं...खैर शिकायतें तो बहुत हैं लेकिन फिर कभी..अभी नोएडा सेक्टर १९ में एक साध्वी आईं हैं..वो तुम्हारे बारे में बड़ी तल्लीनता से बता रही हैं...तुम्हारी कोई राजदार लगती हैं...नाम तो पता होगा साध्वी रितम्बरा..

सोमवार, 12 जनवरी 2009

मेरा कबूलनामा...दिल से ५


पिछले कबूलनामे में थोड़ा जज्बाती हो गया...कबूलनामे की चौथी कड़ी में जो लिखा उसका ये मतलब कतई नहीं था कि मैं निराश हूं...लेकिन जब आप व्यक्तिगत होते हैं...तो थोड़ा भावुक हो जाना लाजमी है...मैं जानता हूं कि निराशा आपको आधा मार देती है...और मुश्किलों से जूझते हुए आप काफी कुछ सीखते हैं...मैं थोड़ा भावुक हूं..लोगों की तकलीफें मुझे परेशान करती हैं...उनका दर्द मुझे झकझोर देता है...लोगों की मदद करना चाहता हूं....और शायद यही भ्रम पाल कर ही पत्रकारिता में आया...सोचा कि लोगों के सवाल उठाउंगा...भ्रष्ट अधिकारियों को कटघरे में खड़ा करूंगा... लेकिन अफसोस है कि जिस मीडिया में काम कर रहा हूं...वहां खबर का काला कारोबार चल रहा है...हम खबर को प्रोडक्ट बनाने पर तूले हैं...खबर की आत्मा रोज गिरवी रखी जा रही है...ये सारी बातें कचोटती हैं...लेकिन रोटी के दो निवाले के मोह में नौकरी भी नहीं छोड़ सकता...फिलहाल अपने आसपास कुछ मौलिक नहीं है...कट कॉपी पेस्ट की परम्परा इस वक्त चैनलों में खूब फल फूल रही है...मुझे पता है कि सफर लंबा है...मेरे भी कुछ सपने देखे हैं...फिलहाल तो सपनों को पालना सीख रहा हूं...सच कहूं तो मैं निराश नहीं हूं...हताश भी नहीं हूं...और परेशान भी नहीं हूं...लेकिन जब राह के कांटे चुभते हैं तो टीस तो होती है...

मेरा कबूलनामा दिल से 4

ये ऐसा जाल है जहां बुरी तरह फंस चुका हूं...लगता है कि नियति खुशियों पर कुण्डली लगा कर बैठी है...एक कदम आगे बढ़ता हूं तो चार कदम पीछे खींच दिया जाता हूं...कुछ सोचना चाहता हूं लेकिन सोचने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं...अपनों के सामने किसी गुनहगार की तरह नजरें चुराने का मन करता है...अपने आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए पेपर के कुछ कोटेशन नोट करता हूं...लेकिन वो भी दिमाग के कोने में ज्यादा देर टिककर नहीं बैठते...घर से मिलने का जी करता है...लेकिन एक घटिया सी नौकरी ( अब मानने लगा हूं क्योंकि दिल्ली में जो काम कर रहा हूं उसने कभी सूकून नहीं दिया) पांव रोक लेती है... हर महीने देर सबेर आशंकाओं के साथ आ जाने वाली सैलरी का कोई सदुपयोग हो सका हो याद नहीं आता... जिस कलम को ताकत समझ कर पत्रकारिता करने उतरा...उसकी स्याही अब सूखने लगी है... लोगों की तकलीफों को समझने की कोशिश अब ऑफिस में होने वाले उठापटक समझने में जाया कर रहा हूं...पढ़ाई में जैसा था उससे तो अंदाजा भी नहीं था की नौकरी कभी मिलेगी भी...लेकिन पहले फीचर एजेन्सी और फिर अखबार में जो कलम घिसी उससे दो पैसे का आदमी बन गया... एक कहानी की छपास ने मीडिया का कोर्स करने के दौरान ही फीचर एजेन्सी के दफ्तर पहुंचा दिया...यही मेरी पत्रकारिता की शुरुआत थी...लेकिन तीन साल बीत जाने के बाद इस वक्त खुद पत्रकारिता के आगे सवाल बनकर खड़ा हूं... खुद को पत्रकार कहने में झिझक महसूस होती है... कहने और सुनने के लिए अब ना तो कुछ मौलिक बचा है...और ना ही वो जज्बा बाकी है कि कुछ नया गढ़ सकूं...जिंदगी कविता की उन अधूरी लाइनों की तरह रह गई है...जहां ठहराव ना होते हुए भी सबकुछ ठहर सा गया है...