मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
शुक्रवार, 23 जनवरी 2009
लखनऊ के ख्यालों में नोएडा
पहले शहर नदियो के आसपास बसा करते थे...जो स्वाभाविक था औऱ जरुरी भी..नदियां इंसान के तमाम मकसद हल कर दिया करती थीं...लेकिन अब शहर बाजार के आसपास बसते हैं...या कहें बसाए जाते हैं...नोएडा के बारे में मेरी सोच कुछ कुछ ऐसी ही है...हालांकि यमुना इस शहर को छूकर गुजरती है...लेकिन उसकी हालत देखकर आपका मन भी उसे नदी मानने से इंकार कर देगा..शायद यहां कोई मानता भी नहीं है...ऐसे में अपने लखनऊ से दूर होने के एहसास के बीच शहर के मायने समझ में आते हैं...हमारे शहर ने हमें अदब की तालीम दी..नवाबों की गंगा जमुनी तहजीब की विरासत है हमारे पास.. मजाज़ लखनवी..अमृतलाल नागर से लेकर श्रीलाल शुक्ल तक का लंबा साहित्यिक सफर तय किया है हमारे शहर ने...आप तहजीब और तमीज के नाम पर इस शहर से कुछ भी मांग सकते हैं..आपको शायद ही मायूस होना पड़े..( अगर होना पड़े तो ये मानिएगा कि वो लखनवी अंदाज तो नहीं है) हमें हमारे शहर ने पाला है..लेकिन नोएडा (उसमे दिल्ली के कई हिस्से भी शामिल हैं.) में आकर अपने शहर से बिछुड़ने का दर्द सालता है...यहां सबकुछ होकर भी काफी कुछ नहीं हैं...इस शहर के पास ना तो इतिहास है...और ना ही इतिहास बनाने की कूबत...( हां आपराधिक इतिहास यहां जरुर रोज बन रहे है निठारी से लेकर आरुषि मर्डर केस तक )..जो शहर प्यास का मोल लगाने लगे उससे ज्यादा बिकाऊ शहर कोई नहीं हो सकता...आप यहां जितने प्यासे हैं उतने बड़े ग्राहक हैं...यकीन मानिए पैसे से ना तो इंसानियत खरीदी जा सकती है...और ना ही खूबसूरत एहसास...यहां जन्मे बच्चों को ना तो रोटी के मायने ही पता हैं...और ना ही धूप में पसीने बहाने वाले किसान की तकलीफ का उन्हें एहसास है...यहां बचपन से बाजार की तालीम मिलती है...समझाया जाता है कि पैसे से पैसे कैसे बनाए जाए...या फिर अथाह संपत्ति को कैसे लुटाया जाए..अब समझ में आता है कि साहित्य से जुड़े लोगों का जमावड़ा होते हुए भी इस शहर में साहित्य की ( खासकर हिन्दी..अंग्रेजी साहित्य पढ़ना तो स्टेटस सिंबल है ) कोई दुकान क्यों नहीं है...यहां रह रहे साहित्यकार हमारे लखनऊ तक में कहीं ज्यादा पापुलर हैं...लेकिन नोएडा और दिल्ली के कुछ इलाकों में उन्हें कोई नहीं जानता...और ज्यादा कड़े अल्फाजों में कहूं तो कोई जानना भी नहीं चाहता...ये सिर्फ मेरी भड़ास हो सकती है...हो सकता है कई लोगो को मेरी ये तकलीफ बेवजह लगे...लेकिन जब एक वक्त की दवाई खाने के लिए पानी मांगने के बजाए १५ रुपए की पानी की बोतल खरीदनी पड़ती है...तो एहसास की कड़वाहट कुछ ज्यादा तीखी हो जाती है...बस गु्स्सा आती है पानी की कीमत पर बाजारू जिंदगी जीने वाले इस नोएडा शहर पर...
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4 टिप्पणियां:
नए बस रहे सभी शहरों का यही हाल है.....पुराने शहरों की तरह वे नहीं होते।
हम भी लखनवी हैं, बहुत सुन्दर प्रस्तुतिकरण
---आपका हार्दिक स्वागत है
गुलाबी कोंपलें
उम्दा आलेख. आप सही कह रहे है.
अच्छा प्रस्तुतीकरण .....
अनिल कान्त
मेरा अपना जहान
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