गुरुवार, 31 जुलाई 2008

बस यूं ही


बारिश एक खूबसूरत शाम की तरह आती् है... और घोल देती है सारी थकान को अपने ठंडेपन के एहसास में...भीगते बच्चे कागज की नाव ना डूबने की जिद लिए घंटो पानी के साथ बहते रहते हैं...यही बारिश की वो खूबसूरती है...वो एहसास है...जो पसीने के बाद राहत की फुहारों के साथ आता है...ये सूकून सबका साझा होता है...

रविवार, 6 जुलाई 2008

लादेन सही तो बुश कहां से गलत...


ये सच है मैने कुछ दिनों से ब्लॉग पर बहुत कुछ नहीं लिखा... जो लिखा साभार लिखा... दरअसल मेरे ख्याल से लिखना तभी चाहिए...जब आप लिखे को अपने अंदर पका लें... जो लिखे वो तर्कसंगत हो...बचकाना ना लगे...पहले पढ़ें फिर अपनी सोच बनाएं...लिखना तो बहुत बाद की बात है...मुझे लगता है मेरे जैसे युवा जिनके अभी तीस के होने में वक्त है... उन्हें बोलने और लिखने से ज्यादा फिलहाल सोचने और पढ़ने लिखने की जरुरत है... और शायद साभार लेखों के जरिए मैने यही कोशिश की है... पाकिस्तान में एक मुस्लिम के मंदिर को बचाने की जंग की कहानी इसी का हिस्सा थी... लेकिन इस लेख पर जो कमेंट आया... वो चौंकाने वाला तो नहीं था...लेकिन अफसोस लायक जरुर था... बंटवारे से लेकर आजतक मुसलमानों को लेकर जो कहा या सुना जा रहा है... उसे लेकर एक आम छिछलापन पूरी सोसायटी में दिखता है... और शायद इसीलिए पाकिस्तान की खुशहाली की बात करने वाला कोई भी इंसान हमारा दुश्मन हो जाता है... और हम बंटवारे और आतंकवाद के लिए उसे ही जिम्मेदार मान बैठते हैं... लेकिन सवाल इससे भी ज्यादा आगे जाते हैं... अगर प्रवीण तोगड़िया या बजरंग दल ठीक हैं तो लादेन कहां से गलत है....अगर सद्दाम सही था तो आप बुश को कहां से गलत कह सकते हैं....दरअसल एक कट्टरता को सही ठहराने की कोशिश में हम दूसरे की अतिवादिता को जाने अनजाने सही ठहरा देते हैं...यहीं से गलती शुरु हो जाती है... हमे समझना चाहिए कि एक की कट्टरता को सही साबित कर दूसरे की कट्टर सोच को गलत कैसे ठहराया जा सकता है...मसलन लादेन को गलत ठहराकर ही आप बुश को गलत साबित कर सकते हैं...जहां तक बात बंटवारे की है... उसके लिए कौन जिम्मेदार है...इस पर बहस काफी पुरानी है...लेकिन मुझे लगता है कि इतिहास को उस वक्त के हालात के बिना ना तो समझा जा सकता है...और ना ही बयां किया जा सकता है...

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

इसे तोगड़ियाछाप लोग ना पढ़े..


