रविवार, 23 दिसंबर 2007

क्यों रुला रहे हो हमें

एक ही विजुअल...बार बार..एंकर की वही आवाज़...आईये हम आपको एक बार फिर से दिखाते हैं...क्या हुआ नच बलिए थ्री के फाइनल में...पहले विजुअल बिना इफेक्ट के थोड़ी देर बाद डबल विंडो में....दर्शक बोर ना हो सो ब्रेक की घोषणा हुई...इस वायदे के साथ की जब लौटेंगें तो आपको सबकुछ ठीक से दिखाएंगें...हां एक ही विजुअल बार बार देखते देखते बोरियत कुछ नए नए क्रिएटिव एड देखकर थोड़ी कम जरुर हुई...ब्रेक के बाद फिर शुरु नाटक...चलिए अब आपको दिखाते हैं कि कैसे रोयीं राखी नच बलिये के फाइनल में...दूसरा चैनल बदला तो पूरी दुनिया पर खतरे की आहट... दो चार मरे मरे से ज्योतिष विचारों में डूबे थे...लगा कि भईया अपना हो या ना हो इनका सबकुछ तबाह जरुर होने वाला है...फिर लौट कर वापस आए तो राखी अभी भी रो रही थीं...सोचा की बताओं रोने को पैसा बटोर रही है और यहां हंसने के लाले पड़े हैं...उधर दूसरे चैनल पर पूरी दुनिया को तबाह करने की मुहिम छिड़ी थी..इसी बीच पलटते पलटते तेलगु चैनल पर नजर थमी...तो एक काला सा हीरो एक साथ सौ लोगों को खुद की हड्डियां चिटका कर डरा रहा था...मैं ना डर जाऊं सो टीवी बंद कर दी...तभी बाहर से जोरदार चिल्लाने की आवाजें सुनाई पड़ीं बाहर देखा तो एक दूसरे को देख लेने की बातें चल रहीं थी...नाली को लेकर लड़ाई चल रही थी...सबकुछ नेचुरल था..क्योंकि टीवी पर नहीं था...आसपास वाले भी बड़े निष्पक्ष भाव सबकुछ देखे जा रहे थे...सभी के चेहरे पर स्वस्थ्य मनोरंजन के भाव रह रह कर उमड़ रहे थे...क्योंकि इस नाटक में ब्रेक नहीं था...विजुअल का रिपिटिशन नहीं था..सबकुछ लाइव

बकबक का मतलब

बहुत दिनों बाद लिख रहा हूं...ये दलील देने के लिए नहीं कि समय नहीं था...ये कहना सरासर झूठ होगा...ये भी नहीं कहूंगा कि व्यस्त था...ये खुद के काम के साथ नाइंसाफी होगी...ये जरुर कहूंगा कि इच्छाशक्ति की कहीं ना कहीं कमी थी...और आज जब लिखने बैठा तो लगा कि पहले प्रयश्चित कर लिया जाए....दरअसल कहने को काफी कुछ था....खुब कहा भी...लोगों से खुब बतियाया भी...लेकिन बोले शब्द बांधे नहीं जाते...वो तो हवा में घुल कर कुछ देर बाद गुम हो जाते हैं...इसलिए...लगा बोलो कम लिखो ज्यादा...शब्द ब्लॉग पर रोज रोज विस्तार लेकर कम से कम परिपक्व तो हो ही जाएंगें...दरअसल बोलने को हर किसी के पास कुछ ना कुछ है...सब बोल रहे हैं...कोई कमाने के लिए तो कोई बरगलाने के लिए...इन सबके बीच में खुद का बोलना पता नहीं चलता...खुद से शायद ही हम बोल पाते हों...क्योंकि दूसरे मौका नहीं देते...सबके पास अपने अपने लॉजिक हैं...हर कोई खुद को सही साबित करने को बोल रहा है...लेकिन सवाल ये है कि इतनी बातों में सुन कौन किसको रहा है...दरअसल जो बोल रहे हैं वो सुनाना चाहते हैं और जो सुन है वो समझना नहीं चाहते...शायद तभी बाबाओं के प्रवचन की गूंज भक्तों के कानों में तभी तक रहती है जबतक बाबा सामने बने रहते हैं...ज्यों बाबा गए उनकी बातें गईं....इतनी बकबक का मतलब था कि बोलो कम लिखो ज्यादा...कम से कम पढ़ने पर खुद से थोड़ी बातें तो हो जाएंगीं....