एक शाम बातें कर रही थी
आने वाली रात से
जाने वाले दिन से
अंधेरा बार बार डराता था
वो बयां करता था
रात की वीरानी को
वो सुनाता था भटके
मुसाफिरों के किस्से
जब उजाले की बारी आयी
तो वो कुछ नहीं बोला
शाम समझ गयी
इस खामोशी का इशारा
कि
उसे भी पार करनी है
ये रात
खामोशी के साथ
मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
शनिवार, 11 अगस्त 2007
संवेदना की मौत
काफी समय पहले पढ़ा था कि आने वाले समय में अच्छा समान तो मिलेगा लेकिन अच्छे लोग नहीं मिलेंगें.तब समझना मुश्किल था लेकिन अब सब समझ में आता है.समान में तो क्वालिटी और वैरायटी आ गयी लेकिन लोगों में वैरायटी गायब होती चली गयी.दुर्घटना को लेकर संवेदना खत्म हुई .बलात्कार की घटनाएं खबर तक सिमट गईं.बमों की आवाज़ें मरने वालों की तदाद से सुनी जाने लगीं.इस बीच हमारी संवेदनाएं ना जाने कब मर गयीं.इन संवेदनाओं का मर जाना खतरनाक था लेकिन उससे ज्यादा खतरनाक था उन संवेदनाओं के बाद भी सांसें लेना.संवेदना की मौत के बाद उसकी कब्र पर उगी पैसा कमाने की भूख जैसे अपने साथ सबकुछ बहा ले गयी.लोग अपना काम छोड़ कर दूसरों के काम में टांग अड़ाने लगे.सबने दूसरों को गाली देकर खुद को काबिल साबित करने की आसान रास्ता खोज लिया.ऐसे में कुछ खामोश हो गये और कुछ जरुरत से ज्यादा बोलने लगे.कुछ का काम इससे भी नहीं चला तो वो उग्र हो गये.लेकिन किसी ने उन संवेदनाओं को टटोलने की कोशिश नहीं कि जो फिराक साहब को अक्सर चुप चुप रह कर रोने को मजबूर करती रही थी.
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