( हिन्दुस्तान की सेकुलर छवि... और पाकिस्तान को लेकर नफरत की आग के बीच... ये विहिप और तोगड़िया को करारा जबाब देती खबर है... हिन्दुस्तान में बाबरी मस्जिद को गिराना भले विहिप और बजरंग दल के लिए गौरव की बात हो...लेकिन पाकिस्तान में एक मुस्लिम मंदिर को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है... ये ख़बर इंसानियत औऱ धर्म के ऐसे दुश्मनों के लिए सबक से कम नहीं है...ये ख़बर http://www.hindimedia.in/से साभार ली गई है... आप इस खबर को देखने के लिए सीधे इस लिंक पर भी जा सकते हैं..http://www.hindimedia.in/content/view/2636/134/)
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पाकिस्तान के लाहौर में एक मुसलमान वहाँ पाकिस्तानी सरकार द्वारा गिरा दिए गए एक मंदिर को फिर से बनाने के लिए लड़ाई लड़ रहा है। चौधरी रहमत अली गुज्जर अपनी यह जंग अकेला ही ल़ रहा है, 1947 में भारत के बँटवारे के समय उसके पिता को पाकिस्तानी सरकार और पाकिस्तानी मुसलमानों ने मंदिर और हिंदुस्तानियों को बचाने के ‘अपराध’ में जेल में डाल दिया था और उनको इतनी यातना दी गई कि जेल में ही उनकी मौत हो गई। बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान लाहौर में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में अलग-अलग शहरों में मौजूद कई मंदिरों को तोड़ दिया गया था। लेकिन लाहौर के बाबा माहर दास मंदिर को गिराने पहुँचे दंगाइयों को चौधरी रहमत अली ने अपने साथियों की मदद वहाँ से खदेड़ दिया था, तब तो चौधरी ने मंदिर को बचा लिया, मगर पाकिस्तान के कट्टरपंथी मुसलमानों को यह मंदिर खटकने लगा था। पाकिस्तान में स्थित हिन्दू मंदिरों के लिए शोध कर रहे इतिहासकार सुरेन्द्र कोचर अपनी शोध के सिलसिले में कई बार पाकिस्तान जा चुके हैं। जब उनकी मुलाकात इस पाकिस्तानी युवक से हुई तो उसने कहा कि हमारे घर और हवेली पर माँ साहिब (मां शेरां वाली) का पहरा है। माँ शेरावाली, भगवान कृष्ण और गुरुनानक देव जी हमारे सांझा पैगंबर हैं।लाहौर वच्छूवाली मोहल्ले में स्थित 325 साल पुराना बाबा मेहरदास का यह मंदिर 9 मार्च 2006 को कट्टरपंथी मुसलमानों ने हिंदुओं की संपत्ति के रखरखाव के लिए बने सरकारी विस्थापक ट्रस्ट संपत्ति (इवैक्यू ट्रस्ट प्रापर्टी) बोर्ड की मिलीभगत से गिरा दिया था। 28 मई 2006 को डॉन अखबार में खबर छपी कि व्यापारिक स्थल बनाने के लिए मंदिर गिरा दिया गया। इन मंदिरों की जमीन पर लाहौर के एक बिल्डर की निगाहें लगी हुई थी। बिल्डर ख्वाजा सुहैल नसीम ने स्थानीय प्रशासन और पाकिस्तान के पुरातत्व विभाग से मिलीभगत कर कर मंदिर वाली जगह पर पाँच मंजिली प्लाजा बनाने की योजना बना ली। एक रात ख्वाजा सुहैल अपने गुर्गों, खुफिया एजेसियों और फौजी अधिकारियों को लेकर आया और चौधरी को उसके ही घर में नजरबंद करके मंदिर को गिरा दिया। वच्छूवाली विभाजन के पहले अमीर हिन्दुओं की बस्ती थी और उन लोगों ने ही यहाँ कई मंदिर भी बनवाए थे। पाकिस्तान के कट्टरपंथी मुसलमानों ने पाकिस्तान सरकार की मौन स्वीकृति से इन सभी मंदिरों को नष्ट कर दिया। इन मंदिरों में 1680 में बने मंदिर बाबा माहर दास का विशेष महत्व था। इसके प्रवेश द्वार पर हनुमान जी की मूर्ति थी। अंदर राधा-कृष्ण और राम दरबार की मूर्तियाँ थीं, और इन मूर्तियों पर करोड़ों रुपेय की कीमत के कीमती आभूषण थे।
इससे संबंधित खबरें पाकिस्तान के अंग्रेजी अखबार ने प्रमुखता से प्रकाशित की है। उनकी लिंक यहाँ उपलब्ध है।
http://www.dawn.com/2006/05/28/nat23.htm
http://www.dawn.com/2006/06/13/nat16.htm
http://www.shaivam.org/siddhanta/toi_pakistan.htm
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साभार....http://www.hindimedia.in/

