वामपंथ का रास्ता मुझे हमेशा मुश्किल लगा। क्योंकि बहुत तलाशने के बाद भी मुझे वहां धर्म की आड़ में छिपने की जगह नहीं मिली। जाति का वो जंगल नहीं मिला जहां फिजूल का दंभ छिपाया जा सके। गरीबी भूखमरी जैसे सवालो के जवाब में मुझे कोई आध्यात्मिक कोना नहीं मिला। न बड़ी बड़ी यज्ञशालाएं मिलीं जहां बुनियादी सवालों की आहूति देकर पाप से मुक्ति मिल सके। वामपंथ के हर कोने में मैने वो किताबें ही पड़ी देखीं जिनके पन्ने सवालों से टकराते टकराते फट चुके थे। उन किताबों में आईने थे जिसमें हमेशा अपनी शक्ल अजीब सी नजर आईं। किताबों के खुरदुरे पन्नों को छूकर यही महसूस हुआ कि धर्म जाति और झूठे दंभ के बिना हर इंसान, इंसान जैसा ही लगता है। आज इंसान का इंसान जैसा हो जाना ही तो सबसे मुश्किल और 'खतरनाक' विचार है। #वामपंथ_1
उम्मीद है....
मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
सोमवार, 22 मई 2017
रविवार, 16 अक्टूबर 2011
तुम चले जाओगे तो सोचेंगे....

उस आवाज में मैं था, तुम थे, हमारी खामोशी थी, हमारी बेचैनी थी, हमारे फासले थे, हमारी नजदीकियां थी। उन सुरों को छूकर न जाने कितनी बार हमने चांद छुए थे। दर्द के सुरों से हमने न जाने कितनी खामोश रातें काटी थी।
उस आवाज से हमने अपनी मोहब्बत के कितने ताजमहल बनाए और बिगाड़े थे। तुम्हारी आवाज से हम जीते रहे जग जीता रहा। तुम नहीं हो इसका यकीन अभी भी नहीं है। क्योंकि तुम अब भी गुनगुना रहे हो हमारे भीतर कहीं
वो आवाज फुरसत सी थी। ठंडी हवा के एहसास सी थी । गालिब के खजाने को हमारे जज्बातों में बिखेरा था उस आवाज ने कई कई बार। मजाज थी, तो कभी जिगर के अल्फाजों का हुस्न थी वो आवाज। फाजली के दोहे तो कभी नवाज की नजर थी वो आवाज। गुलजार थी हमारी अपनी कैफियत सी थी वो आवाज।
हमे हमारा हक दो...
मेहनत करके भी कोई गरीब कैसे रह सकता है दोस्त?
तुम्हारी तरक्की से ये मेरा सवाल है।
तुमने हमारे पसीने से अपनी तरक्की के रास्ते खोले।
हमारे सपनों को ठगकर तुम हमारा पसीना निचोड़ते रहे।
हमारी मेहनत के घंटो से तुमने अपनी तरक्की की कीमत बढ़ाई।
अब तो हमारे सपने भी खुद की तरक्की के इंतजार बिखरने लगे हैं।
अब हमे उस तरक्की से हमारा हिस्सा चाहिए।
वो तरक्की जिसे तुम अपनी जागीर समझते हो।
क्योंकि उस तरक्की में हमारे मेहनत के घंटे हैं,
पसीने की खुशबू है।
(वॉल स्ट्रीट पर जमा लोंगों की लड़ाई के समर्थन में)
बुधवार, 10 नवंबर 2010
हमारी नजरें उनका चश्मा यानी ओबामा

सोमवार, 27 सितंबर 2010
यूनिवर्सिटी में झकमारी १

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
कयामत के दिन कयामत की रात
बेसिर पैर की बातें। कयामत का दिन कयामत की रातें। ये टीवी के तथाकथित पत्रकारों का नया फार्मूला है। अपनी कमजोर याद्दाश्त को दर्शकों को थोपने की होड़ लगी है। रोज रोज दिल्ली को डूबोते डूबोते टीवी पत्रकारिता को हमने कितना डूबो दिया है इसका एहसास ना किसी को है ना कोई करना चाहता है। सब टीआरपी की सुसाइड रेस में भाग रहे हैं। कोई ये याद करना नहीं चाहता कि खबरें विश्वास के पैमाने पर कसी जाती हैं ना ही टीआरपी के ढोंग के पैमाने पर। ढोंग करके मदारी भी सड़क पर भीड़ जुटा लेता है। क्या कभी ये जानने की कोशिश की गई कि जो आज नंबर वन है लोग उनकी बात पर कितना भरोसा करते हैं। अपनी बातों पर लोगों का भरोसा हासिल करना मुश्किल काम है और इस मुश्किल रास्ते पर चलना कोई नहीं चाहता। सब शार्टकट की तलाश में हैं। अब न्यूज सबसे बड़ी क़ॉमिक ट्रैजडी बन चुके हैं। श्रीलाल शुक्ला के शब्दों में कहें तो कुछ टीवी चैनलों को देखकर यकीन हो जाता है कि उनका जन्म केवल और केवल खबरों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। देखते जाइए ये बलात्कार कब तक चलता है। क्योंकि टीआरपी के फूहड़ आंकड़े से पीछा छुड़ाने की कोशिश कहीं नहीं दिख रही है। और ना तो स्थिति बेहतर करने के लिए कोई शोध ही हो रहा है।
बुधवार, 9 जून 2010
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे

बंद करो अब शोर लगती हैं तुम्हारी ये खबरें
जान चुका हूं तुम्हारे पुते चेहरों पर झल्लाहट का सारा सच
मुझे मालूम है तुम्हारी नेताओं से सांठगांठ की हकीकत
मुझे ये भी पता है कि एक हारी लड़ाई लड़ रहे हो तुम सब
खुद खरोच रहे हो अपने वजूद को अपने नाखूनों से
पैसों की तहों में दब चुकी है तुम्हारी सोच और तुम्हारा प्रोफेशन
मुझे पता है तुम खुद को सुनाने के लिए चीखते हो
मुझे ये भी पता है कि तुम खुद को बचाने के लिए चीखते हो
लेकिन दोस्त तुम्हारी ये चीख
अब दिमाग में हलचल पैदा नहीं करती
सिर्फ और सिर्फ झल्लाहट पैदा करती है
और थोड़ी बहुत तरस पैदा करती है तुम्हारे लिए
तुम्हारे पेशे के लिए
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