रविवार, 16 अक्तूबर 2011

तुम चले जाओगे तो सोचेंगे....


उस आवाज में मैं था, तुम थे, हमारी खामोशी थी, हमारी बेचैनी थी, हमारे फासले थे, हमारी नजदीकियां थी। उन सुरों को छूकर न जाने कितनी बार हमने चांद छुए थे। दर्द के सुरों से हमने न जाने कितनी खामोश रातें काटी थी।
उस आवाज से हमने अपनी मोहब्बत के कितने ताजमहल बनाए और बिगाड़े थे। तुम्हारी आवाज से हम जीते रहे जग जीता रहा। तुम नहीं हो इसका यकीन अभी भी नहीं है। क्योंकि तुम अब भी गुनगुना रहे हो हमारे भीतर कहीं
वो आवाज फुरसत सी थी। ठंडी हवा के एहसास सी थी । गालिब के खजाने को हमारे जज्बातों में बिखेरा था उस आवाज ने कई कई बार। मजाज थी, तो कभी जिगर के अल्फाजों का हुस्न थी वो आवाज। फाजली के दोहे तो कभी नवाज की नजर थी वो आवाज। गुलजार थी हमारी अपनी कैफियत सी थी वो आवाज।

हमे हमारा हक दो...

मेहनत करके भी कोई गरीब कैसे रह सकता है दोस्त?
तुम्हारी तरक्की से ये मेरा सवाल है।
तुमने हमारे पसीने से अपनी तरक्की के रास्ते खोले।
हमारे सपनों को ठगकर तुम हमारा पसीना निचोड़ते रहे।
हमारी मेहनत के घंटो से तुमने अपनी तरक्की की कीमत बढ़ाई।
अब तो हमारे सपने भी खुद की तरक्की के इंतजार बिखरने लगे हैं।
अब हमे उस तरक्की से हमारा हिस्सा चाहिए।
वो तरक्की जिसे तुम अपनी जागीर समझते हो।
क्योंकि उस तरक्की में हमारे मेहनत के घंटे हैं,
पसीने की खुशबू है।
(वॉल स्ट्रीट पर जमा लोंगों की लड़ाई के समर्थन में)