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

परमाणु समझौते का नफ़ा-नुकसान

(ये लेख बीबीसी से साभार लिया गया है...परमाणु करार की जटिलता इस लेख से कुछ हद तक सुलझती है...अगर इस मसले पर सरकार गिरती है तो आने वाले समय में ये चुनावी मुद्दा बनेगा... और तब इस मसले में दिलचस्पी ना लेने वालों को भी इसकी बारीकियों को समझना ही पड़ेगा..इस लेख के लिए हम आप बीबीसी की इस लिंक http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/08/070818_nuclear_vivechana.shtml पर भी सीधे जा सकते है...)
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भारत और अमरीका के बीच दो साल तक कई दौर की बातचीत, गहन-चर्चा और विचार-विमर्श के बाद असैन्य परमाणु सहयोग समझौता हो गया है. परमाणु सहयोग समझौते पर दोनों ही देशों में विरोध की आवाज़ें उठ रहीं हैं. सवाल यह है कि यह समझौता भारत के लिए क्या मायने रखता है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में कहा था कि चाहे कुछ भी हो, अमरीका के साथ हुआ समझौता रद्द नहीं होगा. प्रधानमंत्री का यह बयान अब उनके लिए एक राजनीतिक मुसीबत बन गया है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(यूपीए) सरकार पर संकट के बादल गहराने लगे हैं. वामपंथी दलों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि यूपीए से उनके रिश्ते टूटने की कगार पर हैं. यूपीए से संबंधों पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नेता प्रकाश कारत कहते हैं कि खटास तो आई है लेकिन अभी तलाक़ का वक़्त नहीं आया है. वहीं विपक्षी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) और संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन(यूएनपीए) या तीसरे मोर्चे को प्रधानमंत्री जयचंद की तरह नज़र आ रहें हैं जो अपने स्वार्थ के लिए देश हित को ताक पर रख रहें हैं.
फ़ायदा-घाटा
इस समय यह समझना होगा कि भविष्य में इस समझौते से देश को क्या नफ़ा-नुकसान होगा. सबसे पहला सवाल यह उठ रहा है कि क्या समझौते को मानकर भारत ने परमाणु परीक्षण करने का अपना विशेषाधिकार गंवा दिया है क्योंकि परीक्षण करते ही समझौता रद्द हो जाएगा. विज्ञान पत्रिका 'साइंस' के पत्रकार पल्लव बागला कहते हैं, “इस समझौते को दो लोगों के बीच हो रही शादी की तरह समझना चाहिए. अब शादी होने पर तलाक़ का भी डर होता है. आप तलाक़ के डर से शादी ही न करें ऐसा ठीक नहीं है. अगर आप आगे ही नहीं बढ़ना चाहते तो फिर तो आप बढ़ ही नहीं सकते और 1970-80 के दशक की पुरानी तकनीक में ही फँसे रह जाएँगे.” इस 123 समझौते में परीक्षण पर उठ रहे सवालों पर सरकार का कहना है कि फ़िलहाल हमें परीक्षण की ज़रूरत नहीं है और परीक्षण के समय हम उस स्थिति से भी निपट लेंगे. पोखरण में हुए परमाणु परीक्षण से जुड़े वैज्ञानिक के संथानम कहते हैं, “भविष्य में हम दोबारा परमाणु परीक्षण कर तो सकते हैं लेकिन उसके परिणाम और प्रभावों को भी देखना होगा. जैसे मई,1998 में लोग कहते थे कि इसके परिणाम और प्रतिबंध इतने भारी होगें कि हम मुसीबत में फँस जाएँगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था मज़बूत थी. समझौते को लेकर अगर विचारधारा के स्तर पर बात करेंगे तो हम इसी तरह विवाद करते रहेंगे.” के संथानम तो इस मुद्दे पर संतुष्ट दिखते हैं लेकिन दूसरे वैज्ञानिक इस करार से संतुष्ट नहीं हैं.
समझौता
कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि 123 समझौते में मुद्दा परमाणु परीक्षण करने के अपने अधिकार को किसी दूसरे देश के हाथों में सौंपने का है. सामरिक मामलों के जानकार भरत कर्नाड इस समझौते का विरोध कर रहे हैं. भरत कर्नाड कहते हैं, “मनमोहन सिंह अपने ही एजेंडे पर चल रहे हैं. वो चाहते हैं कि किसी भी तरीके से परमाणु सहयोग को बढ़ावा मिले. प्रधानमंत्री दूर की नहीं सोच रहे हैं. वो अपनी इस बात की रट लगाए हैं कि हमें निकट भविष्य में परमाणु परीक्षण की ज़रूरत नहीं है और जब तक ज़रूरत नहीं है तब तक परमाणु सहयोग जारी रहे.” भरत कहते हैं, “ परमाणु हथियार विकसित करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें परीक्षण करना ही पड़ेगा. जिन हथियारों के 1998 में परीक्षण हुए थे, उन सबके डिज़ाइन परीक्षण में कामयाब नहीं हुए थे. जैसे थर्मल न्यूक्लियर डिवाइस (जिसे हाईड्रोजन बम भी कहते हैं) की डिज़ाइन परीक्षण में ठीक से सफल नहीं हुई थी. मामला यही है कि आप परीक्षण कब करेंगे. ऐसा तो नहीं है कि अब परीक्षण करना ही नहीं हैं.” इससे साफ होता है कि इस समझौते का असर भारत के सामरिक कार्यक्रमों पर पड़ेगा. हालाँकि इस समझौते के समर्थक कहते हैं कि समझौते में इस बात पर ध्यान दिया गया है कि कहीं ऐसा न हो कि परमाणु परीक्षण होने की दशा में फौरन सभी परमाणु संयंत्र बंद हो जाएँ. परीक्षण से पहले एक साल का नोटिस दिया जाएगा और अमरीका इस बात की जाँच करेगा कि ऐसी कौन सी परस्थितियाँ हैं जिनमें भारत को परमाणु परीक्षण करना पड़ रहा है और यह निर्णय सही है या नहीं?
यहाँ एक बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या अब अमरीका यह तय करेगा कि भारत के परमाणु परीक्षण करने का फ़ैसला सही था या नहीं?
तकनीकी
वामदलों या भाजपा को इस सवाल पर कहना है अमरीका को यह अधिकार नहीं दिया जा सकता. कुछ जानेमाने वैज्ञानिक भी इसे अमरीका के चंगुल में फँसना बता रहे हैं.
लेकिन परमाणु समझौते के लागू होने पर कुछ फ़ायदे एकदम से नज़र आने लगेंगे. ये ऐसे फ़ायदे हैं जो वैज्ञानिकों और उच्च तकनीक क्षेत्र में काम करने वालों के लिए अहम होंगे. इस बारे में पल्लव बागला का कहना है, “भारत पर 1974 के बाद से तकनीकी प्रतिबंध लगे हुए थे और देश का वैज्ञानिक ढांचा उन्नत तकनीकी से पूरी तरह अछूता रह गया था. भारत पर अंतरिक्ष और कंप्यूटर जैसे उच्च तकनीकी वाले क्षेत्रों में प्रतिबंध लगा हुआ था. वो कहते हैं, "दूसरी बात यह है कि परमाणु अप्रसार संधि(एनपीटी) पर हस्ताक्षर न करने के बावजूद भारत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बैठने के लिए एक सीट तो मिल ही रही है. शुरू में आपको बैठने के लिए कुर्सी की जगह स्टूल ही मिल रहा है. लेकिन आपको वहाँ बैठने की जगह तो दी ही जा रही है. यह अपने आप में एक बहुत बड़ा फ़ायदा है." लेकिन भरत कर्नाड का मानना है कि हमें परमाणु समझौते से यह आशा बिल्कुल नहीं करनी चाहिए कि इससे भारत कोई विश्वशक्ति बन जाएगा और शायद प्रधानमंत्री यथार्थ नहीं देख पा रहे हैं. भरत कर्नाड कहते हैं, “प्रधानमंत्री और उनकी नीति के समर्थक जो मीडिया में भारी संख्या में मौजूद हैं उन सबका मानना है कि अगर हम अमरीका के नज़दीक हो जाए तो अमरीका हमें एक बड़ी शक्ति बनने में मदद करेगा. एक बड़ा मुल्क़ दूसरे मुल्क़ को अपने अधीन बनाने की ही कोशिश करता है."
वो कहते हैं, "अमरीका साफ-साफ कह रहा है और अमरीकी कार्यपालिका और उनके हाइड एक्ट में भी कहा गया कि भारत को परमाणु परीक्षण करने की स्थिति में तकनीकी भी नहीं मिलेगी. हम जो ईंधन आधारित उच्च तकनीकी हस्तांतरण की बात कर रहे हैं वो कुछ भी नहीं मिलने वाला.” भरत कर्नाड यहाँ तक कहते हैं, “मुझे तो ऐसा लग रहा है कि मनमोहन सिंह और जॉर्ज डब्ल्यू बुश के बीच व्यक्तिगत संबंध इतने अच्छे हैं कि मनमोहन सिंह बाकी सब कुछ भूल बैठे हैं और वो राष्ट्रीय हितों को छोड़कर व्यक्तिगत हित देख रहे हैं.”इस पूरी बहस में किसी का ध्यान इस ओर नहीं है कि यह असैन्य परमाणु ऊर्जा समझौता है और भारत की ऊर्जा ज़रूरतें कितनी हद तक पूरी करेगा. ज़्यादातर लोग यह मानते हैं कि यह समझौता भारत की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने के लिहाज़ से काफ़ी नहीं है और कभी भी पूरे देश में कुल बिजली उत्पादन में परमाणु बिजली का हिस्सा पाँच से 10 फ़ीसदी से अधिक नहीं होगा. के संथानम का मानना है कि इस समझौते से भारत की यूरेनियम की ज़रूरत कुछ हद तक पूरी होगी.
बाज़ार
यूरेनियम मूँगफली की तरह खुले बाज़ार में तो खरीदा नहीं जा सकता इसलिए बिना परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए इस समझौते से ही भारत यूरेनियम बाज़ार से खरीद सकेगा. जानकार इस ओर भी इशारा कर रहे हैं कि इस परमाणु संधि के साथ व्यापार हित न जुड़ें हो, ऐसा हो ही नहीं सकता. अंग्रेज़ी अख़बार 'बिज़नेस स्टैंडर्ड' के शांतनु गुहा रे कहते हैं कि व्यापार जगत की इस समझौते पर विशेष नज़र है.
वो कहते हैं, “अगर परमाणु समझौता हो जाता है तो हमारे देश में परमाणु संयंत्र लगाने के लिए काफ़ी विदेशी तकनीकी की ज़रूरत होगी. ऐसी तकनीकों को विकसित करने के मामले में बाकी दुनिया के मुक़ाबले अमरीकी कंपनियाँ काफ़ी आगे हैं. अमरीका यह उम्मीद कर रहा है कि वह अगले बीस वर्षों में भारतीय बाज़ार से कम से कम 150 बिलियन डॉलर का व्यवसाय करे.” लेकिन के संथानम का मानना है कि अमरीकी उद्योग के फ़ायदे के लिए ही समझौते पर ज़ोर दिया जा रहा हो, ऐसा नहीं है. उनके अनुसार फ़िलहाल अमरीकी उद्योग यह फ़ायदा उठाने की स्थिति में नहीं है. के संथानम कहते हैं, “अगर भारत में परमाणु संयंत्र स्थापित होंगे तो मुख्य रूप से फ़ायदा रूस और उसके बाद फ्रांस को होगा. मुझे नहीं लगता कि अमरीका को इससे फ़ायदा होगा क्योंकि पिछले 30-35 वर्षों से अमरीकी परमाणु बाज़ार सुस्त है. उसने कोई भी परमाणु रिएक्टर नहीं बनाया है. जबकि फ्रांस और रूस ने इस क्षेत्र में प्रगति की है. हमें समझौते का विश्वासपूर्वक स्वागत करना चाहिए.”फ़िलहाल इस समझौते पर राजनीति हावी हो गई है. वामपंथी दल जो पहले भारत के परमाणु परीक्षणों के ख़िलाफ़ बोलते रहे हैं अब इस अधिकार के छीने जाने के डर से चिंतित हैं. भाजपा जिसने इस समझौते की नींव रखी, आज उसकी क़ब्र खोदना चाहती है. उसे इस मुद्दे पर यूपीए सरकार गिरती हुई और मध्यावधि चुनाव नज़र आते हैं. लेकिन भारत की आम जनता के लिए यह अभी भी कोई मुद्दा नहीं है. परमाणु मुद्दे पर विचारधारा और व्यावहारिकता के बीच झूल रहे प्रतिपक्ष का विरोध महज औपचारिकता है या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के परिपक्वता की निशानी?